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पहाऊँ ( १५० )
पाइमाल पहाऊँ--संज्ञा, स्त्री० [देश॰] सुबह, प्रभात । पाँइचे संज्ञा, पु० [फा० पायचा] पायजामे की उदा० जा लगि लाँच लुगाइनि दै दिन नाच नचा- मोहरी । वत सांझ पहाऊँ ।
--केशव उदा० घेरदार पांइचे, इजार कीमखापी ताप, पहासरे-संज्ञा, पु० [हिं० पह, पौ] पौ, चांदनी
पैन्हि पीत कुरती रती को रूप लीपे हैं । उदा० चन्द के पहासरे में माँगन मैं ठाढ़ी मई,
-ग्वाल पाली तेरी-जोति किधी चाँदनी बिछाई है। पांउरी-संज्ञा, पु० [हिं० पाँव+री] १. जूता
-गंग २. बैठक, दालान (हिं० पौरि)। पहरावनि--संज्ञा, स्त्री० [हिं० पहनना] सिरो- उदा० सीरक अधिक चारि ओर अवनी रहै न पाव, खिलअत ।
पाँउरीन बिना क्यौंहूँ बनत घनीन कौं । उदा० के सब कंस दिवान पितान बराबर ही
--सेनापति । पहिरावनि पाई।
--केशव पांवड़ी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० पाँव+री (प्रत्य॰) पहीति-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रहित ] पकी हुई । जुता, पदत्राण । दाल ।
उदा० लकुट रंगीन पीतपट धोती । पगन पांवड़ीउदा० १. मूंग माष अरहर की पहिती चनक
कानन मोती।
-बोधा कनक समदारी जी।
-रघुराज पांवर-वि० [सं० पामर] मूढ़, २ दुष्ट । २. षट भाति पहीति बनाय सची। पुनि उदा० अकुल कुलीन होंत पांवर प्रवीन होत, दीन पांच सो व्यंजन रीति रची। --केशव
होत चक्कवै, चलत छत्र छाया के। -देव पहु-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाद, हिं० पौ] ज्योति, पांवरी--वि० [सं० पामर] तुच्छ, नगण्य, अधम प्रकाश । २. [पौ फटना-सुबह होना, प्रातः उदा० पाँवरी पेवरी ता छिन त दुतिकंचन की मन काल ।
रंच न लैहै।
--द्विजदेव उदा० १. आज सखी हम इम सुन्यो, पहुफाटत पाँह-अव्य० [सं० पाव], पाश्र्व बगल । पिय गौन ।
-समा विलास उदा० बाँह दै सीस, उँमाह दे नैनन, पाँह दै प्रोट, २. पहिलैं तो भयो पह को सो उदो कह
पनाह दै नाहै।
-द्विजदेव सुंदर मंदिर के चहुँ ओरनि। -सुंदर पाइ-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाद] १. किरण २. पहुरनी--संज्ञा, स्त्री० [सं० प्राहुण ] पाहुनी, पैर। अतिथि।
उदा० कब दिन दुलह के अरुन-बरन पाइ, पाइ हौं उदा० साँझ ही तें सोई कहा, काहू की पहुरनी
सुभग, जिन पाइ पीर जाति है। है, सोवनी जु कीनी करता सों कहा
-सेनापति करिये।
-पंग पाइते-संज्ञा, पु० [सं० पाद+हि. तम] पैर की पहुला--संज्ञा, पु० [सं० प्रफुला ] कुमुद पुष्प, __ ओर, गोड़िहाने, पइताने । कोंई।
उदा० जो पल मैंपल खोलि कै देखों तो पाइते बैठ्यो उदा० पहला हार हिये लसै सनकी बेंदी माल ।
पलोटत पाइन ।
-सुन्दर -बिहारी पाइपोस-संज्ञा, पु० [फा० पापोश] जूता, पदपहेल-संज्ञा, पु० [हिं० पहला] १. किसी काम घाण का प्रारम्म, शुरुवात । २. हटाने या दूर करने उदा० सेनापति निरधार, पाइपोस-बरदार, हौं की क्रिया [सं० प्रखेट] ।
तो राजा रामचन्द जू के दरबार को। उदा० ग्वाल कवि बाहन की पेल में, पहेल में, के
--सेनापति बातन उचेल में, के इलम सफेल में ।
पाइमाल-वि० [फा० पामाल, पा=पैर+
-ग्वाल माल-कुचलना] पददलित, पैरों से रौंदा हुप्रा । पहेलना-क्रि० स० [सं० प्रखेट] भगाना, हटाना [पामाली-संज्ञा] दूर करना।
उदा. भूषण जौ होइ पातसाही पाइमाल औ उदा० केसर सुरंगह के रंग में रंगौगी आजु और
उजीर बेहवाल जैसे बाज त्रास चरजें। गुरलोगन की लाज को पहेलिबो ।
-भूषण -किशोर । छाती छाज नखलीक प्रकट कपोल पीक,
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