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सरसना ( २१५ )
ससना सरसना-क्रि स० [सं० सरस+न] बढ़ना, | सरोट-संज्ञा, पु० [हिं० सिलवट] कपड़ो में संबधित होना।
पड़ी हुई शिकन । उदा० मन मांझ नेम सौ मनोज सरस्यौ करो। । उदा० चुप करिए, चारी करत सारी परी सरोट । -सोमनाथ
बिहारी सरसार-वि० [फा० सरशार] निमग्न, निम- सरौटी-संज्ञा, स्त्री० [सं० शिल+हिं० प्रौटी ज्जित ।
प्रत्य०] सिलौटी, पाषाण खंड जिस पर मसाला उदा. कहै पद्माकर सुगंध सरसार बेस बिथुरि । पादि पीसा जाता है। बिराजै बार हीरन के हार पर ।
उदा० पीढ़ा, पलिङ्ग मचान दुसेजा तखत -पद्माकर सरोटी।
-सूदन सरसाल-वि.[फा० सरशार] १. उन्मत्त, सर्भ-संज्ञा, पु० [सं० शरम] १. हाथी का बच्चा
मस्त नशे में चूर २. छलकता, हुमा, परिपूर्ण । . राम की सेना का एक बंदर ३. टिड्डी ४. उदा० १. जानतु मेरो कठोर हियो जू किया
शेर। सरसाल मनोज ने झाँकी । नैननि में, घट उदा० १. इक कर्म पै इक सभ पै खर अर्म पै मैं अटकी खटकं वह बाकी बिलोकनि
सतुरंग पै ।
-समाधान बांकी।
--सोमनाथ सल-संज्ञा, स्त्री० [सं० शल्य] शूल, पीड़ा २. सरांग-संज्ञा, स्त्री० [सं० शलाका] खंभा, लोहे माला। की छड़ ।
उदा० पाठ सदा पटरानी लगै हिये, तापै मनोभव उदा० चीकनी सुहाग नेह हेम की सराँग पर प्रेम __की न कटै सल ।
-बेनी प्रवीन पाउ परत न राह रपटन की। -देव सलाक-संज्ञा, पु० [सं० शलाका] तीर, बाण । सरासेत-वि० [फा० सरासर+ हिं. सेत-श्वेत] उदा० शुद्ध सलाक समान लसी अति रोषमयी दुग पूर्णतया, प्रकाशमय ।
दीठि तिहारी।
-केशव जमी० साँस लेत सरस सम उदा० साँस लेत सरसे समूहन सुगंध लेत सारी
सलुंभ संज्ञा, पु० [सं० लोभ लालच, लोभ । की सिरी सों सरासेत मग ह रहै।-पद्माकर
प दमाकर
उदा० रतन सुतन अवलोकि लोक पतिमान सलंसरीकिनि-संज्ञा, स्त्री० [अ० शरीक] साथ देने
महि ।
-मतिराम वाली, सहेली, सखी।
सलूक संज्ञा, पु० [सं० सालोक्य ] सालोक्य, उदा० देखन दे हरि को भरि नैन घरी किन एक वह मुक्ति जिसमें मुक्त जीव ईश्वर के साथ एक सरीकिनि मेरी ।
लोक में वास करता है। सरीसृप-संज्ञा, पु० [सं०] सर्प, साप, २. रेंगने उदा० बरी ही वियोग बिरहागिन-मभूकन में, वाला जंतु ।
ता पर सलूक लूक लाखन दियो चहै । उदा० छद्र मति छीछी को, समुद्र रुद्र रोर घोर
-ग्वाल बीछी बिग केसरी करी सरीसृपन को। -देव सलोट दे. सरोट ।। सहखाई-वि० [फा० सर=पराजित] पराजित, | सलोनो-संज्ञा, पु० [बुं० ] श्रावण पूणिमा का दमित, वशीभूत ।
दिन, रक्षाबंधन, कजली का त्योहार । उदा० मुख की रुखाई सनमुख सरुखाई, परुखाई उदा० माजु शुभ सावन सलोनो की परब पाय, यों न पाई सुरुखाई सुरुखाई सी । -देव
अंग, अंग सुभग सिंगारन बनैहीं मैं ।- ठाकुर सहक-संज्ञा, पु० [?] अनुमान, अंदाज २. सवागनि वि० [सं० सौभाग्य ] सौभाग्यवती सलूक, पाचरण, व्यवहार [अ०] ।
सोहागिनी । उदा० जानत है कि न जानत हैं कोई यों न जरै उाद जब तें इन सौत सवागनि ने मुखसों मुख नर नारि सरूकन ।
–ठाकुर जोरि लियो रस री। - --रसखानि सरोकदार-वि० [फा० सुखं+दार] लालरंग ससना--क्रि० स० सं० श्वास 1दख की सांस वाले, सुर्खदार, रक्तिम ।
लेना, सुसकना, पाहें मरना, उसास लेना । उदा० चंचल चलाक चारु चौंपन चटक भरे, उदा० जैसे मीन बिनु जल क्यौंहूँ न परति कल चोंकत चमं चलें सजल सरोकदार।
सुंदर विकल भई वेसुधि ससति है। -ग्वाल
-सुन्दर
-देव
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