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समोरध
खिनि माझ।
-बिहारी समौरध-संज्ञा, पु० [सं० सम् +ऊर्द्ध] ऊपर,
स्वर्ग । उदा० रेफ समौरध जाहिर बास सवारहि जा धरमौ सफरे ।
-दास सयान-संज्ञा, पु० [सं० सज्ञान] १. सयानपन,
कौशल २. संचान, या बहरी नामक बाज । उदा० सामाँ सेन, सयान की सबै साहि के साथ। बाहुबली जयसाहिजू, फते तिहारै हाथ ।
-बिहारी सर-संज्ञा, पु० [हि. सरकंडा] १. सरकंडा, सरपत जैसा एक पौधा जिसकी कलम बनाई जाती हे। २. सरा चिता । उदा० १. रंग बनावत अंग लगे सर ल्यावत लेखनी काज नये ।
-तोष कागज गरे मेघ, मसि खूटी सर दब लागि जरे । २. कैतो सूख सेज के संजोगी सरसेज पग
जावक कि पावक सजोगी सीव लोक की ।
-देव सरक-संज्ञा, स्त्री० [सं०] नशा की लत, शराब
आदि पीने की आदत । उदा० प्रेम सरक सबके उर सलै । ब्रजमोहन बन कों जब चलै ।
-घनानन्द सरकसी-वि० [?] कठोर, नीरस, शुष्क । उदा० बात सरकसी रसह में कवि भषन तो बालम सों बौरी बरकसी कीजियतु है।
भूषण सरकोस-संज्ञा, पु०[शरकोश] तरकश, तूणीर । उदा० सरकोस कसै करिहां जु घरें धनु बानु मनोजहुँ के अवतार ।
-केशव सरदन-वि० [फा० सर्द +-हिं० न] मंद, सुस्त उदा० थिगरी न लागै ऊधो चित्त के चंदोवा फटे,
बिगरी न सुधरै सनेह सरदन को।-ठाकुर सरता-संज्ञा, स्त्री० [सं० शर 1 तीरंदाजी, बाण चलाना । उदा० छोड़ि दई सरता सब काम मनोरथ के रथ की गति खुटी ।
--केशव सरना-क्रि० अ० [प्रा. सरण] १. गमन करना, व्याप्त होना २. समाप्त होना, बीतना ३. होना। उदा० १. बाहर हू भीतर प्रकास एके पास पास पवन ज्यों गृह बन भुवन तिहू सरो।
---देव
सरसई २. पूरन इंदु मनोज सरो चितते बिसरो उसरो उन दोऊ ।
-देव ३. कंस रिपु अंस अवतारी जदुबंस, कोई, कान्ह सो परम हंस कहै तौ कहा सरो ।
-देव सरफ--वि० [?] लज्जित, संकुचित । उदा० देखे मुख चंद द्य ति मंद सी लगत प्रति - लोचन बिलोके मृग शावक सरफ है।
--'शृगार संग्रह' से सरबटना-क्रि० अ० [हिं० सरबंस] १. छिन्न- मिल करना, तहस-नहस करना । उदा० ऋद्ध दसानन बीस कृपाननि लै कपि रीक्ष ___ अनी सरक्ट्टत ।।
-दास सरबत-वि० [सं० शर+वत् (प्रत्य॰)] १. बाण की भांति २. शरबत, पेय पदार्थ ।। उदा० १. ये बीरी बगारि, बरे ये बीरी समीर बैरी, सीरो सरबत री उसीरो सरबत री।
-देव सरल-संज्ञा, पु० [सं०] देवदार का वृक्ष । उदा० ताल त्यों तमाल साल सरल रसाल जाल फालसे फरदते फराक फूलनार है।
-नंदराम सरवा-संज्ञा, पु० [सं० शरावक] १. प्याला, कसोरा, संपुट २. दिया । उदा० १. करवा की कहाँ पंग तरवा न तीते होहिं, सरवा न बूई परवाह नदी नारि के।
-गंग सरवानी--संज्ञा, स्त्री० [?] ऊंट चलानेवाली उदा० सरवानी विपरीत रस किय चाहै न डराइ
दुरै न विरहा को दुर्यो, ऊँट न छाग समाइ ।
-रहीम सरस-वि० [सं०] १. बढ़कर, अधिक, ज्यादा
२. रसयुक्त ३. गीला ४. सुंदर ५. मधुर । उदा० १. दरसकिए तें प्रति हरस सरस होत, परम पुनीत होत पदवी सुरेस की।
-वाल तैसेइ समीर सुभ सोभै कवि द्विजदेव सरस पसमसर बेधत बियोगी गात ।
-द्विजदेव सरसई-संज्ञा, स्त्री० [सं० सरस ] गीलापन,
पा,ता। उदातिय निय हिय जु लगी चलत पिय नख
रेख खरोंट, सूखन देति न सरसई, खोटि खोंटि खत खोट ।
-बिहारी
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