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ग्रहण करने के लिये इन कोशों के अतिरिक्त कुछ अतिशय पुराने कोशों को भी देखना पड़ा है। इनमें श्री धर भाषा कोश [सन् १८७४ ई० में नवल किशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित] 'फैलन कोश' तथा प्लाटस कोश [सन् १८८४ में लंदन से प्रकाशित] मुख्य हैं । संस्कृत के जिन प्राचीन कोशों को मुझे देखने का अवसर मिला है उनमें' अभिधान चिन्तामणि कोश, अमरकोश एवं मेदनी कोश, प्रमुख हैं।
. "रीतिकाव्य-शब्द कोश" के अन्तगर्त लाला भगवान दीन, पं० कृष्ण बिहारी मिश्र, मिश्रबन्धु महोदय एवं प्राचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र प्रादि के सुस'पादित ग्रन्थों की टिप्पणियों को भी लिया गया है, किन्तु जहाँ इन संपादकों की टिप्पणियां मुझे अधिक संन्तोषप्रद नहीं प्रतीत हुई, उन्हें यथावत् न ग्रहण करके उन पर नये सिरे से विचार करना पड़ा है। अतः मैं इन पूर्ववर्ती विद्वान संपादकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनके सहयोग के अभाव में अभीष्ट लदय की सपूर्ति संभव न थी।
वस्तुत: कोश-रचना की दिशा में मेरा यह प्रथम प्रयास है, अतः इस कार्य में होने वाली संभाव्य त्रुटियों एवं भ्रांतियों से मैं इनकार नहीं कर सकता है । हां, सुविज्ञ पाठकों पौर विपश्चितों को इस लघु प्रयास से यदि थोड़ा भी प्रसादन हो सका तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझंगा और पुन: इससे प्रेरित होकर मक्ति-काव्य कोश की भी रचना में निरत होऊँगा।
कोश की रूपरेखा प्रस्तुत करने में मुझे पूज्य पं० उमा शकर जी शुक्ल से अमित सहायता मिली है, मैं इसके लिए उनका चिरबाधित हूँ। इस कार्य में मुझे मथुरा निवासी भादरास्पद श्री प्रभु दयाल जी मीतल से भी अत्यधिक प्रोत्साहन मिलता रहा है। मैं उनकी ऐसी अकारण एवं सहज कृपा के लिए उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूँ। पूज्य पं० विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र तो प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः दोनों ही रूपों में मेरे शुभचिन्तक रहे हैं । अतः धन्यवाद देकर उनकी शुभचिन्तना की गुरूता को हलका नहीं करना चाहता ।
बन्धुवर डा० किशोरी लाल गुप्त, प्रिंसिपल जमानिया हिन्दू डिग्री कालेज को भी धन्यवाद देता हैं जिन्होने पत्र द्वारा अपने मार्मिक सुझावों से मुझे लाभान्वित करने की कृपा की है। पूज्यवर डा. रघवंश एवं मान्यवर डा. जगदीश गुप्त के तथ्यपूर्ण परामर्शो की उपेक्षा कैसी की जा सकती है, प्रतः नतमस्त होकर उनकी कृतज्ञता को स्वीकार करता हूँ।
डा० पारसनाथ तिवारी, डा मोहन अवस्थी एवं डा. राजेन्द्र कुमार को हृदय से धन्यवाद देता हूँ जिनसे विवादास्पद शब्दों पर परामश करने का मुझ महाध अवसर प्राप्त हुआ है । मित्रवर सन्त लाल जी तो मेरे बचपन के हितैषी हैं और मुझे वे ही काम आते हैं जब मैं पूर्ण निराश हो जाता हूँ, अतः धन्यवाद द्वारा उनके महत्व का घटाना मुझे वांछनीय नहीं है । इसके अतिरिक्त ज्ञात अज्ञात सभी सज्जनों को धन्यवाद देता हूँ जिनसे किसी भी प्रकार का सहयोग कोश-निर्मिति के सम्बन्ध में मिला है। अन्त में विद्वानों से मेरा यही नम्र निवेदन है कि यदि इसमें किसी भी प्रकार की त्रुटियाँ मिले तो वे उन्हें इंगित करें जिससे मैं ग्रन्थ के दूसरे संस्करण में कथित त्रुटियों का मार्जन कर सकू।
विजयादशमी : सं० २०३२ १६०, नैनी बाजार,-इलाहाबाद
किशोरी लाल
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