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कैती कार बावरी परिव विन पश्चिमा
परि मामा से प्रातका ।
केशव
पटवैदूर्य ( १४५ )
पन कैसी करै बावरी परिद विन पखियां । पतीठि-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा ] सम्मान,
- द्विजदेव । प्रादर, मान, प्रतिष्ठा । पटवैदूर्य-संज्ञा, पु० [सं० पट =अम्बर+वैदूर्य J उदा० इन बातन की करी पतीठि । पाए कुंवरहि =मणि] अम्बर मरिण, सूर्य ।
छोड़ि बसीठि।
-केशव उदा० तब लगि रहौ जगंभरा, राह निबिड तम पतुको--संज्ञा, स्त्री० [सं० पातिली ] हांड़ी,
छाइ । जौ लौं पटवैदूर्य नहिं हाथ बगारत मटकी, दधि भांड । प्राइ।
-दास । उदा० पतुकी धरी स्याम खिसाइ रहे उत ग्वारि पटा-संज्ञा, पू० [हिं० पटाव] १. पटाव, सौदा
हँसी मुख आँचल दै। २. पीढ़ा, पटरा [सं० पट्ट]
पतेना-संज्ञा, पु. [?] एक प्रकार का पक्षी । उदा० १. कहै पद्माकर मनोज मन, मौजन ही. | उदा० कहै नंदराम मैन बकत पतेना रहैं अब लौ नेम के पटा तें पुनि प्रेम को पटा भयो ।
कुही है बाज प्राई ना लखात है । -पद्माकर
-नंदराम २. पहिलें एक पटा पै दच्छिन, बैठारी है पतैबो-संज्ञा, पु० [हिं० पतियाना ] विश्वास, गौरि विचच्छन ।
-सोमनाथ प्रतीति । पटी-संज्ञा, पु० [सं० पट] पगड़ी, साफा ।
उदा० सुख पावत ज्यों तुम त्यों हमहूँ कबहूँक तौ उदा० पीत पहराय पट बाँघि सिर सों पटी।
भूलि पतैबो करै।
-सोमनाथ -केशव पत्री-संज्ञा, पु० [सं०] बाण । पटीर-संज्ञा, पू० [सं०] एक प्रकार का चंदन । उदा० लब के उर में उरझयो वह पत्री मुरझाय उदा. केसरिया चक चौधत चीरु, ज्यों केसरनीर
गिरौ धरणी महँ छत्री।
-केशव पटीर पसीज्यो ।
पथारु-संज्ञा, [सं० प्रस्तार] प्रस्तार, छन्दशास्त्र पटेला--संज्ञा, पु० [?] एक आभूपरण ।
में नौ प्रत्ययों में प्रथम, जिससे छंदों के भेद की उदा० कंठी कंठमाला भूषधी बरा बाजूबंद ककना संख्याओं और रूपों का बोध होता है। पटेला चुरी रतन चीक जारी सी।
उदा० पाछे गुरूहि सो पूरन बर्न कै सर्व लह -बोधा
लगि यों ही मचै । ऐसें पथारू कै दोइ सों पटैत-- संज्ञा, स्त्री० [देश॰] पटा चलाने वाली,
दूनोई दूनी के बर्न की संख्या सचे। पटेबाज ।
-दास उदा० बांकी बनत पटैत दिवानिन है कमनैत बड़ी पदार-संज्ञा, पु० [सं०] पैरों की धूल, मिट्टी, सुघरै री।
--ठाकुर
रज । पट्टिस-संज्ञा, पु० [सं. पट्ट] एक अस्त्र जो भाले । उदा० प्रारद होत पहारद पार सपारद पुण्यजैसा होता है।
पदारनह में ।
-देव उदा० सूरज मुसल नील पट्टिस परिघ नल जाम- पदारथ-संज्ञा, [सं० पदार्थ] १. रत्न २. पद
वंत असि हनू तोमर प्रहारे हैं। -केशव का अर्थ । पठंगा - संज्ञा, पु० [सं० पाठ] पाठ, रट, जप । उदा० उरभौन मैं मौन को धूघट के दुरि बैठी उदा० ताही के सढंगा सदा पानंद है संगा अरु,
बिराजत बात बनी। मृदु मंजू पदारथ सोई जग चंगा जाकै गंगा को पठंगा है।
भूषन सों सु लसै हुलसै रस-रूप-मनी । -सूरति मिश्र
-घनानंद पतारी-वि० [सं. प्रतारणा] प्रतारित, दण्डित पद्मी-संज्ञा, पु० [सं०] हाथी।। दण्ड पाया हुआ।
उदा० देखे जासु रसाल चाल पद की, पदमी रहै उदा० पति की पतारी हुती पातिक कतारी, ताहि
ब्रीड़ित ।
-दास तारी तुम राम ! तारी तुम सौ न और है। पन-संज्ञा, पु० [सं० पण] मोल, कीमत, २.
-ग्वाल __ सौदा [सं० पण्य] ३. प्रण । रतिदेवत--वि० [सं. पतिदेवता] पातिव्रत ।
उदा० बेटी काहू गोप की बिलोकी प्यारे नन्द उदा० तेही जनो पतिदेवत के गुन गौरि सबै गुन
लाल ? नाही लोल लोचनी बड़वा बड़े गौरि पढ़ाई।
- मतिराम पन की।
-केशव
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