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भमुना ( १७७ )
भाकसी प्राग की लपट ।
उदा० होत भरभेरौ तौ लुगाइन की कूक मली, उदा० मानो सनक्षत्र शिशुमार चन्द्र कुंडली में पिचकी अचूकें चलें दूक लूम लूम के । संकरषन अनल भभूक महराति हैं।
-ग्वाल -पजनेश भलुकिया-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भाला] भाला, भमुना-वि० [सं० भ्रम+न] भ्रमरहित निस्- छोटी बरछी। संदेह ।
उदा० अनियारी अंखियन की भारी घालि भलुउदा. ग्वाल कवि सुखद प्रतीति भरी रीति भरी किया मारी।
-बकसी हंसराज परमपुनीत भरी मीतभरी भमुना ।
भलेजे-संज्ञा, पु० [हिं० भाला] भाले की मार,
-ग्वाल चोट । भरका-संज्ञा, पु० [देश॰] भरका मिट्टी जिसमें उदा० पाये जमदूत मिले पारषद बीचोबीच अधिक दरारें पड़ जाती हैं ।
खींचे खीच होत, जुद्ध जमिगे भलेजें होत । उदा० लजि चली सिताब छिन न बिता जनु
-ग्वाल महिताब ललित लसै । छपि छपि अरकन भल्लर-वि० [देश॰] भद्दा, खराब। में खपि खरकन में भ्रमि भरकन में जाइ उदा० क्या भल्लै टुक गल्ल सुनि, भल्लर.भल्लर धंसे ।
-पद्माकर भाइ ।
-दास भरक्यो-वि० [हिं० भड़कीला] भड़कीला, जो भवीली-वि० [हिं० भाव+ईली (प्रत्य०) ] देखने में अच्छा हो, चमकदार ।
भावपूर्ण, २. बांकी-तिरछी । उदा० पौन कौ ना गौन होय, भरक्यौ सु मौन उदा० पापुस में मिल बैठी सौंत रघुनाथ जहाँ होय ।
-ग्वाल
तहाँ आनि रची बाजी चौपरि भवीली की। भरना-क्रि० स० [देश॰] बिताना, व्यतीत
-रघुनाथ करना, काटना, गुजारा करना।
भसमी-संज्ञा, पु० [सं०, भस्मक] भस्मक नाम उदा० हौं ही भरौं इकली, कहीं कौन सों, जा का एक रोग जिसमें रोगी को कभी भोजन की विधि होत है साँझ सबारो।
तृप्ति नहीं होती।
-घनानन्द उदा० भसमी विथा में नित लंघन करति है। नैहर जनम भरब बरु जाई। -तुलसी
-घनानन्द भरभ्रमर-संज्ञा, स्त्री० [?] अत्यधिक मारकाट भाई-वि० [?] सुडौल, खराद पर से उतारी उदा० अध अधर चब्वत नहीं दब्बत फूलि फब्बत
समर में । कौंचनि उमैठत हरषि पैठत उदा. भाई ऐसी ग्रीव-भुज, पान सो उदर अरु, लोह की भरभ्रमर में।
-पद्माकर
पंकज से पाइ गति हंस की सी जासु । भरसना-क्रि० स० [अनु० भरराना] छोड़ना,
-केशव गिराना।
भांति-संज्ञा, स्त्री० [सं० भेद] १. रीति ढंग, उदा० तोपै प्रौनि संबर को कठिन कराल मानौ, २. ऐश्वर्य, सम्पदा । रुद्र नैन ज्वालनि के जाल मरसत हैं।
उदा० सेनापति प्रभु प्यारी तु तो है अनप नारी
-चन्द्रशेखर तेरी उपमा की भाँति जात न बिचारी है। भराई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भाड़] भाड़पन,
-सेनापति भड़ती, भड़ग।
२. करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति उदा. रैहे भराई न राई भरी कोई भौंह चढ़ाय
मुसकाति । कही कथा सब प्रादि तें चितहै सरोसे ।
देव
किमि दीन्हीं यह भाँति ।। भरुनाना-क्रि० प्र० [हिं० भार] भारी होना,
-नरोत्तमदास वजनदार होना।
भाइक-क्रि० वि० [हिं० भावक] थोड़ा, किंचित उदा० भावकु उभरीहौं भयो, कछुक पर्यो जरा सा । मरुप्राइ।
-बिहारी उदा० छूटत है मनि-मानिक से गुन, टूटत भाइक भरभेरा-संज्ञा, पु० [हिं० भर+मेंटना] मुठ
भौंह अमैठे।
-देव भेड़, मुकाबला, सामना ।
भाकसी-संज्ञा, स्त्री० [सं० भस्त्रा] भट्टी, भड़२३
लोह की भसः [अनु॰
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