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अनाप
अपीच
उदा० न न अच्छर सब सों निरस, सुनि उपजत | अनेसा-वि० [सं० अनिष्ट] अप्रिय, बुरा। अनहेत ।
-गंग | उदा० कहि कहि निस दिन बोल अनसे जारत अनाप-वि० [सं० अनात्मन्] १. निर्बोध, जड़,
जीव जिठानी।
-बक्सी हंसराज मूर्ख २. प्रात्मा से परे।
अपंग--संज्ञा, पु० [सं० अपांग] कटाक्ष, चितउदा० १. अरु दुहनि चहन जो नाहिं प्राप
वन, ऑख का कोना। निलेप ब्रह्म सो उर अनाप ।
उदा० कसि तून वीर सजंग। अच्छरिय नैन -सोमनाथ अपंग।
-जोधराज अनासुक्रि० वि० [सं० अनायास] बिना प्रयास
अप-संज्ञा, पु० [सं० आप] १. जल, पानी, २. के, अचानक ।
आब, चमक, दीप्ति । उदा० वा दिन गई ती ब्रज देखन करील-बन उदा० लागे जोग जग में, न तप अनुरागे कभू, भूक मैं परी ती प्राइ बंसी के अनासुरी
लागे रूप अप में सु पैरन अपारे ई। . -द्विजदेव
-ग्वाल अनासी-क्रि० वि० [सं०अनायास] अचानक,
अपधन-संज्ञा, पु० [सं०] शरीर, शरीर का बिना प्रयास के ।
अंग। उदा० चितवन चोर की अनासी दुग कोर की
उदा० अपघन घाय न बिलोकियत धायलनि दें छोटी नथ मोर की मरोर मन ले गई ।
घनो सुख केशोदास, प्रगट प्रमान है। -ग्वाल
-केशव अनिती-वि० [सं० अ+निन्ध] अनिन्द्य, अनि
अपलोक-संज्ञा, पु० [सं०] पाप, बुरा कर्म । न्दनीय, अनवद्य ।
उदा० श्री रघुनाथ के आवत भागे। ज्यों अपउदा० भूपर कमल युग ऊपर कनक खंभ ब्रह्म की
लोक हुते अनुरागे ।
-केशव सी गति मध्य सूक्षम अनिदोबर। -देव अपसर-संज्ञा, स्त्री [सं० अप्सरा] १. अप्सरा, अनुबावन-संज्ञा, पु० [सं० प्रवाद अनु+
२. वाष्प करण [पू०ी।
| उदा० रहै अपसर ही की सोभा जो अनूप वाद 1.अफवाह, जनश्रुति । उदा० ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं।
धरि सुभग निकाई लीने चतुर सुनारी है ।
-सेनापति अनुवा–संज्ञा, पु० [हिं० आनना, ले आना] ले |
प्रपाइ-संज्ञा, पु० [सं० अपाय] अनरीति,
अन्यथाचार । आने वाले, फैलाने वाले, उड़ाने वाले । उदा० ताहि तू बताइ जोई बॉह दै उसीसै सोई,
उदा० तजि के अपाइ, तीर बसै सुख पाइ, गंगा । ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं।
कीजै सो उपाइ,तेरे पाइ ज्यौं न छूट ही। -गंग
-सेनापति अनून-वि॰ [सं० अन्यून] अधिक, बहुत बड़ा ।
अपांडि-संज्ञा, पु० [सं० आपाणि] मुट्ठी में, उदा०
हथेली में, पाणि में। आवत बढ़यो न जग, जातह घट्यो न कछु,
उदा० पूरन परम ग्राम बैकुंठ अकुंठ धाम लीने देव को विलास, देव ऐसोई अनून तो।।
बिसराम प्रभु संपति अपांडि कै। -देव
अपारथ--संज्ञा, पु० [हिं० आप-अपने+सं० देव दुहून के देखत ही, उपज्यो उर मैं अनु- अर्थ=प्रयोजन] स्वार्थ, अपना प्रयोजन । राग अनूनों।
-देव उदा० स्वारथ न सूझत, परारथ न बूझत, अनूह-वि० [?] अयोग्य, न्युन ।
अपारथ झूझत, मनोरथ मयो फिर । उदाहीरन के जूह मंजु मनि के समूह समताई
-देव में अनूह जानि भूतल तले गये।
अपीच-वि० [सं० अपीच्य] सुन्दर, रुचिर । —नंदराम उदा० फहर गई धौ कबै रंग के फुहारन में,
-गंग
-देव
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