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भूमिसुत ( १८० )
म्वहरा उदा० भेटत देखि बिसेखि हिये व्रजभूभुज देव । २. एक देवता जिनका वाहन कुत्ता माना गया दुहूँ भुज सों भरि ।
-देव । है । भूमिसुत-संज्ञा, पु० [सं०] मंगल नामक ग्रह
उदा० १. हुकत उलूकबन, कूकत फिरत फेरु, भूकत जिसका रंग लाल माना गया है।
जु भैरो भूत गावै अलि गुज लौ। —देव उदा० वंदन डिठौना दै दुरायो मुख चूंघुट में भोगलाना-क्रि० अ० [हिं० मोग] वश में होना
झीनी स्याम सारी त्यौं किनारी चहूँ फेर उदा० ज्ञान हूँ तें आगें जाकी पदवी परम ऊँची मैं । भूमिसुत भानुसुत जुत सोभमान रस उपजावै तामैं भोगी भोगलात ग्वै मानौ झलक मयंक घन दामिनि के घेर मैं ।
-घनानन्द -बेनी प्रवीन | भोंडर--संज्ञा, पु० [देश॰] १. प्रबरक, अभ्रक भूसर-वि० [सं० भास्वर ] चमकते हुए,
२. बुक्का । चमकने वाले के जैसे ।
उदा० कबि पजनेस कैंधौं भोंडर के संपुट उदा० कहैं कबि गंग इक्क अक्कबर अक्क उदै, में चकई के बाल कैधो पिय चित टोना के _नभ कि नखत से रहैं है भूप भूसरे ।
-पजनेश -गंग
मोडर के किनका ये लाल के बदन पर भृगुदास-संज्ञा पु० सं०] १. काना, एकाक्ष
निरखि जोन्हाई बीच ऐसे लसै जगि-जगि २. शुक्राचार्य ।
-रघुनाथ उदा० १. एक सूरदास दासी एक जगन्नाथ दासी । भोथर-वि० [देश॰] कुठित, जिसकी तीक्ष्णता एक भृगुदास दासी ताकी एक पाई है।
समाप्त हो गई हो।
-देवकीनन्दन उदा०-देह भयो दूबरो कि नेह तज्यो दीनन भेवीसार-संज्ञा, पु० [सं०] बरमा, बढ़ई का एक
सों चक्र भयो भोथरो कि बाहन खुटानो औजार जिससे वह लकड़ी में छेद करता है।
-गंग उदा० भेदि दुसार कियो हियो तन दुति भेदीसार
भोना-क्रि० अ [हिं० मीनना] भीनना, डूबना -बिहारी
संचारित होना २. लीन होना। भेल-संज्ञा, पु० ]हि० भेली=डली] गुच्छा, उदा० बात पिये जपिये गुर मनु ज्यौं उससे समूह ।
रिस कै विष भोई।
--देव उदा० अधर छुवारे रसवारे बैन विधि विधि भौंडू-संज्ञा, पु० [देश॰ किनारा। किसमिस झूमके अंगूर भूर भेल हैं।
उदा० बजाबै सांवरो बंसी जमुनातीर ठाढ़ी -ग्वाल __ पनघट भौडूं कैसे जैय।
-घनानन्द भेव-संज्ञा, पु० [सं० भेद] १. बारी, पारी २. भ्वैना -- क्रि० स० [हिं० भरना ] भर जाना, भेद, रहस्य ३.तैयारी।
फैल जाना, समा जाना। उदा० चौकी दै जनु अपने भेव । बहुरे देवलोक उदा० दाह जागी देह में कराह रसना के बीच को देव ।
-केशव
रधुनाथ सखिन के प्राह नभ भवै गयो । ३. मिलि मित्र सहोदर बंधु शुमोदर कीन्हें
- रघुनाथ भोजन भेव ।
-केशव
भ्वैहरा-संज्ञा, पु० [हिं० भूधरा], भूधरा जमीन भैया-संज्ञा, पु० [?] एक प्रकार का पुष्प । के नीचे खोद कर बनाया गया गड्ढ़ा जिसमे गर्मी उदा० भैया के फूल करि मानुत छांडि निरंत ।। में ठंडक रहती है।
हूँ पचिहारी बहुत करि अपनै नाहिन | उवा बाहर भीतर भ्वहरऊ न रह्यौ परै देव कंत ।
-मतिराम सु पूछन आई।
-देव भैरो-संज्ञा, पु० [सं० भैरव ] १. श्वान, कुत्ता,
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