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ग्रहण करने में काफी परेशान होना पड़ा । ग्रंथ में संस्कृत मोर फारसो के ऐसे मप्रचलित एवं मल्प प्रयुक्त शब्दों की प्रचुरता है कि कहीं-कहीं पर्याप्त दृष्टि गड़ाने पर मो ठोक अर्थोपलब्धि नहीं हो सकी, अतः असमर्थ होकर उन शब्दों का मोह छोड़ देना पड़ा ।
ग्वाल की अधिकांश रचनाएँ अप्रकाशित हैं । इनको प्रकाशित रचनाओं में कविहृदय विनोद, यमुना लहरी, षट्ऋतु और नखशिख है । "कविहृदय विनोद" बहुत पहले मथुरा से लीथो में मुद्रित हुआ था उसका पाठ इतना भ्रष्ट है कि उसके आधार पर सही-सही अर्थ निकालना अति कठिन है । " यमुना लहरी" मुंशी नवलकिशोर प्रेस के अतिरिक्त काशी के भारतजीवन प्रेस से भी छप चुकी है । " षट्ऋतु" को प्रथम बार भारत जीवन प्रेस, काशी ने ही प्रकाशित किया था, किन्तु पाठ इस ग्रन्थ का मा सन्तोष जनक नहीं है । "नखशिख" लक्ष्मीनारायण प्रेस, मुरादाबाद से सन् १९०३ में प्रका शित हुआ था । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त ग्वाल के कुछ संग्रह ग्रन्थ मी छपे हैं, जिनमें भारतवासी प्रेस, दारागंज से प्रकाशित 'ग्वाल रत्नावली' अग्रवाल प्रेस, मथुरा से मुद्रित 'ग्वालकवि' प्रमुख है । सुना गया है कि पाचायं पं विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र ग्वाल के समस्त ग्रन्थों का सम्पादन बहुत समय से कर रहे हैं । प्रतः अधिकारी विद्वान द्वारा सुसम्पादित होने वाली “ग्वाल ग्रन्थावली" निश्चय ही महत्वपूर्ण होगी ।
मुझे ग्वाल के मुद्रित ग्रन्थों से कोश के लिए जिन शब्दों का संग्रह करना पड़ा, उनसे पदेपदे भ्रमित होना पड़ा है । कारण यह है कि ग्वाल ने शब्दों की ऐसी कांट-छांट और तराश की है कि पहले तो उनके पसली रूप का जल्दी पता ही नहीं चलता मौर यदि कहीं पाठ भी विकृत हो गया तो ग्वाल के प्रध्येता को निश्चय ही पथ भ्रष्ट हो जाना पड़ा है ।
ग्वाल ने यत्र-तत्र संस्कृत और फारसी के मिश्रण से नये शब्द भी गढ़ने का यत्न किया है; यथा-स ंस्कृत ‘सिता' (मल्लिका) और फारसो 'आब' (जल या मकरन्द) के योग से सिताब शब्द प्रस्तुत किया जो फारसी 'शिताब' (शीघ्र ) से सवथा भिन्न है । इसी प्रकार फारसी के अपभ्रंश शब्दों के प्रयोग में उन्होंने इतनी निरंकुशता प्रदर्शित की है कि बेचारा "तौहीन" "ताहिनो” में बदल गया है मोर "मुकावा' 'मुकब्बा' का रूप ले बैठा । प्राचीन शब्दों की विकृतियों की इस कुज्झटिका में वास्तविकता की रश्मियाँ कहाँ खो गयी जल्दी, पता नहीं चलता ।
ब्रजभाषा का शब्द भण्डार हिन्दी की अन्य कारण यह है कि ब्रजभाषा धार्मिक और राजनैतिक स्व॰ डा० धीरेन्द्र वर्मा ने बहुत पहले ब्रजभाषा बोलने से इस प्रकार प्रस्तुत किया है :
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विभाषाधों से अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न है । दोनों कारणों से दूर-दूर तक फैली हुई थी, वालों को संख्या का मांकड़ा तुलनात्मक दृष्टि
ब्रजभाषा बोलने वाले युरोप के आस्ट्रिया, बलगेरिया, संख्या से लगभग दुगुने हैं तथा डेनमार्ग, नार्वे या स्विटज़रलैंड की
पुतंगाल या स्वंडिन देशों की जनजनस ंख्या के लगभग चौगुने । चित्र गांत से होता प्रदेश की सीमा से
इसके अतिरिक्त व्रजभाषा का परिविस्तार राजदरबारों में भी उत्तरोत्तर गया । परिणाम यह हुआ कि हिन्दी रीति साहित्य की बहुत सी रचनाएँ हिन्दी
१. ब्रजभाषा व्याकरण - डा० धीरेन्द्र वर्मा, पृ० १४ ।
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