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एक रहस्य का विषय है । सम्पादन के नाम पर रचनावली या छन्दावली को “ग्रन्थावली” का भी जामा पहना दिया जाता है । " कृपाराम ग्रन्थावली” में कितनी ग्रन्थावलियाँ हैं, ईश्वर ही जाने । " सोमनाथ ग्रन्थावली" के पाठ की कैसी-कैसी कचूमर निकाली गई है, इसे जानने के लिए उक्त ग्रन्थावली का अवलोकन अवश्य करना चाहिए, जो कलेवर और मूल्य दोनों ही में भारी-भरकम है । यदि नमूने के लिए सम्पादक जी से पूछा जाय कि "कैसे ताहि लाऊँ ताकी छांह भई सखी डोल, भूषन समूल उदो कोढि करवीन कौ ।"" का क्या अर्थ है तो सम्पादक जी बगलें झांकने लगेगें । इसी प्रकार “अनुक्रमणिका' में जिन शब्दों का अर्थ दिया गया है, वे अति सरल और सामान्य पाठकों के लिये पूर्ण बोध गम्य हैं, किन्तु जहाँ "बखियान” २ जैसे कठिन शब्दों के अथं लिखने की बात आई, वहाँ सम्पादक महोदय ररण से पलायन कर गये ।
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ऐसी स्थिति में प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन और प्राचीन शब्दों का कोश कैसे और किस बल बूते पर प्रस्तुत किया जाये । जहाँ आर्थिक लाभ कम हो और श्रम अधिक करना पड़े, वहाँ किसे फुरसत है कि वह ऐसे गोरखधन्धे में पड़े । साधना के ऐसे पथ पर निस्पृहभाव से लगने वाले आचार्यं पं० विश्वनाथ प्रसाद जी मिश्र जैसे तपस्वी ही हो सकते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि पद्माकर, दास भूषरण, बिहारी, मतिराम ठाकुर, घनानन्द प्रादि की सुसम्पादित रचनाओं से शब्दाकलन में जितनी सुविधाएँ मिली, उतनी ही कठिनाइयाँ विकृत एवं अवैज्ञानिक प्रक्रिया से सम्पादित ग्रन्थों से मी मिली । जहाँ तक ज्ञात है, ग्वाल, पजनेस, रघुनाथ, चिन्तामणि त्रिपाठी श्रादि रीतिकवियों के ग्रन्थ पुरानी शैली की सम्पादन विधि के अनुसार ही सम्पादित हुए हैं । इनमें बहुत कुछ मूल की त्रुटियाँ हैं और उनसे बढ़कर तत्कालीन मुद्रण-जनित अशुद्धियाँ भी भरी पड़ी हैं । कुछ ग्रन्थ तो ऐसे भी देखने को मिले हैं जो बहुत पहले पाषाण यंत्रालय में मुद्रित हुये थे । लीथों में छपे इन ग्रन्थों में एक ही पंक्ति में इस प्रकार मिलाकर लिखा गया है कि उसका शुद्ध-शुद्ध पढ़ना भी अब मुश्किल हो रहा है । नमूने के लिए चाहे आप "सुन्दर कोप नहीं सपने” पढ़ लें अथवा "सुन्दर को पनही सपने”; स्थिति अधिकतर ऐसी ही है ।
कोश में जिन शब्दों का समावेश किया गया है उनके अर्थ और पाठ के सम्बन्ध में यथा शक्य पर्याप्त विमर्श करने का अवसर मिला है, पर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराद्ध के रीतिकवियों ने शब्दों की ऐसी कपाल-क्रिया की है कि अब उनका मूल अर्थ बताना मी दुस्तर हो रहा है । ऐसी स्थिति में शुद्ध अर्थ का पूर्णं दावा नहीं किया जा सकता । हाँ, अपने सन्तोष के लिए बहुत से शब्दों के शुद्ध पाठ और श्रथं पर विचार करने के लिए इस विषय के कतिपय विद्वानों से भी सम्पर्क स्थापित करना पड़ा है ।
पिछले खेवे के कवियों में पजनेस और ग्वाल की रचनाओंों का अभी तक कोई सुसंपादित संस्करण देखने को नहीं मिला, केवल नखशिख विषय का एक पुराना संग्रह "पजनेस प्रकाश” नाम से भारत जीवन प्रेस, काशी ने बहुत पहले प्रकाशित किया था । वही संग्रह यत्र-तत्र उपयोग में लाया जाता है । इस मुद्रित संस्करण में प्रेस की इतनी अशुद्धियाँ मरी पड़ी हैं कि शुद्ध पाठ और अर्थ
१. सोमनाथ ग्रन्थावली - खण्ड १, पृष्ठ १६७ । २. वही, पृष्ठ १-२ ।
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