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फरस ( १५८ )
फाब उदा० धोर धुनि बौलैं, डोलैं दिगति-दिगंतान लौं,
- बिहारी प्रोज-भरे अमित मनोज फरमार ए। फलंका-संज्ञा, पु० [फा० फलक] आकाश, नम ।
-द्विजदेव उदा. कहै पद्माकर त्यों करत फंकरत, फैलत फरस-संज्ञा, पु० [अ फर्श] बिछौना, बैठने
फलात फाल बांधत फलंका में । के लिए बिछाने का वस्त्र ।
-पद्माकर उदा० फहर फुहारन की फरस फबी है फाब । फलंगना -क्रि० प्र० [हिं० फलाँगना] कूदना,
- पद्माकर फाँदना, एक जगह से उछल कर दूसरी जगह फरस गलीचन के बीच मसनंद ताप
जाना। मखमली गोल गोल गुलगुली गाला में । उदा० पैठि परयो पल मॅाहि फलंगि गो, कौन
-ग्बाल
कहो पकरै परछाहीं। - बेनी प्रवीन फरसबंद-संज्ञा, पु० [प्र. फर्श+फा० बंद] फलक-संज्ञा, पु० [सं०] पट्टी, पटल, स्थान बिछौना बैठने के लिए बिछानेका वस्त्र ।
आकाश [प्र. फलक] । उदा० (क) दूध कैसो फेन फैल्यौ आँगन परसबंद। उदा० मन मिलें मिले नैन केसोदास सविलास,
-देव - छवि-पास भूलि रहे कपोल-फलक में। (ख) कहै पदमाकर फरागत फरसबंद,
-केशब फहर फुहारन की फरस फबी है फाब । फलकना-क्रि० प्र० [हिं० फड़कना] फड़कना,
-पद्माकर उमड़ना २ विकासोन्मुख होना । फरस्सों--संज्ञा, पु० [हि० फर] प्रतिद्वंदिता, उदा० १. नैन छलकौंहै बर बैन बलकोंहै औ मुकाबला, सामना ।
कपोल फलकों है झलकौ हैं मए अंग है। उदा, फरस्सों फिर फूल फंदै फरक्क । लगे
-दास हाथ ही के इसारें मुरक्क। -पद्माकर फलके-संज्ञा, पु० [सं० स्फोटक हिं० झलका] फरागत-वि० [फा० फराख] विस्तृत, लम्बा फफोला, झलका, छाला । चौड़ा ।
उदा० पाइन में फलके परि परि झलके दौरत उदा० कहै पद्माकर फरागत फरसबंद, फहर
थल के बिथित भई ।
-पद्माकर फुहारन की फरस फबी है फाब ।
फलातना-क्रि० प्रा० [हिं० फलाँग+न (प्रत्य॰)]
-पद्माकर कूदना, फांदना, उछलना । फरास-संज्ञा, पु० [अ० फर्राश] दीपक आदि उदा० कहै पद्माकर त्यों करत फंकरत, जलाने वाला नौकर, सेवक, खिदमतगार ।
फैलत फलात फाल बांधत फलंका से । उदा० व्याज करि चांदनी को मैन मजलिस काज
-पद्माकर चन्द ह फरास चारु चाँदनी बिछाई है। फसूकर-संज्ञा, पु० [?] फेन के करण ।
-शिवकवि उदा० ऐसा फैलि परत फसूकर मही में मानो •फरिका-संज्ञा, पु. [हिं० फाटक] फाटक, दरवाजा।
तारन को बृद फूतकारन गिरत है। उदा० खोलि खोलि खरिकन के फरिकन गायें
-पद्माकर पानि उबेरी।
-बकसीहंसराज फस्त-संज्ञा, स्त्री० [अ० फस्द] नस को छेद कर फरिया -- संज्ञा, स्त्री [ब्र] प्रकार का लंहगा, शरीर का गंदा खून निकालना ।। साड़ी, धोती।
मु० फस्द खुलवाना--शरीर का दूषित रक्त उदा० सिर ओढ़े उढ़ोनी कसे छतिया फरिया निकलवाना। पहिरे फहराती फिरै।
उदा० मूड़ घुटाय प्रौ मूछ मुड़ाय त्यों फस्त फरी-संज्ञा, स्त्री [सं० फल] चमड़े की छोटी
खुलाय तुला पर बैठ्यो। -माधव कवि गोल ढाल ।
फाब-संज्ञा, स्त्री० [हिं० फबन] शोभा, छटा उदा० बाँधे बखतरी काँधे परी समसेरी फरी, | उदा० फहर फुहारन की फरस फबी है फाब । लखि न परी है काहू सखिन सकात है ।
--पद्माकर -बेनी प्रवीन | औरे औरे फूलन पै दुगुन फबी है फाब । फूले फरकत लै फरी पल कटाच्छ करबार ।।
-द्विजदेव
-टाकुर
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