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छछु-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छोट] छींटे, बद । | उदा० छार भरे छरहरे छग ज्यों छरकवारे छाए उदा० कान्ह बली तन श्रोन की छंछु लसै अति
हैं छबिन छायघन छाइयत है। -गंग जग्योपवीत सों मेलि ज्यों। -- आलम छगुनना-क्रि० स० [देश॰] विचार करना, छंद-संज्ञा, पु० [सं० छंदस्] १. कपट, छल २. सोचना ।
मण्डल, घेरा ३. समूह ४. चेष्टा, खेल, क्रीडा । उदा० अाँगन ही खरी हों मगन भई छगुनत, उदा० १. जब ते छबीले जू के ईछन तीछन देखे,
स्याम अंग नीको बाके संग ही न गोनी ताछिन त छींद कैसे छंदनि करति है।
मैं ।
-आलम -सुन्दर छगोड़ी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छः+गोड़ पाँव] २. जोए पदमन को हरष उपजावति है, १. मकरी २. भ्रमरी [सं० षट्पदी] । तजै को कनरसै जो छंद सरसति है। उदा० १. टूटे ठाट घुनघुने धूम धूरि सों जु सने,
-सेनापति
झींगुर छगोड़ी सांप बीछिन की घात जू । ४. बाम कर बार हार अंचल सम्हारै. करै
-केशव कैयो बंद कंदुक उछार कर दाहिने । छछारे-संज्ञा, स्त्री० [] छींटें, बूंदें।
-देव उदा० अंबर अडंबर सी उमड़ि घुमड़ि छिन छंदना-क्रि० सं० [सं० छंदस्] छंद रचना, छिछकै छछारे छिति अधिक उछार के । काव्य खंदबद्ध करना, रचना करना।
-सेनापति उदा० गणेश गुण गावत सुरेश शेष छंदत ।
छछिया-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छांछ] छाछ पीने -देव
का एक छोटा पात्र, दिअलिया। छकना-क्रिया अ० [पंजा०] पीना, नशे में चूर । उदा० ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि होना, २. खा पीकर तृप्त होना।
छाछ पै नाच नचावत।
-रसखानि उदा० छिनकु छाकि उछक न फिरि, खरोविषम
छटा-संज्ञा, स्त्री० [हिं० छांटना] १. लोहे की छवि छाक ।
-बिहारी
बड़ी कलछी जिससे भड़भूजे दाना मूंजते है २. छकरा-संज्ञा, पु० [हिं० छकड़ा] लढ़ी, बोझ | बिजली ३, लड़ी [हिं० छरा, सं० शर] ढोने वाली बैलगाड़ी।
उदा० १. बिज्जु छटा सी छटालिये हाथ कटाक्षण उदा० तुलहि मिठाई गजल गावै । छकरा भर
छांटति है छबि छोहनि । -देव जनवासे पावें।।
-बोधा
२. गरज ना मेघ तोम तरजे ना छूटि छटा छकाना-क्रि० स० [हिं० छकना] १. परेशान
लरजें ना लौंग लला दारि दरारे ना करना, दुख देना २. नशा आदि से उन्मत्त
-नंदराम करना ।
३. मोतिन की विथुरी शुभ छटै । हैं उदा० परम सुजान भोरी बातनि छकाए प्रान
उरझी उरजातन लट। -केशव भावति न प्रान वेई हियरा अरें अरी।
छटि-संज्ञा, स्त्री० [सं० छटा] बिजली २. शोभा,
-घनानन्द कांति । छक्कर-संज्ञा, पु० [हिं० छक्का] दांव-पेंच। उदा० १. होन लागी कटि अब छटि की छलासी, उदा० सीसन की टक्कर लेत डटक्कर घालत
द्वज चन्द की कला सी तन दीपति बढ़ छक्कर लरि लपटै ।
---पदमाकर लगी।
-रस कुसुमाकर से छग-संज्ञा, पु० [सं० छाग] बकरा ।
छत-वि० [सं० छत] क्षय हुए, नष्ट ।
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