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नयना
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जाना,
नयना - क्रि० प्र० [हिं० नवना] १. ढल समाप्त हो जाना, २. झुकना, नम्र होना । उदा० नीर के कारन थाई प्रकेलियै भीर परे संग कौन कौं लीजै । ह्याऊँ, न कोऊ नयो दिवसोऊ अकेले उठाए घरो पट भीजै ।
- दास
नरजा - संज्ञा, पु० [?] तराजू की डाँड़ी । उदा० नरजा मैं मिल पलरा मैं देखि दूनों सोई सेनापति समुझि विचारि के बतायौ है । — सेनापति नरजी -संज्ञा, पु० [?] नाप-तौल करने वाला । उदा० नैन किये नरजी दिन रैन रती बल कंचन रूपहि तोलें ।
-- घनानन्द
जा दिन तें तुम प्रीति करी ही घटति न बढ़ति तल लेहु नरजी । -सूर नरियाना – क्रि० प्र० [देश०] जोर-जोर से चिल्लाना, श्रावाज करना । उदा० पट धोबी धरै, अरु नाई नरें, सु तमोलिन बोलिन बोल धरै । -गंग नरी – संज्ञा, स्त्री० [हिं० नली] नली, पैर की पिंडली ।
उदा० महा सुद्द्छ पुछ्छे रही हैं उन सी । नरी - पाँतरी आतुरी हिन कँसी ।
—पद्माकर
नरोन - संज्ञा स्त्री० [सं० नर] नारियाँ, स्त्रियाँ | उदा० भजत प्रवीन बेनी छूटे सुखपाल रथ, छूटी सुखसेज सुख साहिबी नरीन मैं ।
- बेनी प्रवीन नरीसुर - संज्ञा, पु० [हिं० नली + सं० स्वर] नली से निकलने वाले स्वरों से बजने वाले
बाजे ।
उदा० भेरी घनेरी नरीसुर नारि नरीसुर नारि अलापी सभा में । - देव
नल — संज्ञा, स्त्री० [हिं० नलिका ] नलिका, नाल, एक प्रकार का प्रस्त्र उदा० अनल सी अनिल नलिनमाला अनिल न लाउ री न लाउ मलया
नावक की २. तरकश नल मयी, श्रली ।
- श्रालम
नव श्रवस्त - संज्ञा, स्त्री० [सं० नव प्रवस्था ] नवबय, युवावस्था ।
उदा० नव श्रवस्त बिरही तन जबही ।
अतन-सतन बरगत कवि तबही ॥ - बोधा नवढ़ी — संज्ञा, स्त्री० [सं० नवोढ़ा ] नवोढ़ा, नव विवाहिता स्त्री । उदा० गवढ़ी नवढ़ी द्विजराज मुखी ।
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नाकंद
परबीन प्रिया बनिता सुमुखी ॥ बोधा नवाजसि -संज्ञा, स्त्री० [फा० नवाजिश ] कृपा, मेहरबानी ।
उदा० रामदास सों कह्यो बुलाय । करो नवाजसि बाकी जाय ॥ केशव नवारे- संज्ञा, पु० [हिं० नाव] बड़ी नावें । उदा० इंदीवर सुन्दर कलिंदी तीरवारे कहा, मारे अँसुवान के नवारे बहि जायँगे ।
पद्माकर
नैन अनियारे मैं न तेरे से निहारे प्यारी, लाज धन वारे नेह नृप के नवारे हैं । -सोमनाथ नवासनी —संज्ञा, स्त्री० [हिं० सुश्रासिनी] सौभाग्यवती स्त्री, सधवा ।
उदा० नन्द के प्रवास व्रजवासिनु को भाग खुल्यो खुलत सम्हारि पैन्हि वासन नवासनी देव नहना- क्रि० अ० [हिं० नधना] १. नधना, हल में बैल आदि का जुतना, फँसना २. बँधना; आबद्ध होना ।
उदा चक्र तना, जुवा भृकुटी, मृगनैन नहे, ससि को रथ संभवि । - देव
२. मोंहि काहे गहि-गहि राखती हो गेह ही में, नेह ही में नख ते सिखा लौं नही तन मैं । —बेनीप्रवीन नहियाँ—संज्ञा स्त्री० [सं० नाथ हिं० नाह] नायिका, प्रियतमा, स्त्री ।
उदा० भोर भये भौन के सुकोन लगि गई सोय,
सखिन जगाइबे को जाय गही बहियाँ । चौंकि परी चकि परी श्रौचक उचकि परी, सकि परी जकि परी बकि परो नहियाँ बेनीप्रवीन नविना- क्रि० प्र० [सं० नन्दन] दीपक का बुझने के पहले भभक उठना, चेतना आना । २. श्रानन्दित होना ।
नाम ।
उदा० उठति दिया लौं नाँदि हरि लिये तिहारो - बिहारी नाँदनी - संज्ञा, स्त्री० [हिं० नाँदना ] बुझने के पूर्व दीपक की भभक ।
उदा० सूरति सुकवि दीप दीपति कहा है जो पै, भई इकबार क्यौंहू नेह बिन नाँदनी । —सूरति मिश्र नाकंद — वि० [फा० ना + कंदः ] अल्हड़, अप्रशिक्षित, न निकाला गया घोड़ा आदि पशु । उदा० बछेरे करें कूदि श्राछी कलोलें ।
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