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मरजी
मसना २. कहै पद्माकर मजानि मरगजी मंजु, । मल-संज्ञा, पु० [हिं० मरंद] मकरन्द, पुष्पमसकी सु आँगी है उरोजन के अंक पर । रस ।
--पदमाकर | उदा० प्राइ गई भूक मंद मारुत की देव. नव मरजी-संज्ञा [अ० मरजी] १. मन का भाव
मल्लिका मिलित मल पदुम के दाव की । २. प्रसन्नता, खुशी, ३. इच्छा, कामना ।
-देव उदा० वा बिधि साँवरे रावरे की न मिलै मरजी
मलय कुमार-संज्ञा, पु० [सं० मलय-+-कुमार] न मजा मजाखे ।
-पद्माकर
सुगंधित हवा, मलय पवन। मरमै-संज्ञा, पु० [सं० मर्म] १. आघात, चोट,
उदा० मालती को मिलि जब मलय कुमार आये, घाव २. मर्मस्थल, हृदय ।
रेवा रस रोमनि जगाय नींद नासी है। उदा० सर मैनहु को मुरली स्वर जीति कियो
-आलम उर मै मरमै चरमै ।
- तोष
मलूक-वि० [देश॰] मनोहर, सुन्दर । २. हियो कर मैन, लियो सर मैन, दियो
उदा० घाँघरे की घुमड़ उमड़ चारु चूनरी की मरमै न सम्हारि कै संचल ।
-देव मरवट -संज्ञा, स्त्री० [हिं० मलपट] रेखाएँ,
पायन मलूक मखमल बरजोरे की।
-श्रीपति जो रामलीला के अवसर पर पात्रों के गालों
मलोला-संज्ञा, पु० [अ० मलूक] मानसिक पर चंदन तथा रंग आदि से बनाई जाती हैं।
कष्ट, व्यथा, दुःख, रंज । उदा० अंजन प्रांजि मांडि मुख मरवट फिरि मुख
उदा० भोला से फफोला परे पाइन मैं तोलाहेरौ री।
-घनानन्द
तोला, मारत ममोला हाय मन की मनै मरातिब-संज्ञा, पु० [अ०] झंडा, पताका ।
रही।
-ग्वाल उदा० सकल मरातिब ठाढ़े किये। हर सिंघ देव
मल्हकनि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० मटकना]छरी कर लिए।
-केशव
मटकने को क्रिया । मरिन्द-संज्ञा, स्त्री० [सं० मणिन्द्र] मरणीन्द्र, चन्द्र कान्त मणि २. मलिद, भ्रमर ।
उदा० समद मतंग चालि की मल्हकनि चलन उदा० १. का कुरबिन्द मरिन्द सु इन्दु-प्रभा मुख
लगीं छटकाएँ अलकनि । -सोमनाथ ओठ समान दुनी ना।
बेनी प्रवीन
मवास-संज्ञा०, पु० [सं०] ६. आश्रय स्थान, मरुवा--संज्ञा, पु० [सं० मरुव] वह लकड़ी
रक्षा स्थल, २. किला, गढ़ । जिसके आधार पर हिंडोला लटकाया
उदा० कुच उतंग गिरिवर गह्यौ मीना मैन जाता है ।
मवास।
-बिहारी उदा० फूलन की भयारि और मरुवे यों फलन के
मवासी-संज्ञा, पु० [हिं० मवास] दृढ़ गढ़ में फूले मोर तोता अलि झूमक मरोरे मैं ।
रहने वाला, गढ़ रक्षक। -ग्वाल
उदा० कंस सौं कहौंगी जाइ माँगि हौं नुमैं धराइ मरू-क्रि० वि० [बुं०] कठिनाई से, मुश्किल
रहोगे कहाँ छिपाइ जौ बड़े मवासी हौ। से मरू कै बची हौं, सास ! धरम तिहारेते ।।
-रसखानि - ग्वालकवि मसक-संज्ञा, पु० [अ० मशरूम] एक प्रकार का मरोर-संज्ञा, पु० [हिं० मलोल प्र. मलूक] धारीदार वस्त्र ।
१. अरमान, अभिलाषा, २. मानसिक व्यथा उदा० सिर मसक पग्गहि काढ़ि खग्गिहि-उच्चरर्यो ३. उमंग ।
ललकारि के।
-सोमनाथ उदा० कछुवै कहोगे के अबोले ही रहोगे लाल, मसना-क्रि० स० [हिं० मसलना] रगड़ना, मन के मरोरे कौलों मन ही में मारिये। मलना, व्याकुल होना ।
-पालम उदा० सकियै नहि नेकु निहारि गुपाल सु देखि मलंग-संज्ञा, पु० [फा०] फकीर, योगी ।
मसोसनि ही मसियै ।। उदा० कौड़ा मांसू बूंद, करि सांकर बरुनी सजल
आजु पर्यो जानि जब आपने मैं सुने कान, कीन्हे बदन निमूद, दुग मलंग डारे रहत ।
वाको संबोधन मोसो कह्यौ ही मसतु है। -बिहारी
-रघुनाथ
मांग
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