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गैबर
गोसा गैबर-संज्ञा, पु० [सं० गजबर] श्रेष्ठ हाथी। जिसमें बैलों की पीठ पर सामान लादते हैं । उदा० नदी-नद मद गैबरन के रलत हैं।
बोरा।
-भूषण । उदा० नोंन की न गोन लीहै आदी हूँ न लादी गैर-वि० [म० गैर] अनुचित व्यवहार,
-रसखानि अन्याय ।
दाम खरो दै खरीद खरो गुरु मोह की उदा. मेरे कहे मैल कर सिवाजी सों बैर करि
गोनी न फेरि बिकैहैं ।
-देव गैर करि नैर निज नाहक उजारे ते ।
गोफ--संज्ञा, पु० [स० गुंफ] नया निकला पत्ता, -भूषण
अंकुर। गरमिसिल-संज्ञा, पु० [फा०] अनुचित स्थान ।
उदा० काटि किधी कदली दल गोफ को दीन्हों उदा० भूषण कुमिस गैरमिसिल खरे किये कों,
....जमाइ निहारि अगीठि है। --दास किये म्लेच्छ मुरक्षित करिके गराज को।
गोम-संज्ञा, पू० [सं० गोमायु] सियार, श्रृंगाल
- भूषण जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
उदा० गेहन मैं गोहन गरूर भरे गोम हैं ।
--भूषण कीनो न सलाम न बचन बोले सियरे ।
गोय-संज्ञा, स्त्री [फा०] गेंद, कंदुक २. गोपन, -भूषण
छिपाना (क्रि०) । गोख-. संज्ञा, पु० [अ० गौख] दरवाजे के ऊपर
उदा० १. गोय निबाहे जीतिये प्रेम खेल चौगान । का कमरा । उदा० बैठि ग्यान के गोरब सुमति पटरानी सजिरे
--बिहारी -ब्रजनिधि
२. रहिमन निज मन की विथा मनही गोंछ-संज्ञा, स्त्री० [हिं० गुच्छा] गलगुच्छ, गल
राखिय गोय ।
रहीम मोछ, श्मश्रु, गाल तक फैली हुई मूछे ।
गोल-संज्ञा, पू० [तुर्की] १. मुख्य सेना २. झंड उवा० गंग गोंछ मोछा जमुन, गिरी अधर मन- ! समूह ३. सेना का मुख्य भाग जिसमें सेनानायक राग। खान खानखानान के कामद बदम
रहता है। प्रयाग।
उदा० हलकी फौज हरौल ज्यौं परै गोल पर -गंग
मीर । गोठ-संज्ञा, पु० [सं० गोष्ठ] समूह, मंडली,
बिहारी गोष्ठी २. गौशाला ।
गोलक- संज्ञा, पु० [सं०] विधवा का जारज उवा० १. रघुनाथ की दोहाई तबहो मैं जानि लयो भावती को मन भयो काह भ्रम गोठ । उदा० माप कुंड, गोलक पिता,
-रघुनाथ
पितृ-पिता
कानीन । गोठनि-क्रि० सं० [सं० गुठन] छिपाना, बन्द
लखो सु नागर भक्ति, करना, ढंकना, काढ़ना ।
जस पांडव नित्य-नवीन । उदा० रूप प्रघाति न छातनि देव, सु बासनि
-नागरीदास बातनि घूघट गोठनि ।
-देव गोला-संज्ञा, पु० [हिं० गोल] लटाई, जिसमें गोडमा-क्रि० सं० [हिं० गोडना] पददलित पतग का डार लपटी जाती है। करना
| उदा० जैसें जिती डोर की सुगोला तें कढ़न होत उदा० नेकी-बदी बोडिहैं विपति बरु गोटिहैं. जो
तेती होत जात ऊच चढ़नि पतंग की। कान्ह हमैं छोड़िहैं तो हम तो न छोड़िहैं।
-ग्वाल
गोसा-संज्ञा, पु० [फा० गोशा] एकान्त, अकेले .. धिन-संज्ञा, पु० [सं०] १. ग्वालों का एक । २. धनुष की कोटि, कमान् की दोनों नोकें। गान, २. गायों का समूह ।
उदा० १. देव कहा भयो जो कबहू भुजडारी कहूँ सवा० १. जितही तितही धुनि गोधन की सब ही
उनके गल गोसे ।। व्रज व रह्यो रागमई। --रसखानि
२. प्रथम करी टंकार, फेरि गोसा सँवारि गोम--संज्ञा, स्त्री [सं० गोली] वह बोरिया |
तहि।
-चन्द्रशेखर
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