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चडैती
(
७४
)
चरनायुध
- की, अलोक संजा, स्त्री० [हि काम + प्रोटीकोका
चईती--संज्ञा स्त्री० [सं० चंड] १. बढ़ा-चढ़ी, चमोटी-संज्ञा, स्त्री० [हिं । चामऔटी] कोड़ा, २. उग्रता, उदण्डता, बदमाशी।
| चाबुक । उदा० क्यों न बराबरी बेनी प्रवीन की जामैं कछु
उदा. उन्द्ररि उद्धरि चोटी पीठ पै परत मोटी बढ़िहौ न चड़ती।
- बेनी प्रवीन
खोटी के परे ते ज्यों चमोटी काम गुरु की। चदरा - संज्ञा, पु० [फा० चादर] नदी के बहाव
- घनानन्द का समतल जल ।
चरख--संज्ञा, पु० [फा० चखं] आकाश, नभ, उदा० वान सी बुदन के चदरा बदरा बिरहीन पै
गगन । बाहत पावै ।
-पद्माकर उदा. चमचम चाँदनी की चमक चमक रही, चनक - संज्ञा, स्त्री० [ ? ] अाँख की पुतली।
राखी है उतारि कर चंद्रमा चरख तें। उदा० १. चनक मूद खग मग सब चकै । मदन
- ग्वाल गुपाल केलि रस छकै ।
घनानन्द चरकी-संज्ञा, स्त्री० [फा०] एक प्रकार की २. कूदत न मगज चनक मू दे साखामृग असि
आतिशबाजी जो मस्त हाथियों को भयभीय - दुग बूद बरसत रोझ रहचर । -देव
करने को छुड़ाई जाती हैं। ३. चनक मुद, द्रुम कुज उछीर। सोर करत | उदा० सेनापति धायौ मत्त काम की गयन्द जानि. किकिन मंजीर ।
--नागरीदास
चोपकरि चपै मानौं चरखी छुटाई है। चपके-क्रि० वि० [हिं० चुपचाप] गुप्त रीति से,
-सेनापति चुपचाप ।
चरखी तड़ित अरु चमकि गरज मंजु बरमत उदा० सूजा बिचलाय कैद करिकै मुराद मारे नीर मिस मद के पनारे हैं। ऐसे ही अनेक हने गोत्र निज चपके ।
- सोमनाथ - भूषण चरचना-क्रि० सं० [सं० चर्चन] १. भांपना चपना-क्रि० अ० [सं० चपन- कूटना] दबना,
अनुमान करना २.चंदन प्रादि लेपना । कुचल जाना ।
उदा० चैनन चरचिलई सैनन थकित भई नैनन में उदा० सेज करि ज्ञान की अदेह में न चपनो।
चाह करै बैनन में नहियां । -ग्वाल
- मतिराम चपरि-क्रि० वि० [सं० चपल] शीघ्रता से, चरजना- क्रि० अ० [सं० चर्चन] बहकाना, जल्दी से ।
भुलावा देना । उदा० राधा मोहन के हिय हिलगनि रचतिहुती उदा० चंचला चलोक चहं पोरन तें चाह भरी, बहुरंगनि भाव । सो सब सहज उघरि
चरजि गई ती फेरि चरजन लागी री । प्राई अब दबे चहूँघा चपरि चबाव ।
~-पदमाकर - घनानन्द चरजै-- संज्ञा, पु० [सं० चर= खन्जन नामक चपर्यो-संज्ञा, स्त्री० [सं० चपल] शीघ्रता,
पक्षी + चय=समूह ? ] खंजन पक्षियों का जल्दी ।
समूह । उदा० चौकस चपल चिकनिया चपर्यो चहत ।
उदा. भूषण जौ होइ पातसाही पाइमाल ग्री बचावन ।
- घनानन्द
उजीर बेहवाल जैसे बाज त्रास नरजै । चपाना-क्रि० सं० [हिं० चाप, दबाव] दबाना,
- भूषण कान्तहीन करना।
चरन-संक्षा, स्त्री० [सं०चर + हिं० न] उदा० चित जाके चाय चढ़ि चंपक चपायो कोन. १. कौड़ियाँ, कर्णद्दका २. कविता की पंक्ति । मोचि सुख सोच है सकुचि चुप चली व ।। उदा० १. सुनु महाजन चोरी होति चारि चरन
-देव
की तात रोनापति कहै तजि करि ब्याज चमरी संज्ञा, स्त्री० [सं० चमर] सुरागाय ।
कौं।
- सेनापति उदा० चौर करें चमरी चय मोर चकोर, मृगी चरनायुध-[सं० चरणायुध] मुर्गा, ताम्रशिखा । मृग चाकर भारी ।
-देव उदा० कियौ कंत चित चलन कों तिय हिय भयौ
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