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छरहरे
छाँह छरहरे-वि० [हिं० छड़] तेज, शक्तिशाली, २. छरे-क्रि० वि. [१] अकेले, एकाकी । क्षीणानी।
उदा० दास खबास प्रवास अटा, घन जोर करोरन उदा० छार भरे छरहरे छग ज्यों छरकवारे छाए। कोश भरे ही। ऐसे बढ़े तो कहा भयौ हे हैं छविन छायघन छाइयत हैं। -गंग
नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही। छरहरी-वि० [हिं० छड़+हरा] क्षीणाङ्गी,
- भूधरदास तेज ।
छरौ-वि० [हिं० छली] छली, छलिया उदा० कारे लहकारे काम छरी से छरारे छरहरी
धोखेबाज। छवि छोर छहराति पीडुरीनने । -देव
उदा० भाजि चल्यौ छैल छरौ छोर पै छबीलिन छरहू-संज्ञा, स्त्री० [सं० छटा+हिं० हूँ] छटा,
ने छरी को उठाय धाय मारी उर-माल बिजली, विद्युत् ।
पै ।
-ग्वाल उदा० मघामेघ मुगदर सम लागति । छरह बर दवागि नर दागति ।
-बोधा
छलाले--संज्ञा, पु० [हिं० छलावा] भूत-प्रेत आदि
की वह छाया जो दिखाई पड़कर गायब हो दरा-संज्ञा, पु० [सं० शर] १. इजारवंद, नारा, नीबी २. छर्रा, गंडा, गले में पहनने का
जाती है ? उल्कामुख प्रेतं, अगिया बैताल । डोरा ३. माला की लड़ी ४. अप्सरा, परी
उदा० छांह न छुवत जा छबीली को छलाले कहि
छैल छलि ले गयो अटारी बनी विधि की । [संज्ञा स्त्री० सं० अप्सरा] उदा० १.बै गयो सनेह फिर ह गयो छरा को
-ग्वाल छोर फगुवा न दै गयो हमारो मन ले गयो,
छवा-संज्ञा, पु० [सं० शाव] १. पुत्र बच्चा, -पद्माकर
__ लड़का २. एंडी दिश]
उदा० १.ब्रज के बबा हैं कैछवा हैं छवि ही के रन २. रेसभ के गुन छीनि छरा करि, छोरत
रोस के रेवाह के लवा हैं श्री सवाई के । ऐचि सनेह रचावे। -देव
-पदमाकर ३. काह को चीर लै रूख चढ़ यो अरु काह
२. कारे चीकने ह्व कळू काहै केस प्रापही को गुंज छरा छहरायो। -रसखानि
तें। बढ़ि बढि बिथुरि छवा ली लागे ४. कहै कवि तोष करै केतिकौ कला को
छलकन। तऊ नंद के लला को छरा छरने न
-रसकुसुमाकर
छवान की छुई न जाति, शुभ्र साधु माधुरी। पावती। -तोष
----केशव छराए-संज्ञा, पु० [हिं० छलावा] जादू, माया दृश्य ।
छहरना-क्रि० अ० [सं० शरण] फैल जाना, उदा० लियौ दाँव हरि चखनि चौंध भरि, पाई बिखर जाना । अलग छराए लौं छरि ।
-घनानंद
उदा० छोहभरी छरी सी छबीली चिति माह फल बराक-संज्ञा, स्त्री० [सं० छटा बिजली+हिं०
छरीके छुवत फूल छरी सी छहरि परी । +क (प्रत्य॰)] विद्य त्, बिजली।
-देव उदा० छावै न छराक छिति छोर लौं छबीली,
नीरज तें कढ़ि नीर नदी छबि छीजत छीरज . छटा, छन्दन छपा में पौन डारना डहारैना
पै छहरानी।
-पद्माकर --नंदराम
छहरारी-वि० [सं० क्षरण] फैलने वाली छरिया-संज्ञा, पु० [हिं० छड़ी+इया (प्रत्य)]
बिखरने वाली। छड़ीबरदार, द्वारपाल ।
उदा० छनभा छहरारी-सुघन घहरारी घटा, तामें उदा० द्वार खरे प्रभु के छरिया तहें भूपति जान
छबि सारी हिमकारी उजियारी है। _ न पावत नेरे। -नरोत्तमदास
- -भुवनेस छरी-वि० [सं० क्षरण] विनष्ट, मुक्त छूटा हुमा । छाँह-संज्ञा, स्त्री० [देश॰] कपटमय शिक्षा। २. प्रपंचित,छला गया।
मुहा० छांह छूना-पास जाना, पास फटकना । उदा० रोवत है कबहूँ हँसि गावत नाचत लाज की यथा-मुंह माहीं लगी जक माहीं मुबारक छाहीं छांह छरी सी।
- केशव छुए छरकै उद्यल।
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