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हहराना
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लखि भूप हसम हर कहयो फुल्लि । जँह तँह इसम खसम बिनमये - केशव २. हसम सकल चहुवान ने, लीनो तबै छिनाय ।
जोधराज
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हहराना- क्रि० अ० [अनु०] ठट्टा मारना, । हा हा शब्द करके हँसना २. कापना, थरथर राना उदा० १. राधिका, की रस रंग की दोपति, संग की हेरि हँसी हहराइकै । —देव हाँक - संज्ञा, स्त्री० [सं० हुंकार ] गर्जन ध्वनि, वंशी की प्रावाज ।
उदा० लगी-सांकरी सी गर हाँकरी सांकरी खोरि में हाँ करती । टूटिगो पिनाक ऐसी हांक परी कानन मै । धावत अधर दल दन्तन दर्यो पर - नंदराम हाँगो - संज्ञा, स्त्री० [हि० हाँ०] हामी, स्वीकृति उदा० भारि डार्यो पुलक प्रसेद निवारि डा रोकेँ रहनाहूँ त्यों भरो न कछू हांगीरी ॥ - पद्माकर
बैनु की,
-द्विजदेव
हाइल - वि० [हिं० घायल लालायित २. मूच्छित शिथिल, बेकाम
उदा० किय हाइल चितचादूलगि, बजि पाइल तुवपाइ । —बिहारी हाई - संज्ञा, स्त्री० [देश० ]दशा, हालत, ढंग, तौर उदा० नातरु उसास लागे मुकुर की हाई है
।
आलम
हातो - वि० [स०हात] दूर, अलग, पृथक । उदा० तुम बसौ न्यारे, यह नेकहू न हातो होय |
-घनानन्द
हार — संज्ञा, पु० [सं०] खेत, जङ्गल । उदा० हरित हरित हार हेरत हियो हरत. हारी हौं हरिननैनी हरि न कहूँ नहीं ।
केशव काम करावे हार में विषबनियाँ पर खाय । - बोधा हारद - संज्ञा, पु० [सं०] १. कृपा, दया २ हाल उदा० १. शारद के मृदु हारद देव सनारद ब्यास बिहारनि हू में । —देव
समाचार ।
२. सो सब हारद, नारद सों सुनि, सौं मोज महीप हठाए । हालगोला – संज्ञा, पु. [ ? ] गेंद, कंदुक
श्रोज -देव
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हिरसी
उदा० किधौं चित्त चौगान के मूल सोहैं । हिये हेम के हालगोला बिमोहैं । -केशव १. कृषक,
हाली -संज्ञा पु० [सं० हालिक ] किसान २ शीघ्र, जल्दी । ( क्रि० वि०) उदा० हालो कौं द्विज दियो सराप । होई राकस भुगती पाप । — जसवंतसिंह हिक्करी- संज्ञा, स्त्री० [हिं० हेकड़] १. हेकड़ी, अक्खड़पन, उग्रता २. जबरदस्ती । उदा० १. फिर चक्करी से गली सक्करी में । लिये अक्करी ऐंड ज्यों हिक्करी में ।
—पद्माकर
हिडोरना- क्रि० अ० [हिं० हिंडोल ] आन्दोलित करना, हिलाना, प्रकंपित करना ।
उदा० प्रथमागम संक छुटी कुछु पै चित में रस रीति हिंडोरति है ।
--शालम
पद्माकर
हिन – संज्ञा, पु० [हिं० हिरन] हिरन । उदा० महा सुछ्छ पुछ्छे रही हैं उन सी । नरी पांतरी आतुरी हिन कैसी । हिंगलाज - संज्ञा, स्त्री० [सं० हिंगुलाजा ] दुर्गा या देवी की एक प्रतिमा जो सिंध में है । उदा० मंगला के मंगल तें मंगल अनेग भये, हिंगलाज राखी लाज याहि काज नयो हौं । हियैल – संज्ञा, स्त्री० [ ? ] हाथ का एक श्राभू षरण, कंकरण । उदा० नीलमनीनि हियैलै बनी सुघनीन छयी है । हिताब - वि० [सं० हित ] प्रिय, अच्छा लगने
रुचि रूप सनी
-घनानन्द
वाला ।
उदा० 'ग्वालकवि' ललित लवंग में न बेलन में, चंदन न चंद्रकन केसर हिताब में ।
-ग्वाल
हितबंछो- संज्ञा, पु० [सं० हिताकांक्षी ] हितैषी, हिताकांक्षी, हितवांछी ।
उदा० फेरि फेरि हेरि मग बात हित बंछीं पूंछे, पक्षीहू मृगंछी जैसे पक्षी पिंजरा पर्यो ।
- देव
हियो संज्ञा, पु० [हिं० हिय, हियाव] हियाव, साहस, हिम्मत ।
उदा० हियो कर मैन, लियो सर मैन, दियो मरमै न सम्हारि के सचल । — देव हिरसी स ंज्ञा, पु० [स ं० ईर्ष्यालु हि० हिड़सहा] १. ईर्ष्यालु [फा० हिंस] २. लालची ।
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