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-दास
आसन] गरुड़ का प्रासन बनाने वाले, विष्णु ।। उदा० पुनि बीणा साज माधव अडंग । उदा० हीय पर देव पर बदे जस रटै नाऊँ खगा
शिव शरण ध्याय गायो खड्ग । सन नगधर सीता नाथ कौलपानि ।
-बोधा --दास । खडग प"- संज्ञा, पु० [सं० खड्ग पत्र] यमपुरी खचना-क्रि० प्र० [सं० खचन] रुक जाना, अटका का एक कल्पित वृक्ष जिसकी पत्तियाँ खड्ा की जाना।
तरह धारदार मानी जाती हैं। उदा० घॉघरो झीन सों सारी मिहीन सों पीन | उदा० तची भूमि अति जोन्ह सों झरे कंज ते नितंबनि भार उठे खचि ।।
फूल । तुम बिन वाको बन भयो खड़ग पत्र खचर-संज्ञा, पु० [सं ख = भाकाश +घर
के तूल ।
-मतिराम । चारी,1 सूर्य, प्राकाश चारी।
खड्ग पत्र सों सौगुनी जाहिर यहै कलेस । उदा० हरिदल खुरनि खरी दलमली।
-बोधा ___ खचरहिं धूरि पूरि मनु चली ।।
खड़गी-संज्ञा, पु० [सं० खङ्ग] गैड़ा। -केशव
उदा० खड़गी खजाने खरगोस खिलवत खाने खत संज्ञा, पु० [सं० क्षत] १. क्षत, कलंक २.
खोसै खोले खसखाने खांसत खबीस हैं । सरखत, दिए और चुकाए हुए ऋण का ब्यौरा।
-भूषण उदा०१. मोहित तो हित है रसखानि छपाकर | खतरेटे-संज्ञा, पु० [हिं० खत्री + एटे (प्रत्य)] जाहिं जान अजानहिं ।
१. खत्री के बच्चे, २. क्षत्रिय पुत्र। सोउ चवाव चल्यौं चहाँ चलि री उदा० बिद्रम की झाँझरी विराजै बिबिराज कैधौं चलि री खत तोहि निदानहि ।
लाल जाल पाट बैठे खूब खतरेटे हैं । -रसखानि
-तोष दैहैं करि मौंज सोई लैहैं हम हरबर ता
खरक-संज्ञा, स्त्री० [हिं० खटक] खटक, चिन्ता। छिन उमादो खत टीपन लिखाइहौ ।
-गंग
उदा० खरक दुहेली हो असूझ रेप रावरू की। खज-वि. [सं० खाद्य, खाद्य, खाने योग्य ।
-घनानन्द उदा. भ.ख मारत ततकाल ध्यान मुनिवर कौं खरिक-संज्ञा पू० [सं० खड़क] गायों के ठहरने धारत । बिहरत पंख फुलाय नही खज
__का स्थान, गौशाला । अखज बिचारत ।
-दीनदयाल गिरि उदा० अब ही खरिक गई' गाइ के दुहाइबे कौं. खटाना-क्रि० प्र० [देश॰] टिकना, रुकना।
बाबरी ह्व' पाई डारि दोहनीयौ पानि उदा० कहै कवि गंग भट बिन न खटात खेत,
की ।
- रसखानि कहा करै निपट निसानो रन बाजनो ।
खरी-संज्ञा, स्त्री० [? ] एक प्रकार की ईख ।
-गंग उदा० खारिक खरी कों मधुहू की माधुरी को खटिका-संज्ञा, स्त्री० [हिं० खरिया] खरिया।
मुभ, सारदसिरी कों मीसरी कों लूटिलाई एक प्रकार की सफेद मिट्टी जो पोतने के काम
सी।
-पद्माकर में आती है।
खरीक-संज्ञा, पु० [हिं० खर] खर, तृण, उदा० सीप, चून, भोडर, फटिक, खटिका, फेन, तिनका । प्रकास ।
उदा० भूषन मनत, तेरे दान जल जलधि मैं। खटोल-वि॰ [देश] कंटीला, झाड़ीदार २. नि
गुनिन को दारिद गयो बहि खरीक सो। बिड़, सघन ।
-भूषण उदा० नन्द जी को बाछा मोहि मारिबे को दौरो खलार-संज्ञा, स्त्री० [सं० खात] नीची, जमीन,
देवि भागी मैं खटोल बन जान्यौ प्रान खाल । ल गयो ।
-नंदराम | उदा० साकरी-गली की उतै कवि रघुनाथ घनी खड्ग-संज्ञा, पु० [स षाड़व] एक राग जिसमें ___ वह जो कदंब खड़ी गिरि के खलार है। द्रः स्वर लगते हैं।
-रघुनाथ
केशव
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