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संसी
(
२१०
)
सखि
जानि पर नारि मन संभ्रम भुलायो है। । उदा० जकरि जकरि जांघे सकरि सकरि परै,
-कालिदास
पकरि पकरि पानि पाटी परजंक की । संसी-वि० [सं० संशय] शंकालु, संशय करने
-कवीन्द्र वाला।
सकसना-क्रि० अ० [?] फैलना, बिखरना। उदा० बंशन के वंशन सराहै शशि बंशीवर बंशी- उदा० मार्ग प्रागे तरुन तरायले चलत चले तिनके घर संसी हंस बन्शन हिलति है। -देव
प्रमोद मन्द मन्द मोद सकसे । संसेर-संज्ञा, स्त्री० [फा० शमशेर] तलवार ।
-भूषण उदा० गहे बान कम्मान संसेर नेजे ।
सकसै-संज्ञा, पु० [सं० संकष्ट] संकट, उलझन
-चन्द्रशेखर । २. [अनु० सकसाना] भय, डर । संजोना-क्रि० स० [सं० सज्जा] जलाना, उदा० चहुँ ओर बबा की सौ सोर सुने मन मेरेऊ दीपक प्रकाशित करना, उजाला करना ।
प्रावति री सकस ।
-रसखानि उदा० कोमल अमल पदपंकजन हंस कंधों, मदन | सका-संज्ञा, पु० [फा० सक्का] भिश्ती, पानी महोत्सव संजोइ राखी आरती ।
भरने वाला।
-बलभद्र मिश्र उदा० सका मेघमाला सिखी पाककारी । नेह सों भोय सँजोय धरी हिय दीप दसा
-केशव जु भरी अति प्रारति ।
-घनानन्द सकाना-क्रि० अ० [सं० शंका] संदेह करना, सँरसी--संज्ञा, स्त्री [हिं० सँड़सी] बनसी में २. हिचकना। लगी हुई लोहे की कैंटिया ।
उदा० सकियै नहिं नेक निहारि गुपाल सु देखि उदा० बंक हियेन प्रभा सँरसी सी । कर्दम काम
मसोसनि ही मरिय।
-गंग _ कछू परसी सी ।
-केशव
सकिलात-संज्ञा, पु.[तु० सकिरलात, फा०] ऊनी सांखाहूली-संज्ञा, स्त्री० [सं० शंखपुष्पी] शंख बानात सिमलात बढ़िया ऊनी वस्त्र । पुष्पी नामक पुष्प, कौड़ियाला।
उदा० हरी हरी दूब छोटी तापर बिराजै बंद उदा० सांखाहूली फूल की महिमा महा अकत्थ
उपमा बनी है मिश्र निरख सिहात है। सीस धरै पिय सीय के जिनतोरे दसमत्थ ।
सावन सनेही मनभावन रिझावन को मोतिन -मतिराम
गुथाये हैं दुलीचा सकलात के। सांसी--वि० [हिं० सांची] साँची, सत्य ।
-शृगार संग्रह' से उदा० गाँसी जाहि सूल ताहि हांसी न हंसाये
रगमगे मखमल जगमगे जमींदोज, और सब पावै वासी परै पेम सुनि सांसी कहियत
जे वे देस सुप सकलात हैं।
-गंग -आलम सकुली-वि. [सं० संकुल] संकीणं, संकुचित । सई-वि० [हिं० सही] १. सत्य, सच, यथार्थ । | उदा० कमल कुलीनन के सकुली करन हार, उदा. जब आसकी तेरी सईकी करें तब काहे
कानन लौ कोयन के लोयन रंगीन के । न संभू के सीस चढ़। -बोधा
- कवीन्द्र सकता-संज्ञा, पु० [अ० सक्तः] मूर्खा रोग, सकेलि-संज्ञा, स्त्री० [?] कच्चा और पक्का बेहोशी की बीमारी।।
मिला हुमा लोहा । उदा० रे रे स्वातिक कूर अवध बाल जानत उदा० पाउँ पेलि पोलाद सकेलि रसकेलि किंधों
जगत । भावन हमरो दूर सूने मत सकता नागबेलि रसकेलि बस गजबेलि सी । करै। -बोधा
-देव सकबंध-वि० [?] वीर, शक्तिशाली २. मुगलों सक्कस-वि० [फा० सरकश] कठिन, २. उदंड, की एक उपाधि ।
विरोधी, विद्रोही। उदा० राजन के राजा महाराज श्री प्रतापसिंह उदा० जानि पन सक्कस तरक्कि उठयो तक्कस तुम सकबंध हम छंदबंध छाए हैं।
करक्कि उठ्यो कोदंड फरिक्क उठ्यो, -पद्माकर भुजदण्ड ।
-दासो सकर-संज्ञा, पु०, [हिं० सकरना] फिसलने का J सखि--संज्ञा, स्त्री० [सं०साशिम्] १. गवाही, भाव या क्रिया, फिसलन ।
साक्षी, २. गवाह [संज्ञा, पु.] ।
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