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निजु ( १३८ )
निबरना चरण रज लीनी।
-जसवंतसिंह । निधरे-वि० [हिं० निधड़क] निधड़क, निर्भीक, निजु-अव्य० [?] निश्चय ही।।
निडर । उदा० निजु पाई हमको सीख देन ।
उदा० देव तहाँ निधरे नट की बिगरी मति को -केशव सिगरी निसि नाच्यो ।
-देव निझनक-वि० [?] १. अवधि, २, नीरव, निनद-संज्ञा, पु० [सं० निनाद] आवाज, ध्वनि । निर्जन ।
उदा० कहै पद्माकर त्यों निनद नदीन नित नागर उदा० अंजन दै री राधे न करि गहर हे हा हा।
नवेलिन की नजर निसा की है । निझनक बार टरी जाति मनभावन ब्रज
--पदमाकर मोहन मिलन-उमाहा ।
-घनानन्द निनवारना-क्रि० स० [सं. निवाररंग] सुलनिझकनि- वि० [प्रा० णिज्झरो=क्षया क्षय- झाना। __ कारी, दुखद, पीड़ित करने वाला।
उदा० मकराकृत कंडल में उरझी जूलफ सूलफ उदा० निझुकनि रैनि झुकी बादरऊ झुकि आये,
घुघुरारी । कोमल गोल कपोल परस कर देख्यौ कहाँ झिल्लिनि की झांई झहनाति है,
सो राधा निनवारी। -बकसीहंसराज
-आलम निनारा-वि० [सं० निन्+निकट] बिल्कुल, एक अबुध बुधनि में पढ़त ही निझुकत लक्षन- एकदम २. न्यारा, विलक्षण । हीन । भृकुटी अग्र खरग्ग सिर कटतु तथापि । उदा० १. ऐसोई जी हिरदै के निरदै निनारे हो अदीन।
-केशव
तो काहे कों सिधारे उत प्यारे परबीन निभूटी-वि० [प्रा० णिच्छूढ -निक्षिप्त] निर्गत
-दास निष्कासित, निकाली गई ।
निपच्छ-वि० [सं० निः+पक्ष] जिसका कोई उदा० बंधन ते छूटी प्रेम बंधन बघटी, बित हित पक्ष करने वाला न हो, अनाथ, असहाय । चित लुटी सी, निभूटी सी झगरि कै। उदा० कहै पद्माकर निपच्छन के पच्छ हित पच्छि
-देव
तजि लच्छि तजि गच्छिबो करत हैं। निझझल-संज्ञा, पु० [निझोल] हाथी, गज ।
-पद्माकर उदा० निझझल कज्जल संजुत मिड्डि कै भालुक | निपजना-क्रि० अ० [सं० निष्पद्यते] उत्पन्न पिड्डि के भूमि गिराये।
-दास होना, पैदा होना २. बढ़ना । निथंभ-संज्ञा, पु० [सं० स्तम्म] खम्भा, स्तम्भ ।। उदा० पेट परै को लखै फल ज्यौं निपजे हौ सपूत उदा० रची बिरंचि बास सी निथंभराजिका भली
सु भागनि जागे ।
--घनानन्द जहाँ तहाँ बिछावने बने घने थली थली । । निपेटी- वि० [हिं० नि+पेटी=पेटू] भुक्खड़,
-केशव अतिशय भूखा, पेटू । निथोरी–वि० [सं० निहिं० थोड़ा] अत्यधिक उदा. देखिये दसा असाध अँखियाँ निपेटिनि की, बहुत ज्यादा ।
भसमी विथा पै नित लंघन करति है। उदा० आई हो निथोरी बेस सेखर किसोरी बैस
-घनानन्द थोरी रस बातन सनेह भीजियतु है। निबटे-वि० [सं० निपट] निपट, अत्यंत ।
-चन्द्रशेखर उदा० नये छैल निबटे आनंदघन करत फिरत निदंभ-वि० [सं० निर्दभ] घमंड,रहित, गर्वहीन
प्रति ही बरजोरी।
-घनानन्द उदा. प्रारंभित जोबन निदंभ करै रंभा रुचि निबरना-क्रि० अ० [सं० निवृत्त] छूटना, मुक्त रंभोरू सुगंभीर गुराई गुन भीर की।
होना, छुटकारा पाना, निकलना, गुजरना २.
-देव समाप्त होना, ३. दूर होना। निदाह-संज्ञा, पु० [सं० निदाघ] ग्रीष्म ऋतु, उदा० १. आस-पास पूरन प्रकास के पगार समै षट् ऋतुमों में एक ऋतु जो बसन्त के बाद पाती
बनन अगार, डीठि गली ह्व निबरते । है, गरमी की ऋतु ।
-देव उदा० दास आस पास पुर नगर के बासी उत,
२. बीति सब रैनि नभ निबरी तरैयां और माह हू को जानति निदाहै रहयो लागि ।
चहकी चिरैयाँ चारु बिधि लै प्रनंद -दास । की।
-सोमनाथ
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