Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004259/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमजिनेन्द्र स्वामी प्रणीत जिनवाणी का सार / / निर्ग्रन्थ प्रवचन।। जैनागमों से चयनित गाथा संग्रह IYYYAAR GA AMMAANAN - D . . . . . . . संकलन-सम्पादन : जगदवल्लभ जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पूज्य श्री चौथमल जी म.सा. पुन प्रकाशन प्रेरक: श्रमण संघीय उपाध्याय संघसेतु-संघगौरव पूज्य श्री रवीन्द्र मुनि जी म.सा. For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमजिनेन्द्र स्वामी प्रणीत जिनवाणी का सार / निर्ग्रन्थ प्रवचन।।। जैनागमों से चयनित गाथा संग्रह 17.50 % संकलन-सम्पादन : जगदवल्लभ जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पूज्य श्री चौथमल जी म.सा. पुर्न प्रकाशन प्रेरक : श्रमण संघीय उपाध्याय संघसेतु-संघगौरव पूज्य श्री रवीन्द्र मुनि जी म.सा. San Education Interhaal For Personal private Use Only Cow.jaiperprey.p Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000 जिन श्रमण श्रमणी-श्रावक श्राविका चतुर्विध संघ हेतु नित्यौपयोगी आध्यात्मिक प्रकाशन 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 श्रीमजिनेन्द्र स्वामी प्रणीत जिनवाणी का सार / निर्ग्रन्थ प्रवचन / / जैनागमों से चयनित गाथा संग्रह संकलन-सम्पादन जगदवल्लभ जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पंडित रत्न मुनि श्री चौथमल जी म.सा. (पुर्न प्रकाशन पुरुषार्थकता) श्रमण संघीय उपाध्याय संघसेतु-संघ गौरव पूज्य श्री रवीन्द्र मुनि जी म. की मंगल प्रेरणा 0000000000000000 00000000000oodai 00000000000000060 For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000 oo0000000000000000000000000000000000000000 [ पुस्तक सन्दर्भ ] 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - रचनाः निर्ग्रन्थ प्रवचन / मौलिक सम्पादन संकलन : जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.सा. / शाश्वत आशीर्वादः आचार्य सम्राट डॉ. श्री शिवमुनि जी म.सा. संघ गौरव गुरुदेव श्री प्रेमसुख जी म.सा. - पुर्न प्रकाशन प्रेरक: संघसेतु उपाध्याय श्री रवीन्द्र मुनि जी म. पुर्न प्रकाशक: गुरु प्रेमसुख धाम 16, नैशनल रोड़, लक्ष्मण चौक, देहरादून, (उत्तराखण्ड) - मानद सम्पादक, संशोधकः तत्व जिज्ञासु श्री ऋषि मुनि जी म. - कार्यकारी सम्पादक: श्री हुकमचंद जैन 'मेघ', दिल्ली मो. 09810554810 ग्राफिक्स: अजय सहरावत, दिल्ली प्रकाशन सौजन्यः श्रावक रत्न स्व. श्रीजय कुमार जी जैन श्राविका रत्न स्व. श्रीमती मोती देवी जैन श्री प्रवीन जैन, श्री अमित जैन परिवार 6879, Indira Market, Janta Gali, (Near Arya Samaj Gali), Ashok Bazar, Gandhi Nagar, Delhi-110031 मुद्रक : Creative 8,Govind Market, Haider Pur, Delhi-110088, Ph. 011-27490307 Mob. : 09891648519, 09910949818 igooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ENTERPRISES 0000000000000000000000000000 प्राप्ति स्थान गुरु प्रेमसुख धाम 16, नैशनल रोड़, लक्ष्मण चौक, देहरादून, (उत्तराखण्ड) सम्पर्क सूत्र : श्री सुभाष जैन, मो. : 09897396132 निर्ग्रन्थ प्रवचन/2 oooooooooooooooooDIA Jan Laucation international For Personal & Private Use Only 50000000000 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope / / निर्ग्रन्थ प्रवचन / / [ अनुक्रमणिका 18000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 क्र.सं. अध्याय चतुर्विध संघ के लिए उपयोगी है यह संकलन प्रकाशकीय निवेदन निर्ग्रन्थ प्रवचन सार 1. षट् द्रव्य निरुपण 2. कर्म निरुपण 3. धर्म स्वरूप वर्णन 4. आत्म शुद्धि के उपाय 5. ज्ञान प्रकरण 6. सम्यक् निरुपण 7. धर्म निरुपण 8. ब्रह्मचर्य निरुपण 9. साधु धर्म निरुपण 10. प्रमाद परिहार 11. भाषा स्वरूप एवं प्रयोग 12. लेश्या स्वरूप 13. कषाय स्वरूप 14. वैराग्य सम्बोधन 15. मनो निग्रह 16. आवश्यक कृत्य 17. नर्कस्वर्ग निरुपण 18. मोक्ष स्वरूप महामंत्र नवकार करेमि भंते सामायिक पाठ, प्रणिपात सूत्र चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र, नित्य भावना श्रावक चिन्तन मंगल प्रार्थना, जिनशासन प्रार्थना ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool 107 120 130 138 149 159 168 178 193 206 207 208 210 212 निर्ग्रन्थ प्रवचन/3 Joooooooooooooooooon Jain Education hiemational For Personal & Private Use Only 000000000000061 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g Ag00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - मनोगत चतुर्विध संघ के लिए उपयोगी है यह संकलन उपाध्याय रवीन्द्र मुनि श्रुत ज्ञान की परम्परा सदियों से जिनशासन का गौरवशाली आधार रही है। जिनवाणी में अभिव्यक्त या व्याख्यायित जीवन सूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन जीवन सूत्रों का नित्य प्रति अभ्यास करना, स्वाध्याय की सुन्दर प्रवृत्ति का अनुकरणीय प्रमाण है। इस प्रयास में जिनशासन के अनेक मुनिराजों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। किसी ने इनकी व्याख्या की है, तो किसी ने इनका संकलन किया है, किसी ने इनके आधार पर ही परमार्थी, भाव प्रेरक प्रवचनों की प्रस्तुतियाँ की है। सम्पूर्ण आगम साहित्य से लिए गए इन चुनिन्दा सूत्र रत्नों का यह संकलन "निर्ग्रन्थ प्रवचन" के रूप में साहित्य एवं जिनशासन की सेवा में अद्वितीय योगदान करने वाले जैन दिवाकर पूज्य श्री चौथमल जी म.सा. ने किया है। यह संकलन इतनी प्रेरक एवं प्रखर दृष्टि से किया गया है कि इसकी पंक्ति-पंक्ति का अध्ययन करना एवं उस अध्ययन के आधार पर अपने जीवन में संस्कार रोपण करते हुए जिनशासन प्रणीत वाणी के आधार पर अपना आचरण बनाना चिन्तन–मनन करना अत्यंत लाभकारी है। यही लाभ लेना पुस्तिका का लक्ष्य है। a अनेक वर्षों से यह पुस्तिका त्यागी वर्ग एवं प्रबुद्ध श्रावकों में प्रचलित है। इसकी चुम्बकीय सम्पादन शैली एवं संस्कृत एवं प्राकृत में की गई व्याख्या मूल सूत्र के गहन गम्भीर सन्देश को प्रस्तुत करने में सदैव सफल रही है। इस संकलन में जिन लोगों ने विशेष रूप से योगदान किया है उसमें श्रमण संघीय उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म. आदि का उल्लेख करना अत्यावश्यक है। 01 इन महामनीषियों के परिश्रम से यह रचना नित्य स्वाध्यायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन गई है चूंकि इसका पुर्नप्रकाशन लम्बे नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/4 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 00000000000000ook 000000000000 For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl B00000000000000000000000000000000000 00000 समय से नहीं हो पाया था एवं इसकी वर्तमान में उपलब्धि भी नगण्य ही देखी गई थी। इसे दृष्टिगत रखते हुए मेरे मन में विचार उठा कि "मैं इस पुस्तक को पुनः अपने मूल स्वरूप में प्रकाशित करने हेतु सहयोगी श्रावकों को प्रेरित करूं।" मेरे प्रयास से यह कार्य परम गुरुभक्त स्व. श्री जय कुमार जी जैन एवं स्व. श्रीमती मोती देवी जैन परिवार के योगदान से संभव हुआ है। वर्तमान में इनके सुपुत्र श्री प्रवीण कुमार, अमित कुमार आदि जो पूज्य गुरुदेव श्री प्रेमसुख जी म. के प्रति अनन्य आस्था रखते हैं और आज भी जहां-कहीं भी मैं होता हूँ वहां पर अपनी व्यस्तताओं के बीच भी समय निकालकर दर्शन-मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं एवं सार्थक दिशा में किसी भी योगदान को करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। मैं ऐसे परम गुरुभक्त परिवार को इस रचना प्रकाशन में सहयोगी होने के नाते हृदय से साधुवाद देता हूँ, धन्यवाद देता हूँ। मेरा निर्ग्रन्थ प्रवचन के पाठकों से एक विशेष निवेदन है कि- इस रचना में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक की वाणी का संक्षिप्त संकलन प्रस्तुत किया गया है। इस रचना के अट्ठारह खण्डों में क्रमश: जीवन में पग-पग पर उपयोगी सूत्रों की ऐसी मणिमय माला पिरोई गई है जिसका प्रत्येक मणि माणिक्य अद्वितीय है, अनुकरणीय है, सर्वकालिक लाभकारी है। एक और बात इस संकलन में विशेष रूप से देखने | में आई है कि यह संकलन चतुर्विध संघ के लिए समान रूप से उपयोगी है। इसी दृष्टि से इस महत्वपूर्ण आगम सूत्र संकलन का प्रकाशन करवाना मेरा लक्ष्य था। मैं प्रसन्न हूँ कि मेरी प्रेरणा से यह संकलन प्रकाशित हो रहा है और इसके प्रकाशन से निश्चित रूप से भव्यात्माएँ लाभ लेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। इसी दृढ़ विश्वास के साथ यह प्रकाशन जिनवाणी के जिज्ञासु पाठकों के लिए गुरु प्रेमसुख धाम प्रकाशन, देहरादून द्वारा पुर्नप्रकाशित किया जा रहा है। इस प्रकाशन पर मैं हृदय से प्रसन्नता व्यक्त करता हूँ। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ सभी सहयोगियों का आभार, धन्यवाद, साधुवाद। Agoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 000000000 100000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/5 50000000000000000 S00000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रकाशकीय निवेदन gooo00000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 भव्यात्माओं! "निर्ग्रन्थ प्रवचन" भगवान महावीर की वाणी है। प्रस्तुत पुस्तक को समस्त मानव समाज एवं उसके सभी वर्ग जैन-अजैन नर-नारी सभी को सर्वत्र एक जैसा जिनवाणी का लाभ मिल सके, इस दृष्टि से प्रकाशित किया गया है। प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद श्री हुकमीचंद जी म.सा. के पाटानुपाट शास्त्र विशारद बालब्रह्मचारी पूज्य प्रवर श्री मन्नालाल जी म.सा. के पट्टाधिकारी धैर्यवान शास्त्रज्ञ पूज्य श्री रूपचन्द्र जी म. की सम्प्रदाय के कविवर, सरल स्वभावी मुनिश्री हीरालाल जी म. के सुशिष्य जगद्वल्लभ जैन दिवाकर, प्रसिद्ध वक्ता पंडित रत्न मुनि श्री चौथमल जी म.सा., जैन जगत के ऐसे विद्वान रहे हैं। जिन्होंने सदैव जैन धर्मावलम्बियों एवं स्वाध्याय प्रेमियों के लिए साहित्य सृजन किया और कराया / आपने प्रस्तुत पुस्तक में जैनागमों से चुन-चुनकर कुछ गाथाओं को एक जगह संकलित करके उनका सरल-सुबोध अनुवाद करके इस रचना को अत्यंत उपयोगी बना दिया है। वास्तव में जगदवल्लभ गुरुदेव का यह जैन जगत पर ही नहीं, जैन-जैनेतर समाज के प्रति भी बड़ा भारी उपकार है। यदि इस प्रकार की आत्मार्थी रचनाएँ सरल-सुबोध ढंग से प्रकाशित होकर जैन जगत को मिल जाए तो हम समझते हैं कि प्राणीमात्र का उपकार ही होगा। जैन साहित्य की यह विशेषता है कि इस साहित्य में अन्याय-अन्धविश्वास, शोषण और दर्बद्धि की ओर प्रेरित करने वाली कोई रचना सम्मिलित नहीं होती। यहाँ जो भी गाथाएँ पाठकों को पढ़ने हेतु उपलब्ध की गई हैं उनमें सदगुण और सदविचारों पूर्वक प्रेरित होकर साधना मार्ग में गहरे उतरने का प्रबोधन है। जगद्वल्लभ जैन दिवाकर पूज्य श्री चौथमल जी म. सा. ने जैनागमों का मंथन करके कुछ ऐसी ही गाथाओं का संग्रह यहाँ प्रस्तुत किया है, जिन्हें प्रत्येक प्राणी पढ़कर अपनी आत्मा का 00000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/6 loooo0000000000000 500000000000000006 For Personal & Private Use Only a Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope Oo00000000000 oooooo 0000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कल्याण कर सकता है। मुनिश्री के अनुदित खरों पर से उनके शिष्य मनोहर व्याख्यानी युवामनीषी पंडित श्री छगनलाल जी म. एवं साहित्य प्रेमी गणिवर्य मुनि श्री प्यारचन्द जी म. ने इस पुस्तक को प्रस्तुत करने में बड़ा भारी योगदान दिया है। अनुवादों में रह गई कतिपय भूलों को ठीक करना उनके स्थान पर उचित संशोधन प्रदान करना और जो खर्रा है, उसे खरे ढंग से प्रस्तुत करना यह कार्य उक्त दोनों मुनिराजों ने बड़ी लगन के साथ किया है। प्रकाशन की तृतीय वृत्ति में उनके या उनके अनुसार उचित संशोधन जो भी प्रकाशनार्थ उपलब्ध हुए हैं उन्हें भी यहां यथावत देने का प्रयास बड़ी सजगता से किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक के अनुवाद की भाषा को सरल से सरल बनाने में भी अनेक विद्वानों का सहयोग प्राप्त हुआ है। हमें पूरी आशा है कि पाठकगण इसका यथोचित लाभ उठायेंगे। जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति रतलाम (म.प्र.) की ओर से उल्लेखित उक्त वक्तव्य को सराहते हुए हम पुनः इस रचना के पीछे जिन-जिन महान आत्माओं का योगदान है, उसे यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही पूज्य गुरुदेव संघसेतु, संघरत्न उपाध्याय श्री रवीन्द्र मुनि जी म. की प्रेरणा और स्वाध्याय के प्रति लगन का भी हम हृदय से अनुमोदन करते हैं, जिनके आदेशों पर यह पूर्नप्रकाशन सम्भव होकर सविज्ञ पाठकों के हाथों में सौंपा जा रहा है। इस कार्य में जिन श्रुतसेवीदानदाताओं ने सहयोग प्रदान किया है, हम उनका एवं पुस्तक को प्रकाशित करने में जिन्होंने निष्ठापूर्वक हमें योगदान दिया है हम पत्रकार भाई हकमचंद जैन 'मेघ' और उनकी टीम का भी आभार व्यक्त करते हैं जिनके श्रम-सहयोग से यह पुस्तक नव्य-भव्य रूप में प्रकाशित होकर आपके सम्मुख है। इस रचना में सम्वेत सतर्कता रखने के बावजूद भी यदि कोई तथ्यगत भूल रह गई हो तो कृपया हमें सूचित करें ताकि इस रचना के नवीन संस्करण में उन भूलों को संशोधित किया जा सके। आभार-धन्यवाद-साधुवाद। प्रकाशक मण्डल 90000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 doo00000000000000000 9. 1000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/ 7 o For Personal & Private Use Only 000000000000 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 09000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 | रचना सन्दर्भ निर्ग्रन्थ प्रवचन सार आज से लगभग 2670 वर्ष पूर्व जब भारतवर्ष अपनी पुरातन आध्यात्मिकता के मार्ग से विमुख हो गया था तब बाह्य कर्मकाण्डों की उपासना का घनघोर वातावरण बन गया था। सामान्य प्राणी के हृदय में प्रेम, दया, सहानुभूति, सद्भाव, समभाव और क्षमा आदि सात्विक वृत्तियाँ जीवन से पलायन कर चुकी थीं। ऐसे विकट समय में प्रजातंत्र की जन्मभूमि वैशाली में भगवान महावीर ने जन्म लेकर भारतीय जन-जीवन और मानवीय उत्कर्ष हेतु एक अहिंसक क्रांति का सृजन किया। भगवान महावीर ने कोरे उपदेशों से क्रांति की हो, ऐसी बात नहीं, क्योंकि उपदेश मात्र से कभी कोई सर्वोदयी क्रांति सम्भव नहीं होती। भगवान महावीर राजपुत्र थे। उन्हें संसार में प्राप्त होने वाली सभी प्रकार की सुविधाएँ सहज सम्भव थीं। ऐसे में भी उन्होंने विश्व के उद्धार हेतु समस्त सुख भोगों को तिलांजलि देते हुए अरण्य की शरण में जाकर एक अकिंचन साधन जीवन जीया और साधना के गहरे निष्कर्षों के पश्चात् जो दिव्य ज्ञान ज्योति उन्हें मिली, उससे चराचर विश्व अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिभाषित होने लगा। उन्होंने इस भूले-भटके संसार को कल्याण का प्रशस्त मार्ग दिखाते हुए मानवीय जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन की नींव रखी। भगवान महावीर के जीवन से हमें इस महत्वपूर्ण बात का पता चलता है कि उन्होंने अपने उपदेशों से जो कुछ प्रतिपादित किया वह दीर्घ अनुभव और ज्ञान की कसौटी पर कसकर किया। अतएव उनके उपदेशों में स्पष्टता, असंदिग्धता व वास्तविक सत्य है। श्रमण संस्कृति सदा से ही मनुष्य जाति की एकरूपता पर जोर देती आ रही है। इसकी दृष्टि में मानव समाज को टुकड़ों में बांट देना, किसी भी प्रकार के कृत्रिम साधनों से उसमें भेदभाव की सृष्टि करना न केवल अवास्तविक है वरन मानव समाज के विकास के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि का भेद हम अपनी सामाजिक सुविधाओं के लिए करें यह एक बात है और उसमें प्रकृति भेद 900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000ooope SN निर्ग्रन्थ प्रवचन/8 Jain Ede oooooooooot For Personal & Private Use Only Sboo0000000000000 jamelalai.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 की कल्पना करके उनकी आध्यात्मिकता पर प्रभाव डालना दूसरी बात है। इसे श्रमण संस्कृति ने कभी सहन नहीं किया। भगवान महावीर के उपदेश ऊंच-नीच का भेद नहीं करते। उनकी वाणी ब्राह्मण-अब्राह्मण, शुद्ध और मलेच्छ के लिए समान है। उनके उपदेश श्रवण करने के लिए सभी जाति एवं श्रेणियों के मनुष्य हो या स्त्रियाँ सभी बिना किसी भेदभाव के उपस्थित होकर सुनते रहे हैं और दलित पतित समझे जाने वाले वर्गों को भी भगवान महावीर के शासन में वही गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। जो किसी परम ब्राह्मण को प्राप्त था। जैन शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे हमारे उपरोक्त कथन की अक्षरशः पुष्टि होती है। 22 श्रमण भगवान महावीर सर्वज्ञ थे। उनके उपदेश देश-काल आदि की सीमाओं से बंधे हुए नहीं थे। वे सर्वकालीन हैं, सार्वदेशिक हैं, सार्वजनिक हैं। आज भी सारा संसार रक्तपात से भयभीत होकर अहिंसा के मार्ग पर चलने हेतु उत्सुक हो रहा है। जीवन को संयमशील और आडम्बरहीन बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऊँच नीच की काल्पनिक दीवारों को तोड़ने के लिए भी आज का युग उतावला है। यही महावीर प्रदर्शित मार्ग है, जिस पर चले बिना सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण सम्भव नहीं है। का निर्ग्रन्थ प्रवचन काओजस "निर्ग्रन्थ-प्रवचन" में वाणी का वही औजस प्रकाशित है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भगवान महावीर के इस समय उपलब्ध आगम साहित्य से इसका चुनाव किया गया है। लेकिन संक्षिप्तता की ओर भी पर्याप्त ध्यान रखा गया है। ___ यह ठीक है कि भगवान महावीर ने आध्यात्मिकता में ही जगत कल्याण को देखा और उनके उपदेशों को पढ़ने से स्पष्ट रूप से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उनमें कूट-कूटकर आध्यात्मिकता भरी हुई है। उनके उपदेशों का एक-एक शब्द हमारे मन-मस्तिष्क को झंकझोर कर आध्यात्मिकता की भावना उत्पन्न करता है। अतः इनकी व्याख्या करने से हमारे जीवन के goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope निर्ग्रन्थ प्रवचन/9 doo000000000000000 Jas Loucation memorial For Personal & Private Use Only Soooooooo000000naorg Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g OOOK 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooooot सभी क्षेत्रों की आख्या- व्याख्या स्वयमेव हो जाती है। पाठक निर्ग्रन्थ प्रवचन में यत्र-तत्र इन विषयों की असाधारण झलक देख सकेंगे। ऐसा हमारा विश्वास है। निर्ग्रन्थ प्रवचन: विषय विस्तार निर्ग्रन्थ प्रवचन 18 अध्यायों में फैला हुआ है। इन अध्यायों में विभिन्न विषयों पर अनहद आल्हाद जनक और शान्ति प्रदायिनी सुक्तियाँ संग्रहित हैं। सुगमता से समझने के लिए यहाँ इन अध्यायों में वर्णित विषय वस्तु का परिचय करा देना आवश्यक है:(१) समस्त आस्तिक दर्शनों की नींव आत्मा पर अवलम्बित है अतः संसार में यदि कोई सर्वोत्कृष्ट विजय प्राप्त करना चाहता है तो उसे अपने आप पर सबसे पहले विजय प्राप्त करनी होगी। आत्मा का स्वरूप ज्ञानदर्शनमय है। ज्ञान से जगत के द्रव्यों को और उनके वास्तविक स्वरूपों को देखना-जानना सम्भव है। अतएव आत्मा के विवेचन के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ में नवतत्वों और द्रव्यों का परिचय कराया गया है। (2) जगत के इस अभिनय चक्र में दूसरा भाग कर्मों का है। कर्मों के चक्कर में पड़कर ही आत्मा संसार परिभ्रमण करता है। वैसे जैन दर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तराय कर्म। इन कर्मों के आधार पर अनेक कर्मों के भेद हैं। अनेक बार आत्मा इन्हीं कर्मों के जंजालों में उलझ कर मुक्ति से भटका है। कर्मों की यह विशेषता है कि इसमें कोई भी किसी का मददगार नहीं बन सकता। जिसका जैसा कर्म है उसे उसी प्रकार का फल भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। (3) तीसरा तथ्य है कि मनुष्य जीवन बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है। ऐसा दुर्लभ जीवन यदि हमें प्राप्त हुआ है तो हम सद्धर्म की प्राप्ति करके आत्मा के अनुकूल So000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000 D0000000 Do000000000 0000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/10 80000000000000000oll 00000000000000 Por Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 300000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - निमित्तों को पाकर अपना कार्य करें। जो समय गया सो गया वह वापस लौटकर आने वाला नहीं है। धर्मात्मा का समय ही सफल समय होता है। धर्म वही सत्य समझना चाहिए जिसका वीतराग मुनियों ने प्रतिपादन किया है कि धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। (4) प्रस्तुत पुस्तक में चौथे विषय विश्लेषण में कहा गया है कि आत्मा विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता रहा है। नरक गति में उसे महान क्लेश भोगने पड़ते हैं। तिर्यंच गति के दुःख भी प्रत्यक्ष ही हैं / मनुष्यगति में भी विश्रान्ति नहीं। इसमें भी व्याधि, जरा, जन्म आदि की प्रचुर वेदनाएँ विद्यमान हैं। देव गति भी अल्पकालीन है / अतः लोक प्रचलित बाह्य क्रियाकाण्ड के विषय को प्रतीक बनाकर भगवान कहते हैं कि तपस्या को अग्नि बनाओ, आत्मा को अग्नि स्थान बनाओ, योग की कड़ची करो, शरीर को ईंधन बनाओ। संयम व्यापार रूप शान्ति पाठ करो तब प्रशस्त यज्ञ होता है। हम सदा स्नान करते हैं, परन्तु वह हमारे अन्तःकरण को निर्मल नहीं बनाता। बाह्य शुद्धि से अतशुद्धि नहीं हो सकती। अतः भगवान कहते हैं कि आत्मा में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले शान्ति तीर्थ धर्मरूपी सरोवर में जो स्नान करता है वही निर्मल विशुद्ध और तापहीन होता है। (5) पुस्तक में पांचवा प्रकरण ज्ञान पर प्रकाश डालता है। कहा गया है कि ज्ञान पांच प्रकार के हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवल ज्ञान / मनुष्य को ज्ञानाचरण करते हुए निर्मम निरहंकार, अपरिग्रही, ठसक का त्यागी, समस्त प्राणियों पर समभावी बनना चाहिए। लाभालाभ में, सुख-दुख में, जीवन-मरण में, निन्दा- प्रशंसा में, मान-अपमान में जो समान रहता है वही सिद्धि प्राप्त करता है। gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000OF OOOOOOK - निर्ग्रन्थ प्रवचन/11 0000000000ood 00000000000006 For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooop 00000000000000000000000000000000000000 Joo0000000000000000000000000000 0000000000book 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000064 (6) पुस्तक का छटा तथ्य यह है कि जो वीतराग हैं वे सर्वथा निष्परिग्रही हैं और वे ही गुरु हैं वीतराग द्वारा प्रतिपादित धर्म ही सच्चा धर्म है। इस प्रकार की श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। परमार्थ का चिन्तन करना, परमार्थ दर्शियों की सेवा करना, मिथ्या दृष्टियों की संगति से बचना, यही एक सम्यक्त्वी के लिए अनिवार्य है। मिथ्यावादी, पाखण्डी, उन्मार्गगामी होते हैं। रागादि दोषों को नष्ट करने वाले वीतराग का मार्ग ही उत्तम मार्ग है। (7) पुस्तक में सातवें पायदान पर पांच महाव्रतों की चर्चा है। ये पांच महाव्रत ही कर्म का नाश करने वाले हैं। पन्द्रह कर्म-आदानों का जो कि सामाजिक साम्यवाद की दृष्टि से अध्ययन योग्य हैं समाज की सलगती समस्याओं के प्राचीनतम समाधान हैं, उन्हें भी जानना आवश्यक हैं। सूर्यास्त के बाद और सूर्यास्त के पहले भोजन आदि की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। असली ब्राह्मण कौन है इसका उत्तर भी पन्द्रहवें अध्याय में दिया गया है। यह प्रकरण अन्धविश्वासी लोगों की भी आंख खोलने वाला है। (8) अध्याय आठ में ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अनेक मार्मिक और प्रभावशाली वर्णन पढ़ने योग्य हैं। (6) अध्याय नौ में विशिष्ट चरित्रों का वर्णन है। कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं। अतः किसी की भी हिंसा करना या उन्हें दुःख पहुंचाना प्रथम दृष्टया पाप है। सच्चा साधु इसका हर पल स्मरण रखता है। एक सच्चा साधु आदर सत्कार में अपना गौरव नहीं समझता और अनादर में क्रुद्ध भी नहीं होता। किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं करना, निर्भय और निष्कम्प रहकर मुक्त भाव से विचरना, यही साधु की श्रेष्ठता का प्रमाण है। (10) दसवें बिन्दु में कहा गया है कि आज नहीं कल कर डालेंगे, ऐसा विचार करना प्रमादी जीवों का लक्षण हैं। 500000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/12 000000000000000 1000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 18000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ऐसे जीवों की आंख खोलने के लिए इस अध्याय में बड़े काम की बातें प्रस्तुत की गई हैं। अल्पकालीन जीवन को सजग करते हुए कहा गया है कि यदि मनुष्य कमल की भांति निर्लेप बनकर स्नेहवृत्ति को छोड़ धन-धान्य, स्त्री-पुत्र आदि का परित्याग करके अणगार जीवन धारण करता है एवं छोड़े गए सुखों की पुनः कामना नहीं करता है तो वही सच्चा विरक्त है। (11) ग्यारहवें अध्याय में बोलने सम्बन्धी नियम प्रतिपादित किए गए हैं। कहा गया है सत्य होने पर भी जो बोलने के अयोग्य हो, जिसमें किसी भाग का असत्य होना, छपा हो ऐसी मिश्र भाषा नहीं बोलनी चाहिए। जो सर्वथा असत्य हो उसकी चर्चा भी करना पाप है। व्यवहार भाषा, अनवद्य भाषा, कर्कषता मुक्त भाषा, सन्देह रहित भाषा बोलना ही सार्थक है। क्रोध, मान, माया, लोभ और भय आदि से भी नहीं बोलना चाहिए। बिना पूछे दूसरे बोलने वालों के बीच में भी नहीं बोलना चाहिए। चुगली तो कभी नहीं करनी चाहिए। (12) इस अध्याय में लेश्या सिद्धांत का निरुपण किया गया है। कषाय से अनुरंजित मन-वचन-काया की प्रवृति लेश्या कहलाती है। यही कर्म का कारण है। मुमुक्षु जीवों को प्रस्तुत अध्याय के वर्णनानुसार अपने व्यापारव्यवहार की जांच करते रहना चाहिए और अप्रशस्त लेश्याओं से बचते रहना चाहिए। (13) अध्याय तेरह में कषाय का वर्णन है। क्रोध आदि चार कषाय पुर्नजन्म की जड़ को हरा-भरा करते हैं। क्रोधी, अहंकारी, मायावी जीव को कहीं भी और कभी भी शान्ति नहीं मिलती। लोभ, पाप का बाप है। कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत सोने चांदी के खड़े कर दिए जाएं तो भी लोभी को संतोष नहीं होता है। ऐसे लोभ को त्यागना ही कल्याण का मार्ग है। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog निर्ग्रन्थ प्रवचन/13 Nos 0000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000Rsonam So0000000000000000000000000000000000000000000 (14) चौदहवें अध्याय में कहा गया है कि "जागो, जागते रहो, जागते क्यों नहीं हों?" परलोक में धर्म प्राप्ति होना कठिन है क्योकि हर बूढ़े बालक सभी को काल हर ले जाता है। कुटुम्बी जनों की ममता में फंसे हुए लोगों को संसार में भ्रमण करना पड़ता है। कृत कर्मों के भोगे बिना मुक्ति नहीं है। जो क्रोधादि पर विजय प्राप्त करते हैं किसी प्राणी का हनन नहीं करते हैं। वही सच्चे अर्थों में वीर है। गृहस्थी में रहकर भी यदि मनुष्य संयम में प्रवृत्त रहता है तो उसे देवगति प्राप्त होती है। अतएव बोध प्राप्त करो। मन को अपने आधीन करो, भाषा सम्बन्धी दोषों का परित्याग करो, समस्त ज्ञान का सार और सारा विज्ञान अहिंसा से ही शुरु होता है और अहिंसा पर ही समाप्त हो जाता है। (15) पन्द्रहवें अध्याय में कहा गया है कि मन अत्यंत दुर्जय है। मन को जीतना बहुत बड़ी उपलब्धि है। मन ही मोक्ष और बंध का कारण है। जिस आत्मा ने मन को जीत लिया, इन्द्रियों को वश में कर लिया, कषायों को बिसरा दिया उसे कोई भी दोष नहीं लग सकता। धार्मिक भावनाओं से मन को यथा स्थान पर ले आना ही सच्चा धर्म है। (16) सोलहवें अध्याय में ब्रह्मचर्य की चर्चा है। किसी स्त्री के साथ एकान्त में खड़ा होना या उससे बातचीत करना, मुनि जीवन के लिए श्रेष्ठ नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई निन्दा करे तो भी मुनि को कोप नहीं करना चाहिए। कोप करने से मुनि भी मूर्ख व्यक्ति की तरह साधारण हो जाता है। पांच कारणों से जीव को शिक्षा नहीं मिलती। वे कारण हैंक्रोध, मान, आलस्य, रोग और प्रमाद / जो इन दुर्गुणों से बच जाता है वही सच्चे अर्थों में संयमी है, मुनि है। (17) सत्रहवें अध्याय में, सदाचार का फल देवगति और असदाचार से भ्रष्ट जीवन को नरकगति का कारण बताया गया है। इस अध्याय को अवश्य पढ़ना चाहिए। इसमें देवगति का भी सुन्दर वर्णन है और अन्त में कहा 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000000 DOON निर्ग्रन्थ प्रवचन/14 Naoooooooooooooooook Jain Eucation International boooo0000000 , For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 गया है कि समुद्र और पानी की एक बूंद में जितना अन्तर है उतना ही अन्तर देवगति और मनुष्य गति के सुखों में है। (18) अठारहवें अध्ययन में शिष्य को गुरु के प्रति, पुत्र को पिता के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए तथा मुक्ति क्या है यही विषय मुख्य रूप से प्रतिपादित किया गया है। विनय धर्म की व्याख्या करते हुए इस अध्याय में कहा गया है कि जैसे सूखे हुए पेड़ और जले हुए बीज से अंकुर प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मबीज के जल जाने से भव अंकुर उत्पन्न नहीं होते। मुक्त जीव अनंत ज्ञानी, दर्शनधारी, अनुपम सुख-सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार से निर्ग्रन्थ प्रवचन में भगवान जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित जिनवाणी का विस्तार से उल्लेख किया गया है। ये ऐसे कल्याणकारी सूत्र हैं जिससे हम एक सुखद जीवन को जीते हुए सहज मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं, अनंत सुख पा सकते हैं। जीवन में बढ़ रहे सांसारिक तनावों से आत्म शान्ति पा सकते हैं, क्योंकि वर्तमान ही नहीं जगत के निर्माण से लेकर आज तक मानव जीवन कायागत विकारों, वैचारिक विकारों, सांसारिक विकारों से ग्रस्त रहा है। मनुष्य को बाहरी युद्ध से उतना खतरा नहीं है जितना स्वयं के अपने भीतर चल रहे द्वंदात्मक विचार संघर्ष से है। ऐसे संघर्षशील विचार वितान को सुखद सांत्वना देते हुए सार्थक दिशा में आगे बढ़ाने का कार्य केवल और केवल धर्म सूत्रों द्वारा ही सम्भव है। 6. धर्मसूत्रों में भी ऐसे धर्म सूत्र जो अन्धविश्वासों से मुक्त हैं। जिनका एक-एक शब्द वैज्ञानिक चिन्तन का सार है। जो विचार समस्त प्राणियों के कल्याण हेतु प्रकाशित किए गए हैं, ऐसे धर्मसूत्र ही निश्चित रूप से कल्याणकारी हैं, वस्तुतः धार्मिक हैं / अतः जब हम निर्ग्रन्थ प्रवचन में दिए गए चिन्तन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें इस वैचारिक उदारता और वैश्विक कल्याण के प्रति समर्पित चिन्तन का गम्भीर महत्व समझ में आता है। lgooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/15 oooooooooooooooootha For Personal & Private Use Only 00000000000000000bf NA Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 10000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 महान संतों ने इसी कल्याणकारी लक्ष्य को लेकर सदैव धर्मसूत्रों का संकलन किया है। सभी को यह तो ज्ञात ही है कि भगवान महावीर की वाणी को उनके निश्रायी ग्यारह गणधरों ने प्रथम बार गणिपीटक के रूप में संकलित किया है। लेकिन जैसे-जैसे गणधर भगवन्तों की कालावधि पूर्ण हुई और जैन धर्मसूत्र लुप्त होने लगे तब वाचनाओं का अनेक बार आयोजन हुआ और वाचनाओं के मंथन-चिंतन से पुनः आगम वाणी अस्तित्व में आ सकी। जो जिनवाणी आज हमें सौभाग्य से उपलब्ध है उसे यथावत या पूर्ण तो नहीं कहा जा सकता। फिर भी जितने अंशों में हमारे पास यह अमृत संकलित है, इसे कल्याणकारी भावनाओं से भरे पूज्य संतों ने पुनः पुनः प्रस्तुत करके हम पर कितना बड़ा उपकार किया है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिए। जिनवाणी और हमारे कर्तव्य भव्यात्माओं विचार कीजिए, ऐसी दुर्लभ जिनवाणी का जो भी अमृत हमें उपलब्ध है क्या उसका पठन-पाठन करते हुए हमें अपने जीवन को सकत दिशा में सार्थक संस्कारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ाना चाहिये? सभी इस प्रश्न का उत्तर हाँ में ही देना चाहेंगे। लेकिन समयाभाव, आदत नहीं होना, गुरु भगवंतों का सान्निध्य नहीं होना जैसे बहाने बनाकर हम लोग इन सूत्रों का नियमित अध्ययन नहीं करते हैं और अनेक बार सही दिशा में सोचने की बजाए जिनशासन और जिनशासन की धरोहर जिनवाणी के प्रति भी कुछ शंकाएं पाल लिया करते हैं। ऐसे शंका समाधान हेतु निर्ग्रन्थ प्रवचन जैसे ग्रन्थ बड़े उपयोगी होते हैं जो हमें आज की भाषा में, आज के कर्तव्यों का पालन करने हेतु प्रेरित करते हैं और जीवन को उच्चतम मानवीय मूल्यों से जोड़ते हुए आगे बढ़ाते हैं। मूल सम्पादक, प्रेरक मुनिराज एवं प्रकाशक मण्डल भी उपरोक्त भावनाओं को ही हृदय में संजोते हुए इस अमूल्य ग्रन्थ को प्रकाशित करने का श्रम कर रहे हैं। हमें इस श्रम का पूर्णतः अनुमोदन करते हुए निर्ग्रन्थ प्रवचन के संदेशों को अपने जीवन में उतारना चाहिये। प्रस्तुति : सम्पादक ऋषि मुनि 19000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/16ma 00000000ood Doo0000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्ध प्रवचन के आध सम्पादक-संकलक जगवल्लभ जैनदिवाकर पू. श्री चौथमल जी म.सा. For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल आशीर्वाद ध्यानयोगी, युगप्रधान आचार्य संघ गौरव परम सेवाभावी पू. डॉ. श्री शिवमुनि जी म. गुरुदेव श्री प्रेमसुख जी म. समप्रेरक संघ सेतु-संघ रत्न उपाध्याय पू. श्री रवीन्द्र मुनि जी म. For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' प्रकाशन सौजन्य Marwarma Tartariyar Marurter Twwwyeuron 191999 666666 விப்பு MIRMIREसाल MAPAR श्रावक रन श्राविक रन स्व. श्री जय कुमार जी जैन स्व. श्रीमती मोती देवी जी जैन उत्तर प्रदेश की तीतरवाड़ा गांव में श्रावक श्रेष्ठ स्व. श्रीमान बाबूराम जी जैन के सुपुत्र श्रावक रत्न स्व. श्री जय कुमार जी जैन का परिवार लम्बे समय से धर्म की प्रभावना में अपना योगदान करता रहा है। इस परिवार की श्रेष्ठ श्राविका गृहिणी स्व. श्रीमती मोती देवी जैन ने भी आपके इन सेवा कार्यक्रमों की सदैव से ही सराहना करते हुए हार्दिक सहयोग प्रदान किया है। इस परिवार में आपके पुत्र श्री प्रवीन कुमार जैन, पुत्रवधु श्रीमती मीनू जैन, पुत्र श्री अमित कुमार जैन, पुत्रवधु श्रीमती अन्नु जैन का भी हार्दिक सहयोग रहा है। यह परिवार संघगौरव परम सेवाभावी पूज्य गुरुदेव श्री प्रेमसुख जी म. के प्रति अनन्य सेवाभक्ति वाला परिवार है, जो वर्तमान में संघ सेतु, संघ रत्न पूज्य उपाध्याय श्री रवीन्द्र मुनि जी म. आदि ठाणा के प्रति भी पूज्य गुरुदेव की भांति ही अपनी भक्ति रखता है। ___इस गुरुभक्त परिवार ने प्रस्तुत प्रवचन पुस्तिका 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' को चतुर्विध संघ के स्वाध्याय हेतु समर्पित करते हुए अपना प्रकाशन सौजन्य प्रदान किया है / प्रकाशक मण्डल प्रकाशन सहयोगी परिवार का हार्दिक आभार मानते हुए इन्हें हार्दिक धन्यवाद देता है एवं इस सम्पूर्ण परिवार के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए उत्तरोत्तर विकास की मंगल भावना रखता है। प्रकाशक गुरुप्रेमसुख धाम प्रकाशक 16, नैशनल रोड़, लक्ष्मण चौक, देहरादून (उत्तराखण्ड) For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavirai Naham With Best Compliments from : Parrvin Jain 09810170136 Amit Jain 09810934906 Black Beauty J.K. FASHION Manufacturers & Wholesaler of: LADIES SUITS & WESTERN OUTFITS 6879, Indira Market, Janta Gali, (Near Arya Samaj Gali), Ashok Bazar, Gandhi Nagar, Delhi-110031 Ph. : 011-22074064, 22084243, 65383490 E-mail : blackbeautyjk@gmail.com For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000A 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 -- अध्याय एक - षट् द्रव्य निरुपण |श्रीभगवानुवाच| मूल: नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा। अमुत्तभावा विअहोइ निच्चो|| अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो। संसारहेउं च वयंति बंध||१|| छायाः नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्, अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः / अध्यात्महेतुर्नियतस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! यह आत्मा (अमुत्तभाव) अमूर्त होने से (इंदियग्गेज्झ) इंद्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है। (अ) और (वि) निश्चय ही (अमुत्तभावा) अमूर्त्त हाने से आत्मा (निच्चो) हमेशा (होइ) रहती है (अस्स) इसका (बंधो) बंध जो है, वह (अज्झत्थहेउं) आत्मा के आश्रित रहे हुए मिथ्यात्व कषायादि हेतु (च) और (बंध) बंधन को (निययस्स) निश्चय ही (संसारहेउ) संसार का हेतु (वयंति) कहा है। भावार्थ : हे गौतम! यह आत्मा अमूर्त अर्थात् वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श रहित होने से इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता है और अरूपी होने से कोई इसे पकड़ नहीं सकता है। जो अमूर्त अर्थात् अरूपी है, वह हमेशा अविनाशी है, सदा के लिये कायम रहने वाला है। शरीरादि से इसका जो बंधन होता है, वह प्रवाह से आत्मा में हमेशा से रहे हुए मिथ्यात्व अव्रत आदि कषायों के ही कारण है। जैसे आकाश अमूर्त है, पर घटादि के कारण से आकाश घटाकाश के रूप में दिखाई पड़ता है। ऐसे ही आत्मा को भी अनादि कालीन प्रवाह से मिथ्यात्वादि के कारण बंधन रूप शरीर में समझना चाहिए। यही बंधन संसार में परिभ्रमण करने का साधन है। मूल: अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। . अप्पाकामदुहाधेणू, अप्पामेनंदणंवणं|||| छायाः आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुघा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अप्पा) यह आत्मा ही (वेयरणी) वैतरणी नदी के समान है। (मे) मेरी (अप्पा) आत्मा (कूडसामली) कूटशाल्मली वृक्ष रूप है और यही (अप्पा) आत्मा (कामदुहा) कामधेनु गाय है और यही मेरी (अप्पा) आत्मा (नंदणं) नंदन (वणं) वन के समान है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/21 0000000000000ood 000000000ooooool For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ge 0000000000000 OOOOOOK OOK 00000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 भावार्थ : हे गौतम! यह आत्मा वैतरणी नदी के समान है। अर्थात इसी आत्मा को अपने कृत कार्यों से वैतरणी नदी में गोता खाने का मौका मिलता है। वैतरणी नदी का कारण-भूत यह आत्मा ही है। इसी तरह यह आत्मा नरक में रहे हुए कूटशाल्मली वृक्ष के द्वारा होने वाले दुखों का कारण भूत है, और यही आत्मा अपने शुभ कृत्यों के द्वारा कामदुग्धा गाय के समान है, अर्थात् इच्छित सुखों की प्राप्ति कराने में यही आत्मा कारण भूत है। और यही आत्मा नंदनवन के समान है अर्थात् स्वर्ग और मुक्ति के सुख-सम्पन्न कराने में आत्मा स्वयं स्वाधीन है। मूल: अप्पाकत्ताविकत्ताय, दुहाणयसुहाणया अप्पा मित्तममित्तंच, दुष्पट्ठियसुपट्ठिओ||३|| छायाः आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च। आत्मा मित्रममित्रं च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति, (अप्पा) यह आत्मा ही (दुहाण) दुःखों का (य) और (सुहाण) सुखों का (कर्ता) उत्पन्न करने वाला (य) और (विकत्ता) नाश करने वाला है। (अप्पा) यह आत्मा ही (मित्तं) मित्र है (च) और (अमित्तं) शत्रु है और यही आत्मा (दुप्पट्ठिय) दुराचारी और (सपट्ठिओ) सदाचारी है। भावार्थ : हे गौतम! यही आत्मा दुःखों एवं सुख साधनों का कर्ता-रूप है और उन्हें नाश करने वाली भी यही आत्मा है। यही शुभ कार्य करने से मित्र के समान है और अशुभ कार्य करने से शत्रु के सदृश हो जाता है। सदाचार का सेवन करने वाला और दुष्टाचार में प्रवृत्त होने वाला भी यही आत्मा है। मूल: नतंअरीकंठछेत्ताकरेई,जंसेकरे अप्पणियादुरप्पया। सेनाहिईमच्चुमुहंतुपत्ते, पच्छाणुतावणदयाविहूणो||४| छायाः न तदरिः कण्ठछेत्ता करोति, यत्तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता। स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः, पश्चादनुतापेन दया विहीनः / / 4 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (से) वह (अप्पणिया) अपना (दुरप्पया) दुराचरणशील आत्मा ही है जो (ज) उस अनर्थ को (करे) करता है। (तं) जिसे (कंठछेत्ता) कंठ का छेदन करने वाला (अरी) शत्रु भी (न) नहीं (करेइ) करता है (तु) परन्तु (से) वह (दयाविहूणो) दयाहीन दुष्टात्मा 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooool निर्ग्रन्थ प्रवचन/22 Aloo0000000000000000 00000000000000ood For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 doo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 6 (मच्चुमुह) मृत्यु के मुंह में (पत्ते) प्राप्त होने पर (पच्छाणुतावेण) पश्चाताप करके (नाहिई) अपने आप को जानेगा।। भावार्थ : हे गौतम! यह दुष्टात्मा जैसे-जैसे अनर्थों को कर बैठता है, वैसा अनर्थ तो एक शत्रु भी नहीं कर सकता है, क्योंकि शत्रु तो एक ही बार अपने शस्त्र से दूसरों के प्राण हरण करता है परन्तु यह दुष्टात्मा तो ऐसा अनर्थ कर बैठता है कि जिसके द्वारा अनेक जन्म-जन्मांतरों तक मृत्यु का सामना करना पड़ता है। फिर दयाहीन उस दुष्टात्मा को मृत्यु के समय पश्चाताप करने पर अपने कृत्य कार्यों का भान होता है कि "अरे हाँ! इस आत्मा ने कैसे-कैसे अनर्थ कर डाले हैं।" मूल : अप्पा चेव दमेयनो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। ___ अप्पा दंतोसुही होइ, अरिसं लोऐ परत्य य||५|| छाया: आत्मा चैव दमितव्यः आत्मा हि खलु दुर्दमः। आत्मादान्त सुखी भवति, अस्मिंल्लोके परत्रचः / / 5 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अप्पा) आत्मा (चेव) ही (दमेयव्वो) दमन करने योग्य है। (ह) क्योंकि (अप्पा) आत्मा (खलु) निश्चय (दुद्दमो) दमन करने में कठिन है। तभी तो (अप्पा) आत्मा को (दंतो) दमन करता हुआ (अस्सि) इस (लोए) लोक में (य) और (परत्थ) परलोक में (सुही) सुखी (होइ) होता है। . भावार्थ : हे गौतम! क्रोधादि के वशीभूत होकर आत्मा उन्मार्गगामी होता है। उसे दमन करके अपने काबू में करना योग्य है। क्योंकि, निजी आत्मा को दमन करना अर्थात् विषय वासनाओं से उसे पृथक् करना महान कठिन है और जब तक आत्मा को दमन न किया जाए तब तक उसे सुख नहीं मिलता है। इसलिए हे गौतम! आत्मा को दमन कर, जिससे इस लोग और परलोक में सुख प्राप्त हो। मूल : वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण या माहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहिं य||६|| छायाः वरं मे आत्मादान्तः, संयमेन तपसा च। माऽहं परैर्दमितः, बन्धनैर्वधैश्च / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! आत्माओं को विचार करना चाहिए कि (मे) मेरे द्वारा (संजमेण) संयम (य) और (तवेण) तपस्या करके (अप्पा) आत्मा So000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops 0000000000000000000 1000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/23 sooo000000000000oodh soooo0000000000 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 का (दंतो) दमन करना (वरं) प्रधान कर्त्तव्य है। नहीं तो (ह) मैं (परेहिं) दूसरों से (बंधणेहिं) बन्धनों द्वारा (य) और (वहेहिं) ताड़ना द्वारा (दम्मंतो) दमित (मा) न हो जाऊँ। भावार्थ : हे गौतम! प्रत्येक आत्मा को विचार करना चाहिए कि-अपने ही आत्मा द्वारा संयम और तप से आत्मा को वश में करना श्रेष्ठ है। अर्थात् स्ववश करके आत्मा को दमन करना श्रेष्ठ है। नहीं तो फिर विषय वासना सेवन के बाद कहीं ऐसा न हो कि उसके फ़ल उदय होने पर इसी आत्मा को दूसरों के द्वारा बंधन आदि से अथवा लकड़ी, चाबुक, भाला बरछी आदि के घाव सहने पड़े। मूल : जो सहस्स सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणिज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओIII छाया: य सहस्रं सहस्राणाम्, संग्रामे दुर्जये जयेत्। एकं जयेदात्मानं, एषस्तस्य परमो जयः।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जो) जो मनुष्य (दुज्जए) जीतने में कठिन ऐसे (संगामे) संग्राम में (सहस्साणं) हजार का (सहस्स) हजार गुणा अर्थात् दश लक्ष सुभटों को जीत ले उससे भी बलवान (एग) एक (अप्पाणं) अपनी आत्मा को (जिणिज्ज) जीते (एस) यह (से) उसकी (जओ) विजय (परमो) उत्कृष्ट है। / भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य युद्ध में दश लक्ष सुभटों को जीत ले उससे भी कहीं अधिक विजय का पात्र वह है जो अपनी आत्मा में स्थित काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और माया आदि विषयों के साथ युद्ध करके और इन सभी को पराजित कर अपनी आत्मा को काबू में कर ले। मूल : अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। अप्पाणमेवमप्पाणं, जइत्ता सुहमेहएllll छायाः आत्मानैव युध्यस्व किं ते युद्धेन बाह्यतः / आत्मानैवात्मानं जित्वा सुखमेधते।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अप्पाणमेव) आत्मा के साथ ही (जुज्झाहि) युद्ध कर (ते) तुझे (बज्झओ) दूसरों के साथ (जुज्झेण) युद्ध करने की (किं) क्या पड़ी है? (अप्पाणमेव) अपने आत्मा ही के द्वारा (अप्पाणं) आत्मा को (जइत्ता) जीत कर (सुह) सुख को (एहए) प्राप्त करता है। . Dogo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/24 0000000000000000 000000000000 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ booooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000oot do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 भावार्थ : हे गौतम! अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करके क्रोध, मद, मोहादि पर विजय प्राप्त कर। दूसरों के साथ युद्ध करने से कर्मबंध के सिवाय आत्मिक लाभ कुछ भी नहीं होता है। अतः जो अपनी आत्मा द्वारा अपने ही आत्मा को जीत लेता है उसी को सुख प्राप्त होता है। मूल : पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं, सब्वमप्पे जिए जिय।।९।। छायाः पंचेन्द्रियाणि क्रोधं मानं मायां तथैव लोभञ्च। दुर्जयं चैवात्मानं सर्वमात्मनि जिते जितम् / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दज्जयं) जीतने में कठिन ऐसे (पंचिंदियाणि) पाँचों इन्द्रियों के विषय (कोह) क्रोध (माणं) मान (माय) कपट (तहेव) वैसे ही (लोह) तृष्णा (चेव) और भी मिथ्यात्व अव्रतादि (च) और (अप्पाणं) मन ये (सव्व) सर्व (अप्पे) आत्मा को (जिए) जीतने पर ही (जिय) जीते जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो भी पांचों इन्द्रियों के विषय और क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मन ये सब के सब दुर्जयी हैं। तथापि अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेने से इन पर अनायास ही विजय प्राप्त की जा सकती है। मूल : सरीरमाहु नाव ति; जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो; जंतरंति महेसिणा||9011 छायाः शरीरमाहुनॊरिति जीव उच्यते नाविकः। यो संसारोऽर्णव उत्कः, यस्तरन्ति महर्षयः / / 10 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! यह (संसारो) संसार (अण्णवो) समुद्र के समान (वुत्तो) कहा गया है। इसमें (सरीरं) शरीर (नाव) नौका के सदृश है। (आहुत्ति) ऐसा ज्ञानीजनों ने कहा है और उसमें (जीवो) आत्मा (नाविओ) नाविक के तुल्य बैठ कर तिरने वाला है। (वुच्चइ) ऐसा कहा गया है। अतः (ज) इस संसार समुद्र को (महेसिणो) ज्ञानीजन (तरंति) तिरते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! इस संसार रूप समुद्र के परले पार जाने के लिए यह शरीर नौका के समान है जिसमें बैठकर आत्मा नाविक रूप हो कर संसार-समुद्र को पार करता है। goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000008 * निर्ग्रन्थ प्रवचन/25 0000000000000 000000000000 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : नाणंच दंसणंचेव, चरित्तं च तवो वहा| वीरियं उवओगोय; एयंजीवस्स लक्खणं||११|| छाया: ज्ञानञ्च दर्शनञ्चैव चारित्रञ्च तपस्तथा। वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य लक्षणम् / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणं) ज्ञान (च) और (दसणं) दर्शन (चेव) और (चरित्तं) चारित्र (च) और (तवो) तप (तहा) तथा (वीरियं) सामर्थ्य (य) और (उवओगो) उपयोग (एय) यही (जीवस्स) आत्मा का (लक्खणं) लक्षण है। भावार्थ : हे गौतम! ज्ञान, दर्शन, तप, क्रिया और सावधानी पूर्वक, उपयोग ये सब जीव (आत्मा) के लक्षण है। मूलः जीवाऽजीवायबंधोयपुण्णंपावासवोतहा। संवरो निजरामोक्खो,संतेएतहियानव||२|| छायाः जीवा अजीवाश्च बन्धश्च पुण्यं पापाश्रवो तथा। संवरो निर्जरा मोक्षः सन्त्यते तथ्या नव।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीवाऽजीवा) चेतन और जड़ (य) और (बंधो) कर्म (पुण्णं) पुण्य (पावासवो) पाप और आश्रव (तहा) तथा (संवरो) संवर (निज्जरा) निर्जरा (मोक्खो) मोक्ष (एए) ये (नव) नौ पदार्थ (तहिया) तथ्य (संति) कहलाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जीव जिसमें चेतना हो / जड़ चेतना रहित / बंध जीव और कर्म का मिलना / पुण्य शुभ कार्यों द्वारा संचित शुभ कर्म / पाप दुष्कृत्यजन्य कर्मबंध आश्रव कर्म आने का द्वार / संवर आते हुए कर्मों का रूकना / निर्जरा एक देश कर्मों का क्षय होना / मोक्ष सम्पूर्ण पाप पुण्यों से छूट जाना / एकान्त सुख का भोगी होना मोक्ष है। मूल : धम्मो अहम्मो आगांसं कालो पोग्गलजंतवो। एस लोगुत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहि।।१३।। छायाः धर्मोऽधर्म आकाशं कालः पुद्गलजन्तवः। एषः लोक इति प्रज्ञप्तो जिनैर्वरदर्शिभिः।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (धम्मो) धर्मास्तिकाय (अहम्मो) अधर्मास्तिकाय (आगासं) आकाशस्तिकाय (कालो) समय (पोग्गलजंतवो) पुद्गल और जीव (एस) ये छ: ही द्रव्य (लोगुत्ति) लोक 00000000 00000000000000000000000000000000000000000opl 0000000000000 निन्थ प्रवचन/26 etion Internatione 1000000000000 25000000 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 है। ऐसा (वरदसिहिं) केवलज्ञानी (जिणेहिं) जिनेश्वरों ने (पण्णत्तो) कहा है। भावार्थ : हे गौतम! धर्मास्तिकाय जो जीव और जड़ पदार्थों को गमन करने में सहायक हो। अधर्मास्तिकाय जीव और अजीव पदार्थों की गति को अवरोध करने में कारणभूत एक द्रव्य है और आकाश, समय, जड़ और चेतन इन छः द्रव्यों को ज्ञानियों ने लोक कहकर पुकारा है। मूल : धम्मो अहम्मो आगासं; दबं इक्किक्कमाहिये। अणंताणि य दवाणि य; कालो पुग्गलजंतवो||१४|| छायाः धमोऽधर्म आकाशं द्रव्यं एकैकमाख्यातम्। अनन्तानि च द्रव्याणि च कालः पुद्गलजन्तवः / / 14 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (धम्मो) धर्मास्तिकाय (अहम्मो) अधर्मास्तिकाय (आगासं) आकाशास्तिकाय (दव्व) इन द्रव्यों को (इक्किक्क) एक एक द्रव्य (आहियं) कहा है (य) और (कालो) समय (पुग्गलजंतवो) पुद्गल एवं जीव इन द्रव्यों को (अंणताणि) अनंत कहा हैं। भावार्थ : हे शिष्य! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों एक एक द्रव्य हैं। जिस प्रकार आकाश के टुकड़े नहीं होते, वह एक अखण्ड द्रव्य है, ऐसे ही धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय भी एक एक ही अखण्ड द्रव्य है और पुद्गल अर्थात् वर्ण, गंध, रस, स्पर्श.वाला एक मूर्त द्रव्य तथा जीव और (अतीत व अनागत की अपेक्षा से) समय, ये तीनों द्रव्य अनंत माने गये हैं। मूल : गइलक्खणो उधम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो। हा भायणं सव्वदवाणं, नहं ओगाहलक्खण||१५ छाया: गतिलक्षणस्तु धर्मः अधर्मः स्थानलक्षणः। प्राण भाजनं सर्वद्रव्याणाम् नभोऽवगाहलक्षणम्।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (गइलक्खणो) गमन करने में सहायता देने का लक्षण है जिसका, उसको (धम्मो) धर्मास्तिकाय कहते हैं। (ठाणलक्खणो) ठहरने में मदद देने का लक्षण है जिसका, उसको (अहम्मो) अधर्मास्तिकाय कहते हैं और (सव्वदव्वाणं) सर्व द्रव्यों को (भायण) आश्रय रूप (ओगाहलक्खण) अवकाश देने का लक्षण है जिसका उसको (नह) आकाशास्तिकाय कहते हैं। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/27 doo000000000000000 00000000000 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000 3OOOOO 000000000 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! जो जीव और जड द्रव्यों को गमन करने में सहाय्यभूत हो, उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं और जो ठहरने में सहाय्य भूत हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं। पांचों द्रव्यों को जो आधारभूत होकर अवकाश दे उसे आकाशास्तिकाय कहते हैं। मूल : वत्तणालक्खणो कालो; जीवो उवओगलक्खणो। नाणेण दंसणेण च; सुहेण य दुहेण य|१६|| छायाः वर्त्तना लक्षणः कालो जीव उपयोग लक्षणः। ज्ञानेन दर्शनेन च सुखेन च दुःखेन च।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वत्तणालक्खणो) वर्तना है जिसका लक्षण उसको (कालो) समय कहते हैं। (उवओगलक्खणो) उपयोग लक्षण है जिसका उसको (जीवो) आत्मा कहते हैं। उसकी पहचान है (नाणेण) ज्ञान (च) और (दसणेण) दर्शन (य) और (सुहेण) सुख (य) और (दुहेण) दुःख के द्वारा। भावार्थ : हे शिष्य! जीव और पुद्गल मात्र के पर्याय बदलने में जो सहायक होता है, उसे काल कहते हैं। ज्ञानादि का एकांश या विशेषांश जिसमें हो वही जीवास्तिकाय है। जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञानादि न सम्पूर्ण ही है और न अंश मात्र ही है, वह जड़ पदार्थ है। क्योंकि जो आत्मा है, वह सुख, दुःख, ज्ञान, दर्शन का अनुभव करता है। इसी से इसे आत्मा कहा गया है और इन कारणों से ही आत्मा की पहचान मानी गई है। मूल : सइंधयारउज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इवा। वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खण||१७|| छायाः शब्दोऽन्धकार उद्योतःप्रभाच्छायाऽऽतप इति वा। वर्णरसगन्धस्पर्शाः पुद्गलानाञ्च लक्षणम्।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संदधयार) शब्द और अंधकार (उज्जोओ) प्रकाश (पहा) प्रभा (छायाऽऽतेवइ) छाया, धूप आदि ये (वा) अथवा (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्शादि को (पुग्गलाणं) पुद्गलों का (लक्खणं) लक्षण कहा है। (तु) पाद पूर्ति। भावार्थ : हे गौतम! शब्द, अन्धकार, रत्नादिक का प्रकाश, सूर्य, चन्द्रादिक की कांति, शीतलता, छाया, धूप आदि ये सब और पांचों वर्णादिक, सुगंध, पांचों रसादिक और आठों स्पर्शादिक से पुद्गल जाने जाते हैं। igcoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops Pce नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/28 do00000000000000000 Jain Eucalon internationa For Personal & Private Use Only Doo000000000000006 . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000QA do0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : गुणाणमासओ दळ, एगदबास्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे||१८|| छाया: गुणानामाश्रयो द्रव्यः एकद्रव्याश्रिता गुणाः। लक्षणं पर्यवानां तु उभयोराश्रिता भवन्तिः / / 18 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (गुणाणं) रूपादि गुणों का (आसओ) आश्रय जो है वह (दव्वं) द्रव्य है और जो (एगदव्वसिया) एक द्रव्य आश्रित रहते आये हैं वे (गुण) गुण हैं (त) और (उभओ) दोनों के (अस्सिया) आश्रित (भवे) हो, वह (पज्जवाणं) पर्यायों का (लक्खणं) लक्षण है। ____ भावार्थ : हे गौतम! रूपादि गुणों का जो आश्रय है, उसको द्रव्य कहते हैं और द्रव्य के आश्रित रहने वाले रूप, रस स्पर्श आदि ये सब गुण कहलाते हैं और द्रव्य तथा गुण इन दोनों के आश्रित जो होता है, अर्थात् द्रव्य के अन्दर तथा गुणों के अन्दर जो पाया जाए, वह पर्याय कहलाता है। अर्थात् गुण द्रव्य में ही रहता है किन्तु पर्याय द्रव्य और गुण दोनों में रहता है। यही गुण और पर्याय में अन्तर है। मूल : एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य| संजोगाय विभागाय, पज्जवाणं तु लक्खणं||१९|| छाया: एकत्वञ्च पृथक्त्वञ्च संख्या संस्थानमेव च। संयोगाश्च विभागश्च पर्यवानां तु लक्षणम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पज्जवाणं) पर्यायों का (लक्खणं) लक्षण यह है कि (एगत्तं) एक पदार्थ के ज्ञान का (च) और (पुहत्तं) उससे भिन्न पदार्थ के ज्ञान (च) और (संखा) संख्या का (य) और (संठाणमेव) आकार प्रकार का (संजोगा) एक से दो मिले हुओं का (य) और (विभागाय) यह इससे अलग है, ऐसा ज्ञान जो करावे वही पर्याय है। भावार्थ : हे गौतम! पर्याय उसे कहते हैं, कि यह अमुक पदार्थ है, यह उससे अलग है, यह अमुक संख्या वाला है, इस आकार प्रकार का है, यह इतने समूह रूप में है, आदि ऐसा जो ज्ञान करावे वही पर्याय है। अर्थात् जैसे यह मिट्टी थी पर अब घट रूप में है। यह घट, उस घट से पृथक रूप में है। यह घट संख्याबद्ध है। पहले नम्बर का है या दूसरे नम्बर का है। यह गोल आकार का है। यह चौरस आकार का है। यह दो घट का समूह है। यह घट उस घट से भिन्न है आदि, ऐसा ज्ञान जिसके द्वारा हो वही पर्याय है। ॥इतिप्रथमोऽध्यायः|| 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - निर्ग्रन्थ प्रवचन/29 5000000000000000 0000000000000 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 300000000000000000000000000000000000 00000000000000000000 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय दो: कर्म निरुपण ॥श्रीभगवानुवाच| मूल: अट्ठ कम्माइंवोच्छामि, आणुपुलिं जहक्कम जेहिं बदो अयं जीवो, संसारे परियट्ट||१|| छायाः अष्ट कर्माणि वक्ष्यामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम्। यैर्बद्धोऽयं जीवः संसारे परिवर्त्तते।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अट्ठ) आठ (कम्माइं) कर्मों को (आणुपुब्बिं) अनुपूर्वी से (जहक्कम) क्रमवार (वोच्छामि) कहता हूँ, सो सुनो। क्योंकि (जेहिं) उन्हीं कर्मों से (बद्धो) बंधा हुआ (अयं) यह (जीवो) जीव (संसारे) संसार में (परियत्तइ) परिभ्रमण करता है। _भावार्थ : हे गौतम! जिन कर्मों को करके यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है, जिन के द्वारा संसार का अन्त नहीं होता है, वे कर्म आठ प्रकार के होते हैं। मैं उन्हें क्रम पूर्वक और उनके स्वरूप के साथ कहता हूँ। मूल: नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जंतहा मोहं, आउकम्मं वहेव य||२|| नामकम्मंच गोयं च, अंतराय तहेव या एवमेयाइ कम्माई, अट्ठेव उसमासओ||३|| छायाः ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा। वेदनीयं तथा मोहं, आयुः कर्म तथैव च।।२।। नामकर्मञ्च गोत्रं च, अन्तरायं तथैव च। एवमेतानि कर्माणि, अष्टौ तु समासतः।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणस्सावरणिज्ज) ज्ञानावरणीय (तहा) तथा (दंसणावरणं) दर्शनावरणीय (तहा) तथा (वयणिज्ज) वेदनीय (मोह) मोहनीय (तथैव) और (आउकम्म) आयुष्कर्म (च) और (नामकम्म) नाम कर्म (च) और (गोयं) गोत्र कर्म (य) और (तहेव) वैसे ही (अन्तराय) अन्तराय कर्म (एवमेयाइ) इस प्रकार ये (कम्माइं) कर्म (अटटेव) आठ ही (समासओ) संक्षेप में ज्ञानीजनों ने कहे हैं। (उ) पादपूर्ति अर्थ में। 3000000000000000000000000000000 500000000000000000oog 3000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/303 oooooooooood 0000000000006 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og 10000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000 Doo00000 50000000000 00000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! जिसके द्वारा बुद्धि एवं ज्ञान की न्यूनता हो, अर्थात् ज्ञान बुद्धि में बाधा रूप जो हो उसे ज्ञानावरणीय अर्थात् ज्ञान शक्ति को दबाने वाला कर्म कहते हैं। पदार्थ को साक्षात्कार करने में जो बाधा डाले, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा गया है। सम्यक्त्व और चारित्र को जो बिगाड़े, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जन्म मरण में जो सहाय्यभूत हो वह आयुष्कर्म माना गया है। जो शरीर आदि के निर्माण का कारण हो वह नाम कर्म है। जीव को जो लोकप्रतिष्ठित या लोकनिंद्य कुलों में उत्पन्न करने का कारण हो वह गोत्र कर्म कहलाता है। जीव की अनंत शक्ति प्रकट होने में जो बाधक रूप हो वह अन्तराय कर्म कहलाता है। इस प्रकार ये आठों ही कर्म इस जीव को चौरासी के चक्कर में डाल रहे हैं। मूल: नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं। ओहिनाणंच तइयं, मणनाणंच केवलं||४|| छाया: ज्ञानावरणं पञ्चविधं, श्रुतमाभिनिबोधिकम् / अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम्।।४।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणंवरणं) ज्ञानावरणीय कर्म (पंचविहं) पांच प्रकार का है। (सुय) श्रुतज्ञानावरणीय (आभिणिबोहिय) मतिज्ञानावरणीय (तइयं) तीसरा (ओहिनाणं) अवधिज्ञानावरणीय (च) और (मणनाणं) मनःपर्यव ज्ञानावरणीय (च) और (केवल) केवल ज्ञानावरणीय। भावार्थ : हे गौतम! अब ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद हैं। सो सुनो। (1) श्रुतज्ञानावरणीय कर्म : जिसके द्वारा श्रवण शक्ति आदि में न्यूनता हो। (2) मति ज्ञानावरणीय : जिसके द्वारा समझने की शक्ति कम हो। (3) अवधिज्ञानावरणीय : जिसके द्वारा परोक्ष की बातें जानने में न आवें। (4) मनः पर्यव ज्ञानावरणीय : दूसरों के मन की बात जानने में शक्तिहीन होना / (5) केवलज्ञानावरणीय : संपूर्ण पदार्थों के जानने में असमर्थ होना। ये सब ज्ञानावरणीय कर्म के फल हैं। हे गौतम! अब ज्ञानावरणीय कर्म बंधने के कारण बताते हैं, सो सुनो (1) ज्ञानी के द्वारा बताये हुए तत्वों को असत्य बताना, तथा उन्हें असत्य सिद्ध करने की चेष्टा करना। (2) जिस ज्ञानी के द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका नाम तो छिपा देना और मैं स्वयं ज्ञानवान बना हूँ ऐसा वातावरण फैलाना (3) ज्ञान की असारता दिखलाना कि 000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000 * निर्ग्रन्थ प्रवचन/31 50000000000000000 Soo00000000 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 500000000000000000000 goo00000000000000000000000000000000000000000000 oooooood 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इस में पड़ा ही क्या है?आदि कहकर ज्ञान एवं ज्ञानी की अवज्ञा करना। (4) ज्ञानी से द्वेष भाव रखते हुए कहना कि वह पढ़ा ही क्या है?कुछ नहीं। केवल ढ़ोंगी होकर ज्ञानी होने का दम भरता है, आदि कहना। (5) जो कुछ सीख पढ़ रहा हो उसके काम में बाधा डालने में हर तरह से प्रयत्न करना। (6) ज्ञानी के साथ अण्ट सण्ट बोलकर व्यर्थ का झगड़ा करना। आदि आदि कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है। मूल : निद्दा तहेव पयला; निद्दानिहाय पयलपयला या तत्तो अ थीणगिरी उ, पंचमा होइ नायव्वा||५|| छाया: निद्रा तथैव प्रचला, निद्रानिद्रा च प्रचलाप्रचलाच ततश्चस्त्यानगृद्धिस्तु, पञ्चमा भवति ज्ञातव्या।।५।। मूल : चक्खुमचक्खू ओहिस्स, दंसणे केवले अ आवरणे। एवं तु नवविगप्पं, नायवं दंसणावरणं||६|| छायाः चक्षुरचक्षुरवधेः, दर्शने केवले चावरणे। एवं तु नवविकल्पं, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् / / 6 / / _ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (निद्दा) सुखपूर्वक सोना (तहेव) ऐसे ही (पयला) बैठे बैठे ऊँघना (य) और (निद्दानिद्दा) खूब गहरी नींद (य) और (पयलपयला) चलते चलते ऊँघना (तत्तो अ) और इसके बाद (पंचमा) पांचवीं (थीणगिद्धि उ) स्त्यानगृद्धि (होई) है, ऐसा (नायव्वा) जानना चाहिए (चक्खुमचक्खू ओहिस्स) चक्षु, अचक्षु, अवधि के (दंसणं) दर्शन में (य) और (केवले) केवल में (आवरणे) आवरण (एवं तु) इस प्रकार (नवविगप्पं) नौ भेद वाला (दंसणावरणं) दर्शनावरणीय कर्म (नायव्वं) जानना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! अब दर्शनावरणीय कर्म के भेद बतलाते हैं, सो सुनो (1) अपने आप ही नियत समय पर निंद्रा से युक्त होना (2) बैठे बैठे ऊँघना अर्थात् नींद लेना (3) नियत समय पर भी कठिनता से जागना (4) चलते फिरते ऊँघना और (5) पांचवा भेद वह है कि सोते-सोते छ: मास बीत जाना। ये सब दर्शनावरणीय कर्म के फल हैं। इसके सिवाय चक्षु में दृष्टिमान्द्य या अन्धेपन आदि की हीनता का होना तथा सुनने की, सूंघने की, स्वाद लेने की, स्पर्श करने की, शक्ति में हीनता, अवधि दर्शन होने में और केवल दर्शन अर्थात् सारे जगत 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/32 dooo000000000000ood 500000000000006 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 को हाथ की रेखा के समान देखने में रुकावट का आना ये सब के सब नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म के फल है। हे आर्य! जब आत्मा दर्शनावरणीय कर्म बांध लेता है तब वह जीव ऊपर कहे हुए फलों को भोगता है। अब हम यह बतावेंगे कि जीव किन कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बांध लेता है। सुनो (1) जिसको अच्छी तरह से दीखता है, उसे भी अन्धा और काना कहकर उसकी निंदा करना / (2) जिसके द्वारा अपने नेत्रों को फायदा पहुंचा हो और न देखने पर भी उस पदार्थ का सच्चा ज्ञान हो गया हो, उस उपकारी के उपकार को भूल जाना। (3) जिसके पास चक्षु ज्ञान से परे अवधिदर्शन है, जिस अवधिदर्शन से वह कई भव अपने एवं औरों को देख लेता है। उसकी अवज्ञा करते हुए कहना कि क्या पड़ा है ऐसे अवधिदर्शन में?(४) जिसके दुखते हुए नेत्रों के अच्छे होने में वा चक्षु दर्शन से भिन्न अचक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन में और अवधि दर्शन के प्राप्त होने में एवं सारे जगत को हस्तामलकवत् देखने वाले केवल दर्शन प्राप्त करने में रोड़ा अटकाना। (5) जिसको नहीं दिखता है तो भी अन्धा बन बैठा है। चक्षु दर्शन से भिन्न अचक्षु दर्शन का जिसे अच्छा बोध नहीं होता हो, उसे कहे कि जानबूझ कर मूर्ख बन रहा है और जो अवधि दर्शन से भव भवान्तर के कर्तव्यों को जान लेता है तो उसको कहे कि ढ़ोंगी है एवं केवल दर्शन से जो प्रत्येक बात का स्पष्टीकरण करता है। उसे असत्यवादी कहकर जो दर्शन के साथ द्वेष भाव करता है। (6) इसी प्रकार चक्षुदर्शनीय, अवधिदर्शनीय एवं केवल दर्शनीय के साथ जो व्यक्ति निंदा करते हुए अपनी ही कुंठा अभिव्यक्त करता है। मूल : वेयणीयं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं। सायस्स उ बहू भेया, एमेव आसायस्स वि।।७।। छाया : वेदनीयमपि च द्विविधं, सातमसातं चाख्यातम्। __सातस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवासातस्यापि।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वेयणीयं पि) वेदनीय कर्म भी (सायमसायं च) साता और असाता (दुविह) यों दो प्रकार का (आहिय) कहा गया है। (सायस्स) साता के (उ) तो (बहू) बहुत से (भया) भेद है। (एमेव आसा यस्स वि) इसी प्रकार असाता वेदनीय के भी अनेक भेद हैं। भावार्थ : हे गौतम! फुसी, फोड़े, ज्वर, नेत्रशूल आदि अन्य तथा सब शारीरिक और मानसिक वेदना असातावेदनीय कर्म के फल हैं। इसी तरह निरोग रहना, चिन्ता फिक्र कुछ भी नहीं होना ये सब 00000000000000000 000000 0000000000000000000000000p नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/33 1000000000000000oood Fon Personal & Private Use Only booooooooooooooooor www.jamelierary.org TO Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10000000000000000000000000000000oooooooooooooooooooooooooooo Sooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शारीरिक और मानसिक सुखसाता वेदनीय कर्म के फल हैं। हे गौतम! यह जीव साता और असाता वेदनीय कर्मों के किन किन कारणों से बांध लेता है? सो अब सुनो, धन-सम्पत्ति आदि ऐहिक सुख प्राप्ति होने का कारण साता वेदनीय का बन्ध है। यह साता वेदनीय बन्धन इस प्रकार बंधता है-दो इन्द्रिय वाले लट गिण्डोरे आदि; तीन इन्द्रिय वाले मकोड़े, चींटियाँ, जूं आदि चार इन्द्रिय वाले, मक्खी, मच्छर, भौरें आदि; पांच इन्द्रिय वाले हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट, गांय, बकरी आदि तथा वनस्पति स्थिति जीव और पृथ्वी, पानी, आग, वायु इन जीवों को किसी प्रकार से कष्ट और शोक नहीं पहुंचाने से एवं इन को झुराने तथा अश्रुपात न कराने से, लात घूसा आदि से न पीटने एवं परिताप न देने से, इनका विनाश न करने से, सातावेदनीय का बंध होता है। __शारीरिक और मानसिक जो दुःख होता है, वह असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारणों से होता है / वे कारण यों हैं। प्राण, भूत, जीव और सत्व इन चारों ही प्रकरा के जीवों को दुःख देने से, फिक्र उत्पन्न कराने से, झुराने से अश्रुपात कराने से, पीटने से, परिताप व कष्ट उत्पन्न कराने से असाता वेदनीय का बंध होता है। (नोट : समस्त सांसारिक वैभव साता वेदनीय कर्म का परिणाम है। अतः जीवरक्षण एवं पर्यावरण को सबल बनाते रहना चाहिये।) मूल: मोहणिज्जं पिदुविहं, दंसणे चरणे तहा। दसणे तिविहं वुत्वं, चरणे दुविहं भवेllll छायाः मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा। दर्शने त्रिविधमुक्तं, चरणे द्विविधं भवेत्।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोहणिज्जं पि) मोहनीय कर्म भी (दुविह) दो प्रकार का है। (दंसणे) दर्शन मोहनीय (तहा) तथा (चरणे) चारित्र मोहनीय। अब (दंसणे) दर्शन मोहनीय कर्म (तिविहं) तीन प्रकार का (वृत्तं) कहा गया है और (चरणे) चारित्र मोहनीय (दुविह) दो प्रकार का (भवे) होता है। भावार्थ : हे गौतम! मोहनीय कर्म जो जीव बांध लेता है उसको अपने आत्मीय गुणों का भान नहीं रहता है। जैसे मदिरा पान करने वाले को कुछ भान नहीं रहता। उसी तरह मोहनीय कर्म के उदय रूप में जीव को शुद्ध श्रद्धा और क्रिया की तरफ भान नहीं रहता है। यह कर्म दो प्रकार का कहा गया है। एक दर्शन मोहनीय दूसरा चारित्र 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 604 निर्ग्रन्थ प्रवचन/343 Pacoco00000000000000 ग्रन्थ प्रवचन/34 For Personal&Privalguse only.SOC 0000000 wwwjalle traforg Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool 5000000000000000 0000000000 000000000000000000000000000 मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन प्रकार और चारित्र मोहनीय के दो प्रकार होते हैं। मूल : सम्मत्तं चेव मिच्छत्वं, सम्मामिच्छत्तमेव या एयाओ तिण्णि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे||९ छायाः सम्यक्त्वं चैव मिथ्यात्वं, सम्यक्मिथ्यात्वमेव च। एतास्तिस्रः प्रकृतयः मोहनीयस्य दर्शने।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय संबंध के (दसणे) दर्शन में अर्थात् दर्शन मोहनीय में (एयाओ) ये (तिण्णी) तीन प्रकार की (पयडीओ) प्रकृतियाँ हैं (सम्मत्त) सम्यक्त्व मोहनीय (मिच्छत्त) मिथ्यात्व मोहनीय (य) और (सम्मामिच्छत्तमेव) सम्यक् मिथ्यात्व मोहनीय। भावार्थ : हे गौतम! दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का होता है। एक तो सम्यक्त्व मोहनीय इसके उदय में जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु मोहवश ऐहिक सुख के लिए तीर्थंकरों की माला जपता रहता है। यह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय है। यह कर्म जब तक बना रहता है तब तक उस जीव को मोक्ष के सान्निध्यकारी क्षायिक गुण को रोक रखता है। दूसरा मिथ्यात्व मोहनीय है इसके उदय काल में जीव सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझता है और इसीलिए वह जीव चौरासी का अन्त नहीं पा सकता। चौदहवें गुणस्थान के बाद ही जीव की मुक्ति होती है पर वह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म जीव को दूसरे गुणस्थान पर भी पैर नहीं रखने देता। तब फिर तीसरे और चौथे गुणस्थान की तो बात ही निराली है। इसका तीसरा भेद सममिथ्यात्व मोहनीय है। इसके उदयकाल में जीव सत्य असत्य दोनों को बराबर समझता है। जिससे हे गौतम! यह आत्मा न तो समदृष्टि की श्रेणी में रहता है और न पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी ही कहा जा सकता है। अर्थात् यह कर्म जीव को तीसरे गुणस्थान के ऊपर देखने का भी मौका नहीं देता है। हे गौतम! अब हम चारित्र मोहनीय के भेद कहते हैं, सो सुनो। मूल : चरितमोहणं कम्मं दुविहं तुं विआहियं कसायमोहणिज्जंतु, नोकसायं तहेव य||१०|| छायाः चारित्रमोहनं कर्म द्विविधं तद् व्याख्यातम् / ____ कषायमोहनीयं तु नोकषायं तथैव च।।१०।। Agoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000 000oooooor 000000000000000000 500000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/356 3000000000000000000 For Personal & Private Use Only Sboo0000000000000000 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ poo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 N0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (चरित्तमोहण) चारित्र मोहनीय (कम्म) कर्म (त) वह (दुविह) दो प्रकार का (विआहिय) कहा गया है। (कसायमोहणिज्ज) क्रोधादि रूप भोगने में आवे वह (य) और (तहेव) वैसे ही (नोकसाय) क्रोधादि के सहचारी हास्यादिक के रूप में जो अनुभव में आवें। ___ भावार्थ : हे गौतम! संसार में सम्पूर्ण वैभव को त्यागना चारित्र धर्म कहलाता है, उस चारित्र के अंगीकार करने में जो रोड़ा अटकाता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। यह कर्म दो प्रकार का है। एक तो क्रोधादि रूप में अनुभव आता है। अर्थात् हंसना, भोगों में आनंद मानना, धर्म में नाराजी आदि होना वह इस कर्म का उदय है। मूल : सोलसविहभएणं, कम्मं तु कसायजं| सत्तविहं नवविहं वा, कम्मंच नोकसायज||१|| छाया: षोडश विध भेदेन कर्म तु कषायजम्। सप्तविधं नवविधं वा, कर्म च नोकषायजम् / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कसायजं) क्रोधादिक रूप से उत्पन्न होने वाला (कम्मं तु) कर्म तो (भेण्णं) भेद करके (सोलसविह) सोलह प्रकार का है। (च) और (नोकसायजं) हास्यादि से उत्पन्न होने वाला जो (कम्म) कर्म है वह (सत्तविह) सात प्रकार का (वा) अथवा (नवविह) नौ प्रकार का माना गया है। ____ भावार्थ : हे गौतम! क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले कर्म के सोलह भेद हैं| अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, यों अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के चार भेदों के साथ इसके सोलह भेद हो जाते हैं और नो कषाय से उत्पन्न होने वाले कर्म के सात अथवा नो भेद कहे गये हैं। वे ये हैं, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद यों सात भेद होते हैं और वेद के उत्तर भेद (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद) लेने से नौ भेद हो जाते हैं। अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ करने से तथा मिथ्या श्रद्धा में रत रहने से और अव्रती रहने से मोहनीय कर्म का बंध होता है। हे गौतम! अब हम आयुष्यकर्म का स्वरूप बतायेंगे। मूल : नेरइयतिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव या देवाउयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउबिह||१२|| छायाः नैरयिकतिर्यगायः मनुष्यायुस्तथैव च। देवायुश्चतुर्थं तु आयुः कर्म चतुर्विधम् / / 12 / / . igooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000 000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/36, 00000000000000000 000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आउकम्म) आयुष्य कर्म (चउव्विह) चार प्रकार का है। (नेरइयतिरिक्खाउं) नरकायुष्य तिर्यंचायुष्य (तहेव) वैसे ही (मणुस्साउं) मनुष्यायुष्य (य) और (चउत्थं तु) चौथा (देवाउअं) देवायुष्य है। भावार्थ : हे गौतम! आत्मा के नियत समय तक एक ही शरीर में रोक रखने वाले कर्म को आयुष्य कर्म कहते हैं। यह आयुष्य कर्म चार प्रकार का है। (1) नरक योनि में रखने वाला नरकायुष्य (2) तिर्यंच योनि में रखने वाला तिर्यंचायुष्य (3) मनुष्य योनि में रखने वाला मनुष्यायुष्य और (4) देव योनि में रखने वाला देवायुष्य कहलाता है। हे गौतम! अब हम इन चारों जगह का आयुष्य किन किन कारणों से बंधता है उसे कहते हैं। महारम्भ करना, अत्यन्त लालसा रखना, पंचेन्द्रिय जीवों का वध करना तथा मांस खाना, आदि कार्यों से नरकायुष्य का बंध होता है। कपट करना, कपटपूर्वक फिर कपट करना, असत्य भाषण करना, तौलने की वस्तुओं में और नापने की वस्तुओं में कमीवेशी लेना-देना आदि ऐसे कार्यों के करने से तिर्यंचायुष्य का बंध होता है। निष्कपट व्यवहार करना, नम्रभाव होना, सब जीवों पर दया भाव रखना तथा ईर्ष्या नहीं करना आदि कार्यों से मनुष्यायुष्य का बंध होता है। सराग संयम व गृहस्थ धर्म के पालने, अज्ञानयुक्त तपस्या करने, बिना इच्छा से भूख, प्यास आदि सहन करने तथा शीलव्रत पालने से देवायुष्य का बंध होता है। मूल : नामकम्मं तु दुविहं, सुहं असुहंच आहिये। सुहस्स तु बहु भेया, एमेव असुहस्स वि||१३|| छायाः नामकर्म तु द्विविधं शुभमशुभं चाख्यातम्। शुभस्य तु बहवो भेदा एवमेवाशुभस्याऽपि।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नामकम्मं तु) नाम कर्म तो (दुविह) दो प्रकार का (आहिय) कहा गया है। (सुह) शुभ नाम कर्म (च) और (असुह) अशुभ नाम कर्म जिसमें (सुहस्स) शुभ नाम कर्म के (तु) तो (बहू) बहुत (भेया) भेद हैं। (असुहस्स वि) अशुभ नाम कर्म के भी (एमेव) इसी प्रकार अनेक भेद माने गये हैं। भावार्थ : हे गौतम! शरीर सुन्दराकार होने अथवा असुन्दराकार होने के कारण भूत नाम कर्म है। यह नाम कर्म दो प्रकार 0000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000ps DIdoo0000000000000000AM 500 निर्ग्रन्थ प्रवचन/373 अपना Doooo000000000000061 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 का माना गया है। उनमें से एक शुभ नाम कर्म और दूसरा अशुभ नाम कर्म है। मनुष्य शरीर, देव शरीर, सुन्दर अंगोपांग गौर वर्णादि, वचन में मधुरता का होना, लोकप्रिय, यशस्वी तीर्थंकर आदि आदि का होना, ये सब शुभ नाम कर्म के फल हैं। नारकीय, तिर्यंच का शरीर धारण करना, पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति आदि में जन्म लेना अक्षम व बेडोल अंगोपांग लेकर कुरुप और अयशस्वी होना। ये सब अशुभ नाम कर्म के फल है। हे गौतम! शुभ अशुभ नाम कर्म कैसे बंधता है सो सुनो! मानसिक वाचिक और कायिक कृत्य की सरलता रखने से और किसी के साथ किसी भी प्रकार का वैर विरोध न करने व न रखने से शुभनाम कर्म बंधता हैं। शुभनाम कर्म के बंधन से विपरीत बर्ताव के करने से अशुभ नाम कर्म बंधता है। ॐ हे गौतम! अब हम आगे गौत्र कर्म का स्वरूप बतायेंगे। मूल: गोयकम्मं तु दुविहं, उच्चं नीयं च आहि। उच्चं अविहं होइ, एवं नीअं वि आहि||१४|| छायाः गौत्रकर्म तु द्विविधं, उच्चं नीचं चाख्यातम्। उच्चमष्टविधं भवति, एवं नीचमप्याख्यातम्।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (गोयकम्मं तु) गोत्र कर्म (दुविह) दो प्रकार का (आहिअं) कहा गया है। (उच्च) उच्च गौत्र कर्म (च) और (नीअं) नीच गोत्र कर्म (उच्च) उच्च गौत्र कर्म (अट्ठविहं) आठ प्रकार का (होइ) है (नीअं वि) नीच गोत्र कर्म भी (एवं) इसी तरह आठ प्रकार का होता है। ऐसा (आहिअं) कहा गया है। भावार्थ : हे गौतम! उच्च तथा नीच जाति आदि मिलने में जो कारण भूत हो, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह गोत्र कर्म ऊंच, नीच में विभक्त होकर आठ प्रकार का होता है। उच्च जाति और ऊँचे कुल में जन्म लेना, बलवान होना, सुन्दराकार होना, तपवान होना, प्रत्येक व्यवहार में अर्थ प्राप्ति का होना, विद्वान होना, ऐश्वर्यवान होना ये सब ऊँचे गौत्र के फल हैं और इन सब बातों के विपरीत जो कुछ है उसे नीच गौत्र कर्म का फलादेश समझो। हे गौतम! वह ऊँच नीच गोत्र कर्म इस प्रकार से बंधता है। स्वकीय माता के वंश का, पिता के वंश का, ताकत का, रूप का, तप का, विद्वत्ता का और सुलभता से लाभ होने का, घमण्ड न करने से ऊंच गोत्र कर्म का 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog निर्ग्रन्थ प्रवचन/38 5000000000000od 00000000000000 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 180000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 बंध होता है और इसके विपरीत अभिमान करने से नीच गौत्र का बंध होता है। हे गौतम! अब अन्तराय कर्म का स्वरूप बतलाते हैं। मूल : दाणे लाभे य भोगे य; उवभोगे वीरिए वहा| पंचविहमंतराय, समासेण विआहिय||१५|| छायाः दाने लाभे च भोगे च, उपभोगे वीर्ये तथा। पञ्चविधमन्तराय, समासेन व्याख्यातम् / / 15 / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अन्तरायं) अन्तराय कर्म (समासेण) संक्षेप से (पंचविह) पाँच प्रकार का (विआहियं) कहा गया है। (दाणे) दानान्तराय (य) और (लाभे) लाभान्तराय (भोगे) भोगान्तराय (य) और (उवभोगे) उपभोगान्तराय (तहा) वैसे ही (वीरिए) वीर्यान्तराय। भावार्थ : हे गौतम! जिसके उदय से इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा आवे वह अन्तराय कर्म है। इसके पाँच भेद हैं। (1) दान देने की वस्तु के विद्यमान होते हुए भी, दान देने का अच्छा फल जानते हुए भी, जिसके कारण दान नहीं दिया जा सके वह दानान्तराय है। (2) व्यवहार में वा माँगने में सब प्रकार की सुविधा होते हुए भी जिसके कारण प्राप्त न हो सके वह लाभान्तराय है। (3) खान पान आदि की सामग्री के व्यवस्थित रूप से होने पर भी जिसके कारण खा पी न सके, खा और पी भी लिया हो तो हज़म न किया जा सके, वह भोगान्तराय कर्म है। भोग पदार्थ वे हैं, जो एक बार काम में आते हैं। जैसे भोजन, पानी आदि और जो बार-बार काम में आते हैं उन्हें उपभोग माना गया है जैसे वस्त्र, आभूषण आदि। अतः जिसके उदय से उपभोग की सामग्री समग्र रूप से स्वाधीन होते हुए भी अपने काम में न ली जा सके उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं और जिसके उदय से युवान और बलवान होते हुए भी कोई कार्य न किया जा सके, वह वीर्यान्तराय कर्म का फलादेश है। - हे गौतम! यह अन्तराय कर्म निम्न प्रकार से बंधता है। दान देते हुए के बीच बाधा डालने से, जिसे लाभ होता हो, उसे धक्का लगाने से, जो खा-पी रहा हो या खाने, पीने का जो समय हुआ हो उसे टालने से, जो उपभोग की सामग्री को अपने काम में ला रहा हो उसे अन्तराय देने से तथा जो सेवा धर्म का पालन कर रहा हो उसके बीच रोड़ा अटकाने से आदि-आदि कारणों से वह जीव अन्तराय कर्म बांध लेता है। ___ हे गौतम! अब हम आठों कर्मों की पृथक-पृथक स्थिति कहेंगे सो सुनो! 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000DA निर्ग्रन्थ प्रवचन/30 000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g Pooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf मूल : उदहीसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ। उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहुत्वं जहणिया||१६|| आवरणिज्जाण दुण्हं पि, वेयणिज्जे तहेव या अंतराए य कम्ममि, ठिई एसा विआहिया||१७|| छायाः उदधिसदृशनामानं त्रिंशत्कोटाकोटयः। उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहूर्ता जघन्यका।।१६।। आवरयोद्वयोरपि वेदनीये तथैव च। अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेपा व्याख्याता।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुण्हं पि) दोनों ही (आवरणिज्जाण) ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म की (तीसईं) तीस (कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) समुद्र के समान है, नाम जिसका ऐसा सागरोपम (उक्कोसिया) ज्यादा से ज्यादा (ठिई) स्थिति (होई) है (तहेव) वैसे ही (वेयणिज्जे) वेदनीय (य) और (अन्तराए) अन्तराय (कम्मम्मि) कर्म के विषय में भी (ऐसा) इतनी ही उत्कृष्ट स्थिति है और (जहणिया) कम से कम चारों कर्मों की (अन्तोमुहुत्तं) अन्तरमुहूर्त (ठिई) स्थिति (विआहिया) कही है। भावार्थ : हे गौतम! ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय और अन्तराय ये चारों कर्म अधिक से अधिक रहें तो तीस कोड़ाकोड़ी (तीस करोड़ को तीस करोड़ से गुणा करने पर जो गुणनफल आवे उतने) सागरोपम की इनकी स्थिति मानी गई है और कम से कम रहे तो अन्तर मुहूर्त की इनकी स्थिति होती है। मूल: उदहीसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडीओ। मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्वं जहणिया||१८|| तेत्तीसं सागरोवमा, उक्कोसेण विआहिया। लिई उ आउकम्मरस, अन्तोमुहुत्वं जहणिया||१९|| उदहीसरिसनामाणं, वीसई कोडिकोडीओ। नामगोत्तणं उक्कोसा, अट्ठ मुहुत्ता जहणिया||२०|| छायाः उदधिसदंगनाम्ना सप्ततिः कोटाकोटयः मोहनीयस्योत्कृष्टा, अन्तर्मुहुर्ता। जघन्यका।।१८।। त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा, उत्कर्षेण व्याख्याता। स्थितिस्तु आयुःकर्मणः, अन्तर्मुहूर्ता जघन्यका।।१६।। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooool 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/40 0000000000000000 000000000 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000 0000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 उदधिसदंगनाम्नां, विंशतिः कोटाकोटयः। नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यका।।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय कर्म की (उक्कोसा) उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक स्थिति (सत्तरं) सत्तर (कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) सागरोपम है और (जहण्णिया) जघन्य (अन्तोमुहुतं) अन्तरमुहूर्त और (आउकम्मस्स) आयुष्य कर्म की (उक्कोसेण) उत्कृष्ट स्थिति (तेत्तीसं सागरोवम) तैंतीस सागरोपम की है और (जहणिया) जघन्य (अन्तोमुहुतं) अन्तरमुहूर्त की और इसी प्रकार (नामगोत्तणं) नाम कर्म और गौत्र कर्म की (उक्कोसा) उत्कृष्ट स्थिति (वीसई) बीस (कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) सागरोपम की है और (जहण्णिया) जघन्य (अट्ठ) आठ (मुहुर्ता) मुहूर्त की (ठिई) स्थिति (विआहिया) कही गई है। ती भावार्थ : हे गौतम! मोहनीय कर्म की ज्यादा से ज्यादा स्थिति सत्तर क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम की है और जघन्य (कम से कम) स्थिति अन्तर मुहूर्त की है। आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम की और जघन्य अन्तर मुहूर्त की है। नाम कर्म एवं गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम की है और जघन्य आठ मुहूर्त की कही है। मूल : एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छई||२१|| छाया: एकदा देवलोकेषु नरकेष्वेकदा। एकदा आसुरं कायं, यथा कर्मभिर्गच्छति।।२१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहाकम्मेहिं) जैसे कर्म किये हैं, उनके अनुसार आत्मा (एगया) कभी तो (देवलोएस) देवलोक में (एगया) कभी (नरएसु वि) नरक में (एगया) कभी (आसुरं) भवनपति आदि असुर की (कायं) काय में (गच्छइ) जाता है। भावार्थ : हे गौतम! आत्मा जब शुभ कर्म उपार्जन करता है तो वह देवलोक में जाकर उत्पन्न होता है। यदि वह आत्मा अशुभ कर्म उपार्जन करता है तो नरक में जाकर घोर यातना सहता है, और कभी अज्ञानपूर्वक बिना इच्छा से क्रियाकर्म करता है तो वह भवनपति आदि देवों में जाकर उत्पन्न होता है। इससे सिद्ध हुआ कि यह आत्मा जैसा कर्म करता है वैसा ही स्थान पाता है। 0000000000000000000000000 000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/412 50000000000000ola 0000000000000 www.jaipelibrary.orgs For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot 100000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : तेणे जहा संधिमुहे गहीए; सकम्मण किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए; कडाण-कम्माण न मुक्ख अत्थि||२|| छायाः स्तेनो यथा सन्धिमुखे गृहितः, स्वकर्मणा क्रियते पापकारी। एवं प्रजा प्रेत्यइह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति।।२२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (पावकारी) पाप करने वाला (तेणे) चोर (संधिमुखे) खात के मुंह पर (गहीए) पकड़ा जा कर (सकम्मुण) अपने किए हुए कर्मों के द्वारा ही (किच्चई) छेदा जाता है, दुःख उठाता है, (एवं) इसी प्रकार (पया) प्रजा अर्थात लोक (पेच्चा), परलोक (च) और (इहलोए) इस लोक में किये हुए दुष्कर्मों के द्वारा दुःख उठाते हैं। क्योंकि (कडाण) किये हुए (कम्माण) कर्मों को भोगे बिना (मुक्ख) छुटकारा (न) नहीं (अत्थि) होता। _भावार्थ : हे गौतम! कर्म कैसे हैं? जैसे कोई अत्याचारी चोर खात के मुँह पर पकड़ा जाता है, और अपने कृत्यों के द्वारा कष्ट उठाता है अर्थात् प्राणान्त तक करा बैठता है। वैसे ही यह आत्मा अपने किये हुए कर्मों के द्वारा इस लोक और परलोक में महान दुःख उठाता है क्योंकि किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है।* मूल: संसारमावण्ण परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म। कम्मरसते तस्स उवेयकाले, नबंधवाबंधवयंउविंति||२३|| छायाः संसारमापन्नः परस्यार्थाय, साधारणं यच्च करोति कर्म। कर्मणस्ते तस्य तु वेदकाले, न बान्धवा बान्धवत्त्वमुपयान्ति।।२३।। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000coooooooooope सन्दर्भ कथा *(1) किसी समय कई एक चोर चोरी करने जा रहे थे। उनमें एक सुतार भी शामिल हो गया। वे चोर एक नगर में एक धनाढ्य सेठ के यहां पहुंचे। वहां उन्होंने सैंध लगाई। सैंध लगाते लगाते दीवाल में काठ का एक पटिया दिख पड़ा, तब वे चोर साथ के उस सुतार से बोले कि अब तुम्हारी बारी है, पटिया काटना तुम्हारा काम है। अतः सुतार अपने शस्त्रों द्वारा काठ के पटिये को काटने लगा। अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सैंध के छेदों में चारों ओर तीखे तीखे कंगुरे उसने बना दिये। फिर वह खुद चोरी करने के लिए अन्दर घुसा। ज्योंही उसने अंदर पैर रखा, त्यों ही मकान मालिक ने उसका पैर पकड़ लिया। सुतार चिल्लाया, दौड़ो-दौड़ो, और बोला- म-का-न मा-लि-क मकान मा-लि-क! मेरे पांच छुड़ाओ। यह सुनते ही चोर झपटे, और लगे सर पकड़ कर खींचने / सुतार बेचारा बड़े ही झमेले में पड़ गया। भीतर और बाहर दोनों तरफ से जोरों की खींचातानी होने लगी बस फिर क्या था? जैसे बीज उसने बोये, फसल भी वैसी ही उसे काटनी पड़ी। उसके निजू बनाये हुए सैंध के पैने पैने कंगूरों ने ही उसके प्राणों का अंत कर दिया। आत्मा के लिए भी यही बात लागू होती है। वह भी अपने ही अशुभ कर्मों के द्वारा लोक और परलोक में महान कष्टों के झकझोरों में पड़ता है। / नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/42 00000000000000 boo0000000000000 wwwijainelibrary.org For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops Ag0000000000000000000000000000000000000000000000000 do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000081 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संसारमावण्ण) संसार के प्रपंच में फंसा हुआ आत्मा (परस्स) दूसरों के (अट्ठा) लिण (च) तथा (साहारणं) स्व और पर के लिए (ज) जो (कम्म) कर्म (करेई) करता है। (तस्स उ) उस (कम्मस्स) कर्म के (वेयकाले) भोगते समय (ते) वे (बंधवा) कौटुम्बिक जन (बंधवयं) बन्धुत्वजन को (न) नहीं (उविंति) प्राप्त होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! संसारी आत्मा ने दूसरों के तथा अपने लिए जो दुष्ट कर्म उपार्जन किये हैं, कर्म जब उसके फल स्वरूप में आवेंगे उस समय जिन बन्धु बान्धवों और मित्रों के लिए तथा स्वतः के लिए वे दुष्कर्म किये थे, वे कोई भी आकर पाप के फल भोगने में सम्मिलित नहीं होंगे। मूलः नतस्सदुक्खं विभयंतिनाइओ, नमित्तवग्गनसुयानबन्धवा। इक्कोसयंपच्चणुहोइ दुक्खं, कतार मेव अणुजाइ कम्म||४|| छायाः न तस्स दुःखं विभजन्ते ज्ञातयः, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः / एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कर्तारमेवानुयाति कर्म।।२४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तस्स) उस पाप कर्म करने वाले के (दुक्ख) दुःख को (नाइओ) स्वजन वगैरह भी (न) नहीं (विभयंति) विभाजित कर सकते हैं और (न) न (मित्तवग्ग) मित्रवर्ग (न) न (सुया) पुत्र वर्ग,(न) न (बंधवा) बंधुजन, कर्मों के फल में भाग ले सकते हैं। (इक्को) वही अकेला (दुक्खं) दुःख को (पच्चणुहोइ) भोगता है। क्योंकि (कम्म) कर्म (कत्तारमेव) करने वाले ही के साथ (अणुजाइ) जाता है। भावार्थ : हे गौतम! किये हुए कर्मों का जब उदय होता है उस समय ज्ञाति जन, मित्र लोग, पुत्रवर्ग, बन्धु जन आदि कोई भी उस में हिस्सा नहीं बांट सकते हैं। जिस आत्मा ने कर्म किये हैं वही आत्मा अकेला उसका फल भोगता है। यहां से मरने पर किये हुए कर्म करने वाले के साथ ही जाते हैं। मूलः चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खित्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं| सकम्मबीओ अवसापयाइ, परंभवंसुन्दरंपावगंवा||२५|| छायाः त्यक्त्वा द्विपदं चतुष्पदं च, क्षेत्रं गृहं धनधान्यं च सर्वम। स्वकर्म द्वितीयोऽवशः प्रयाति, परं भवं सुन्दरं पापकं वा।।२५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सकम्मबीओ) आत्मा का दूसरा साथी उसका अपना किया हुआ कर्म ही है। इसी से (अवसो) परवश होता हुआ यह जीव (सव्वं) सब (दुपय) स्त्री, पुत्र, दास, दासी आदि (च) और 0000000000000000000000000000000000000000000000opl नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/433 000000000000000 000000000000ODA For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl do000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (चउप्पयं) हाथी घोड़े आदि (च) और (खित्तं) खेत वगैरह (गिह) घर (धण) रुपया, पैसा, सिक्का वगैरह (धन्न) अन्न वगैरह को (चिच्चा) छोड़कर (सुन्दरं) स्वर्गादि उत्तम (वा) अथवा (पावगं) नरकादि अधम ऐसे (परंभवं) परभव को (पयाइ) जाता है। __भावार्थ : हे गौतम! स्वकृत कर्मों के आधीन होकर यह आत्मा स्त्री, पुत्र, हाथी, घोड़े, खेत, घर, रुपया, पैसा, धान्य, चांदी, सुवर्ण आदि सभी को मृत्यु की गोद में छोड़कर जैसे भी शुभाशुभ कर्म किये होते हैं उनके अनुसार ही स्वर्ग तथा नर्क में जाकर उत्पन्न होता है। मूलः जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य| एमेव मोहाययणंखुतण्हा, मोहंचतण्हाययणं वयंति||६|| छायाः यथा अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च। ना एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णा, मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति।।२६।। 1 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा य) जैसे (अंडप्प भवा) अण्डा से बगुली उत्पन्न हुई (य) और (जहा) जैसे (बलागप्पभवं) बगुली से अंडा उत्पन्न हुआ (एमेव) इसी तरह (खु) निश्चय कर के (मोहाययणं) मोह का स्थान (तण्हा) तृष्णा (च) और (तण्हाययणं) तृष्णा का स्थान (मोह) मोह है, ऐसा (वयंति) ज्ञानीजन कहते हैं। ही भावार्थ : हे गौतम! जैसे अण्डे से बगुली (मादा-बगुला) उत्पन्न होती है और बगुली से अण्डा पैदा होता है। इसी तरह से मोह कर्म से तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है। हे गौतम! ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। मूल: रागो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मंच मोहप्पभवं वयंति। कम्मंचजाईमरणस्समूलं, दुक्खंच जाइमरणंवयंति|२७|| छायाः रागश्चद्वेषोऽपि च कर्मबीजं, कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति। कर्म च जातिमरणयोर्मूलं, दुःखं च जातिमरणं वदन्ति।।२७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (रागो) राग (य) और (दोसो वि य) दोष ये दोनों (कम्मं बीयं) कर्म उत्पन्न करने में कारण भूत हैं (च) और (कम्म) कर्म (मोहप्प भवं) मोह से उत्पन्न होते हैं। ऐसा (वयंति) ज्ञानीजन कहते हैं। (च) और (जाइमरणस्स) जन्म मरण का (मूल) मूल कारण (कम्म) कर्म है (च) और (जाईमरणं) जन्म मरण ही (दुक्ख) दुःख है, ऐसा (वयंति) ज्ञानी जन कहते हैं। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/44 Doo00000000000obar 000000000 For Personal & Private Use Only Vain Education International Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope B00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! वे राग और द्वेष कर्म से उत्पन्न होते हैं और कर्म मोह से पैदा होते हैं। यही कर्म जन्म मरण का मूल कारण हैं और जन्म मरण ही दुःख है, ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं। तात्पर्य यह कि राग द्वेष और कर्म में परस्पर द्विमुख कार्य कारण भाव है। जैसे बीज, वृक्ष का कारण और कार्य दोनों है तथा वृक्ष भी बीज का कार्य कारण है, उसी प्रकार कर्म राग द्वेष का कार्य भी है और कारण भी है। मूलः दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओजस्सन होइ तण्हा। तण्हा हयाजस्सन होइलोहो, लोहोहओजस्सन किंचणाइंllll छाया : दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा। तृष्णा हता यस्य न भवति लोमः, लोमो हतो यस्य न किञ्चन।।२८|| म अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जस्स) जिसने (दुक्ख) दुःख को (हयं) नाश कर दिया है उसे (मोहो) मोह (न) नहीं (होइ) होता है और (जस्स) जिसने (मोहो) मोह (हओ) नष्ट कर दिया है उसे (तण्हा) तृष्णा (न) नहीं (होइ) होती। (जस्स) जिसने (तण्हा) तृष्णा (हया) नष्ट कर दी उसे (लोहो) लोभ (न) नहीं (होइ) होता, और (जस्स) जिसने (लोहो) लोभ (हओ) नष्ट कर दिया उसके (किंचणाई) ममत्व (न) नहीं, रहता। भावार्थ : हे गौतम! जिसने दुःख रूपी भयंकर सागर का पार पा लिया है वह मोह के बन्धन में नहीं पड़ता। जिसने मोह का समूल उन्मूलन कर दिया है उसे तृष्णा नहीं सता सकती। जिसने तृष्णा का त्याग कर दिया है उस में लोभ की वासना कायम नहीं रह सकती। निर्लोभता के कारण वह अपने को अकिंचन होने की पात्रता प्राप्त कर सकता है। Jgooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 // इति द्वितीयोऽध्यायः|| 0000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/45 00000000000000 sooooooooood For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 Ndoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय तीन - धर्म स्वरूप वर्णन ||श्रीभगवानुवाच।। मूल: कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुब्बी कयाई उ। जीवा सोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सयं||१|| छायाः कर्मणां तु प्रहाण्या, आनुपूर्व्या कदापि तु। जीवा शुद्धिमनुप्राप्ताः, आददते मनुष्यताम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आणपव्वी) अनुक्रम से (कम्माण) कर्मों की (पहाणाए) न्यूनता होने पर (कया इ उ) कभी (जीवा) जीव (सोहिमणुपत्ता) शुद्धता प्राप्त कर (मणुस्सयं) मनुष्यत्व की (आययंति) प्राप्त होते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! जब यह जीव अनेक जन्मों में दुःख सहन करता हुआ धीरे-धीरे मनुष्य जन्म के बाधक कर्मों को नष्ट कर लेता है। तब कहीं कर्मों के भार से हलका होकर मनुष्य जन्म को प्राप्त करता है। मूल : वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुब्बया। उविंति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो|||| छाया: विमात्राभिः शिक्षाभिः, ये नरा गृहि सुवृत्ताः। __ उपयान्ति मानुष्यं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (नरा) मनुष्य (वेमायाहिं) विविध प्रकार की (सिक्खाहिं) शिक्षाओं के साथ (गिहि सुव्वया) गृहस्थावास में सुव्रत्तों (अणुव्रत्तों) का आचरण करने वाले हों, वे मनुष्य फिर (माणुस) मनुष्य (जोणिं) योनि को (उविंति) प्राप्त होते हैं / (हु) क्योंकि (पाणिणो) प्राणी (कम्मसच्चा) सत्य कर्म करने वाला है, अर्थात् जैसे कर्म जीव करता है, वैसी ही उसकी गति होती है। भावार्थ : हे गौतम! जो नाना प्रकार के त्याग धर्म को धारण करता है, प्रत्येक के साथ निष्कपट व्यवहार करता है, वही मनुष्य पुनः मनुष्य भव को प्राप्त हो सकता है। क्योंकि जैसे कर्म वह करता है, उसी के अनुसार गति मिलती है। मूल: बाला किड्डाय मंदाय, बला पन्ना य हायणी। पवंच्चा पभारा य, मुम्मुही सायणी तहा||३|| SN निर्ग्रन्थ प्रवचन/46el For Personal a Private Use only 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOOO 100000000000000000000000000l 0000000000000ooda boooo0000000000 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops 00000000000000ok N000000000000000000000000000000000 YOOOC छायाः बाला क्रीडा च मन्दा च, बला प्रज्ञा च हायनी। प्रपञ्चा प्राग्भारा च मुन्मुखी शायिनी तथा।। 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! मनुष्य की दश अवस्थाएँ हैं। प्रथम (बाला) बाल्यावस्था (य) और दूसरी (किड्डा) क्रीड़ावस्था (मंदा) तीसरी मन्दावस्था (बला) चौथी बलावस्था (य) और (पन्ना) पांचवीं प्रज्ञावस्था छठी (हायणी) हायनी अवस्था तथा सातवीं (पवंचा) प्रपंचावस्था (य) और आठवीं (पब्भारा) प्राग्भारावस्था। नौवीं (मुमुही) मुम्मुखी अवस्था (तहा) तथा मनुष्य की दशवी अवस्था (सायणी) शायनी अवस्था होती है। भावार्थ : हे गौतम! जिस समय मनुष्य की जितनी आयु हो उतनी आयु का दश भागों में बांटने से दश अवस्थाएँ होती है। जैसे सौ वर्ष की आयु हो तो दश वर्षों की एक अवस्था, यों दश दश वर्षों की दश अवस्थाएँ हैं। प्रथम बाल्यावस्था है कि जिस में खाना, पीना, कमाना, रूप आदि सुख दुःख का प्रायः भान नहीं रहता है। दश वर्ष से बीस वर्ष तक खेलने कूदने की प्राय धुन रहती है, इसलिये दूसरी अवस्था का नाम क्रीड़ावस्था है। बीस वर्ष से तीस वर्ष तक अपने गृह में जो काम भोगों की सामग्री जुटी हुई है उसी को भोगते रहना और नवीन अर्थ सम्पादन करने में प्रायः बुद्धि की मन्दता रहती है, इसी से तीसरी मन्दावस्था है। तीस से चालीस वर्ष पर्यंत यदि वह स्वस्थ रहे तो उस हालत में वह कुछ बली दिखलाई देता है, इसी से चौथी बलावस्था कही गयी है। चालीस से पचास वर्ष तक इच्छित अर्थ का सम्पादन करने के लिये तथा कुटुम्ब वृद्धि के लिए खूब बुद्धि का प्रयोग करता है, इसी से पांचवीं प्रज्ञावस्था है। 50 से 60 वर्ष तक जिस में इन्द्रिय जन्य विषय ग्रहण करने में कुछ हीनता आ जाती है इसीलिए छठी हायनी अवस्था है। साठ से सत्तर वर्ष तक बार बार कफ निकलने, थूकने और खांसने का प्रपंच बढ़ जाता है। इसी से सातवीं प्रपंचावस्था है। शरीर पर सलवट पढ़ जाते हैं और शरीर भी कुछ झुक जाता है इसी से सत्तर से अस्सी वर्ष तक की अवस्था को प्राग्भार अवस्था कहते हैं। नौवीं अस्सी से नब्बे वर्ष तक मुम्मुखी अवस्था में जीव जरारूप राक्षसी से पूर्ण रूप से घिर जाता है। या तो इसी अवस्था में परलोकवासी बन बैठता है और यदि जीवित रहा तो एक मृतक के समान ही होता है। नब्बे से सौ वर्ष तक प्रायः दिन रात सोते रहना ही अच्छा लगता है। इसलिए दशवीं शायनी अवस्था कही जाती है। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/47 500000000000000ood 0000000000000 000000067 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - मूल : माणुस्सं विग्गृहं लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवजंति, तवं खंतिमहिंसयं||४|| छायाः मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा श्रुति धर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंस्रताम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (माणुस्स) मनुष्य के (विग्गह) शरीर को (लथु) प्राप्त कर (धम्मस्स) धर्म का (सुई) श्रवण करना (दुल्लहा) दुर्लभ है। (ज) जिसको (सोच्चा) सुनने से (तवं) तप करने की (खंति महिंसयं) तथा क्षमा और अहिंसा के पालन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। भावार्थ : हे गौतम! दुर्लभ मानव देह को पा भी लिया तो भी धार्मिक तत्व का श्रवण करना महान दुर्लभ है। जिस के सुनने से तप, क्षमा, अहिंसा आदि करने की प्रबल इच्छा जाग उठती है। मूल: धम्मो मंगलमुक्किट्ठें, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो||५|| छायाः धर्मो मंगलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमस्तपः देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहिंसा) जीव दया (संयम) यत्ना और (तवो) तप रूप (धम्मो) धर्म (उक्किट्ठ) सब से अधिक (मंगल) मंगलमय है। इस प्रकार के (धम्मे) धर्म में (जस्स) जिसका (सया) हमेशा (मणो) मन है, (तं) उसको (देवा वि) देवता भी (नमसंति) नमस्कार करते हैं। भावार्थ : हे गौतम! किचिन्मात्र भी जिसमें हिंसा नहीं है, ऐसी अहिंसा, संयम और मन वचन काया के अशुभ योगों का घातक तथा पूर्वकृत पापों का नाश करने में अग्रसर ऐसा तप, ये ही जगत में प्रधान और मंगलमय धर्म के अंग हैं। बस एकमात्र इसी धर्म को हृदयंगम करने वाला मानव देवों से भी सदैव पूजित होता है तो फिर मनुष्यों द्वारा वह पूज्य दृष्टि से देखा जाए इसमें आश्चर्य ही क्या है? मूलः मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा। साहप्पसाहाविरुहंतिपत्ता, तओसे पुफंचफलं रसो||६|| छायाः मूलात्स्कन्धप्रभवो द्रुमस्य, स्कन्धात् पश्चात् समुपयान्ति शाखाः / __ शाखाप्रशाखाम्योविरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुमस्स) वृक्ष के (मूलाउ) मूल से (खंधप्पभवो) स्कन्ध अर्थात् “पीड" पैदा होता है (पच्छा) पश्चात् (खंधाउ) Jgooooooooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops 00000 000000000000000000000000000000000000000 Nनिर्ग्रन्थ प्रवचन/48 500000000000000 Sboooooo00000000006 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000061 स्कंध से (साहा) शाखा (समुर्विति) उत्पन्न होती है और (साहप्पसाहा) शाखा प्रतिशाखा से (पत्ता) पत्ते (विरुहंति) पैदा होते हैं। (तओ) उसके बाद (से) वह वृक्ष (पुप्फ) फूलदार (च) और (फल) फलदार (अ) और (रसो) रस वाला बनता है। भावार्थ : हे गौतम! वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है। तदन्तर स्कन्ध से शाखा, टहनियाँ और उसके बाद पत्ते उत्पन्न होते हैं। अन्त में वह वृक्ष फूलदार फलदार व रस वाला होता है। मूल : एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्सुिअं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छ||७|| छायाः एवं धर्मस्य विनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः / येन कीर्ति श्रुतं शीघ्र निश्शेष चाभिगच्छति।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इसी प्रकार (धम्मस्स) धर्म की (परमो) मुख्य (मूलं) जड़ (विणओ) विनय है। फिर उससे क्रमशः आगे (से) वह (मुक्खो ) मुक्ति है। इसलिये पहले विनय आदरणीय है। (जेण) जिससे वह (कित्ति) कीर्ति को। (च) और (नीसेस) सम्पूर्ण (सुअं) श्रुतज्ञान को (सिग्घं) शीघ्र (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है। 12 भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ के द्वारा क्रमपूर्वक रस वाला होता है। उसी प्रकार धर्म की जड़ विनय है। विनय के पश्चात् ही स्वर्ग, शुक्लध्यान, क्षपक श्रेणी आदि उत्तरोत्तर गुणों के साथ रसवान वृक्ष के समान आत्मा मुक्ति रूपी रस को प्राप्त कर लेती है। जब मूल ही नहीं है तो शाखा पत्ते फूल फल रस कहाँ से होंगे। ऐसे ही जब विनय धर्म रूप मूल ही नहीं हो तो मुक्ति का मिलना महान कठिन है। हे गौतम! सबों के लिए विनय आदरणीय है। विनय से कीर्ति फैलती है और विनयवान शीघ्र ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है। मूल: अणुसिठं पि बहुविहं, मिच्छ दिठ्यिा जे नरा अबुद्धिया। बदनिकाइयकम्मा, सुगंति धम्मन परं करेंतिllll छायाः अनुशिष्टमपि बहुविधं, मिथ्यादृष्टयो ये नरा अबुद्धयः। बद्धनिकाचितकर्माणः श्रृण्वन्ति धर्मं न परं कुर्वन्ति।।८i अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बहुविहं) अनेक प्रकार से (धम्म) धर्म को (अणुसिटुं पि) शिक्षित गुरु के द्वारा सीखने पर भी (बद्धनिकाइयकम्मा) बंधे हैं निकाचित कर्म जिसके ऐसे (अबुद्धिया) बुद्धि रहित igoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/49 500000000000000 00000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog! 10000000000000000 Moo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (मिच्छादिट्ठिया) मिथ्या दृष्टि (नरा) मनुष्य (जे) वे केवल (धम्म) धर्म को (सुणंति) सुनते हैं (वर) परन्तु (न) नहीं (करेंति) अनुकरण करते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! गृहस्थ धर्म और चरित्र धर्म को शिक्षित गुरु के द्वारा सुन लेने पर भी बुद्धि रहित मिथ्या दृष्टि मनुष्य केवल उन धर्मों को सुन कर ही रह जाते हैं। उनके अनुसार अपने कर्तव्य को नहीं बना सकते हैं। क्योंकि उनके प्रगाढ़-निकाचित कर्म का उदय होता है। मूल: जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे||९ छायाः जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्धते। यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जाव) जब तक (जार) वृद्धावस्था (न) नहीं (पीडेइ) सताती और (जाव) जब तक (वाही) व्याधि (न) नहीं (वड्ढइ) बढ़ती और (जाविंदिया) जब तक इन्द्रियाँ (न) नहीं (हायंति) शिथिल होती (ताव) तब तक (धम्म) धर्म का (समायरे) आचरण कर ले। भावार्थ : हे गौतम! जब तक वृद्धावस्था नहीं सताती, धर्म घातक व्याधि की बढ़ती नहीं होती है, निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनने में सहायक श्रोतेन्द्रिय तथा जीव दया पालन करने में सहायक चक्षु आदि इन्द्रियों की शिथिलता नहीं आ घेरती तब तक धर्म का आचरण बड़े ही दृढ़ता पूर्वक कर लेना चाहिए। मूल : जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्ता अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जति राइओ||2011 छाया: या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्त्तते। अधर्मं कुर्वाणस्य, अफला यान्ति रात्रयः / 10 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि (वच्चई) जाती है (सा) वह रात्रि (न) नहीं (पडिनिअत्तइ) लौट कर आती है। अतः (अहम्म) अधर्म (कुणमाणस्स) करने वाले की (राइओ) रात्रियाँ (अफला) निष्फल (जंति) जाती हैं। _भावार्थ : हे गौतम! जो जो रात और दिन बीत रहे हैं वह समय पीछे लौट कर नहीं आ सकता। अतः ऐसे अमूल्य समय में मानव शरीर पाकर के भी जो अधर्म करता है, तो उस अधर्म करने वाले का समय निष्फल जाता है। loooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 BOON 00000000000ook 50000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/50 Foi personal Profile Use Only For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ge goo0000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मूल: जाजा वच्चइ रयणी, न सा पडिनिअचई। धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ||9||? छाया : या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्त्तते। धर्मं च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि (वच्चइ) निकलती है (सा) वह (न) नहीं (पडिनिअत्तइ) लौट कर आती है। अतः (धम्मं च) धर्मं (कुण्माणस्स) करने वाले की (राइओ) रात्रियाँ (सफला) सफल (जंति) जाती है। भावार्थ : हे गौतम! रात और दिन का जो समय जा रहा है। वह पनः लौट कर किसी भी तरह नहीं आ सकता। ऐसा समझ कर जो धार्मिक जीवन बिताते हैं उनका समय (जीवन) सफल है। मूल : सोही उन्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठ। णिव्वाणं परमंजाइ, घयसित्ति व पावए||१२|| छायाः शुद्धि ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति। निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इव पावकः / / 12 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उज्जूअभूयस्स) सरल स्वभावी का हृदय (सोही) शुद्ध होता है। उस (सुद्धस्स) शुद्ध हृदय वाले के पास (धम्मो) धर्म (चिट्ठइ) स्थिरता से रहता है। जिससे वह (परम) प्रधान (णिव्वाणं) मोक्ष को (जाइ) जाता है। (व्व) जैसे (पावए) अग्नि में (घयसित्ति) घी सींचने पर अग्नि प्रदीप्त होती है। ऐसे ही आत्मा भी बलवती होती है। भावार्थ : हे गौतम! स्वभाव को सरल रखने से आत्मा कषायादि से रहित होकर (शुद्ध) निर्मल हो जाती है। उस शुद्धात्मा के धर्म की भी स्थिरता रहती है। जिससे उसकी आत्मा जीवन मुक्त हो जाती है। जैसे अग्नि में घी डालने से वह चमक उठती है उसी तरह आत्मा के कषायादिक आवरण दूर हो जाने से वह भी अपने केवल ज्ञान के गुणों से देदीप्यमान हो उठती है। मूल : जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं| धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तम||१३|| छायाः जरामरणवेगेन वाह्यमानानाम् प्राणिनाम्। धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम्।।१३।। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/51 00000000000ookla 5000000000000 s, For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000c 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जरामरणवेगेणं) जरा मृत्यु रूप जल के वेग से (वुज्झमाणाण) डूबते हुए (पाणिणं) प्राणियों को (धम्मो) धर्म (पइट्ठा) निश्चल आधारभूत (गई) स्थान (य) और (उत्तम) प्रधान (शरणं) शरण रूप (दीवो) द्वीप है। भावार्थ : हे गौतम! जन्म जरा, मृत्यु रूप जल के प्रवाह में डूबते हए प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला धर्म ही निश्चल आधारभूत स्थान और उत्तम शरण रूप एक टापू के समान है। मूल : एस धम्मे धुवे णितिए, सासए जिणदेसिए। सिद्धा सिझंति चाणेणं, सिज्झिसंति वहावरे||१४|| छायाः ऐषो धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो निजदेशितः। सिद्धाः सिद्धयन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति तथाऽपरे।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जिणदेसिए) तीर्थंकरों के द्वारा कहा हुआ (एस) यह (धम्मे) धर्म (धुवे) ध्रुव है (णितिए) नित्य है (सासए) शाश्वत है (अणेणं) इस धर्म के द्वारा अनंत जीव भूतकाल में सिद्ध हुए हैं (च) और वर्तमान काल में (सिझंति) सिद्ध हो रहे हैं (तहा) उसी तरह (अवरे) भविष्यत काल में भी (सिज्झिसंति) सिद्ध होंगे। __भावार्थ : हे गौतम! पूर्ण ज्ञानियों के द्वारा हुआ यह धर्म ध्रुव के समान है। तीन काल में नित्य है, शाश्वत् है। इसी धर्म को अंगीकार कर के अनंत जीव भूतकाल में कर्मों के बंधन से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। वर्तमान काल में हो रहे हैं और भविष्यत काल में भी इसी धर्म का सेवन करते हुए अनंत जीवं मुक्ति को प्राप्त करेंगे। goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/52 ooooooo0000000000 Doooooo000000000c For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय चार - आत्मा शुद्धि के उपाय ॥श्रीभगवानुवाच।। मूल: जहणरगा गम्मंति, जेणारगा जाय वेयणाणरए। सारीरमाणसाइं, दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए||१|| छायाः यथा नरका गच्छन्ति ये नरका या च वेदना नरके शरीर मानसानि दुःखानि तिर्यग् योनौ।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (णरगा) नारकीय जीव (णरए) नरक में (गम्मति) जाते हैं / (जे) वे (णरगा) नारकीय जीव (जा) नरक में उत्पन्न हुई वियणा) वेदना को सहन करते हैं। उसी तरह (तिरिक्ख जोणीए) तिर्यंच योनियों में जाने वाली आत्माएँ भी (सारीरमाणसाइं) शारीरिक, मानसिक (दुक्खाइ) दुःखों को सहन करती है। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार नरक में जाने वाले जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक में होने वाली महान वेदना को सहन करते हैं। उसी तरह तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने वाले आत्मा भी कर्मों के फल स्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को सहन करते हैं। मूल : माणुस्सं च अणिच्चं, वाहिजरामरणवेयणापउरं। देवे य देवलोए, देविड्ढि देवसोक्खाइं||२|| छायाः मानुष्यं चानित्यं व्याधिजरामरणवेदना प्रचुरम्। देवश्च देवलोके देवर्द्धि देवसौख्यानि।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (माणुस्स) मनुष्य जन्म (आणच्च) अनित्य है (च) और वह (वाहिजरामरणवेयणापउरं) व्याधि, जरा, मरण, रूप प्रचुर वेदना से युक्त है (य) और (देवलोए) देवलोक में (देवे) देवपर्याय (देविड्ढि) देव ऋद्धि और (देवसोक्खाइ) देवता संबंधी सुख भी अनित्य है। भावार्थ : हे गौतम! मनुष्य जन्म अनित्य है। साथ ही जरामरण आदि व्याधि की प्रचुरता से भरा पड़ा है और पुण्य उपार्जन कर जो स्वर्ग में गये हैं, वे वहाँ अपनी देव ऋद्धि और देव योनि संबंधी सुखों को भोगते हैं परन्तु आखिर वे भी वहाँ से चलते हैं। lgooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/533 00000000000ooooda 00000000000000006 c/e For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Soooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मूल: णरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावंच देवलोगं च। सिद्धे अ सिद्भवसहिं, छज्जीवणियं परिकहे||३|| छायाः नरकं तिर्यग्योनि मानुष्यभवं देवलोकं च। सिद्धश्च सिद्धवसतिं षट्जीवनिकायं परिकथति।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो जीव पाप कर्म करते हैं, वे (णरगं) नरक को और (तिरिक्खजोणिं) तिर्यंच योनि को प्राप्त होते हैं और जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे (माणुस भाव) मनुष्य भव को (च) और (देवलोगं) देवलोक को जाते हैं, (अ) और जो (छज्जीवणिय) षट्काय के जीवों की रक्षा करते हैं, वह (सिद्धवसहिं) सिद्धावस्था को प्राप्त करके अर्थात् सिद्धि गति में जाकर (सिद्धे) सिद्ध होते हैं। ऐसा सभी तीर्थंकरों ने (परिकहेइ) कहा है। भावार्थ : हे आर्य! जो आत्मा पाप कर्म उपार्जन करते हैं, वे नरक और तिर्यंच योनियों में जन्म लेते हैं। जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे मनुष्य-जन्म एवं देव-गति में जाते हैं और जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति के जीवों की तथा हिलते फिरते त्रस जीवों की सम्पूर्ण रक्षा कर अष्ट कर्मों को चूर-चूर कर देने में समर्थ होते हैं। वे आत्मा सिद्धालय में सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। मूल : जह जीवा बझंति, मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति। जह दुक्खाणं अंतं, करेंति केई अपडिबद्धा||४|| छायाः यथा जीवा बध्यन्ते, मुच्यन्ते यथा च परिक्लिश्यन्ते। यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केऽपि अप्रत्तिबद्धाः।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (केई) कई (जीवा) जीव (बज्झंति) कर्मों से बंधते हैं, वैसे ही (मुच्चंति) मुक्त भी होते हैं (य) और (जह) जैसे कर्मों की वृद्धि होने से (परिकिलिस्संति) महान कष्ट पाते हैं। वैसे ही (दुक्खाण) दुःखों का (अंत) अन्त भी (करेंति) कर डालते हैं। ऐसा (अपडिबद्धा) अप्रतिबद्ध विहारी निर्ग्रन्थों ने कहा है। भावार्थ : हे गौतम! यही आत्मा कर्मों को बांधता है, और यही कर्मों से मुक्त भी होता है। यही आत्मा कर्मों का गाढ़ा लेप करके दुःखी होता है और सदाचार सेवन से सम्पूर्ण कर्मों को नाश करके मुक्ति के सुखों का सोपान भी यही आत्मा तैयार करता है। ऐसा निर्ग्रन्थों का प्रवचन है। ၁ဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝ निर्ग्रन्थ प्रवचन/54 Jooooooooooooooooodh Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only boooooo00000000000 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og goo00000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : अट्टदहट्टियचित्ता जह, जीवा दुक्खसागर मुवैति। जह वेरम्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहा.ति||५|| छायाः आर्त्तदुःखार्त्त चित्ता यथा जीवा, दुःखसागरमुपयान्ति। यथा वैराग्यमुपगता, कर्मसमुग्दं विघाटयन्ति।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो (जीवा) जीव वैराग्य भाव से रहित हैं वे (अट्टदुहट्टिय चित्ता) आर्त रौद्र ध्यान से युक्त चित्त वाले हो (जह) जैसे (दुक्खसागरं) दुख सागर को (उति) प्राप्त होते हैं। वैसे ही (वरेग्गं) वैराग्य को (उवगया) प्राप्त हुए जीव (कम्मसमुग्गं) कर्म समूह को (विहाडेंति) नष्ट कर डालते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्मा वैराग्य अवस्था को प्राप्त नहीं हुए हैं, सांसारिक भोगों में फंसे ये हैं, वे आर्त रौद्र ध्यान को ध्याते हुये मानसिक कुभावनाओं के द्वारा अनिष्ट कर्मों का संचय करते हैं और जन्म जन्मान्तर के लिये दुःखों के सागर में गोता लगाते हैं। जिन आत्माओं की रग-रग में वैराग्य रस भरा पड़ा है, वे सदाचार के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को बात की बात में नष्ट कर डालते हैं। मूल : जह रागेण कडाणं कम्माणं, पावगो फलविवागो। 'जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति||६|| छायाः यथा रागेण कृतानां कर्मणान्, पापकः फलविपाकः। यथा च परिहीणकर्मा, सिद्धासिद्धालयमुपयान्ति।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे यह जीव (रागेण) राग द्वेष के द्वारा (कडाणं) किये हुए (पावगो) पाप (कम्माणं) कर्मों के (फलविवागो) फलोदय को भोगता है। वैसे ही शुभ कर्मों के द्वारा (परिहीणकम्मा) कर्मों को नष्ट करने वाले जीव (सिद्धा) सिद्ध होकर (सिद्धालय) सिद्धस्थान को (उति) प्राप्त होते हैं। .. भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार यह आत्मा राग द्वेष करके कर्म उपार्जन कर लेता है और उन कर्मों के उदय काल में फल भी उनका चखता है वैसे ही सदाचारों से जन्म जन्मांतरों के कृत कर्मों को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर डालता है और फिर वही सिद्ध होकर सिद्धालय को भी प्राप्त हो जाता है। मूल : आलोयण निरखलावे, आवईसु दड्दधम्मया। अणिरिसओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया||७|| 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/55 Ndooooooo00000000000 Jain Eccator international SOO0000000000000000 For Personal & Private Use Only , Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO B00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 छाया: आलोचना निरपलापा, आपत्तौ सुदृढ़ धर्मता। ___अनिश्चितोपधानश्च, शिक्षा निष्प्रतिकर्मता।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आलोयण) आलोचना करना (निरवलावे) की हुई आलोचना अन्य के सम्मुख नहीं करना (आवईसु) आपदा आने पर भी (दडढधम्मया) धर्म में दृढ़ रहना (अणिस्सिओवहाणे) बिना किसी चाह के उपधान तप करना (सिक्खा) शिक्षा ग्रहण करना (य) और (निप्पडिकम्मया) शरीर की शुश्रूषा नहीं करना / ___भावार्थ : हे गौतम! जानते में या अजानते में किसी भी प्रकार दोषों का सेवन कर लिया हो, तो उसको अपने आचार्य के सम्मुख प्रकट करना और आचार्य उसके प्रायश्चित रूप में जो भी दण्ड दें उसे सहर्ष ग्रहण कर लेना, अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए पुनः उस बात को दूसरों के सम्मुख नहीं कहना और अनेक आपदाओं के बादल क्यों न उमड़ आवें मगर धर्म से एक पैर भी पीछे न हटना चाहिए। ऐहिक और पारलौकिक पौद्गलिक सुखों की इच्छा रहित उपधान तप व्रत करना, सूत्रार्थ ग्रहण रूप शिक्षा धारण करना और कामभोगों के निमित्त शरीर की शुश्रूषा भूल कर भी नहीं करना चाहिये। मूल: अण्णयया अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुई। सम्मदिट्ठी समाही य, आयारे विणओवएllll छाया: अज्ञातता अलोभश्च, तितिक्षा आर्जवः शुचिः / सम्यग्दृष्टि: समाधिश्च आचारोविनयोपेतः / / 8 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अण्णयया) दूसरों को कहे बिना ही तप करना (अलोभे) लोभ नहीं करना (तितिक्खा) परिषहों को सहन करना (अज्जवे) निष्कपट रहना (सुई) सत्य से शुचिता रखना (सम्मदिट्ठी) श्रद्धा को शुद्ध रखना (य) और (समाही) स्वस्थ चित्त रहना (आयारे) सदाचारी होकर कपट न करना (विणओवए) विनयी होकर कपट न करना। भावार्थ : हे गौतम! तप व्रत धारण करके यश के लिए दूसरों को न कहना, इच्छित वस्तु पाकर उस पर लोभ न करना, दंश मशकादिकाओं का परिषह उत्पन्न हो तो उसे सहर्ष सहन करना, निष्कपटता पूर्वक अपना सारा व्यवहार रखना, सत्य संयम द्वारा शुचिता रखना, श्रद्धा में विपरीतता न आने देना, स्वस्थ चित्त होकर अपना जीवन बिताना, आचारवान होकर कपट न करना और विनयी होना। P000000000000000000000000000000000000000000000000 N निर्ग्रन्थ प्रवचन/56 00000000000000000 1000000000000 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 agooo00000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : धिईमई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे। अत्तदोसोवसंहारे, सब्बकामविरत्तया||| छायाः धृतिमतिश्च संवेगः प्रणिधिः सुविधिःसंवर। आत्म दोषोपसंहारः सर्वकामविरक्ता।।६|| अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (धिईमई) अदीन वृत्ति से रहना, (संवेगे) संसार से विरक्त होकर रहना, (पणिहि) कायादि के अशुभ योगों को रोकना, (सुविहि) सदाचार का सेवन करना। (संवरे) पापों के कारणों को रोकना, (अत्तदोसोवसंहारे) अपनी आत्मा के दोषों का संहार करना, (य) और (सव्वकामविरत्तया) सर्व कामनाओं से विरत रहना। भावार्थ : हे गौतम! दीन हीन वृत्ति से सदा विमुख रहना, संसार के विषयों से उदासीन होकर मोक्ष की इच्छा को हृदय में धारण करना, मन वचन काया के अशुभ व्यापारों को रोक रखना, सदाचार सेवन में रत रहना, हिंसा, झूठ, चोरी, संग, ममत्व के द्वारा आते हुए पापों को रोकना, आत्मा के दोषों को ढूंढ-ढूंढ़ कर संहार करना, और सब तरह की इच्छाओं से अलग रहना। . मूल: पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे। ज्झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए||१०|| छायाः प्रत्याख्यानं व्युत्सर्गः, अप्रमादो लवालवः / ध्यानसंवर योगाश्च, उदये मारणान्ति के।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पच्चक्खाणे) त्यागों की वृद्धि करना (विउस्सग्गे) उपाधि से रहित होना, (अप्पमादे) प्रमाद रहित रहना (लवालवे) अनुष्ठान करते रहना (ज्झाण) ध्यान करना (संवरजोगे) सम्वर का व्यापार करना, (य) और (मारणंतिए) मारणांतिक कष्ट (उदए) उदय होने पर भी क्षोभ नहीं करना। . भावार्थ : हे गौतम! त्याग धर्म की वृद्धि करते रहना, उपाधि से रहित होना, गर्व का परित्याग करना, क्षण मात्र के लिए भी प्रमाद न करना, सदैव अनुष्ठान करते रहना, सिद्धान्तों के गम्भीर आशयों पर विचार करते रहना, कर्मों के निरोध रूप संवर की प्राप्ति करना और मृत्यु भी यदि सामने आ खड़ी हो तब भी क्षोभ न करना। मूल: संगाणंय परिण्णाया, पायच्छित्त करणे विया आराहणा यमरणंते, बत्तीसंजोगसंगहा||११|| 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/573 JairthOOD 000000000000obl TOPersonala Privateuse onlyboo000000000000jodilateralg 200 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000 OOOOOC OOOG MOo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः संगानाञ्च परिज्ञया प्रायश्चित्तकरणमपि च। आराधना च मरणान्ते, द्वात्रिंशतिः योग संग्रहाः।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संगाणं) संभोगों के परिणाम को (परिण्णाया) जानकर उनका त्याग करना (य) और (पायच्छित्त करणे) प्रायश्चित करना (आराहणा य मरणंते) आराधिक हो समाधि मरण से मरना, ये (बत्तीस) बत्तीस (जोगसंगहा) योग संग्रह है। भावार्थ : हे गौतम! स्वजनादि संग रूप स्नेह के परिणाम को समझ कर उसका परित्याग करना / भूल से गलती हो जावे तो उसके लिए प्रायश्चित करना, संयमी जीवन को सार्थक कर समाधि से मृत्यु लेना, ये बत्तीस शिक्षाएँ योगबल को बढ़ाने वाली हैं। अतः इन बत्तीस शिक्षाओं का अपने जीवन के साथ संबंध कर लेना मानो मुक्ति को वर लेना है। मूल: अरहंतसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुएतवस्सीसु। वच्छल्लया यंति अभिक्ख णाणोवओगे य||२|| छाया: अर्हत्सिद्ध प्रवचनगुरुस्थविर बहुश्रुतेषु तपस्वी षु। वत्सलता तेषां अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च।।१२।। दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! (अरहत) तीर्थंकर (सिद्ध) सिद्ध (पवयण) आगम (गुरु) गुरु महाराज (थेर) स्थविर (वहुस्सुए) बहु श्रुत (तवस्सीसु) तपस्वी में (वच्छल्लया) वात्सल्य भाव रखता हो, (यसिं) उनका गुण कीर्तन करता हो, (य) और (अभिक्ख) सदैव (णाणोवओगे) ज्ञान में जो उपयोग रखें। भावार्थ : हे गौतम! जो रागादि दोषों से रहित हैं, जिन्होंने घनघाती कर्मों को जीत लिया है, वे अरिहंत हैं। जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों को जीत लिया है, वे सिद्ध हैं। अहिंसामय सिद्धान्त और पंच महाव्रतों को पालने वाले गुरु हैं। इनमें और स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी इन सभी में वात्सल्य भाव रखता हो, इनके गुणों का हर जगह प्रसार करता हो और इसी तरह ज्ञान के ध्यान में सदा लीन रहता हो। मूल : दंसणविणए आवस्सए, सीलबए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य||१३|| छायाः दर्शनविलय आवश्यकः शीलव्रतं निरतिचारं। क्षणलवस्तपस्त्याग: वैयावृत्यं समाधिश्च।।१३।। . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 DOO 00000000000000000 00000000000000 ) निर्ग्रन्थ प्रवचन/58 coro elemente para ver only For Personal & Private Use Only 00000000000000 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mo000000000000000000000000000000000000000000r soo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! (दंसण) शुद्ध श्रद्धा रखता हो (विणए) विनयी हो (आवस्सए) आवश्यक प्रतिक्रमण दोनों समय करता हो, (निरइयारो) दोष रहित (सीलव्वए) शील और व्रत को जो पालता हो, (खणलव) अच्छा ध्यान ध्याता हो अर्थात् सुपात्र को दान देने की भावना रखता हो (तव) तप करता हो। (च्चियाए) त्याग करता हो, (वयावच्चे) सेवा भाव रखता हो (य) और (समाही) स्वस्थ चित्त से रहता हो। ___भावार्थ : हे गौतम! जो शुद्ध श्रद्धा का अवलम्बी हो, नम्रता ने जिसके हृदय में निवास कर लिया हो, दोनों समय सांझ और सुबह अपने पापों की आलोचन रूप प्रतिक्रमण को जो करता हो, निर्दोष शीलव्रत को जो पालता हो, आर्त रौद्र ध्यान को अपनी ओर झाँकने तक न देता हो, अनशन व्रत का जो व्रती हो, या नियमित रूप से कम खाता हो, मिष्टान आदि का परित्याग करता हो आदि, इन बारह प्रकार के तपों में से कोई भी तप जो करता हो, सुपात्र दान देता हो, जो सेवा भाव में अपना शरीर अर्पण कर चुका हो और सदैव चिन्ता रहित जो रहता हो। मूल : अप्पुवणाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्ययर लहइ जीवो||१४|| छायाः अपूर्वज्ञानग्रहणं, श्रुतभक्तिः प्रवनचप्रभावनया। एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः / / 14 / / दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! जो (अप्पुव्वणाणगहणे) अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करता हो (सुयभत्ती) सूत्र शास्त्रों को आदर की दृष्टि से देखता हो, (पवयणे) निर्ग्रन्थ प्रवचन की (पभावणया) प्रभावना करता हो, (एएहिं) इन (कारणेहिं) सम्पूर्ण कारणों से (जीओ) जीव (तित्थयरत्तं) तीर्थकरत्व को (लहइ) प्राप्त कर लेता है। भावार्थ : हे आर्य! आये दिन कुछ न कुछ नवीन ज्ञान को जो ग्रहण करता रहता हो, सूत्र के सिद्धान्तों को आदर भावों से जो अपनाता हो, जिनशासन की प्रभावना उन्नति के लिए नये नये उपाय जो ढूंढ निकालता हो, इन्हीं कारणों में से किसी एक बात का भी प्रगाढ़ रूप से सेवन जो करता हो, वह फिर चाहे किसी भी जाति व कौम का क्यों न हो, भविष्य में तीर्थंकर होता है। मूल: पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं मेहुणं दवियमुच्छं। कोहं माणंमायं, लोभं पेज्जं वहा दोस||१५|| gooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot O D ooooooo00000000000 0000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/59 000000000000 For Personal & Private Use Only www.james Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooo 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्न रइअरइसमाउत्। परपरिवायं माया, मोसं मिच्छत्तसल्लं च||१६|| छाया: प्राणातिपातमलीकं चौर्यं मैथुनं द्रव्यमूर्छाम्। क्रोधं मानं मायां लोभं प्रेमं तथा द्वेषम्।।१५।। कलहमभ्याख्यानं पैशून्यं रत्यरती सम्यगुक्तम्। परपरिवादं मायामृषा मिथ्यात्वशल्यं च।।१६।। दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! (पाणाइवायं) प्राणातिपात-हिंसा (अलिय) झूठ (चोरिक्क) चोरी (मेहुणं) मैथुन (दवियमुच्छं) द्रव्य में मूर्छा (कोह) क्रोध (माणं) मान (माय) माया (लोभ) लोभ (पज्ज) राग (तहा) तथा (दोस) द्वेष (कलह) लड़ाई (अमक्खाणं) अभ्याख्यान (पेसुन्न) चुगली (परपरिवाय) परपरिवाद (रइअरइ) अधर्म में आनंद और धर्म में अप्रसन्नता (मायमोस) कपट युक्त झूठ (च) और (मिच्छत्तसल्ल) मिथ्यात्त्व रूप शल्य, इस प्रकार अठारह पापों का स्वरूप ज्ञानियों ने (समाउत्त) अच्छी तरह कहा है। भावार्थ : हे गौतम! प्राणियों के दश प्राणों में से किसी भी प्राण को हनन करना, मन, वचन, काया से दूसरों के मन तक को भी दुखाना, हिंसा है। इस हिंसा से यह आत्मा मलीन होता है। इसी तरह झूठ बोलने से, चोरी करने से, मैथुन सेवन से, वस्तु पर मूर्छा रखने से, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष करने से, और परस्पर लड़ाई झगड़ा करने से, किसी निर्दोषी पर कलंक का आरोप करने से, किसी की चुगली खाने से, दूसरों के अवगुणावाद बोलने से और इसी तरह अधर्म में प्रसन्नता रखने से और धर्म में अप्रसन्नता दिखाने से, दूसरों को ठगने के लिए कपट पूर्वक झूठ का व्यवहार करने से और मिथ्यात्व रूप शल्य के द्वारा पीड़ित रहने से, अर्थात् कुदेव कुधर्म के मानने से आदि इन्हीं अठारह प्रकार के पापों से जकड़ी हुई यह आत्मा नाना प्रकार के दुःख उठाती हुई, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करती रहती है। मूल : अज्झवसानिमित्ते, आहारे वेयणापराघाते। फासे आणापाणू, सत्तविहं झिझए आउं||१७|| छाया: अध्यवसाननिमित्ते आहार:वेदना पराघातः। स्पर्श आनप्राणः सप्तविधं क्षियते आयु।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आउं) आयु (सत्तविह) सात प्रकार से (झिझए) टूटता है। (अज्झवसाणनिमित्ते) भयात्मक अध्यवसाय और दण्ड so000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot निर्ग्रन्थ प्रवचन/60 0000000000000000 D0000000000000 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g doo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लकड़ी कशा चाबुक शस्त्र आदि निमित्त, (आहारे) अधिक आहार वियणा) शारीरिक वेदना (पराघाते) खड्डे आदि में गिरने के निमित्त (फासे) सर्पादिक का स्पर्श (आणपाणू) उच्छवास निश्वास का रोकना आदि कारणों से आयु का क्षय होता है। ___ भावार्थ : हे गौतम! सात कारणों से आयु अकाल में ही क्षीण होता है। वे यों हैं:-राग, स्नेह, भयपूर्वक अध्यवसाय के आने से, दंड (लकड़ी) कशा (चाबुक) शस्त्र आदि के प्रयोग से, अधिक भोजन खा लेने से, नेत्र आदि की अधिक व्याधि होने से, खड्डे आदि में गिर जाने से और उच्छवास निश्वास के रोक देने से। मूल : जह मिउंलवालिचं, गुरुयं तुम्बं अहो वयइ एवं। आसवकयकम्मगुरु, जीवा वच्चंति अहरगइं|१८|| छायाः यथा मृल्लेपालिप्तं गुरुं तुम्ब अधोव्रजत्येवं। आश्रवकृतकर्मगुरवो जीवा व्रजन्त्यधोगतिम्।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (मिउलेवालित्तं) मिट्टी के लेप से लिपटा हुआ वह (गरुयं) सारी (तुम्बं) तूंबा (अहो) नीचा (वयइ) जाता है। (एव) इसी तरह (आसवयकम्मगुरु) आश्रव कृत कर्मों द्वारा भारी हुआ (जीवा) जीव (अहरगइं) अधोगति को (वच्चंति) जाते हैं। ___भावार्थ : हे गौतम! जेसे मिट्टी का लेप लगने से तंबा भारी हो जाता है, अगर उसको पानी पर रख दिया जाए तो वह उसकी तह तक नीचे ही चला जाएगा ऊपर नहीं उठेगा। इसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और मूर्छा आदि आश्रव रूप कर्म कर लेने से, यह आत्मा भी भारी हो जाता है और यही कारण है कि तब यह आत्मा अधोगति को अपना स्थान बना लेता है। मूल : तं चेव तब्दिमुक्कं, जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं जह वह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइट्ठिया होति||९|| छाया: स चैव तद्विमुक्तः जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावः। यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकाग्रप्रतिष्ठिता भवन्ति।।१६।। - अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (तं चेव) वहीं तूंबा (तव्विमुक्क) उस मिट्टी के लेप से मुक्त होने पर (जायलहुभावं) हलका हो जाता है, तब (जलोवरिं) जल के ऊपर (ठाइ) ठहरा रह सकता है। (तह) उसी प्रकार (कम्मविमुक्का) कर्म से मुक्त हुए जीव (लोयग्गपइट्ठिया) लोक के अग्रभाग पर स्थित (होति) होते हैं। agooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 24 निर्ग्रन्थ प्रवचन/61 000000000000000 0000000000000000064 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 0000000000 0000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf भावार्थ : हे गौतम! मिट्टी के लेप से मुक्त होने पर ही तूंबा जैसे पानी के ऊपर आ जाता है, वैसे ही आत्मा भी कर्म रूपी बन्धनों से सम्पूर्ण प्रकार से मुक्त हो जाने पर लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थित हो जाता है। फिर इस दुःखमय संसार में उसको चक्कर नहीं लगाना पड़ता। ॥श्रीगौतमउवाच|| मूल : कहं चरे? कहं चिटठे? कहं आसे? कहं सए। कहं जंतो? भासंतो, पावं कम्मनबंधई||२011 . छायाः कथञ्चरेत!? कंथ तिष्ठेत्? कथमासीत् कथं शयीत्। कथं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति।।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कह) कैसे (चरे) चलना? (कह) कैसे (चिठे) ठहरना? (कह) कैसे (आसे) बैठना?(कह) कैसे (सए) सोना? (कह) किस प्रकार (भुजंतो) खाते हुए एवं (भासंतो) बोलते हुए (पावं) पाप (कम्म) कर्म (न) नहीं (बंधई) बंधते हैं। भावार्थ : हे प्रभु! कृपा करके इस सेवक के लिए फरमावे कि किस तरह चलना, खड़े रहना, बैठना, सोना, खाना और बोलना चाहिए जिससे इस आत्मा पर पाप कर्मों का लेप न चढ़ने पावे। ॥श्रीभगवानुवाच| मूल: जयंचरे जयं चिढ़े, जयं आसे जयं सए। जयंभुंजंतो भासंतो पावं कम्मन बंधह||२१|| छायाः यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत् यतं शयीत। यतं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति।।२१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जयं) यत्नपूर्वक (चरे) चलना (जयं) यत्नपूर्वक ( चिठे) ठहरना (जयं) यत्नपूर्वक (आसे) बैठना (जयं) यत्नपूर्वक (सए) सोना, जिससे (पाव) पाप (कम्म) कर्म (न) नहीं बंधइ बंधता है। इसी तरह (जयं) यत्नपूर्वक (भुजंतो) खाते हुए (भासंतो) और बोलते हुए भी पाप कर्म नहीं बंधते / ___भावार्थ : हे गौतम! हिंसा, झूठ, चोरी आदि का जिस में तनिक भी व्यपार न हो ऐसी सावधानी को यत्न कहते हैं / यत्नपूर्वक चलने से, खड़े रहने से, बैठने से और सोने से पाप कर्मों का बंधन इस आत्मा OOOOOOOOOOOOOOOK निर्ग्रन्थ प्रवचन/62 00000000000old 500000000000000 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पर नहीं होता है। इसी तरह यत्नपूर्वक भोजन करते हुए और बोलते हुए भी पाप कर्मों का बंध नहीं होता है। अतएव, हे आर्य! तू अपनी दिनचर्या को खूब ही सावधानी पूर्वक बना, जिससे आत्मा अपने कर्मों के द्वारा भारी न हो। मूल: पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। जेसिं पियो तवो संजमोय खंतीय बम्भचेरंच||२२|| छायाः पश्चादपि ते प्रयाताः क्षिप्रं गच्छन्त्यमर भवनाति। येषां प्रियं तपः संयमश्च शान्तिश्च ब्रह्मचर्यं च।।२२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पच्छा वि) पीछे भी अर्थात वृद्धावस्था में (ते) वे मनुष्य (पयाया) सन्मार्ग को प्राप्त हुए हों (य) और (जेसिं) जिसको (तवो) तप (संजमो) संयम (य) और (खंती) क्षमा (च) और (बम्भचेरं) ब्रह्मचर्य (पियो) प्रिय है, वे (खिप्पं) शीघ्र (अमरभवणाई) देव भवनो को (गच्छंति) जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो धर्म की उपेक्षा करते हुए वृद्धावस्था तक पहुंच गये हैं उन्हें भी हताश न होना चाहिए। अगर उस अवस्था में भी वे सदाचार को प्राप्त हो जाएं और तप, संयम, क्षमा, ब्रह्मचर्य को अपना लाडला.साथी बना लें, तो वे लोग देवलोक को प्राप्त हो सकते हैं। मूलः तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं| कम्मेहासंजमजोगसंती, होमंहुणामिइसिणंपसत्य||२३|| छायाः तपो ज्योतिर्जीवोज्योतिः स्थानं योगाः सुवः शरीरं करीषांगम्। ___कर्मेधाः संयमयोगाः शान्तिहोम जुह्यमि ऋषिणा प्रशस्तेन।।२३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तवो) तप रूप तो (जोई) अग्नि (जीवो) जीव रूप (जोइठाणं) अग्नि का स्थान (जोगा) योग रूप (सुया) कड़छी (सरीरं) शरीर रूप (कारिसंग) कण्डे (कम्मेहा) कर्म रूप ईंधन-काष्ट (संजम जोग) संयम व्यापार रूप (संती) शान्ति–पाठ है। इस प्रकार का (इसिणं) ऋषियों से (पसत्थ) श्लाघनीय चारित्र रूप (होम) होम को (हुणामि) करता हूँ। भावार्थ : हे गौतम! तप रूप जो अग्नि है, वह कर्म रूप ईंधन को भस्म करती है। जीव अग्नि का कुण्ड है। क्योंकि तप रूप अग्नि जीव संबंधिनी ही है एतदर्थ, जीव ही अग्नि रखने का कुण्ड हुआ। जिस प्रकार कड़छी से घी आदि पदार्थों को डालकर अग्नि को प्रदीप्त करते हैं, ठीक उसी प्रकार मन-वचन और काया के शुभ व्यापारों के द्वारा तप goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 doo0000000000000000 Jain pouca tormentadora न्थ प्रवचन/6: For Personal & Private Use OnlyO00000000000000000 sorg Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g do0000000000000000000000000000 DOO00000000000 रूप अग्नि को प्रदीप्त करना चाहिए। परन्तु शरीर के बिना तप नहीं हो सकता, इसलिये शरीर रूप कण्डे, कर्म रूप ईंधन और संयम व्यापार रूप शान्ति पाठ पढ़ करके, मैं इस प्रकार ऋषियों के द्वारा प्रशंसनीय चारित्र साधन रूप यज्ञ को प्रतिदिन करता रहता हूँ। मूलः धम्मे हरए बंभे संतितित्ये, अंणाविले अत्तपसन्नलेसे। जेहिंसिण्णाओविमलोविसुद्धो, सुंसीतिभूओपजहामिदोस||४|| छायाः धर्मो हृदो ब्रह्म शान्तितीर्थ मनाविल आत्मप्रसन्नलेश्यः यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम्।।२४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अणाविले) मिथ्यात्व रहित स्वच्छ (अत्तपसन्नलेसे) आत्मा के लिए प्रशंसनीय और अच्छी भावनाओं को उत्पन्न करने वाला ऐसा जो (धम्मे) धर्म रूप (हरए) द्रह और (बंभे) ब्रह्मचर्य रूप (संतितित्थे) शान्तितीर्थ है। (जहिं) उसमें (सिण्हाओ) स्थान करने से तथा उस तीर्थ में आत्मा के पर्यटन करते रहने से (विमलो) निर्मल (विसुद्धो) शुद्ध और (सुसीतिभूओ) राग द्वेषादि से रहित वह हो जाता है। उसी तरह मैं भी उस द्रह और तीर्थ का सेवन करके (दोस) अपनी आत्मा को दूषित करे, उस कर्म को (पजहामि) अत्यन्त दूर करता हूँ। भावार्थ : हे गौतम! मिथ्यात्वादि पापों से रहित और आत्मा के लिए प्रशंसनीय एवं उच्च भावनाओं को प्रकट करने में सहाय्य भूत ऐसा जो सवच्छ धर्म रूप द्रह है उसमें इस आत्मा को स्नान कराने से तथा ब्रह्मचर्य रूप शान्ति तीर्थ की यात्रा करने से शुद्ध निर्मल और रागद्वेषादि से रहित यह हो जाता है। अतः मैं भी धर्म रूप द्रह और ब्रह्मचर्य रूप तीर्थ का सेवन करके आत्मा को दूषित करने वाले अशुभ कर्मों को सांगोपांग नष्ट कर रहा हूँ। DOG 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/64 00000000000oobil 0000000000000 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 Boooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . अध्याय पांच - ज्ञान प्रकरण ॥श्रीभगवानुवाच| मूल : तत्य पंचविहं नाणं, सुअं अभिणिबोहि ओहिणाणंच तइअं, मणणाणंच केवलं|१|| छायाः तत्र पञ्चविधं ज्ञानं, श्रुतमाभिनिबोधिकम्। अवधिज्ञानं च तृतीय, मनोज्ञानं च केवलम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) ज्ञान के सम्बन्ध में (नाणं) ज्ञान (पंचविह) पांच प्रकार का है, वह यों है। (सुअं) श्रुत (आभिणिबोहिअं) मति (तइअं) तीसरा (ओहिणाणं) अवधि ज्ञान (च) और (मणणाणं) मनःपर्यव ज्ञान (च) और पांचवाँ (केवलं) केवल ज्ञान है। भावार्थ : हे गौतम! ज्ञान पांच प्रकार का होता है, वे पांच प्रकार यों है- (1) मतिज्ञान के द्वारा श्रवण करते रहने से पदार्थ का जो स्पष्ट भेदाभेद ज्ञात पड़ता है वह श्रुत ज्ञान है। (2) पांचों इन्द्रिय के द्वारा जो ज्ञात होता है वह मतिज्ञान कहलाता है (3) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की मर्यादा पूर्वक रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जानना यह अवधिज्ञान है। (4) दूसरों के हृदय में स्थित भावों को प्रत्यक्ष रूप से जान लेना मनःपर्यव ज्ञान है और (5) त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तरेखावत् जान लेना केवलज्ञान कहलाता है। मूल: अह सबदवपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं। सासमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं||२| छायाः अथ सर्वद्रव्यपरिणाम भावविज्ञप्ति कारणमनन्तम्। शाश्वतमप्रतिपाति च, एकविधं केवलं ज्ञानम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (केवलं) कैवल्य (नाणं) ज्ञान (एगविह) एक प्रकार का है। (सव्वदव्वपरिणाम भावविण्णत्तिकारणं) सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति, ध्रौव्य, नाश और उनके गुणों का विज्ञान, कराने में कारणभूत है। इसी प्रकार (अणंत) ज्ञेय पदार्थों की अपेक्षा से अनंत है, एवं (सासयं) शाश्वत और (अप्पडिवाई) अप्रतिपाती है। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot 00000000000 सन्दर्भ : (1) नंदी सत्र में श्रत ज्ञान का दसरा नम्बर है। परन्त उत्तराध्ययन जी सत्र में श्रुत ज्ञान को पहला नम्बर दिया गया है। इसका तात्पर्य यों है कि पांचों ज्ञानों में श्रुत-ज्ञान विशेष उपकारी है। इसलिए यहां श्रुत-ज्ञान को पहले ग्रहण किया है। निर्ग्रन्थ प्रवचन/65 00000000000 000000000000000 For Personal & Private Use Only For pers Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! कैवल्य ज्ञान का एक ही भेद है और वह सब द्रव्य मात्र के उत्पत्ति, विनाश ध्रुवता और उनके गुणों एवं पारस्परिक पदार्थों की भिन्नता का विज्ञान कराने में कारणभूत है। इसी प्रकार ज्ञेय पदार्थ अनंत होने से इसे अनंत भी कहते हैं और यह शाश्वत भी है। केवल्य ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नष्ट नहीं होता है। इसलिए यह अप्रतिपाती भी है। मूल: एयं पंचविहंणाणं, दवाण य गुणाण या पज्जवाणंच सब्वेसिं, नाणं नाणीहि देसियं|३|| छायाः एतत् पञ्चविधं ज्ञानम्, द्रव्याणाम् च गुणाणांच पर्यवाणां च सर्वेषां, ज्ञानं ज्ञानिभिर्दर्शितम्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एय) यह (पंचविहं) पाँच प्रकार का (नाणं) ज्ञान (सव्वेसि) सर्व (दव्वाणं) द्रव्य (य) और (गुणाण) गुण (य) और (पज्जवाणं) पर्यायों को (नाणं) जानने वाला है, ऐसा (नाणीहि) तीर्थंकरों द्वारा (दसिय) कहा गया है। भावार्थ : हे गौतम! संसार में ऐसा कोई भी द्रव्य, गुण या पर्याय नहीं है जो इन पांच ज्ञानों से न जानी जा सके। प्रत्येक ज्ञेय पदार्थ यथायोग्य रूप से किसी न किसी ज्ञान का विषय होता ही है। ऐसा सभी तीर्थंकरों ने कहा है। मूल : पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही किंवा, नाहिइछेयपावर्ग||४|| छायाः प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्व संयतः। __ अज्ञानी किं करिष्यति, किं वा ज्ञास्यति श्रेयः पापकम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पढम) पहले (णाणं) ज्ञान (तओ) फिर (दया) जीव रक्षा (एवं) इस प्रकार (सव्वसंजए) सब साधु ( चिट्ठइ) रहते हैं। (अन्नाणी) अज्ञानी (किं) क्या (काही) क्या करेगा? (वा) और (किं) कैसे वह अज्ञानी (छेय पावंग) श्रेयस्कर और पापमय मार्ग को (नाहिइ) जानेगा? ____भावार्थ : हे गौतम! पहले जीव रक्षा संबंधी ज्ञान की आवश्यकता है। क्योंकि, बिना ज्ञान के जीव रक्षा रूप क्रिया का पालन किसी भी प्रकार हो नहीं सकता, पहले ज्ञान होता है, फिर उस विषय में प्रवृत्ति होती है। संयमशील जीवन बिताने वाला मानव वर्ग भी पहले ज्ञान ही po00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 DFN0000000000000OOOOGA EN निर्ग्रन्थ प्रवचन/66 00000000000 c For Personal & Private Use Only por personal Priate ye Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 का सम्पादन करता है फिर जीव रक्षा के लिए कटिबद्ध होता है। सच है, जिनको कुछ भी ज्ञान नहीं है, वे क्या तो दया का पालन करेंगे?और क्या हिताहित ही को पहचानेंगे? इसलिए सबसे पहले ज्ञान का सम्पादन करना आवश्यकीय है। यहाँ 'दया' शब्द उपलक्षण है, इसलिए उससे प्रत्येक क्रिया का अर्थ समझना चाहिए। मूल: सोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणाइ पावगं| उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समायरे||५|| छायाः श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम्। उभयेऽपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सोच्चा) सुनकर (कल्लाणं) कल्याणकारी मार्ग को (जाणइ) जानता है, और (सोच्चा) सुनकर (पावगं) पापमय मार्ग को (जाणइ) जानता है। (उभयं पि) और दोनों को भी (सोच्चा) सुनकर (जाणई) जानता है। (ज) जो (छेय) अच्छा हो (तं) उसको (समायरे) अंगीकार करे। भावार्थ : हे गौतम! सुनने से हित अहित, मंगल, अमंगल पुण्य और पाप का बोध होता है और बोध हो जाने पर यह आत्मा अपने आप श्रेयस्कर मार्ग को अंगीकार कर लेता है और इसी मार्ग के आधार पर आखिर में अनंत सुखमय मोक्षधाम को भी यह पा लेता है। इसलिए महर्षियों ने श्रुतज्ञान ही को प्रथम स्थान दिया है। मूल : जहा सूई ससुत्ता, पडिआ वि न विणस्सइ। वहा जीवे ससुत्के, संसारे न विणस्सहा|६|| छायाः यथा शूची ससूत्रा, पतिताऽपि न विनश्यते। तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यते।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (ससुत्ता) सूत्र सहित धागे के साथ (पडिआ) गिरी हुई (सूई) सूई (न) नहीं (विणस्सइ) खोती है। (तहा) उसी तरह (ससुत्ता) सूत्र श्रुतज्ञान सहित (जीवे) जीव (संसारे) संसार में (वि) भी (न) नहीं (विणस्सइ) नष्ट होता है। _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार धागे वाली सुई गिर जाने पर भी खो नहीं सकती, अर्थात् पुनः शीघ्र मिल जाती है, उसी प्रकार श्रुत ज्ञान संयुक्त आत्मा कदाचित् मिथ्यात्वादि अशुभ कर्मोदय से सम्यक्त्व धर्म से च्युत हो भी जाए तो वह आत्मा पुनः रत्नत्रय रूप धर्म को शीघ्रता से ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000 N निर्ग्रन्थ प्रवचन/67 - 1000000000000ook 00000000000000 s For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त श्रुत ज्ञानवान आत्मा संसार में रहते हुए भी दुःखी नहीं होता, अर्थात् समता और शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करता है। मूल: जावंतऽविज्जापुरिसा, सब्वे ते दुक्खसंभवा| लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतएllull छाया: यावन्तोऽविद्याः पुरुषाः, सर्वे ते दुःखसंभवाः। लुप्यन्ते बहुषो मूढाः, संसारे अनन्तके।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जावंत) जितने (अविज्जा) तत्वज्ञान रहित (पुरिसा) मनुष्य हैं (ते) वे (सव्वे) सब (दुक्खसम्भवा) दुःख उत्पन्न होने के स्थान रूप है। इसी से वे (मूढा) मूर्ख (अणंतए) अनंत (संसारम्भि) संसार में (बहुसो) अनेकों बार (लुप्पंति) पीड़ित होते हैं। ___भावार्थ : हे गौतम! तत्व ज्ञान से हीन जितने भी आत्मा हैं, वे सबके सब अनेकों दुःखों के भागी हैं। इस अनंत संसार की चक्रफेरी में परिभ्रमण करते हुए वे नाना प्रकार के दुःखों को उठाते हैं। उन आत्माओं का क्षण भर के लिए भी अपने कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है। हे गौतम! इस कदर ज्ञान की मुख्यता बताने पर तुझे यों न समझ लेना चाहिए, कि मुक्ति केवल ज्ञान ही से होती है बल्कि उसके साथ क्रिया की भी जरूरत है। ज्ञान और क्रिया इन दोनों के होने पर ही मुक्ति हो सकती है। मूल: इहमेगे उ मण्णंति, अप्पचक्खाय पावगं / आयरिअं विदित्ताणं, सबदुक्खा विमुच्चई| छायाः इहैके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम्। _आर्यत्वं विदित्वा, सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उ) फिर इस विषय में (इह) यहाँ (मेगे) कई एक मनुष्य यों (मण्णंति) मानते हैं कि (पावगं) पाप का (अप्पच्चक्खाय) बिना त्याग किये ही केवल (आयरिअ) अनुष्ठान को (विदित्ताणं) जान लेने ही से (सव्वदुक्खा) सब दुःखों से (विमुच्चई) मुक्त हो जाता है। भावार्थ : हे आर्य! कई एक लोग ऐसे भी हैं, जो यह मानते हैं कि पाप के बिना ही त्यागे, अनुष्ठान मात्र को जान लेने से मुक्ति हो जाती है। पर उनका ऐसा मानना नितान्त असंगत है। क्योंकि अनुष्ठान को 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/68 co00000000000000000 For Personal & Private Use Only 0000000000006 www.jatnellbrrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जान लेने ही से मुक्ति नहीं हो जाती है। मुक्ति तो तभी होगी, जब उस विषय में प्रवृत्ति की जायेगी। अतः मुक्ति पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है। जिसने सद्ज्ञान के अनुसार अपनी प्रवृत्ति कर ली है, उसके लिए मुक्ति सचमुच ही अति निकट हो जाती है। अकेले ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है। मूल : भणंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो। वायाविरियमत्तेणं, समासासंति अप्पयं||९|| छाया: भण्न्तोऽकुर्वन्तेश्च, बन्धमोक्ष प्रतिज्ञिनः। वाग्वीर्यमात्रेण, समाश्वसन्त्यात्मानम्।।६।। __ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बंधमोक्खपइण्णिणो) ज्ञान ही को बंध और मोक्ष का कारण मानने वाले, कई एक लोग ज्ञान ही से मुक्ति होती है, ऐसा (भणंता) बोलते है। (य) परन्तु (अकरिता) अनुष्ठान वे नहीं करते। अतः वे लोग (वायाविरियमत्तेणं) इस प्रकार वचन की वीरता मात्र ही से (अप्पयं) आत्मा को (समासासंति) अच्छी तरह आश्वासन देते हैं। __भावार्थ : हे गौतम! कर्मों का बंधन और शमन एक ज्ञान ही से होता है, ऐसा दावा-प्रतिज्ञा करने वाले कई एक लोग अनुष्ठान की उपेक्षा करके यों बोलते हैं कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जाती है, परन्तु वे एकान्त ज्ञानवादी लोग केवल अपने बोलने की वीरता मात्र ही से अपने आत्मा को विश्वास देते हैं कि हे आत्मा! तू कुछ भी चिन्ता मत कर, तू पढ़ा लिखा है, बस, इसी से कर्मों का मोचन हो जाएगा। तप, जप किसी भी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। हे गौतम! इस प्रकार आत्मा को आश्वासन देना, मानो आत्मा को धोखा देना है। क्योंकि, ज्ञानपूर्वक अनुष्ठान करने ही से कर्मों का मोचन होता है। इसीलिए मुक्ति पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है। मूल: णचित्ता तायए भासा, कओ विज्जाणुसासणं| ... विसण्णा पावकम्मेहिं, बाला पंडियमाणिणो||0|| छायाः न चित्रास्त्रान्ते भाषाः, कुतो विद्यानुशासनम्। विषण्णः पापकर्मभिः, बाला:पण्डितमानिनः / / 10 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पंढियमाणिणो) अपने आपको पण्डित मानने वाले (बाला) अज्ञानीजन (पावकम्मेहिं) पाप कर्मों द्वारा (विसण्णा) फंसे हुए यह नहीं जानते हैं कि (चित्ता) विचित्र प्रकार की (भासा) भाषा (तायए) त्राण-शरण (ण) नहीं होती है। तो फिर Poooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000b6 0000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/69 100000000000000ODA Nain Education International 00000000000000 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Dooooooooooooooo00000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (विज्जाणुसासणं) तांत्रिक या कला कौशल की विद्या सीख लेने पर (कओ) कहाँ से त्राण शरण होगी। भावार्थ : हे गौतम! थोड़ा बहुत लिख पढ़ जाने ही से मुक्ति हो जाएगी इस प्रकार का गर्व करने वाले लोग मूर्ख हैं। कर्मों के आवरण ने उनके असली प्रकाश को ढाँक रक्खा है। वे यह नहीं जानते कि प्राकृत संस्कृत आदि अनेकों विचित्र भाषाओं के सीख लेने पर भी परलोक में कोई भाषा रक्षक नहीं हो सकती है। तो फिर बिना अनुष्ठान के तांत्रिक कला-कौशल की साधारण विद्या की तो पूछ ही क्या है?वस्तुतः साधारण पढ़ लिख कर यह कहना कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जाएगी, आत्मा को धोखा देना है, आत्मा को अधोगति में डालना है। मूल : जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे अ सबसो। मणसा कायवक्केणं, सब्वे ते दुक्खसम्भवा||११|| छायाः ये केचित् शरीरे सक्ताः, वर्णे रूपे च सर्वशः। मनसा कायवाक्येन, सर्वे ते दुःखसम्भवाः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे केइ) जो कोई भी ज्ञानीवादी (मण्सा) मन (कायवक्केणं) काय, वचन करके (सरीरे) शरीर में (वण्णे) वर्ण में (रूवे) रूप में (अ) शब्दादि में (सव्वसो) सर्वथा प्रकार से (सत्ता) आसक्त रहते हैं / (त) वे (सव्वे) सब (दुक्खसम्भवा) दुःख उत्पन्न होने के स्थान रूप हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! ज्ञानवादी अनुष्ठान को छोड़ देते हैं और रूप गर्व में मदोन्मत्त होने वाले अपने शरीर को हृष्ट पुष्ट रखने के लिए वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि में मन, वचन, काया से. पूरे पूरे आसक्त रहते हैं फिर भी वे मुक्ति की आशा करते हैं। यह मृग पिपासा है, अन्ततः ये सब दुःख ही के भागी होते हैं। मूल : निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो। समो अ सबभूएसु, तसेसु थावरेसु य||१२| छायाः निर्ममो निरहंकारः, निस्संगस्त्यक्तगौरवः / समश्च सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! महापुरुष वही है, जो (निम्ममो) ममता रहित (निरहंकारो) अहंकार रहित (निस्संगो) बाह्य अभ्यन्तर संग रहित (अ) और (चत्तगारवो) त्याग दिया है अभिमान को जिसने (सव्वभूएसु) 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/70K 00000000000000 0000000000000000Dan For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo0000000000000000000000000000 Bo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000 तथा सर्व प्राणी दिया मात्र क्या (तसेसु) त्रस (अ) और (थावरे सु) स्थावर में (समो) समान भाव है जिसका। भावार्थ : हे गौतम! महापुरुष वही है जिसने ममता, अहंकार, संग, बड़प्पन आदि सभी का साथ एकान्त रूप से छोड़ दिया है और जो प्राणीमात्र पर फिर चाहे वह कीड़े-मकोड़े के रूप में हो, या हाथी के रूप में, सभी के ऊपर समभाव रखता है। वही सच्चा अहिंसक है। मूल : लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणओ||१३|| छाया: लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा। समो निन्दाप्रशंसासु, समो मानापमानयोः / / 13 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! महापुरुष वही है जो (लाभालाभे) प्राप्ति-अप्राप्ति में (सुहे) सुख में (दुक्खे) दुःख में (जीविए) जीवन (मरणे) मरण में (समो) समान भाव रखता है। तथा (निंदापसंसासु) निंदा और प्रशंसा में एवं (माणावमाणओ) मान अपमान में (समो) समान भाव रखता है। भावार्थ : हे गौतम! मानव देहधारियों में उत्तम पुरुष वही है, जो इच्छित अर्थ की प्राप्ति-अप्राप्ति में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में तथा निन्दा और स्तुति में, और मान-अपमान में सदा समान भाव रखता है। मूल : अणिस्सिओ इह लोए, परलोए अणिरिसओ। वासीचंदणकप्पो अ, असणो अणसणो वहा||१४| छायाः अनिश्रित इह लोके, परलोकेऽनिश्चितः। ___वासी चन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस (लोए) लोक में (अणिस्सिओ) अनैश्रित (परलोए) परलोक में (अणिस्सिओ) अनैश्रित (अ) और किसी के द्वारा (वासीचंदणकप्पो) वसूले से छेदने पर या चंदन का विलेपन करने पर और (असणे) भोजन खाने पर (तहा) तथा (अणसणे) अनशन व्रत, सभी में समान भाव रखता हो, वही महापुरुष है। भावार्थ : हे गौतम! मोक्षाधिकारी वे ही मनुष्य हैं, जिन्हें इस लोक के वैभवों और स्वर्गीय सुखों की चाह नहीं होती है। कोई उन्हें वसूले (शस्त्र विशेष) से छेदें या कोई उन पर चन्दन का विलेपन करें, उन्हें भोजन मिले या उन्हें भूखों मरना पड़े, हर स्थिति में सदा सर्वदा समभाव से रहते हैं। 00000000000000000000000000000000000000000000000006 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/71 10000000000000000000 Jain Bducation International For Personal & Private Use Only 5000000000ooooooo c/ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot DOOOOOOOOO 0000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000obf अध्याय छह - सम्यक् निरुपण ॥श्रीभगवानुवाच|| मूल : अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्वं तत्तं, इअ सम्मत्वं मए गहिय||१|| छायाः अर्हन्तो महद्देवाः यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः / जिन प्रज्ञप्तं तत्त्वं, इति सम्यक्त्वं मया गृहीतम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीवज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (अरिहंतो) अरिहंत (महदेवो) बड़े देव (सुसाहुणो) सुसाधु (गुरुणो) गुरु और (जिणापण्णंत्त) जिनराज द्वारा प्ररूपित (तत्तं) तत्व को मानना यही सम्यक्त्व है (इअ) इस (सम्मत्तं) सम्यक्त्व को (मए) मैंने (गहिय) ग्रहण किया ऐसी जिसकी बुद्धि है वही सम्यक्त्व धारी है। भावार्थ : हे गौतम! कर्म रूप शत्रुओं को नष्ट करके जिन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो अष्टादश दोषों से रहित हैं वही मेरे देव हैं। पांच महाव्रतों को यथा योग्य पालन करते हों वह मेरे गुरु हैं और वीतराग के कहे हुए तत्त्व ही मेरा धर्म है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा को सम्यकत्व कहते हैं। इस प्रकार के सम्यकत्व को जिसने हृदयंगम कर लिया है, वही सम्यक्त्व धारी है। मूलः परमत्यसंथवो वा सुदिठ्ठपरमत्यसेवणा यावि। वावण्णकुदंसणवज्जणा, य सम्मत्तसद्दहणा||२ छायाः परमार्थसंस्तवः सुदृष्टपरमार्थसेवनं वाऽपि। व्यापन्नकुदर्शनवर्जनं च सम्यक्त्वश्रद्धानम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परमत्थसंथवो) तात्विक पदार्थ का चिन्तवन करना (वा) और (सुदिट्ठपरमत्थसेवणा) अच्छी तरह से देखे हैं तात्विक अर्थ जिन्होंने उनकी सेवा शुश्रूषा करना (य) और (अवि) समुच्चय अर्थ में (वावण्ण कुंदसणवज्जणाए) नष्ट हो गया है सम्यक्त्व दर्शन जिसका और जो दोषों से सहित है, दर्शन जिसका उसकी संगति परित्यागना, यही (सम्मत्तसद्दहणा) सम्यक्त्व की श्रद्धना है। भावार्थ : हे गौतम! फिर जो बारंबार तात्विक पदार्थ का चिन्तवन करता है और जो अच्छी तरह से तात्विक अर्थ पर पहुंच गये हैं, उनकी यथायोग्य सेवा शुश्रूषा करता हो, तथा जो सम्यक्त्व दर्शन से प्रतित हो ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/72 3000000000000000 30000000000000006 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 गये हैं व जिनका "दर्शन सिद्धान्त" दूषित है, उनकी संगति का त्याग करता हो, वही सम्यक्त्व पूर्वक श्रद्धावान है। मूल : कुप्पवयणापासंडी, सब्वे उम्मग्गपट्ठिआ। सम्मग्गंतु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे||३|| छाया: कुप्रवचनपाषाण्डिनः, सर्व उन्मार्गप्रस्थिताः / सन्मार्ग तु जिनाख्यातं, एष मार्गो ह्यूतमः / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कुप्पवयणपासंडी) दूषित वचन कहने वाले (सव्वे) सभी (उम्मग्गपट्ठिआ) उन्मार्ग में चलने वाले होते हैं। (त) और (जिणक्खायं) श्री वीतराग का कहा हुआ मार्ग ही (सम्मग्ग) सन्मार्ग है। (एस) यह (मग्गे) मार्ग (हि) निश्चय रूप से (उत्तमे) प्रधान है। ऐसी जिसकी मानता हैं वही सम्यक्त्व पूर्वक श्रद्धावान है। भावार्थ : हे गौतम! जो हिंसामय दूषित वचन बोलने वाले हैं वे सभी उन्मार्ग गामी हैं। राग द्वेष रहित और आप्त पुरुषों का बताया हुआ मार्ग ही सन्मार्ग है। वही मार्ग सब से उत्तम है, प्रधान है, ऐसी जिसकी निश्चयपूर्वक मान्यता है वही सम्यक् श्रद्धावान है। मूल : तहिआणं तु भावाणं; सब्भावे उवएसणं| भावेण सद्दहवस्स; सम्मत्वं तं विआहि||| छायाः तथ्यानाम् तु भावानाम् सद्भाव उपदेशनम। भावेन श्रद्दधतः, सम्यक्त्वं तद्व्याख्यातम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सब्भावे) सद्भावना वाले के द्वारा कहे हुए (तहिआणं) सत्य (भावाणं) पदार्थों का (उवएसणं) उपदेश (भावेण) भावना से (सद्दहंतस्स तं) श्रद्धापूर्वक वर्तने वाले को (सम्मत्तं) सम्यक्त्वी ऐसा (विआहिअं) वीतरागों ने कहा है। भावार्थ : हे गौतम! जिसकी भावना विशुद्ध है, उसके द्वारा कहे हुए यथार्थ पदार्थों को जो भावना पूर्वक श्रद्धा के साथ मानता हो, वही सम्यक्त्वी है ऐसा सभी तीर्थंकरों ने कहा है। मूल : निस्सग्गुवएसरुई, आणरुई सुत्चबीअरुइमेवा अभिगमवित्याररूई, किरियासंखेवधम्मरुई||५|| छाया: निसर्गोपदेशरुचिः, आज्ञारुचिः सूत्रबीजरुचिरेव। अभिगमविस्ताररुचिः, क्रियासंक्षेपधर्मरुचिः।।५।। Boooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000 doo0000000000000oobi Cain Foucation international निर्ग्रन्थ प्रवचन/73 20000000 0000000000000 For Personal & Private Use Only www.amellbrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooooooot goo0000000000000000000000000000 500000000000 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (निस्सग्गुवएसरुई) बिना उपदेश, स्वभाव से और उपदेश से जो रुचि हो (आणरुई) आज्ञा से रुचि हो (सुत्तवीअरुइमेव) श्रुत श्रवण से एवं एक से अनेक अर्थ निकलते हों वैसे वचन सुनने से रुचि हो (अभिगमवित्थाररुई) विशेष विज्ञान होने पर तथा बहुत विस्तार से सुनने से रुचि हो (किरियासंखेवधम्मरुई) क्रिया करते करते तथा संक्षेप से या श्रुत धर्म श्रवण से रुचि हो। भावार्थ : हे गौतम! उपदेश श्रवण न करके स्वभाव से ही तत्व की रूचि होने पर किसी किसी को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किसी को उपदेश सुनने से, किसी को भगवान की इस प्रकार की आज्ञा है ऐसा, सुनने से, सूत्रों के श्रवण करने से, एक शब्द को जो बीज की तरह अनेक अर्थ बताता हो ऐसा वचन सुनने से, विशेष विज्ञान हो जाने से, विस्तार पूर्वक अर्थ सुनने से, धार्मिक अनुष्ठान करने से, संक्षेप अर्थ सुनने से, श्रुत धर्म के मनन पूर्वक श्रवण करने से तत्वों की रुचि होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। मूल : नत्थि चरित्वं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइअव्वं| सम्मत्तचरित्ताई, जुगवं पुलं व सम्मत्वंlll छायाः नास्ति चारित्रं सम्यक्त्वविहीनं, दर्शने तु भक्तव्यम्। सम्यक्त्व चारित्रे, युगपत् पूर्व वा सम्यक्त्वम्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सम्मत्तविहूणं) सम्यक्त्व के बिना (चरित्तं) चारित्र (नत्थि) नहीं है (उ) और (दंसणे) दर्शन के होने पर (भइअव्व) चारित्र भजनीय है। (सम्मत्तचरित्ताई) सम्यक्त्व और चारित्र (जुगवं) एक साथ भी होते हैं। (व) अथवा (सम्मत्त) सम्यक्त्व चारित्र के (पुव्वं) पूर्व भी होता है। ___भावार्थ : हे गौतम! सम्यक्त्व के बिना चारित्र का उदय होता ही नहीं है। पहले सम्यकत्व होगा, फिर चारित्र हो सकता है, और सम्यक्त्व में चारित्र का भावाभाव है, क्योंकि सम्यक्त्वी कोई ग्रहस्थ धर्म का पालन करता है, और कोई मुनि धर्म का / सम्यक्त्व और चारित्र की उत्पत्ति एक साथ भी होती है अथवा चारित्र, के पहले भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। मूल : नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्स्थि मोक्खो, नत्थि अमुक्कस्स निव्वाणं|७|| 0000000000000000 50000000000000000000000000000000000 - निर्गन्य एखनन / Fon Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 छायाः नादर्शनिनो ज्ञानम्, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः। अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम्।।७।। 2 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अदंसणिस्स) सम्यक्त्व से रहित मनुष्य को (नाणं) ज्ञान (न) नहीं होता है। और (नाणेण) ज्ञान के (विणा) बिना (चरणगुणा) चारित्र के गुणा (न) नहीं (होति) होते हैं और (अमुक्कस्स) चरित्र रहित मनुष्य की कर्मों से मुक्ति नहीं होती और कर्म रहित हुए बिना किसी को (निव्वाणे) निर्वाण (नत्त्यि) नहीं प्राप्त हो सकता है। __भावार्थ : हे गौतम! सम्यक्त्व के प्राप्त हुए बिना मनुष्य को सम्यक् ज्ञान नहीं मिलता है, ज्ञान के बिना आत्मिक गुणों का प्रकट होना दुर्लभ है। बिना आत्मिक गुण प्रकट हुए उसके जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों का क्षय होना दुसाध्य है और कर्मों का नाश हुए बिना किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता है। अतः सबके पहले सम्यक्त्व की आवश्यकता है। मूल : निस्संकिय-निक्कंखिय-निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी या उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ||६| छाया: निः शंकितं निःकांक्षितम, निर्विचिकित्साऽमढदृष्टिश्च। उपबृहा-स्थिरीकरणे, वात्सल्यप्रभावतेऽष्टौ।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! सम्यक्त्व धारी वही है, जो (निस्संकिय) निःशंकित रहता है, (निक्कंखिय) अतत्वों की कांक्षा रहित रहता है। (निवितिगिच्छा) सुकृतो के फल होने में संदेह रहित रहता है। (य) और (अमूढदिट्ठी) जो अतत्वधारियों को ऋद्धिवन्त देखकर मोह न करता हुआ रहता है। सम्यक्त्व से पतित होते हुए को स्थिर करता (वच्छल्लपभावणे) स्वधर्मी जनों की सेवा शुश्रूषा कर वात्सल्यभाव दिखाता रहता है और आठवें में जो सन्मार्ग की उन्नति करता रहता है। भावार्थ : हे आर्य! सम्यक्त्वधारी वही है, जो शुद्ध देव, गुरु, धर्म रूप तत्वों पर निःशंकित हो कर श्रद्धा रखता है। कुदेव कुगुरु कुधर्म प जो अतत्त्व हैं, उन्हें ग्रहण करने की तनिक भी अभिलाषा नहीं करता है। गृहस्थ-धर्म या मुनि धर्म से होने वाले फलों में जो कभी भी संदेह नहीं करता। अन्य दर्शनी को धन सम्पत्ति से भरा पूरा देख कर जो ऐसा विचार नहीं करता कि मेरे दर्शन से इसका दर्शन ठीक है, तभी तो यह इतना धनवान है,सम्यक्त्वधारियों की यथायोग्य प्रशंसा कर के goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool 50000000000000000000000000000000000000000000000060 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/75 000000000000000 Doo000000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जो उनके सम्यक्त्व के गुणों की वृद्धि करता है, सम्यत्क्व से पतित होते हुए अन्य पुरुष को यथा शक्ति प्रयत्न करके सम्यक्त्व में जो दृढ़ करता है। स्वधर्मीजनों की सेवा शुश्रूषा करके जो उनके प्रति वात्सल्य भाव दिखाता है। मूल : मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोहि|६|| छाया: मिथ्यादर्शनरक्ता, सनिदाना हि हिंसकाः इति ये नियन्ते जीवा, तेषां पुनः दुर्लभा बोधिः।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मिच्छादसणरत्ता) मिथ्या दर्शन में रत रहने वाले और (सनियाणा) निदान करने वाले (हिंसगा) हिंसा करने वाले (इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीव (मरंति) मरते हैं। (तसिं) उनको (पुण) फिर (बोहि) सम्यक्त्व धर्म का मिलना (हु) निश्चय (दुल्लहा) दुर्लभ हैं। भावार्थ : हे आर्य! कुदेव कुगुरु कुधर्म में रत रहने वाले और निदान सहित धर्म क्रिया करने वाले एवं हिंसा करने वाले जो जीव हैं, वे इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करके मरते हैं, तो फिर उन्हें अगले भव में सम्यक्त्व बोध मिलना महान कठिन है। . मूल : सम्मइंसणरत्ता अनियाणा; सुक्कलेसमोगाढा। इयजे मरंति जीवा; सुलहा तेसिं भवे बोहि||१०|| छायाः सम्यग्दर्शनरक्ताअनिदाना शुक्लेश्यामवगाढाः ___ इति ये म्रियन्ते जीवाः, सुलभा तेषां भवति बोधिः।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सम्मइंसणरत्ता) सम्यक् दर्शन में रत रहने वाले (अनियाणा) निदान नहीं करने वाले एवं (सुक्कलेसमोगाढ़ा) शुक्ल लेश्या से समन्वित हृदय वाले। (इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीव (मरंति) मरते हैं (तेसिं) उन्हें (बोहि) सम्यक्त्व (सुलहा) सुलभता से (भवे) प्राप्त हो सकता है। भावार्थ : हे गौतम! जो शुद्ध देव, गुरु और धर्म रूप दर्शन में श्रद्धापूर्वक सदैवरत रहता हो। निदान रहित तप, धर्म क्रिया करता हो और शुद्ध परिणामों से जिसका हृदय उमंग रहा हो। इस तरह प्रवृत्ति रख करके जो जीव मरते हैं; उन्हें धर्म बोध की प्राप्ति अगले भव में सुगमता से होती जाती है। Dog000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/76 5000000000000oCil 000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणंजे करेंति भावेणं| अमला असंकिलिट्ठा, ते होति परित्तसंसारी||११|| छाया: जिनवचनेऽनुरक्ताः, जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन। अमला असंक्लिष्टास्ते भवन्ति परीतसंसारिणः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो जीव (जिणवयणे) वीगरागों के वचनों में (अणुरत्ता) अनुरक्त रहते हैं और (भावेणं) श्रद्धापूर्वक (जिणवयणं) जिन वचनों को प्रमाण रूप (करेंति) मानते हैं (अमला) मिथ्यात्व रूप मल से रहित एवं (असंकिलिट्ठा) संक्लेश करके रहित जो हो, (ते) वे (परित्तसंसारी) अल्प संसारी होते हैं। भावार्थ : हे आर्य! जो वीतराग के कहे हुए वचनों में अनुरक्त रहकर उनके वचनों को प्रमाण भूत मानते हैं, तथा मिथ्यात्व रूप दुर्गुणों से बचते हुए राग द्वेष से दूर रहते हैं, वे ही सम्यक्त्व को प्राप्त करके, अल्प समय में ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। मूलः जातिं च वुड्डिं च इहज्ज पास, भूतेहिं जाणे पडिलेह सायं| तम्हाऽतिविज्जोपरमंतिणच्चा, सम्मत्तदंसीणकरेइपाव||२|| छायाः जातिं च बृद्धिं च इह दृष्ट्वा, भूतैर्ज्ञात्वा प्रतिलेख्य सातम्। तस्मादतिविज्ञः परमिति ज्ञात्वा, सम्यक्त्वदर्शीन करोति पापम्।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जाति) जन्म (च) और (वुदि) वृद्धपन को (इहज्ज) इस संसार में (पास) देखकर (च) और (भूतेहिं) प्राणियों के (सायं) साता को (जाणे) जान (पडिलेह) देख (तम्हा) इसलिये (अतिविज्जो) तत्वज्ञ (परम) मोक्ष मार्ग (णच्चा) जानकर (सम्मत्तदंसी) सम्यक्त्व दृष्टि वाले (पावं) पाप को (ण) नहीं (करेइ) करता है। _भावार्थ : हे गौतम! इस संसार में जन्म और मरण के महान दुःखों को तू देख और इस बात का ज्ञान प्राप्त कर किस सब जीवों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है। इस लिये ज्ञानीजन मोक्ष के मार्ग को जान कर सम्यक्त्वधारी बन कर किंचित् मात्र भी पाप नहीं करते हैं। मूल: इओ बिद्धंसमाणस्स, पुणो, संबोहि दुल्लहा। दुल्लहाओ वहच्चाओ, जे धम्मठें वियागरे||१३|| छाया: इतो विध्वंसमानस्य, पुनः संबोधिर्दुर्लभा / दुर्लभातथाऽर्चा ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति।।१३।। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/77 - 00000000000000MA booo000000000000 , For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ soooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इओ) यहाँ से (विद्धंसमाणस्स) मरने के बाद उसको (पुणो) फिर (संबोहि) धर्म बोध की प्राप्ति होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। उससे भी कठिन (जे) जो (धम्मट्ठ) धर्म रूप अर्थ का (वियागरे) प्रकाश करता है, ऐसा (तहच्चाओ) तथा भूत का मानव शरीर मिलना अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति तथा योग्य भावना का उसमें आना (दुल्लहाओ) दुर्लभ है। भावार्थ : हे गौतम! जो जीव सम्यक्त्व से पतित होकर यहां से मरता है। उसको फिर धर्मबोधि की प्राप्ति होना महान कठिन है। इससे भी यथातथ्य धर्म रूप अर्थ का प्रकाशन जिस मानव शरीर से होता रहता है। ऐसा मनुष्य देव अथवा समयक्त्व की प्राप्ति के योग्य उच्च लेश्याओं (भावनाओं) का आना महान कठिन है। doo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 egooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/78 00000000000 00000000000000 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___ अध्याय सात - धर्म निरुपण ॥श्रीभगवानुवाच| मूलः महत्वए पंच अणुव्वए य, तहेव पंचासवसंवरे या _विरतिंइहस्सामणियंमिपन्न, लवावसक्कीसमणेतिबेमि||१|| छायाः महाव्रतानि पञ्चाणुव्रतानि च, तथैव पञ्चाश्रवान् सवरंच। विरतिमिह श्रामण्ये प्राज्ञः, लवापशांकीः श्रमण इति वबीमि।।१।। 7 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस जिनशासन में (रसामणियंमि) चारित्र पालन करने में (पन्ने) बुद्धिमान् और (लवावसक्की) कर्म जोड़ने में समर्थ ऐसे (समणे) साधु (पंच) पांच (महव्वए) महाव्रत (य) और (अणुव्वए) पांच अणुव्रत (य) और (तहेव) वैसे ही (पंचासवसंवरे य) पांच आश्रव और संवर रूप (विरतिं) विरति को (त्तिबेमि) कहता हूँ। भावार्थ : हे मनुजों! सच्चारित्र के पालन करने में महा बुद्धिशाली और कर्मों को नष्ट करने में समर्थ ऐसे श्रमण भगवान महावीर ने इस शासन में साधुओं के लिए तो पांच महाव्रत अर्थात् अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य, और अकिंचन को पूर्ण रूप से पालने की आज्ञा दी है और गृहस्थों के लिए कम से कम पांच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रत या बारह प्रकार से धर्म को धारण करना आवश्यकीय बताया है। वे इस प्रकार है-थूलाओ पाणाइवायाओ वरमणं-हिलते फिरते त्रस जीवों की बिना अपराध के देखभाल कर द्वेषवश मारने की नीयत से हिंसा न करना मुसावायाओ वेरमणं-जिस भाषा से अनर्थ पैदा होता हो और राज एवं पंचायत में अनादर हो, ऐसी लोक विरुद्ध असत्य भाषा को तो कम से कम नहीं बोलना। थूलाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं-गुप्त रीति से किसी के घर में घुसकर, गांठ खोलकर, ताले पर कुंजी लगाकर, लुटेरे की तरह या और भी किसी तरह की जिससे व्यवहार मार्ग में भी लज्जा हो, ऐसी चोरी तो कम से कम नहीं करना। सदारसंतोसे कुल के अग्रसरों की साक्षी से जिसके साथ विवाह किया है उस स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों को माता एवं बहिन और बेटी की निगाह से देखना और 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000oop सन्दर्भ : * गृहस्थ - धर्म पालन करने वाली महिलाओं के लिए भी अपने कुल के अग्रसरों की साक्षी से विवाहित पुरुष के सिवाय समस्त पुरुष वर्ग को पिता भ्राता और पुत्र के समान समझना चाहिए और स्वपति के साथ भी कम से कम पर्व तिथियों पर कुशील सेवन का परित्याग करना चाहिए। निर्ग्रन्थ प्रवचन/79 doo0000000000000ooth For Personal & Private Use Only ooooooooooooood www.jainerbrary.org. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oor Poo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अपनी स्त्री के साथ भी कम से कम अष्टमी, चतुर्दशी, एकादशी, बीज, पंचमी, अमावस्या, पूर्णिमा के दिन का संभोग त्याग करना। इच्छापरिमाणे- खेत, कुएं, सोना, चांदी, धान्य, पशु आदि सम्पत्ति का कम से कम जितनी इच्छा हो उतनी ही परिमाण करना। ताकि परिमाण से अधिक सम्पत्ति प्राप्त करने की लालसा रूक जाए। यह भी गृहस्थ का एक धर्म है। गृहस्थ को अपने छठे धर्म के अनुसार, दिसिव्वय-चारों दिशा और ऊँची नीची दिशाओं में गमन करने का नियम कर लेना। सातवें में उपभोग-परिभोग परिमाण-खाने पीने की वस्तुओं की ओर पहनने की वस्तुओं की सीमा बांधना ऐसा करने से कभी वह तृष्णा के साथ भी विजय प्राप्त कर लेता है। फिर उससे मुक्ति भी निकट आ जाती है। इसका विशेष विवरण यों हैं: - मूल: इंगाली, वण, साड़ी, भाडी फोडी सुवज्जए कम्म। वाणिज्जं चेव यदंत- लक्खरसकेसविसविसय||२|| छाया: अंगार-वन-शाटी, भाटि-स्फोटिः सुवर्जयेत् कर्म। वाणिज्यं चैव च दन्त-लाक्षा-रस-केश-विष-विषयम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इंगाली) कोयले पड़वाने का (वण) वन कटवाने का (साड़ी) गाडियें बनाकर बेचने का (भाडी) गाड़ी, घोड़े, बैल, आदि से भाड़ा कमाने का (फोड़ी) खान आदि खुदवाने का (कम्म) कर्म गृहस्थ को (सुवज्जए) परित्याग कर देना चाहिए। (य) और (दंत) हाथी दांत का (लक्ख) लाख का (रस) मधु आदि का (केस) मुर्गों कबूतरों आदि के बेचने का (विसविसयं) ज़हर और शस्त्रों आदि का (वाणिज्ज) व्यापार (चेव) यह भी निश्चय रूप से गृहस्थों को छोड़ देना चाहिए। भावार्थ : हे आर्य! गृहस्थ धर्म पालन करने वालों को कोल से तैयार करवा कर बेचने का या कुम्हार, लुहार, भड़भूजे आदि के काम जिनमें महान् अग्नि का आरंभ होता है, नहीं करना चाहिए। वन, झाड़ी कटवाने का ठेका वगैरह लेने का इक्के, गाड़ी वगैरह तैयार करवा कर बेचने का, बैल, घोड़े, ऊँट आदि को भाड़े से फिराने का, या इक्के, गाड़ी, वगैरह भाड़े फिरा करके आजीविका कमाने का और खाने आदि को खुदवाने का कर्म आजीवन के लिए छोड़ देना चाहिए और व्यापार संबंध में हाथी-दाँत, चमड़े आदि का, लाख का, मदिरा शहद आदि का, कबूतर, बटेर, तोते, कुक्कुट, बकरे आदि का, संखिया, वच्छनाग आदि जिनके खाने से मनुष्य मर जाते हैं ऐसे जहरीले पदार्थों का, या तलवार, gooooooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्गन्थ प्रवचन/80 Jain 500000000ood 00000 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COOD 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 बंदूक, बरछी आदि का व्यापार कम से कम गृहस्थ-धर्म पालन करने वाले को कभी भूलकर भी नहीं करना चाहिए। मूल : एवं खुजंतपिल्लणकम्म, निल्लंछणे च दवदाणे। सरदहतलायसोसं, असइपोसं च वज्जिज्जा||३|| छायाः एवं खलु यन्त्रपीडनकर्म, निर्लाच्छनं दवदानम्। सरद्रहतड़ागशोषं, असती पोषम् च वर्जयेत्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इस प्रकार (ख) निश्चय करके (जंतपिल्लण) यंत्रों के द्वारा प्राणियों को बाधा पहुँचे ऐसा (च) और (निल्लंछण) अण्डकोष फुड़वाने का (दवदाणं) दावानल लगाने का (सरहदतलायसोस) सर, द्रह, तालाब की पाल फोड़ने का (च) और (असईपोस) दासी वेश्यादि के पोषण का (कम्म) कर्म (वज्जिज्जा) छोड़ देना चाहिए। __भावार्थ : हे गौतम! ऐसे कई प्रकार के यंत्र हैं, कि जिनके द्वारा पंचेन्द्रियों के अवययों का छेदन भेदन होता हो, अथवा यंत्रादिकों के बनाने से प्राणियों की पीड़ा हो, आदि ऐसे यंत्र संबंधी-बंधों का गृहस्थ-धर्म पालन कर नपुंसक अर्थात् खस्सी करने का, दावानल सुलगाने का, बिना खोदी हुई जगह पर पानी भरा हुआ हो, ऐसा कर एवं जहां खूब पानी भरा हुआ हो ऐसा तालाब, कुंआ, बावड़ी आदि जिसके द्वारा बहुत से जीव पानी पीकर अपनी तृषा बुझाते हैं। उनकी पाल फोड़ कर पानी निकाल देने का, दासी वेश्या आदि को व्यभिचार के निमित्त रखना या चूहों को मारने के लिये बिल्ली आदि का पोषण करना, आदि आदि कर्म गृहस्थी को जीवन भर के लिए छोड़ देना ही सच्चा गृहस्थ-धर्म है। गृहस्थ का आठवां धर्म अणत्थदंडवेरमणं हिसंक विचारों, अनर्थकारी बातों आदि का परित्याग करना है। गृहस्थ का नौवां धर्म यह है कि सामाइयं दिन भर में कम से कम एक अन्तर मुहूर्त (45 मिनट) तो ऐसा बितादें कि संसार से बिलकुल ही विरक्त होकर उस समय वह आत्मिक गुणों का चिन्तवन कर सकें। गृहस्थ का दसवां धर्म है देसावगासियं-जिन पदार्थों की छूट रखी है, उनका फिर भी त्याग करना और निर्धारित समय के लिए सांसारिक झंझटों से पृथक रहना। ग्यारहवां धर्म यह है कि पोसहोववासे-कम से कम महीने भर में प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी पूर्णिमा और अमावस्या को पौषध करे* अर्थात् इन दिनों में वे सम्पूर्ण सांसारिक झंझटों को छोड़कर अहोरात्रि आध्यात्मिक 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000px 64 निर्ग्रन्थ प्रवचन/81 Woooooooooooooooool Jain Education inemational For Personal & Private Use Only oooooooooooooooot c/ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000 विचारों का मनन किया करें और बारहवां गृहस्थ का धर्म यह है कि अतिहिंसयअस्सविभागे अपने घर आये हुए अतिथि का सत्कार कर उन्हें भोजन आदि ग्रहण करावें। इस प्रकार गृहस्थ को अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते रहना चाहिये। ____ यदि इस प्रकार गृहस्थ का धर्म पालन करते हुए कोई उत्तीर्ण हो जाए और वह फिर आगे बढ़ना चाहे तो इस प्रकार प्रतिमा धारण कर गृहस्थ जीवन को सुशोभित करें। मूल : दंसणवयसामाइयपोसहपडिमा य बंभ अचित्ते। आरंभपेसउदिट्ठ वज्जए समणभूए य||ll . छायाः दर्शनव्रत सामायिक-पौषधप्रतिमा च ब्रह्म अचित्तम्। आरंभप्रेषणोद्दिष्टवर्जकः, श्रमणभूतश्च।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इंसणवयसामाइय) दर्शन, व्रत, सामायिक, पडिमा (य) और (पोसह) पौषध (य) और (पडिमा) पांचवीं में पांच बातों का परित्याग वह करे (बंभ) ब्रह्मचर्य पाले (अचित्ते) सचित्त का भोजन न करें (आरंभ) आरंभ त्यागे (पेस) दूसरों से आरम्भ करवाने का त्याग करना, (उद्दिट्ठवज्जए) अपने लिए बनाये हुए भोजन का परित्याग करना (य) और नौवीं पडिमा में (समणभूए) साधु के समान वृत्ति को पालना। भावार्थ : हे गौतम! गृहस्थ धर्म की ऊँची पायदान पर चढ़ने की विधि इस प्रकार है-पहले अपनी श्रद्धा की ओर दृष्टिपात करके वह देख ले, कि मेरी श्रद्धा में कोई भ्रम तो नहीं है। इस तरह लगातार एक महीने तक श्रद्धा के विषय में ध्यान पूर्वक अभ्यास वह करता रहे। फिर उसके बाद दो मास तक पहले लिये हुए व्रतों को निर्मल रूप से पालने का अभ्यास वह करे। तीसरी पडिमा में तीन मास तक यह अभ्यास करे कि किसी भी जीव पर राग द्वेष के भावों को वह न आने दे। अर्थात् इस प्रकार अपना हृदय सामायिक मय बना ले। चौथी पडिमा में चार महीन में छ: छः के हिसाब से पौषध करे। पांचवीं पडिमा में पांच महीने तक इन पांच बातों का अभ्यास करे। (1) पौषध में ध्यान करें, (2) श्रृंगार के निमित्त स्नान न करे, (3) रात्रि भोजन न करे (4) पौषध के सिवाय और दिनों में दिन का ब्रह्मचर्य पाले, (5) रात्रि में ब्रह्मचर्य की मर्यादा करता रहे। छठी पडिमा में छ: महीने तक सब प्रकार से ब्रह्मचर्य के पालन करने का अभ्यास करे। सातवीं 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000oooc 500000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/82 000000000000000 Dooo00000000 For Personal & Private Use Only s Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000061 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000 पडिमा में सात महीने तक सचित्त भोजन न खाने का अभ्यास करे। आठवीं पडिमा में आठ महीने तक स्वतः कोई आरंभ न करे। नौवीं पडिमा में नौ महीने तक दूसरों से भी, आरम्भ न करवावें / दशमी पडिमा में दश महीने तक अपने लिए किया हुआ भोजन न खावे / ग्यारहवीं पडिमा में ग्यारह महीने तक साधु के समान क्रियाओं का पालन वह करता रहे। शक्ति हो तो बालों का लोच भी करें, नहीं शक्ति हो तो हजामत करवा लें, खुली दण्डी का रजोहरण बगल में रखें / मुंह पर मुंहपत्ती बंधी हुई रखें और 42 दोषों को टाल कर अपने ज्ञाति वालों के यहां से भोजन लावें, इस प्रकार उत्तरोत्तर गुण बढ़ाते हुए प्रथम पडिमा में एकान्तर तप करे और दूसरी पडिमा में दो महीने तक बेले बेले पारणा करे। इसी तरह ग्यारहवीं पडिमा में ग्यारह महीने तक ग्यारह ग्यारह उपवास करता रहे / अर्थात् एक दिन भोजन करे फिर ग्यारह उपवास करें। फिर एक दिन भोजन करे। यों लगातार ग्यारह महीने तक ग्यारह का पारणा करे। 4. इस प्रकार गृहस्थ-धर्म पालते पालते अपने जीवन का अंतिम समय यदि आ जाए तो अपच्छिमा मरणंतिआ संलेहणा झूसणाराहणा-सब सांसारिक व्यवहारों का सब प्रकार से आजन्म के लिए परित्याग करके संथारा (समाधि) धारण कर ले और अपने त्याग धर्म में किसी भी प्रकार की दोषापत्ति भूल से यदि हो गई हो, तो आलोचक के पास उन बातों को प्रकाशित कर दे। जो वे प्रायश्चित उसके लिए दें उसे स्वीकार कर अपनी आत्मा को निर्मल बनावें फिर प्राणी मात्र पर यों मैत्री भाव रखें। मूल : खामेमि सब्वे जीवा, सब्बे जीवाखमंतु मे। मित्ती में सबभूएसु, वेरं मज्झंण केणई||५| छायाः क्षमयामि, सर्वान् जीवान्, सर्वे जीवा क्षमन्तु मे। मैत्री में सर्वभूतेषु वैरं मम न केनापि।।५। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सव्वे) सब (जीवा) जीवों को (खामेमि) क्षमाता हूँ। (मे) मुझे (सव्वे) सब (जीवा) जीव (खमंतु) क्षमा करो (सव्व भूएसु) प्राणी मात्र में (मे) मेरी (मित्ती) मैत्री भावना है (केणइ) किसी के भी साथ (मज्झं) मेरा (वरं) वैर (न) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! उत्तम पुरुष जो होता है वह सवैद वसुधैव कुटुम्बकम् जैसी भावना रखता हुआ वाचा के द्वारा भी यों बोलेगा कि 0000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/83 0000000000000ootli 000000000 woww.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og oooooor 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 सब ही जीव क्या छोटे और बड़े उन से क्षमा याचता हूँ। अतः वे मेरे अपराध को क्षमा करें। चाहे जिस जाति व कुल का हो उन सबों में मेरी मैत्री भावना है। भले ही वे मेरे अपराधी क्यों न हों, तदपि उन जीवों के साथ मेरा किसी भी प्रकार वैर विरोध नहीं है। बस, उसके लिए फिर मुक्ति कुछ भी दूर नहीं है। मूल: अगारिसामाइअंगाई, सड्ढी काएण फासए। पोसहं दुहओ पक्खं, एगराइं न हावए||६|| छाया: आगारीसामायिकांगानि, श्रद्धी कायेन स्पृशति। पौषधमुभयोः पक्षयोः, एकारात्रं न हाययेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सड्ढी) श्रद्धावान् (अगारि) गृहस्थी (सामाइअंगाई) सामायिक के अंगों को (काएण) काया के द्वारा (फासए) स्पर्श करे, और (दुहओ) दोनों (पक्खं) पक्ष को (पोसह) पौषध करने में (एगराइं) एक रात्रि की भी (न) नहीं (हावए) न्यूनता करे। भावार्थ : हे आर्य! जो गृहस्थ है और अपना गृहस्थ धर्म पालन करता है, वह श्रद्धावान् गृहस्थ सामायिक भाव के अंगों की अर्थात् समता शान्ति आदि गुणों की मन, वचन, काया के द्वारा अभ्यास के साथ अभिवृद्धि करता रहे और कृष्ण शुक्ल दोनों पक्षों में कम से कम छ: पौषध करने में तो न्यूनता एक रात्रि की भी कमी न करे। मूल : एवं सिक्खासमावण्णे, गिहिवास वि सुब्बए। मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जक्खसलोगय||७|| छायाः एवं शिक्षासमापन्नः, गृहिवासेऽपि सुव्रतः। मुच्यते छविः पर्वाणो, गच्छेद् यक्षसलोकताम्।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इस प्रकार (सिक्खासमावण्णे) शिक्षा से युक्त गृहस्थ (गिहिवासे वि) गृहवास में भी (सुव्वए) अच्छे व्रत वाला होता है और वह अन्तिम समय में (छविपव्वाओ) चमड़ी और हड्डी वाले शरीर को (मुच्चई) छोड़ता है और (जक्खसलोगय) यक्ष देवता के सदृश स्वर्गलोक को (गच्छे) जाता है। भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार जो गृहस्थ अपने सदाचार रूप गृहस्थ धर्म का पालन करता है, वह गृहस्थाश्रम में भी अच्छे व्रत वाला संयमी होता है। इस प्रकार गृहस्थ धर्म के पालते हुए यदि उसका अन्तिम समय भी आ जाए तो भी हड्डी, चमड़ी और मांस निर्मित इस ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/84 00000000000000000 Jain Edalcon international For Personal & Private Use Only DO0000000000000 C. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 0000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000opoo0000000000000000000000 औदारिक शरीर को छोड़कर यक्ष देवताओं के सदृश देवलोक को प्राप्त होता है। मूल : दीहाउया इड्ढिमंता, समिद्धा कामरूविणो। अहुणोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पमा|lll छायाः दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः / अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽर्चिमालिप्रभाः / / 8 / / __अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो गृहस्थ धर्म पालन कर स्वर्ग में जाते हैं वे वहाँ (दीहाउया) दीर्घायु (इड्ढ़िमंता) ऋद्धिमान् (समिद्धा) समृद्धिशाली (कामरूविणो) इच्छानुसार रूप पाने वाले (अहुणोववन्नसंकासा) मानो तत्काल ही जन्म लिया हो जैसे (भुज्जोअच्चिमालिप्पभा) और अनेकों सूर्यों की प्रभा के समान देदीप्यमान होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो गृहस्थ गृहस्थ धर्म पालते हुए नीति के साथ अपना जीवन बिताते हुए स्वर्ग को प्राप्त होते हैं, वे वहां दीर्घायु, ऋद्धिवान, समृद्धिशाली, इच्छानुकूल रूप बनाने की शक्तियुक्त तत्काल जन्मे हुए बालक जैसे और अनेकों सूर्यों की प्रभा के समान देदीप्यमान होते हैं। मूल : ताणि ठाणाणि गच्छंति, सिक्खिता संजमंतवा भिक्खाए वा गिहत्येवा, जे संतिपरिनिन्बुडा||९|| छायाः तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः। भिक्षुका वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिवृताः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संतिपरिनिव्वुडाः) शान्ति के द्वारा चहुँ ओर से संताप रहित (जे) जो (भिक्खाए) भिक्षु (वा) अथवा (गिहत्थे) गृहस्थ हों (संजम) संयम (तवं) तप को (सिक्खित्ता) अभ्यास करके (ताणि) उन दिव्य (ठाणाणि) स्थानों को (गच्छंति) जाते हैं। . भावार्थ : हे गौतम! क्षमा के द्वारा सकल संतापों से रहित होने पर साधु हो या गृहस्थ चाहे जो हो, जाति पांति का यहाँ कोई गौरव नहीं है। संयमी जीवन वाला और तपस्वी हो वही दिव्य स्वर्ग में जाता है। मूल: बहिया उड्ढमादाय, नाकंक्खे कयाइ वि। ___पुनकम्मक्खयट्ठाए, इमं देहं समुद्भरे||१०|| ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 - निर्ग्रन्थ प्रवचन/853 Imprary.org 2000000000000000000 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf छायाः वाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदापि / ___ पूर्वकर्मक्षयार्थं, इमं देहं समुद्धरेत्।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बहिया) संसार से बाहर (उड्ढ) ऊर्ध्व, ऐसे मोक्ष की अभिलाषा (आदाय) ग्रहण कर (कयाइ वि) कभी भी (नाकंक्खे) विषयादि सेवन की इच्छा न करें और (पुव्वकम्मक्खयट्ठाए) पूर्व संचित कर्मों को नष्ट करने के लिए (इम) इस (देह) मानव शरीर को (समुद्धरे) निर्दोष वृत्ति से धारण करके रखे। भावार्थ : हे गौतम! संसार से परे जो मोक्ष है, उसको लक्ष्य में रखकर के कभी भी कोई विषयादि सेवन की इच्छा न करे और पूर्व के अनेक भवों में किये हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस शरीर का निर्दोष आहारादि से पालन पोषण करता हुआ अपने मानव जन्म को सफल बनावे। मूल: दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छंति सोग्गइं|११|| छायाः दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजी व्यपि दुर्लभः। . ___मुधादायी मुधाजीवी, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मुहादाई) स्वार्थ रहित भावना से देने वाला व्यक्ति (दुल्लहा) दुर्लभ है (उ) और (मुहाजीवी) स्वार्थ रहित भावना से दिये हुए भोजन के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले (वि) भी (दुल्लहा) दुर्लभ है, (मुहादाई) ऐसा देने वाला और (महाजीवी) ऐसा लेने वाला (दो वि) दोनों ही (सोग्गइं) सुगति को (गच्छंति) जाते हैं। पाठ भावार्थ : हे गौतम! नाना प्रकार के ऐहिक सुखों को प्राप्त होने की स्वार्थ रहित भावना से जो दान देता है, ऐसा व्यक्ति मिलना दुर्लभ ही है और देने वाले का किसी भी प्रकार संबंध व कार्य न करके उससे निस्वार्थ ही भोजन ग्रहण कर अपना जीवन निर्वाह करते हों, ऐसे महान पुरुष भी कम हैं / अतएव बिना स्वार्थ से देने वाला मुहादाई और निस्पृह भाव से लेने वाला मुहाजीवी दोनों ही सुगति में जाते हैं। मूल: संति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्या संजमुचरा। गारत्येहिं य सम्वेहि, साहवो संजमुत्रा||१२| छायाः सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, गृहस्थाः संयमोत्तराः। अगारस्थेभ्यः सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः / / 12 / / Jgooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ook निर्ग्रन्थ प्रवचन/86 000000000000000 For Personal & Private Use Only 300000000000 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl Poo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एगेहिं) कितने ही (भिक्खूहिं) शिथिल साधुओं से (गारत्था) गृहस्थ (संजमुत्तरा) संयमी जीवन बिताने में अच्छे (संति) होते हैं। (य) और (सव्वेहिं) देश विरति वाले सब (गारत्थेहिं) गृहस्थों से (संजमुत्तरा) निर्दोष संयम पालने वाले श्रेष्ठ हैं। भावार्थ : हे आर्य! कितने शिथिलाचारी साधुओं से गृहस्थ धर्म पालने वाले गृहस्थ भी अच्छे होते हैं। जो अपने नियमों को निर्दोष रूप से पालन करते रहते हैं और निर्दोष संयम पालने वाले जो साधु है, वे देश विरति वाले सब गृहस्थों से बढ़कर हैं। मूल: चीराजिणं नगिणिणं, जड़ी संघाडि मुंडिणं| एयाणि विन ताइंति, दुस्सीलं परियागयं||१३|| छायाः चीराजिनं नग्नत्वं जटित्वं संघाटित्वमुण्डितम्। ___एतान्यपि न त्रायन्ते, दुःशीलं पर्यायगतम्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुस्सील) दुराचार का धारक (चीराजिणं) केवल वल्कल और चर्म के वस्त्र वाला (नगिणिणं) नग्न अवस्था वाला (जड़ी) जटाधारी (संघाडि) वस्त्र के टुकड़े साँध साँध कर पहनने वाला (मुंडिणं) केसों का मुंडन या लोच करने वाला (एयाणि) ये सब (परियागय) दीक्षा धारण करके भी (न) नहीं (ताइंति) रक्षित होता है। . भावार्थ : हे गौतम! संयमी जीवन बिताये बिना केवल दरख्तों की छाल के वस्त्र पहनने से या किसी किस्म के चर्म के वस्त्र पहनने से, अथवा नग्न रहने से, अथवा जटाधारण करने से, अथवा फटे टूटे कपड़ों के टुकड़ों को सी कर पहनने से और केसों का मुण्डन व लोचन करने मात्र से कभी मुक्ति नहीं होती है। इसी प्रकार भले ही वह साधु कहलाता हो, पर वह दुराचारी न तो अपना स्वतः का रक्षण कर पाता है, और न औरों का ही। अतः स्व-पर कल्याण के लिए शील-सम्यक चारित्र का पालन करना ही श्रेयस्कर है। मूल: अत्यंगयंमि आइच्चे, पुरत्या य अणुग्गए। आहारमाइयं सद, मणसा वि न पत्थए||१४|| छायाः अस्तंगत आदित्ये, पुरस्ताच्यानुद्गगते। आहारमादिक सर्वं, मनसाऽपि न प्रार्थयत्।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आइच्चे) सूर्य (अत्यंगयंमि) अस्त होने पर (य) और (पुरत्था) पूर्व दिशा में (अणुग्गए) उदय नहीं हो वहाँ तक Agoo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/87 00000 SO0000oin RELAPStationsiderthatanal Dooood 00000000000000006 For Personal & Private Use Only www.janell brary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ook (आहारमाइय) आहार आदि (सव्व) सब को (मणसा) मन से (वि) भी (न) न (पत्थए) चाहे। भावार्थ : हे गौतम! सूर्य अस्त होने के पश्चात् जब तक फिर पूर्व दिशा में सूर्य उदय न हो जावे उसके बीच के समय में गृहस्थ सब तरह के पेय अपेय पदार्थों को खाने पीने की मन से भी कभी इच्छा न करे। मूल : जायरूवं जहामठें, निद्धंतमलपावगं| रागदोसभयातीतं, तं वयं, बूम माहणं||१५| छायाः जातरूप यथा मृष्टं निध्मातमलपापकम्। रागद्वेष भयातीतं, तं वयम् ब्रूमो ब्राह्मणम्।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (मट्ठ) कसौटी पर कसा हुआ और (निद्धतमलपावगं) अग्नि से नष्ट किया है मल को जिसके ऐसा (जायरूवं) सुवर्ण गुण युक्त होता है। वैसे ही जो (रागदोसभयातीत) राग, द्वेष और भय से रहित हो (तं) उसको (वयं) हम (माहणं) ब्राह्मण (बूम) कहते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार कसौटी पर कसा हुआ एवं अग्नि के ताप से जिसका मैल दूर हो गया हो ऐसा सुवर्ण ही वास्तव में सुवर्ण होता है। इसी तरह निर्मोह और शान्ति रूप कसौटी पर कसा हुआ तथा ज्ञान रूप अग्नि से जिसका राग-द्वेष रूप मैल दूर हो गया हो उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं। मूल : तवस्सियं किसं दंतं, अवचियमंससोणियं सुव्वयं पत्तनिवाणं, तं वयं बूम माहण||१६| छाया: तपस्विनं कृशं दान्तं, अपचितमासं शोणितम्। सुव्रतं प्राप्त निर्वाणं, तं वयम् ब्रमो ब्राह्मणम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो (तवस्सियं) तपस्या करने वाला हो, जिससे वह (किस) दुर्बल हो रहा हो (दंत) इन्द्रियों को दमन करने वाला हो, जिससे (अवचियमंससोणिअं) सूख गया है मांस और खून जिसका, (सुव्वयं) व्रत नियम सुन्दर पालता हो (पत्तनिव्वाणं) जो तृष्णा रहित हो (त) उसको (वयं) हम (माहणं) ब्राह्मण (बूम) कहते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! तप करने से जिसका शरीर दुर्बल हो गया हो, इन्द्रियों का दमन करने से लोहू, मांस आदि जिसका सूख गया हो, व्रत नियमों का सुन्दर रूप से पालन करने के कारण जिसका स्वभाव शान्त हो गया हो, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops Nनिर्ग्रन्थ प्रवचन/88 Jain Education melatona! 300000000000ooda For Personal & Private Use Only Doo00000000000000 . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot 50000000000000000 do00000000000000000000000000 00000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पड़ वारिणा। एवं अलि कामेहि, तं वयं बूम माहणं||७|| छायाः यथा पद्म जले जातम्, नोपलिप्यते वारिणा। एवमलिप्तं कामैः, तं वयम् ब्रूमो ब्राह्मणम्।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (पोम) कमल (जले) जल में (जाय) उत्पन्न होता है तो भी (वारिणा) जल से (नोवलिप्पइ) वह लिप्त नहीं होता है (एवं) ऐसे ही जो (कामेहि) काम भोगों से (अलित्तं) अलिप्त है (तं) उसको (वयं) हम (माहणं) ब्राह्मण कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जैसे कमल जल में उत्पन्न होता है, पर जल से सदा अलिप्त रहता है, इसी तरह कामभोगों से उत्पन्न होने पर भी विषय वासना सेवन से जो सदा दूर रहता है, वह किसी भी जाति व कौम का क्यों न हो, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं। मूल : न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। ___नमुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो||१८|| छाया: नाऽपि मुण्डितेन श्रमणा, न ओंकारेण ब्राह्मणः / न मुनि अरण्यवासेन, कुशचीरेण न तापसः / / 18 / / 4 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मुंडिएण) मुंडन व लोचन करने से (समणो) श्रमण (न) नहीं होता है और (ओंकारेण) ओंकार शब्द मात्र जप लेने से (बंभणो) कोई ब्राह्मण (वि) भी (न) नहीं हो सकता है। इसी तरह (रण्णवासेणं) अटवी में रहने से (मुणी) मुनि (न) नहीं होता है। (कुसचीरेण) कुशा (घांस) के वस्त्र पहनने से (तावसो) तपस्वी (न) नहीं होता है। _भावार्थ : हे गौतम! केवल सिर मुंडाने से या लोचन मात्र करने से ही.कोई साधु नहीं बन जाता है और न ओंकार शब्द मात्र के रटने से ही कोई ब्राह्मण हो सकता है। इसी तरह केवल सघन अटवी में निवास कर लेने से ही कोई मुनि नहीं हो सकता और न केवल घांस का विशेष कपड़ा पहन लेने से तपस्वी बन सकता है। मूल: समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ, वेणं होइ तावसो||१९|| छाया: समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः / ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः / / 16 / / 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 30000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/89 dooooo000000000000 Jal Education International Sboo00000000000000b For Personal & Private Use Only www www.jane brary.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 0000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (समयाए) शत्रु और मित्र पर समभाव रखने से (समणो) श्रमण-साधु (होइ) होता है। (बंभचेरेण) ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से (बंभणो) ब्राह्मण होता है (य) और इसी तरह (नाणेणं) ज्ञान सम्पादन करने से (मुणी) मुनि (होइ) होता है, एवं (तवेणं) तप करने से (तावसो) तपस्वी (होइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! सर्व प्राणीमात्र, फिर चाहे वे शत्रु जैसा बर्ताव करते हों या मित्र जैसा, सभी को जो समदृष्टि से जो देखता हो, वही साधु है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला किसी भी कौम का हो, वह ब्राह्मण ही है, इसी तरह सम्यक् ज्ञान सम्पादन करके उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ही मुनि है। ऐहिक सुखों की इच्छा से रहित बिना किसी को कष्ट दिये जो तप करता है, वही तपस्वी है। मूल : कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा||२०|| छायाः कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा भवति क्षत्रियः / वेश्यः कर्मणा भवति, शूद्रो भवति कर्मणा।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कम्मुणा) क्षमादि अनुष्ठान करने से (बंभणो) ब्राह्मण (होइ) होता है और (कम्मुणा) पर पीड़ाहरन व रक्षादि कार्य करने से (खत्तिओ) क्षत्री (होइ) होता है। इसी तरह (कम्मुणा) नीति पूर्वक व्यवहार कर्म करने से (वइसो) वैश्य (होइ) होता है और (कम्मुणा) दूसरों को कष्ट पहुंचाने रूप कार्य जो करे वह (सुद्दो) शूद्र (हवइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! चाहे जिस जाति व कुल का मनुष्य क्यों न हो, जो क्षमा, सत्य, शील, तप आदि सद्नुष्ठान रूप कर्मों का कर्त्ता होता है, वही ब्राह्मण है। केवल छापा तिलक कर लेने से ब्राह्मण नहीं हो सकता है और जो भय, दुःख, आदि से मनुष्यों को मुक्त करने का कर्म करता है, वही क्षत्रिय अर्थात् राजपुत्र है। अन्याय पूर्वक राज करने से तथा शिकार खेलने से कोई भी व्यक्ति आज तक क्षत्रिय नहीं बना। इसी तरह नीति पूर्वक जो व्यापार करने का कर्म करता है वही वैश्य है और जो दूसरों को संताप पहुंचाने वाले ही कर्मों को करता रहता है वह कोई भी जाति का क्यों न हो वह शूद्र है। 1000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/90 00000000000000ookia Jain Education Interational For Personal & Private Use Only 000000000 000000RN Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooge do0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 * अध्याय आठ - ब्रह्मचर्य निरुपण ॥श्रीभगवानुवाच॥ मूल: आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा यमणोरमा। संथवो चेव नारीणं, तेसिं इंदियदरिसणं||१|| कूइअं रुइअंगीअं, हासभुत्तासिआणि च। पणीअं भत्तपाणंच, अइमायं पाणभोअणं||२|| गत्तभूसणमिट्ठं च; कामभोगा य दुज्जया। नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा||३|| छायाः आलयः स्त्रीजनाकीर्णः, स्त्रीकथा च मनोरमा। संस्तवश्चैव नारीणाम्, तासामिन्द्रियदर्शनम्।।१।। कूजितं रुदितं गीतं, हास्यभुक्तासितानि च। प्रणीतं भक्तपानं च, अतिमात्रं पानभोजनम्।।२।। गात्र भूषणमिष्टं च, कामभोगाश्च दुर्जयाः। नरस्यात्मगवेषिणः, विषं तालपुट यथा।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (थीजणाइण्णो) स्त्री जन सहित (आलओ) मकान में रहना (य) और (मणोरमा) मन-रमणीय (थीकहा) स्त्री-कथा कहना (चेव) और (नारीणं) स्त्रियों के (संथवो) साथ अर्थात् एक आसन पर बैठना (चेअ) और (तसिं) स्त्रियों का (इंदियदरिसणं) अंगोपांग देखना, ये ब्रह्मचारियों के लिए निषिद्ध है। (अ) और (कूइउं) फॅजित (रुइअं) रुदित (गीअं) गीत (हास) हास्य वगैरह (भुत्तासिआणि) स्त्रियों के साथ पूर्व में जो काम चेष्टा की है, उसका स्मरण (च) और नित्य (पणीअं) स्निग्ध (भत्तपाणं) आहार पानी एवं (अइमाय) परिमाण से अधिक (पाणभोअणं) आहार पानी का खाना पीना (च) और (इलैं) प्रियकारी (गत्तभूसणं) शरीर शुश्रूषा विभूषा करना ये सब ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध है। क्योंकि (दुज्जया) जीतने में कठिन ऐसे ये (कामभोगा) कामभोग (अत्तगवेसिस्स) आत्मगवेषी ब्रह्मचारी (नरस्स) मनुष्य के (तालउड) तालपुट (विस) ज़हर के (जहा) समान हैं। भावार्थ : हे गौतम! स्त्री व नपुंसक (हीजड़े) जहाँ रहते हों, वहां ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिए। स्त्रियों की कथा का कहना, स्त्रियों के आसन पर बैठना, उनके अंगोपांगों को देखना, स्त्री-पुरुष जहाँ एक 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000000000064 निर्ग्रन्थ प्रवचन/91 0000000000000ool Jalin Education International For Personal & Private Use Only 00000000000ood Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000 साथ सोते हों वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं सोना चाहिए और जो पूर्व में स्त्रियों के साथ काम चेष्टा की है उसका स्मरण करना, नित्यप्रति स्निग्ध (गरिष्ठ) भोजन करना, परिमाण से अधिक भोजन करना एवं शरीर को बढ़ाने बनाने की चेष्टा करना ये सब ब्रह्मचारियों के लिए निषिद्ध है। क्योंकि दुर्जयी काम भोग ब्रह्मचारी के लिए तालपुट ज़हर के समान होते हैं। मूल : जहा कुक्कुडपोअस्स, निच्च कुललओ भयं। एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं।।४।। छाया : यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुललतो भयम्। ___एवं खलु ब्रह्मचारिणः, स्त्रीविग्रहतो भयम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (कुक्कुड पोअस्स) मुर्गी के बच्चे को (निच्च) हमेशा (कुललओ) बिल्ली से (भयं) भय रहता है। (एव) इसी प्रकार (खु) निश्चय करके (बंभयारिस्स) ब्रह्मचारी को (इत्थीविग्गहओ) स्त्री शरीर से (भयं) भय बना रहता है। भावार्थ : हे गौतम! ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों की विषय जनित वार्तालाप तथा स्त्रियों का संसर्ग करना आदि जो निषेध किया है, वह इसलिए है कि जैसे मुगी के बच्चे को सदैव बिल्ली से प्राणवध का भय रहता है, अतः अपनी प्राण रक्षा के लिए वह उससे बचता रहता है। उसी तरह ब्रह्मचारियों को स्त्रियों के संसर्ग से अपने ब्रह्मचर्य के नष्ट होने का भय सदा रहता है। अतः उन्हें स्त्रियों से सदा सर्वदा दूर रहना चाहिए। / मूल : जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बम्भयारिस्स खमो निवासो।।५।। छाया : यथा विडालावसथस्य मूले, न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता। एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये, न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (बिरालावसहस्स) बिलावों के रहने के स्थानों के (मूले) समीप में (मूसगाणं) चूहों का (वसही) रहना (पसत्था) अच्छा या कल्याणकारी (न) नहीं है। (एमेव) इसी तरह (इत्थीनिलयस्स) स्त्रियों के निवास स्थान के (मज्झे) मध्य में (बम्भयारिस्स) ब्रह्मचारियों का (निवासों) रहना (खमो) योग्य (न) नहीं go0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog 0000000000000000000000000000000000000000000000064 भावार्थ : हे आर्य! जिस प्रकार बिलावों के निवास स्थानों के निर्ग्रन्थ प्रवचन/92 0000000000000 50000000000000 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot Joooo00000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000 समीप चूहों का रहना बिल्कुल योग्य नहीं, खतरनाक है। इसी तरह स्त्रियों के रहने के स्थान के समीप ब्रह्मचारियों का रहना भी उनके लिए योग्य नहीं है। मूल : हत्थपायपडिछिन्नं, कन्ननासविगप्पियं। अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवज्जए||६|| छाया: हस्तपादप्रतिच्छिन्ना, कर्णनासाविकल्पिताम्। वर्षशतिकामपि नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (हत्थपायपडिछिन्न) हाथ पांव छेदे हुए हों, (कन्ननासविगप्पिअं) कान, नासिका, विकृत आकार के हों ऐसी (वाससय) सौ वर्ष वाली (अवि) भी (नारिं) स्त्री का संसर्ग (बंभयारी) ब्रह्मचारी (विज्जए) छोड़ दें। भावार्थ : हे गौतम! जिसके हाथ पैर कटे हुए हों, कान नाक खराब आकार वाले हों और अवस्था में चाहे सौं वर्ष वाली हो, तो भी ऐसी स्त्री के साथ संसर्ग परिचय करना, ब्रह्मचारियों के लिए परित्याज्य है। मूल: अंगपच्चंगसंठाणं, चारुल्लविअपेहिये। इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवड्ढणं||७|| छाया: अंगप्रत्यंगसंस्थानं, चारुल्लपितपेक्षितम्। स्त्रीणां तन्न निध्यायेत्, कामरागविवर्धनम्।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! ब्रह्मचारी (कामरागविविड्डणं) काम राग आदि को बढ़ाने वाले (इत्थीणं) स्त्रियों के (तं) तत्संबंधी (अंगपच्चंगसंठाणं) सिर नयन आदि आकार प्रकार और (चारुल्लविअपेहिअं) सुन्दर बोलने का ढंग एवं नयनों के कटाक्ष बाण की ओर (न) न (निज्झाए) देखे। भावार्थ : हे गौतम! ब्रह्मचारियों को कामराग बढ़ाने वाले जो स्त्रियों के हाथ पांव, आंख, नाक, मुँह आदि के आकार प्रकार हैं उनकी ओर एवं स्त्रियों के सुन्दर बोलने के ढंग तथा उनके नयनों के तीक्ष्ण बाणों की ओर कदापि न देखना चाहिए। मूल: णोरक्खसीसु गिज्झिज्जा, गंडवच्छासुऽणेगाचित्तासु। जाओ पुरिसं पलोभित्ता, खेलंति जहा वादासेहिं|lll 0000000000000000000 00000000000000000000000000000000oop निर्ग्रन्थ प्रवचन/936 Mo00000000000000000a Jals Education International boo00000000000000617 For Personal & Private Use Only opersonal & Private Use Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oop! Vdoo000000000000000000000000000000000000m 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः न राक्षसीषु गृध्येत, गण्डवक्षस्वनेकचित्तासु। याः पुरुष प्रलोमप्प, क्रीडन्ति यथा दासैरिव।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! ब्रह्मचारी को(गंडवच्छासु) फोड़े के समान वक्षस्थल वाली (अणेगचित्तासु) चंचल चित्त वाली (रक्खसीसु) राक्षसी स्त्रियों में (णो) नहीं (गिज्झिज्जा) गृद्धि होना चाहिए, क्योंकि (जाओ) जो स्त्रियाँ (पुरिसं) पुरुष को (पलोभित्ता) प्रलोमित करके (जहा) जैसे (दासेहिं) दास की (वा) तरह (खेलंति) क्रीडा कराती है। भावार्थ : हे गौतम! ब्रह्मचारियों को फोड़े के समान स्तन वाली एवं चंचल चित्तवाली जो बातें तो किसी दूसरे से करे और देखें दूसरे की ही ओर ऐसी अनेक चित्त वाली राक्षसियों के समान स्त्रियों में कभी आसक्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे स्त्रियाँ मनुष्यों को विषय वासना का प्रलोभन दिखाकर अपनी अनेक आज्ञाओं का पालन कराने में उन्हें दासों की भांति दत्तचित्त रखती हैं। मूल: भोगामिसदोसविसन्न, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्यं| बाले य मंदिए मूढ़े, बज्झई मच्छिया व खेलम्मि||९|| छायाः भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिश्रेयसबुद्धि विपर्यस्तः। बालश्च मन्दो मूढ़ः, बध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि।।६।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भोगामिसदोसविसन्ने) भोग रूप मांस जो आत्मा को दूषित करने वाला दोष रूप है, उसमें आसक्त होने वाले तथा (हियनिस्सेयसबुद्धि वोच्चत्थे) हित कारक जो मोक्ष है उसकों प्राप्त करने की जो बुद्धि है उससे विपरीत बर्ताव करने वाले (य) और (मंदिर) धर्म-क्रिया में आलसी (मूढ़े) मोह में लिप्त (बाले) ऐसे अज्ञानी जीव कर्मों में बंध जाते हैं और (खेलम्मि) श्लेष-कफ में (मच्छिआ) मक्खी की (व) तरह (बज्झई) फंस जाते हैं। ___भावार्थ : हे गौतम! विषय वासना रूप जो मांस है, यही आत्मा को दूषित करने वाला दोष रूप है। इसमें आसक्त होने वाले तथा हितकारी जो मोक्ष है उसके साधन की बुद्धि से विमुख और धर्म करने में आलसी तथा मोह में लिप्त हो जाने वाले अज्ञानीजन अपने गाढ़ कर्मो में जैसे मक्खी श्लेष (कफ) में लिपट जाती है वैसे ही फंस जाते हैं। मूल : सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे पत्येमाणा, अकामा जति दुग्गइं|१०|| goooo00000000000000000000000oipoooooooooooooooo00000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog N निर्ग्रन्थ प्रवचन/94 oooooo00000000000 OOOOOOOO For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छाया; शल्यं कामा विषं कामाः, कामा आशी विषोपमाः। कामान् प्रार्थयमाना, अकामा यान्ति दुर्गतिम्।।१०।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कामा) काम भोग (सल्लं) कांटे के समान है (कामा) कामभोग (विसं) विष के समान है (कामा) कामभोग (आसीविसोवमा) दृष्टि-विष सर्प के समान है, (कामे) कामभोगों की (पत्थेमाणा) इच्छा करने पर (अकामा) बिना ही विषय वासना सेवन किये यह जीव (दुगगई) दुर्गति को (जंति) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे आर्य! यह काम भोग चुभने वाले तीक्ष्ण कांटे के समान है, विषय वासना का सेवन करना तो बहुत ही दूर की बात, उसकी इच्छा मात्र करने से ही मनुष्यों की दुर्गति होती है। मूल: खणमेचसुक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अनिगामसुक्खा| संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्याण उकामभोगा||१|| छायाः क्षणमात्रसौख्या बहुकाल दुःखाः, प्रकामदुःख अनिकामसौख्याः / संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थाना तु कामभोगाः / / 1 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कामभोगा) ये काम भोग (खणमेत्तंसुक्खा) क्षण भर सुख देने वाले हैं, पर (बहुकालदुक्खा) बहुत काल तक के लिए दुःख देने वाले हैं। अतः ये विषय भोग (पगामदुक्खा) अत्यन्त दुःख देने वाले और (अनिगामसुक्खा) अत्यल्प सुख के दाता हैं। (संसारमोक्खस्स) संसार से मुक्त होने वालों को ये (विपक्खभूया) घोर विरोधी शत्रु के समान है और (अणत्थाण) अनर्थों की (खणी उ) खदान के समान हैं। भावार्थ : हे गौतम! ये काम भोग केवल सेवन करते समय ही क्षणिक सुखों को देने वाले हैं और भविष्य में वे बहुत अर्से तक दुःखदायी होते हैं। इसलिए हे गौतम! ये विषय भोग अत्यन्त दुःख के कारण हैं, क्षणिक सुख के कारक हैं। अतः ये भोग संसार से मुक्त होने वाले के लिए पूरे शत्रु के समान होते हैं और सम्पूर्ण अनर्थों को पैदा करने वाले हैं। मूल : जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्तण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो||१२|| छायाः यथा किम्पाकफलानां, परिणामो न सुन्दरः / एवं भुक्तानां भोगाना, परिणामो न सुन्दरः / / 12 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (किंपागफलाणं) किंपाक नामक फलों के खाने का (परिणामो) परिणाम (सुन्दरों) अच्छा (न) नहीं 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/95 0000000000000000 000000000000000 Jan Education International For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 D000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 है, (एवं) इसी तरह (भुत्तण) भोगे हुए (भोगाणं) भोगों का (परिणामो) परिणाम (सुन्दरो) अच्छा (न) नहीं होता है। भावार्थ : हे आर्य! किंपाक फल खाने में स्वादिष्ट, सूंघने में सुगंधित और आकार प्रकार से भी मनोहर होते हैं तथापि खाने के बाद ये फल ज़हर का काम करते हैं। इसी तरह विषय भोग भी भोगते समय तो क्षणिक सुख दे देते हैं, परन्तु उसके पश्चात् ये चौरासी की चक्रफेरी में दुःखों का समुद्र रूप हो सामने बाधा बन कर आ जाते हैं। आत्म कल्याण की दृष्टि से ये घातक हैं। मूल : दुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं। अह सति सुव्वया साहू, जे तरति अतरं वणिया वा।।१३।। छाया : दुःपरित्याज्या इमे कामाः, न सुत्यजा अधीरपुरुषैः। अथ सन्ति सुव्रताः साधवः, ये तरन्त्यतरं वणिके नैव।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इमे) ये (कामा) कामभोग (दुपरिच्चया) मनुष्यों द्वारा बड़ी ही कठिनता से छूटने वाले होते हैं, ऐसे भोग (अधीरपुरिसेहिं) कायर पुरुषों से तो (नो) नहीं (सुजहा) सुगमता से छोड़े जा सकते हैं। (अह) परन्तु (सुव्वया) सुव्रत वाले (साहू) अच्छे पुरुष जो (संति) होते हैं (जे) वे (अंतर) तिरने में कठिन ऐसे भव समुद्र को भी (वाणिया) वणिक की (वा) तरह (तरंति) तिर जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इन काम भोगों को छोड़ने में बुद्धिमान मनुष्य भी बड़ी कठिनाइयां उठाते हैं, फिर कायर पुरुष तो इन्हें सुलभता से छोड़ ही कैसे सकते हैं?अतः जो शूरवीर और धीर पुरुष होते हैं, वे ही इस कामभोग रूपी समुद्र के पार पहुँच सकते हैं। संयम आदि व्रत नियमों की धारणा करने वाले पुरुष ही ब्रह्मचर्य रूपी जहाज के द्वारा संसार समुद्र के पार पहुँच सकते हैं। मूल : उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई।।१४।। छाया : उपलेपो भवति भोगेषु, अभोगी नोपलिप्यते। _भोगी भ्रमति संसारे, अभोगी विप्रमुच्यते।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भोगेसु) भोग भोगने में कर्मों का (उवलेवी) उपलेप (होइ) होता है और (अभोगी) अभोगी (नोवलिप्पई) कर्मों से लिप्त नहीं होता है। (भोगी) विषय सेवन करने वाला (संसारे) संसार में (भमइ) भ्रमण करता है और (अभोगी) विषय सेवन नहीं करने वाला (विप्पमुच्चई) कर्मों से मुक्त होता है। 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/96 0000000000 0000000000obil For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jg0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . भावार्थ : हे गौतम! विषय वासना का सेवन करने से आत्मा कर्मों के बंधन से बंध जाती है और उसको त्यागने से वह अलिप्त रहती है। अतः जो काम भोगों का सेवन करते हैं वे संसार चक्र में गोता लगाते रहते हैं और जो इन्हें त्याग देते हैं, वे कर्मों से मुक्त होकर अटल सुखों के धाम पर जा पहुंचते हैं। मूलः मोक्खाभिकंखिस्स विमाणवस्स,संसारभीरुस्स ठियरसधम्म ने यारिसंदुत्चरमत्थि लोए, जहित्यिओबालमणोहराओ||१५|| छायाः मोक्षाभिकांक्षिणोऽपि मानवस्य, संसारभीरोः स्थितस्य धर्मे। __ नैतादृशं दुस्तरमस्ति लोके, यथा स्त्रियों बाल मनोहराः।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोक्खाभिकखिस्स) मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले (संसारभीरुस्स) संसार में जन्म मरण करने से डरने वाले और (धम्मे) धर्म में (ठियस्स) स्थिर है आत्मा जिनकी ऐसे (माणवस्स) मनुष्य कों (वि) भी (जहा) जैसे (बालमणोहराओ) मूखों के मन को हरण करने वाली (इथिओ) स्त्रियों से दूर रहना कठिन है, तब (एयारिस) ऐसे (लोए) लोक में (दुत्तरं) विषय रूप समुद्र को लांघ जाने के समान दूसरा कोई कार्य कठिन (न) नहीं (अत्थि) है। ___भावार्थ : हे गौतम! जो मोक्ष की अभिलाषा रखते हैं और जन्म मरणों से भयभीत होते हुए धर्म में अपनी आत्मा को स्थिर किये रहते हैं, ऐसे साधकों को भी मूों का मनोरंजन करने वाली स्त्रियों के कटाक्षों को निष्फल करने के समान दूसरा कोई कठिन कार्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि संयमी पुरुषों को इस विषय में सदैव जागरूक रहना चाहिए। मूलः कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सबस्स लोगस्स सदेवगस्स। जंकाइअंमाणसिअंच किंचि, तस्संतगंगच्छइवीयरागो||१७|| छायाः कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदैवकस्य। यत् कायिकं मानसिकं च किञ्चित्, तस्मान्निकं गच्छति वीतरागः / / 17 / / ____ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सदेवगस्स) देवता सहित (सव्वस्स) सम्पूर्ण (लोगस्स) लोक के प्राणी मात्र को (कामाणुगिद्धिप्पभव) काम भोग की अभिलाषा से उत्पन्न होने वाला (खु) ही, (दुक्ख) दुख लगा हुआ है (ज) जो (काइअं) कायिक (च) और (माणसिअं) मानसिक (किंचि) कोई भी दुख है (तस्स) उसके (अंतगं) अन्त को (वीयरागो) वीतराग पुरुष (गच्छइ) प्राप्त करता है। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 ooooooooooool निर्ग्रन्थ प्रवचन/97 For Personal & boo0000000000000 , -For Personal & Private Use Only Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिषी आदि सभी तरह के देवताओं से लगाकर सम्पूर्ण लोक के छोटे से प्राणी तक को काम भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न होने वाली लालसा सताती रहती है। इस कायिक और मानसिक दुःख का अन्त करने वाला केवल वही मनुष्य है, जिसने काम भोगों से सदा के लिए अपना मुंह मोड़ लिया है। मूल: देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति वे||१८|| छाया: देवदानवगन्धर्वाः यक्षराक्षसकिन्नराः। ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति, दुष्करं यः करोति तम्।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुक्कर) कठिनता से आचरण में आ सके ऐसे ब्रह्मचर्य को (जे) जो (करंति) पालन करते हैं (ते) उस (बम्भयारिं) ब्रह्मचारी को (देवदाणवगंधव्वा) देव, दानव और गन्धर्व (जक्खरक्खसकिंनरा) यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी तरह के देव (नमसंति) नमस्कार करते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इस महान ब्रह्मचर्य व्रत का जो पालन करता है, उसको देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं / वह सहज ही लोकपूज्य हो जाता है। 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/980boo Jain L odocooc000000 नग्रन्थ प्रवचना For Personal & Private senly > boo0000000000000ameligrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 B0000000000000000000000000000000000 goo00000000000000000000000000000000000000000000000000 . अध्याय नौ - साधु धर्म निरुपण |श्रीभगवानुवाच।। मूल : सबे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं| तम्हा पाणिवहं घोरं, निम्गंथा वज्जयंति ण||१|| छायाः सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम्। तस्मात् प्राणिवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सव्वे) सभी (जीवा) जीव (जीविउं) जीने की (इच्छंति) इच्छा करते हैं (वि) और (मरिज्जिउं) मरने को कोई जीव (न) नहीं चाहता है। (तम्हा) इसलिए (निग्गंथा) निर्ग्रन्थ साधु (घोरं) रौद्र (पाणिवह) प्राणीवध को (वज्जयंति) छोड़ते हैं। (ण) वाक्यालंकार / भावार्थ : हे गौतम! सब छोटे बड़े जीव जीने की इच्छा करते हैं, पर कोई मरने की इच्छा नहीं करते हैं क्योंकि जीवित रहना सबको प्रिय है। इसलिए निर्ग्रन्थ साधु महान दुःख के हेतु प्राणी वध को आजीवन के लिए छोड़ देते हैं। मूल :, मुसावाओ य लोगम्मि, सब्बसाहूहि गरहिओ। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए|२|| छायाः मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गर्हितः। अविश्वासश्च भूतानां, तस्मान्मृषां विवर्जयेत्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (लोगम्मि) इस लोक में (य) हिंसा के सिवाय और (मुसावाओ) मृषावाद को भी (सव्वसाहूहि) सब अच्छे पुरुषों ने (गरहिओ) निन्दनीय कहा है। (य) और इस मृषावाद से (भूयाण) प्राणियों को (अविस्सासो) अविश्वास होता है। (तम्हा) इसलिए (मोस) झूठ को (विवज्जए) छोड़ देना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! इस लोक में हिंसा के सिवाय और भी जो मृषावाद (झूठ) है, वह अच्छे पुरुषों के द्वारा निन्दनीय बताया गया है। झूठ बोलने वाला अविश्वास का पात्र भी होता है। इसलिए साधु पुरुष झूठ बोलना आजीवन के लिए छोड़ देते हैं। मूल : चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। दंचसोहणमे पि, उम्गहंसि अजाइया||३|| 000000000000000000000000000000 500000000000000000000000 000000000000000000000000000000pl 00000000000000ood Jain-Eddation International निर्ग्रन्थ प्रवचन/99 O For Personal & Private Use Only 00000000000000 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 1000oos 00000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 छायाः चित्तवन्तमचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु। दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहमयाचित्वा।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अप्पं) अल्प (जइवा) अथवा (बहु) बहुत (चित्तमंत) सचेतन (वा) अथवा (अचित्त) अचेतन (दंतसोहणमेत्तंपि) दांत साफ करने का तिनका भी (अजाइया) आज्ञा बिना ग्रहण नहीं करते हैं। (उग्गहंसि) कोई भी वस्तु गृहस्थ के दिये बिना वे नहीं लेते हैं। भावार्थ : हे गौतम! चेतन वस्तु जैसे शिष्य, अचेतन वस्तु वस्त्र, पात्र वगैरह यहाँ तक कि दांत साफ करने का तिनका भी गृहस्थ के दिये बिना साधु कभी ग्रहण नहीं करते हैं और उन चीज़ों को भी गृहस्थों के दिये बिना साधु कभी नहीं लेते हैं। मूल : मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गं, निम्गंथा वज्जयंति ण||४|| छायाः मूलमेतदधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्रयम्। तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्थाः परिवर्जयन्तितम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एयं) यह (मेहुणसंसग्गं) मैथुन विषयक संसर्ग (अहम्मस्स) अधर्म का (मूल) मूल है और (महादोससमुस्सयं) महान दूषित विचारों को अच्छी तरह से बढ़ाने वाला है। (तम्हा) इसलिए (निग्गंथा) निर्ग्रन्थ साधु मैथुन संसर्ग को (वज्जयंति) छोड़ देते हैं। (णं) वाक्यालंकार में। भावार्थ : हे गौतम! अब्रह्मचर्य ही अधर्म उत्पन्न कराने में परम कारण है और हिंसा, झूठ, चोरी, कपट आदि महान दोषों को खूब बढ़ाने वाला है। इसलिए मुनि धर्म पालने वाले महापुरुष सब प्रकार से मैथुन-संसर्ग का परित्याग कर देते हैं। मूल: लोभस्से समणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहीकामे गिही पवइए न से||५|| छायाः लोभस्यैषं अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि। यः स्यात् सन्निधिं कामयेत्, गृही प्रव्रजितो न सः।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (लोभस्स) लोभ की (एस) यह (अणुप्फासो) महत्ता है कि (अन्नयरामवि) गुड, घी, शक्कर आदि में से कोई एक पदार्थ को भी (जे) जो साधु होकर (सिया) कदाचित् (सन्निहीकामे) अपने पास रात भर रखने की इच्छा कर ले तो (से) वह 00000000000000000000000 00000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/100 04 For Personal & Private Use Only 00000000000000dl Jwww.lainelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 00000 goo00000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (न) न तो (गिही) गृहस्थी है और न (पव्वइए) प्रव्रजित दीक्षित ही है, ऐसा तीर्थंकर (मन्ने) मानते हैं। भावार्थ : हे गौतम! लोभ, चारित्र के सम्पूर्ण गुणों को नाश करने वाला है, इसीलिए इस की इतनी महत्ता है। तीर्थंकरों ने ऐसा माना है, और कहा है कि गुड़, घी, शक्कर आदि वस्तुओं में से किसी भी वस्तु को साधु होकर कदाचित् अपने पास रात भर रखने की इच्छा मात्र करे या औरों के पास रखवा लेवें तो वह गृहस्थ भी नहीं है। क्योंकि उसके पहनने का वेष साधु का है और वह साधु भी नहीं है क्योंकि जो साधु हैं उनके लिए उपरोक्त कोई भी चीजें रात में रखने की इच्छा मात्र भी करना मना है। अतएव साधु को दूसरे दिन के लिए खाने तक की कोई वस्तु का भी संग्रह करके नहीं रखना चाहिए। मूल: जंपि वत्थं व पायं वा कम्बलं पायपुच्छणं| तं पि संजमलज्जा , धारेन्ति परिहिंति य||६|| छायाः यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादपुञ्छनम्। तदपि संयमलज्जार्थम्, धारयन्ति परिहरन्ति च।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (ज) जो (पि) भी (वत्थं) वस्त्र (व) अथवा (पायं) पात्र (चा) अथवा (कम्बल) कम्बल (पायपुंच्छणं) पांव पोंछने का वस्त्र (तं) उसको (पि) भी (संजमलज्जट्ठा) संजम लज्जा 'रक्षा' के लिए (धारेंति) लेते हैं (य) और (परिहिंति) पहनते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जब यह कह दिया कि कोई भी वस्तु नहीं रखना और वस्त्र पात्र वगैरह, साधु रखते हैं, तो भला लोभ संबंध में इस जगह सहज ही प्रश्न उठता है। किन्तु जो संयम रखने वाला साधु है, वह केवल संयम की रक्षा के हेतु वस्त्र पात्र वगैरह लेता है और पहनता है। इसलिए संयम पालने के लिए उसके साधन वस्त्र, पात्र, वगैरह रखने में लोभ नहीं है क्योंकि मुनियों को उनमें ममता नहीं होती। _|सुधर्मोवाच| मूल : न सो परिम्गहो वुत्तो नायपुत्चेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहोवुत्तो, इइ वुत्वं महेसिणा||७|| छाया: न सः परिग्रह उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिणा। मूर्छापरिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा / / 7 / / 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000p निर्ग्रन्थ प्रवचन/101 00000000000000 00000000000 . For Personal & Private Use Only seonly Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे जम्बू! (सो) संयम की रक्षा के लिए रखे हुए वस्त्र, पात्र वगैरह हैं, उनको (परिग्गहो) परिग्रह (ताइणा) त्राता (नायपुत्तेण) महावीर (न) नहीं (वुत्तो) कहा है, किन्तु उन वस्तुओं पर (मुच्छा) मोह रखना नहीं (परिग्गहो) परिग्रह (वुत्तो) कहा जाता है (इइ) इस प्रकार (महेसिणा) तीर्थंकरों ने (वृत्तं) कहा है। भावार्थ : हे जम्बू! संयम को पालने के लिए जो वस्त्र, पात्र, वगैरह रखे जाते हैं, उनको तीर्थंकरों ने परिग्रह नहीं कहा है। हाँ यदि वस्त्र, पात्र आदि पर ममत्व भाव हो, या वस्त्र पात्र ही क्यों, अपने शरीर पर देखो न, इस पर भी ममत्व यदि हुआ कि अवश्य वह परिग्रह के दोष से दूषित बन जाता है और वह परिग्रह का दोष चारित्र के गुणों को नष्ट करने में सहायक होता है। मूल : एयं च दोसं दणं, नायपुत्चेणं भासियं। सवाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयण||६|| छायाः एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् / सर्वाहारं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम्।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (च) और (एयं) इस (दोस) दोस को (दळूणं) देखकर (नायपुत्तेण) तीर्थंकर श्रमण भगवान श्री महावीर ने (भासिय) कहा है। (निग्गंथा) निर्ग्रन्थ जो है वे (सव्वाहार) सब प्रकार के आहार को (राइभोयणं) रात्रि के भोजन अर्थात् रात्रि में (नो) नहीं (भुंजंति) भोगते हैं। भावार्थ : हे गौतम! रात्रि के समय भोजन करने में कई तरह के जीव भी खाने में आ जाते हैं। अतः उन जीवों की, भोजन करने वालों से हिंसा हो जाती है और वे फिर कई तरह के रोग भी पैदा करते हैं। अतः रात्रि भोजन करने में ऐसा दोष देखकर वीतरागों ने उपदेश किया है कि जो निर्ग्रन्थ होते हैं। वे सब प्रकार से खाने पीने की कोई भी वस्तु का रात्रि में सेवन नहीं करते हैं। मूलः पुढविं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए। अगणिसत्त्यं जहासुनिसियं, नजले नजलावएजेस भिक्खू।९।। छायाः पृथिवीं न खनेन्न खानयेत, शीतोदकं न पिवेन्न पाययेत्। अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितम्, तंन ज्वलेन्नज्वालयेत्यः स भिक्षुः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (पुढविं) पृथ्वी को स्वयं (न) नहीं (खणे) खोदे औरों से भी (न) न (खणावए) खुदवाए (सीओदगं) gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/102 poo000000000000ood Jain Ecdication international For Personal & Private Use Only 00000000000 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poo000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000 शीतोदक–सचितजल को (न) नहीं पीवे, औरों को भी (न) नहीं (पियावए) पिलावे; (जहा) जैसे (सुनिसिय) खूब अच्छी तरह तीक्ष्ण (सत्थं) शस्त्र होता है, उसी तरह (अगणि) अग्नि है (तं) उसको स्वयं (न) नहीं (जले) जलावे, औरों से भी (न) न (जलवाए) (स) वही (भिक्खु) साधु है। भावार्थ : हे गौतम! सर्वथा हिंसा से जो बचना चाहता है वह न स्वयं पृथ्वी को खोदे और न औरों से खुदवावे। इसी तरह न सचित्त (जिस में जीव हो उस) जल को खुद पीवें और न औरों को पिलावे। उसी तरह न अग्नि को भी स्वयं प्रदीप्त करे और न औरों ही से प्रदीप्त करवावे बस, वही साधु है। मुल: अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। बीयाणिसया विवज्जयंतो, सच्चित्तंनाहारएजेसभिक्खू||0|| छायाः अनिलेन न बीजयेत् न बीजायेत, हरितानि न न च्छिंदयेन्नच्छेदयेत्। बीजानि सदा विवर्जयन्, सचित्तं नाहरेद् यः स भिक्षुः।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (अनिलेण) वायु के हेतु पंखे को (न) नहीं (वीए) चलाता है और (न) न औरों से ही (वीयावए) चलवाता है (हरियाणि) वनस्पतियों को स्वतः (न) नहीं (छिंदे) छेदता और (न) न औरों ही से (छिंदावए) छिदवाता है, (बीयाणि) बीजो को छेदना (सया) सदा (विवज्जयंतो) छोड़ता हुआ (सच्चितं) सचित पदार्थ को जो (न) न (आहारए) खाता है। (स) वही (भिक्खू) साधु है। भावार्थ : हे गौतम! जिसने इन्द्रिय-जन्य सुखों की ओर से अपना मुँह मोड़ लिया है, वह कभी भी हवा के लिये पंखों का न तो स्वतः प्रयोग करता है और न औरों से उसका प्रयोग करवाता है और पान, फल, फूल आदि वनस्पतियों का भक्षण छोड़ता हुआ, सचित्त पदार्थों का कभी आहार नहीं करता, वही साधु है। तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी प्रकार का हिंसाजनक आरंभ नहीं करते। मूल : महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिण्डरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो||११|| छायाः मधुकरसमा बुद्धाः, ये भवन्त्यनिश्रिताः / नानापिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधवः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (महुकारसमा) जिस प्रकार थोड़ा थोड़ा रस लेकर भ्रमर जीवन बिताते हैं, ऐसे ही (जे) जो (दंता) इन्द्रियों को lgoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOO 10000000 00000 0000000000000000000000000000000 00000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/103 00000000000000 Jan Education International 00000000000000 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 18000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीतते हुए (नाणापिंडरया) नाना प्रकार के आहार में उद्वेग रहितरत रहने वाले हैं ऐसे (बुद्धा) तत्त्वज्ञ (अणिस्सिया) नेश्राय रहित (भवंति) होते हैं (तेण) इसी से उन्हें (साहुणो) साधु (वुच्चंति) कहते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार भ्रमर फूलों पर से थोड़ा थोड़ा रस लेकर अपना जीवन बिताता है। इस तरह जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए तीखे कडवे, मधुर आदि नाना प्रकार के भोजनों में उद्वेग रहित होते हैं तथा जो समय पर जैसा भी निर्दोष भोजन मिला, उसी को खाकर आनंदमय संयमी जीवन को निश्चित होकर बिताते हैं, उन्हीं को हे गौतम! साधु कहते हैं। मूल : जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठ||२|| छायाः यो न वन्देत् न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत्। एवमन्वेषमानस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो कोई गृहस्थ साधु को (न) नहीं (वंदे) वन्दना करता (से) वह साधु उस गृहस्थ पर (न) न (कुप्पे) क्रोध करें और (वंदिओ) वंदना करने पर (न) न (समुक्कसे) उत्कर्षता ही दिखावे (एवं) इस प्रकार (अन्नेसमाणस्स) गवेषणा करने वालों की (सामण्णं) श्रामण्य अर्थात् साधुता (अणुचिट्ठइ) बनी रहती है। ____भावार्थ : हे गौतम! साधु को कोई वन्दना करे या न करे तो उस जन या गृहस्थ पर वह साधु क्रोधित न हो। इस प्रकार चारित्र को दूषित करने वाले दूषणों को देखता हुआ उनसे बाल बाल बचता रहे उसी का चारित्र अखण्ड रहता है। मूल : पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी। सुहमे उ सया अलूसए, णो कुज्झे णो माणि माहणे।।१३।। छाया : प्रज्ञा समाप्तः सदा जयेत्, समतया धर्म मुदाहरे न्मुनिः। सूक्ष्मे तु अलूषकः, न क्रुध्येन्न मानी माहन्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मुणी) वह साधु (पण्णसमत्ते) समग्र प्रज्ञा करके सहित तथा प्रश्न करने पर उत्तर देने में समर्थ (सया) हमेशा (जए) कषायादि को जीते (समताधम्ममुदाहरे) समभाव से धर्म को कहता हो, और (सया) सदैव (सुहमे) सूक्ष्म चारित्र में (अलूसए) अविराधक हो, उन्हें ताड़ने पर (णो) नहीं (कुज्झे) क्रोधित हो एवं सत्कार करने पर (णो) नहीं (माणि) मानी हो, वही (माहणे) साधु है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000060 निर्ग्रन्थ प्रवचन/104 000000000ood ooooooooooo For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! तीक्ष्ण बुद्धि से, प्रश्न करने पर जो शान्ति से उत्तर देने में समर्थ हो, समता भाव से जो धर्म कथा कहता हो, चरित्र में सूक्ष्म रीति से भी जो विराधक न हो, ताड़ने तर्जने पर क्रोधित और सत्कार करने पर गर्वान्वित जो न होता हो, सचमुच में वही साधु पुरुष है। मूलः न तस्स जाई व कुलं व ताणं, णण्णत्य विज्जाचरणं सुचिन्न। णिवखम से सेवइ गारिकम्म, णसे पारए होइ विमोयणाए||१४|| छायाः न तस्य जातिर्वा कुलं वा त्राणं, नान्यत्र विद्या चरणं सचीर्णम। निष्क्रम्य सः सेवतेऽगारिकर्म, न सः पारगो भवति विमोचनाय।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सुचिन्नं) अच्छी तरह आचरण किये हुए (चरण) चारित्र (विज्जा) ज्ञान के (णण्णत्थ) सिवाय (तस्स) उसके (जाई) जाति (व) और (कुल) कुल (ताणं) शरण (न) नहीं होता हैं। जो (से) वह (णिक्खम) संसार के प्रपंच से निकलकर (गारिकम्म) पुनः गृहस्थ कर्म (सेवइ) सेवन करता (से) वह (विमोयणाए) कर्म मुक्त करने के लिए (पारए) संसार से परले पार (ण) नहीं (होइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! साधु होकर जाति और कुल का जो मद करता है, इसमें उसकी साधुता नहीं है। प्रत्युत यह गर्व मुक्ति प्रदाता न होकर हीन जाति और कुल में पैदा करने की सामग्री एकत्रित करता है। केवल ज्ञान एवं क्रिया के सिवाय और कुछ भी परलोक में हितकारक नहीं है और साधु होकर गृहस्थ जैसे कार्य फिर करता है वह संसार समुद्र से परले पार होने में समर्थ नहीं है। मूलः एवं ण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खु विउक्कसेज्जा। अहवा विजे लाभमयावलिते, अन्नं जणं खिंसति बालपन्ने||१५|| छायाः एवं न स भवति समाधिप्राप्तः, य प्रज्ञया भिक्षुः व्युत्कर्षेत्। अथवाऽपि यो लाममदावलिप्तः, अन्यंजनं खिंसति बालप्रज्ञः।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इस प्रकार से (से) वह गर्व करने वाला साधु (समाहिपत्ते) समाधि मार्ग को प्राप्त (ण) नहीं (होइ) होता है और (जे) जो (पन्नवं) प्रज्ञावंत (भिक्खु) साधु होकर (विउक्कसेज्जा) आत्म प्रशंसा करता है। (अहवा) अथवा (जे) जो (लाभमयावलित्ते) लाभ मद में लिप्त हो रहा है वह (बालपन्ने) मूर्ख (अन्न) अन्य (जणं) जनकी (खिंसति) निन्दा करता है। भावार्थ : हे गौतम! मैं जातिवान हूँ, कुलवान हूँ। इस प्रकार का गर्व करने वाला साधु समाधि मार्ग को कभी प्राप्त नहीं होता है। जो 0000000000000000000000000000000000000000000p निर्ग्रन्थ प्रवचन/105 Sooooooooooooooooon For Personal & Private Use Only 00000000000000 . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl Po00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 बुद्धिमान होकर भी अपने आप ही की आत्म प्रशंसा करता है, अथवा यों कहता है, कि मैं ही साधुओं के लिये वस्त्र, पात्र आदि का प्रबंध करता हूँ। बेचारा दूसरा क्या कर सकता है?वह तो पेट भरने तक की चिन्ता दूर नहीं कर सकता, इस तरह दूसरों की निन्दा जो करता है, वह साधु कभी नहीं है। मूलः न पूयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। सब्वे अणढ़े परिवज्जयंते, आणाउले या अकसाइ भिक्खू||१६|| छायाः न पूजनं चैव श्लोककामी, प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात्। सर्वानर्थान् परिवर्जयन्, अनाकुलश्च अकषायी भिक्षुः / / 16 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भिक्खू) साधु (पूयणं) वस्त्र पत्रादि की (न) इच्छा न करे (चेव) और न (सिलोयकामी) आत्मा प्रशंसा का कामी ही हो (कस्सइ) किसी के साथ (पियमप्पियं) राग और द्वेष (णो) न (करेज्जा) करे (सव्वे) सभी (अणठे) अनर्थकारी बातों को जो (परिवज्जयते) छोड़ दे (आणाउले) फिर भय रहित (या) और (अकसाइ) कषाय रहित हो। __भावार्थ : हे गौतम! साधु प्रवचन करते समय वस्त्रादि की प्राप्ति की एवं आत्मा प्रशंसा की वांछा कभी न रखे या किसी के साथ राग और द्वेष से संबंध रखने वाले कथन को भी वह न करे। इस प्रकार आत्मा कलुषित करने वाली सभी अनर्थकारी बातों को छोड़ते हुए भय एवं कषाय रहित होकर साधु को प्रवचन करना चाहिए। मूल: जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमचम। तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरियसम्मए||१७|| छायाः यया श्रद्धया निष्क्रान्तः, पर्यापस्थानमुत्तमम्। तदेवानुपालयेत्, गुणेषु आचार्यसम्मतेषु।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जाए) जिस (सद्धाए) श्रद्धा से (उत्तम) प्रधान (परियायट्ठाणं) प्रव्रज्या स्थान प्राप्त करने को (निक्खंतो) मायामय कर्मों से निकला (तमेव) वैसी ही उच्च भावनाओं से (आयरियसम्मए) तीर्थंकर कथित (गुणे) गुण (अणुपालिज्जा) पालना चाहिए। ___ भावार्थ : हे गौतम! जो गृहस्थ जिस श्रद्धा से प्रधान दीक्षा स्थान प्राप्त करने को मायामय काम रूप संसार से पृथक हुआ, उसी भावना से जीवन पर्यंत उसको तीर्थंकर प्ररूपित गुणों में वृद्धि करते रहना चाहिये। gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000064 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1063 dooooooooooooooooobi Jain Educaton International For Personal & Private Use Only 0000000000000000 www.jainelibraly.brg Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ROO00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 >0000000000 * अध्याय दस - प्रमाद परिहार ॥श्रीभगवानुवाच|| मूल : दुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणुआण जीविअं, समयं गोयम! मा पमायए||१|| छायाः द्रुमपत्रकं पाण्डुरकं यथा, निपतति रात्रिगणाणामत्यये। एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (जहा) जैसे (राइगणाणअच्चए) रात दिन के समूह बीत जाने पर (पंडुए) पक जाने से (दुमपत्तए) वृक्ष का पत्ता (निवडइ) गिर जाता है (एव) ऐसे ही (मणुआणं) मनुष्यों का (जीविअं) जीवन है। अतः (समय) एक समय मात्र के लिए भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जैसे समय पाकर वृक्ष के पत्ते पीले पड़ जाते हैं, फिर वे पक कर गिर जाते हैं। उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी नाशशील है। अतः हे गौतम! धर्म का पालन करने में एक क्षणमात्र भी व्यर्थ मत गंवाओ। मूल : कुसम्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणए। एवं मणुआण जीविअं, समय गोयम! मा पमायए||२|| छायाः कुशग्रे यथाऽवश्यायविन्दुः, स्तोकं तिष्ठति लम्बमानकः / एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 2 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (जह) जैसे (कुसग्गे) कुश के अग्रभाग पर (लंबमाणए) लटकती हुई (ओसबिंदुए) ओस की बूंद (थोवं) अल्प समय (चिट्ठइ) रहती है (एवं) इसी प्रकार (मणुआणं) मनुष्य का (जीविअं) जीवन है। अतः (समय) एक समय मात्र (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जैसे घास के अग्रभाग पर तरल ओस की बूंद थोड़े ही समय तक टिक सकती है। ऐसे ही मानव शरीर धारियों का जीवन है। अतः हे गौतम! जरा से समय के लिए भी गाफिल मत रहे। मूल : इह इत्तरिअम्मि आउए, जीविअए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयं पुरेकडं, समयं गोयम! मां पमायए||३|| निर्ग्रन्थ प्रवचन/107 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 500000000000 0000000000 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OO000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 छाया: इतीत्वर आयुषि, जीवितके बह प्रत्यवायके। विधुनीहि रजः पुराकृतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 3 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (इइ) इस प्रकार (आउए) निरुपक्रम आयुष्य (इत्तरिअम्मि) अल्पकाल का होता हुआ और (जीविअए) जीवन सोपक्रमी होता हुआ (बहुपच्चवायए) बहुत विघ्नों से घिरा हुआ समझ करके (पुरेकंड) पहले से ही जमी हुई (रय) कर्म रूपी रज को (विहुणाहि) दूर करो, इस कार्य में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जिसे शस्त्र, विष, आदि उपक्रम भी बाधा नहीं पहुंचा सकते, ऐसा नोपक्रमी (अकाल मृत्यु से रहित) आयुष्य भी थोड़ा होता है और शस्त्र, विष आदि से जिसे बाधा पहंच सके ऐसा सोपक्रमी जीवन थोड़ा ही है। उसमें भी ज्वर, खांसी आदि अनेक व्याधियों का विघ्न भरा पड़ा होता है। ऐसा समझकर हे गौतम! पूर्व के किये हुए कर्मों को दूर करने में क्षण भर का भी प्रमाद न करो। मूल : दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सबपाणिणं| गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम! मापमायए||४|| छायाः दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् / गाढ़ाश्च विपाकाः कर्मणां, संयम गौतम! मा प्रमादीः।।४|| अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (सव्वपाणिणं) सब प्राणियों को (चिरकालेण वि) बहुत काल से भी (खलु) निश्चय करके (माणुसे) मनुष्य (भवे) भव (दुल्लहे) मिलना कठिन है। (य) क्योंकि (कम्मुणो) कर्मों के (विवाग) विपाक को (गाढ़ा) नाश करना कठिन है। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जीवों को एकेन्द्रिय आदि योनियों में इधरउधर जन्मते रहते हुए बहुत काल गया। परंतु दुर्लभ मनुष्य जन्म नहीं मिला। क्योंकि मनुष्य जन्म के प्राप्त होने में जो रोड़ा अटकाते हैं ऐसे कर्मों का विपाक नाश करने में महान कठिनाई है। अतः हे गौतम! मानव देह पाकर पल भर भी प्रमाद मत कर। मूल: पुढविकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायएllll छायाः पृथिवीकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् / कालं संख्यातीतं, संयम गौतम! मा प्रमादीः / / 5 / / 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/108 000000000000oodh 0000000000000 , For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000 00000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (पुढविकायमइगओ) पृथ्वीकाय में गया हुआ (जीवो) जीव (उक्कोस) उत्कृष्ट (संखाइयं) संख्या से अतीत अर्थात् असंख्य (काल) काल तक (संवसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! यह जीव पृथ्वी काय में जन्म-मरण को धारण करता हुआ उत्कृष्ट असंख्य काल अर्थात् असंख्य अपसर्पिणि उत्सर्पिणी काल तक को बिताता रहता है। अतः हे मानव देहधारी गौतम! तुझे एक क्षण मात्र की भी गफलत करना उचित नहीं है। मूल : आउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उसंवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए||६|| तेउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उसंवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए||७|| वाउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायएllll छाया: अपकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। कालं संख्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।६।। तेजः कायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। कालं संख्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 7 / / वायुकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। कालं संख्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 8 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (जीवो) जीव (आउक्कायमइगओ) अपकाया को प्राप्त हुआ (उक्कोस) उत्कृष्ट (संखाईयं) असंख्यात (काल) काल तक (संवसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर / / 6 / / इसी तरह (तेउक्कायमइगओ) अग्निकाय को प्राप्त हुआ जीव और (वाउकायमइगओ) वायुकाय को प्राप्त हुआ जीव असंख्य काल तक रह जाता है। भावार्थ : हे गौतम! इसी तरह यह आत्मा जल, अग्नि तथा वायुकाय में असंख्य काल तक जन्म मरण को धारण करता रहता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि मानव जन्म मिलना महान कठिन है। अतएव हे गौतम! तुझे धर्म का पालन करने में तनिक भी गाफिल न रहना चाहिए। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops 5000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/109 Jain Edacation internauonal For Personal & Private Use Only boooo000000000000 POP Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000p 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 मूल : वणस्सइकायमइगओ, उक्कोसंजीवो उ संवसे। कालमणंतं दुरंतयं, समयं गोयम! मा पमायए|९|| छायाः वनस्पतिकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। - कालमनन्तं दुरन्तं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 6 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (वणस्सइकायमइगओ) वनस्पति काय में गया हुआ (जीवो) जीव (उक्कोस) उत्कृष्ट (दुरंतयं) कठिनाई से अन्त आवे ऐसा (अणत) अनंत (काल) काल तक (संवसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। ___भावार्थ : हे गौतम! यह आत्मा वनस्पतिकाय में अपने कृत कर्मों द्वारा जन्म मरण करता है, तो उत्कृष्ट अनंत काल तक उसी में गोता लगाया करता है और इसी से उस आत्मा को मानव शरीर मिलना कठिन हो जाता है। इसलिए हे गौतम! पल भर के लिए भी प्रमाद मत कर। मूल : बेइंदिअकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखिज्जसण्णिअं, समयं गोयम! मा पमायए||१०|| छायाः द्वीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् / कालं संख्येय सज्ञित, समय गौतम! मा प्रमादीः / / 10 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (बेइंदिअकायमइगओ) द्वीन्द्रिय योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव (उक्कोस) उत्कृष्ट (संखिज्जसंण्णिअं) संख्या की संज्ञा है, जहां तक ऐसे (काल) काल तक (संवसे) रहता है। अतः समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जब यह आत्मा दो इंद्रिय वाली योगियों में जाकर जन्म धारण करता है तो काल गणना की जहां तक संख्या बताई जाती है। वहां तक अर्थात् संख्याता काल तक उसी योनि में जन्म मरण को धारण करता रहता है। अतः हे गौतम! क्षणमात्र का भी प्रमाद न कर। मूल : तेइंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखिज्जसांण्णिआ समयं गोयम! मा पमायए।।११।। चउरिंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखिज्जसंण्णिअं, समयं गोयम! मा पमाया१२|| 900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1106 0000000000oothi boo0000000000000 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope B000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः त्रीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।११।। चतुरिन्द्रिय काय मतिगतः उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। कालं संख्येय संज्ञितं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 12 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे इन्द्रभूति! (तेइंदियकायमइगओ) तीन इन्द्रिय वाली योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव (उक्कोस) उत्कृष्ट (संखिज्जसंण्णाअं) काल गणना की जहां तक संख्या बताई जाती है वहां तक अर्थात् संख्यात् (काल) काल तक (संवसे) रहता है। इसी तरह (चउरिदियकायमइगओ) चतुरिंद्रिय वाली योनि को प्राप्त हुए जीव के लिए भी जानना चाहिए अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जब यह आत्मा तीन इन्द्रिय तथा चार इन्द्रिय वाली योनि में जाता है तो अधिक से अधिक संख्याता काल तक उन्हीं योनियों में जन्म मरण को धारण करता रहता है। अतः हे गौतम! धर्म की वृद्धि करने में एक पल भर का भी कभी प्रमाद न कर / मूल : पंचिंदियकाय मइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। सचट्ठभवग्गहणे, समयं गोयम! मा पमायए||१३|| छायाः पंचेन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। सप्ताष्ट भवग्रहणानि, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१३।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (पंचिंदियकायमइगओ) पांच इन्द्रिय वाली योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव (उक्कोस) उत्कृष्ट (सत्तट्ठभवग्गहणे) सात आठ भव तक (संवसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा-पमायए) प्रमाद मत कर / भावार्थ : हे गौतम! यह आत्मा पंचेन्द्रियवाली तिर्यंच की योनियों में जब जाता है, तब यह अधिक से अधिक सात आठ भव तक उसी योनि में निवास करता हैं, अतः हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर। मूल : देवे नेरइए अइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। इक्किक्कभवग्गहणे, समयं गोयम! मा पमायए||१४|| goooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000004 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1113 ON. oooooooooooooooooth For Personal & Private Use Only 000000000000 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 00000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः देवेनैरयिकेचातिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। ____एकैक भवग्रहणं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 14 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (देवे) देव (नेरइए) नारकीय भवों में (अइगओ) गया हुआ (जीवो) जीव (इक्किक्कभवग्गहणे) एक एक भव तक उसमें (संवसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद कभी मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जब यह आत्मा देव अथवा नारकीय भवों में जन्म लेता है तो वहां एक एक जन्म तक अवश्य रहता है (बीच में नहीं निकल सकता) अतएव हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल: एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहि। जीवोपमायबहुलो, समयं गोयम! मा पमायए||१५|| छायाः एवं भवसंसारे, संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः / जीवो बहुल प्रमादः समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१५।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (एवं) इस प्रकार (भवसंसारे) जन्म मरण रूप संसार में (पमायबहुलो) अति प्रमाद वाला (जीवो) जीव (सहासुहेहिं) शुभ-अशुभ (कम्मेहिं) कर्मों के कारण से (संसरइ) भ्रमण करता रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। - भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि एकेन्द्रिय दैन्द्रिय, तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय वाली तिर्यंच योनियों में एवं देव तथा नरक में संख्याता, असंख्याता और अनंत काल तक अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण यह जीव भटकता फिरता है। इसी से कहा गया है कि इस आत्मा को मनुष्य भव मिलना महान एवं कठिन अवसर है। इसलिए मानव देहधारी हे गौतम! अपनी आत्मा को उत्तम अवस्था में पहुँचाने के लिए मुहुर्त मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर। मूल: लण वि माणुसत्तणं, आरियत्तं पुणरावि दुल्लहं। बहवे दसुआ मिलक्खुआ, समयं गोयम! मा पमायए||१६|| छायाः लब्ध्वाऽपि मानुषत्वं, आर्यत्वं पुनरपि दुर्लभम्। बहवो दस्यवो म्लेच्छाः , समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१६।। 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope oo00000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/112 car personal & Private Use Only D000000000000 For Personal & Private Use Only ional Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000cpa 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (माणुसत्तणं) मनुष्यत्व (लद्धूणवि) प्राप्त हो जाने पर भी (पुणरावि) फिर (आरिअत्तं) आर्यत्व का मिलना (दुल्लह) दुर्लभ है। क्योंकि (बहवे) बहुतो को यदि मनुष्य भव मिल भी गया तो वे (दसुआ) चोर और (मिलक्खुआ) म्लेच्छ हो गये अतः (समय) समय मात्र का भी (पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! यदि इस जीव को मनुष्य जन्म मिल भी गया तो आर्य होने का सौभाग्य प्राप्त होना महान् दुर्लभ है। क्योंकि बहुत से नाम मात्र के मनुष्य अनार्य क्षेत्रों में रहकर चारी वगैरह करके अपना जीवन बिताते हैं। ऐसे नाम मात्र के मनुष्यों की कोटि में और म्लेच्छ जाति में जहां कि घोर हिंसा के कारण जीव कभी ऊँचा नहीं उठता ऐसा जाति और देश में जीव ने मनुष्य देह पा भी ली तो किस काम की! इसलिए आर्य देश में जन्म लेने वाले और कर्मों से आर्य हे गौतम! एक पल भर का भी प्रमाद मत कर। मूल: लणवि आरियत्तणं, अहीणपंचिंदियया हुदुल्लहा। विगलिंदियया हु दीसई, समयं गोयमा मा पमायए||१७|| छायाः लब्ध्वाऽप्यार्यत्वं, अहीनपञ्चेन्द्रियता हि दुर्लभा। विकलेन्द्रियता हि दृश्यते, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१७।। 3 अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (आरियत्तणं) आर्यत्व के (लक्षूण वि) प्राप्त होने पर भी (हु) पुनः (अहीणपंचिंदियया) अहीन पंचेन्द्रियपन मिलना (दुल्लहा) दुर्लभ है (हु) क्योंकि अधिकतर (विंगलिदियया) विकलेन्द्रिय वाले (दीसई) दीख पड़ते हैं अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। _भावार्थ : हे गौतम! मानव देह आर्य देश में भी पा गया परन्तु सम्पूर्ण इन्द्रियों की शक्ति सहित मानव देह मिलना महान कठिन है। क्योंकि बहुत से ऐसे मनुष्य देखने में आते हैं कि जिनकी इन्द्रियाँ विकल हैं। जो कानों से बधिर हैं। जो आंखों से अंधे या पैरों से अपंग हैं। इसलिए सशक्त इन्द्रियों वाले हे गौतम! चौदहवां गुणस्थान प्राप्त करने में कभी आलस्य मत कर। मूल: अहीणपंचिंदियत्त पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा। / कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम! मा पमायए||१८ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000067 -निर्ग्रन्थ प्रवचन/113 b00000000000000000 For Personal & Private Use Only TO Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ag000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 9000000000000000000 300000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छाया: अहीनपञ्चेन्द्रियत्वमपि स लभते, उत्तमधर्मश्रुतिर्हि दुर्लभा। कुतीर्थिनिषेवको जनो, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१८।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (अहीणपंचिंदियत्तं पि) पांचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता भी (से) वह जीव (लहे) प्राप्त करे तदपि (उत्तमधम्मसुई) यथार्थ धर्म का श्रवण होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। (ह) निश्रय करके, क्योंकि (जणे) बहुत से मनुष्य (कुतित्थिनिसेवए) कुतीर्थी की उपासना करने वाले हैं। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। ___भावार्थ : हे गौतम! पाँचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता वाले देह को आर्य देश में मनुष्य जन्म मिल भी गया तो अच्छे शास्त्र का श्रवण मिलना और भी कठिन है। क्योंकि बहुत से मनुष्य जो इह लौकिक सुखों को ही धर्म का रूप देने वाले हैं कुतीर्थी हैं। नाम मात्र के गुरु कहलाते हैं। उनकी उपासना करने वाले हैं। इसलिए उत्तम शास्त्र के श्रोता हे गौतम! कर्मों का नाश करने में तनिक भी ढील मत कर। मूल: लणवि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा| मिच्छतनिसेवए जणे, समयं गोयमा! मा पमायए||९|| छायाः लब्ध्वाऽपि उत्तमां श्रुति, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम्। मिथ्यात्वनिषेवको जनो, समयं गौतम! मा प्रमादी।।१६ / / ___ अन्वयार्थ : (गोयम) हे गौतम! (उत्तम) प्रधान शास्त्र (सुइ) श्रवण (लक्षूण वि) मिलने पर भी (पुणरावि) पुनः (सद्दहणा) उस पर श्रद्धा होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। क्योंकि (जणे) बहुत से मनुष्य (मिच्छत्तनिसेवए) मिथ्यात्व का सेवन करते हैं। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! सच्छास्त्र का श्रवण भी हो जाए तो भी उस पर श्रद्धा होना महान कठिन है क्योंकि बहुत से ऐसे भी मनुष्य हैं जो सच्छास्त्र श्रवण करके भी मिथ्यात्व का बड़े ही जोरों के साथ सेवन करते हैं। अतः हे श्रद्धावान गौतम! सिद्धावस्था को प्राप्त करने में आलस्य मत कर। मूल: धम्मं पिहुसद्दहंतया, दुल्लहयाकाएणफासया। इह कामगुणोहिमुच्छिया, समयंगोयम! मापमायए||२०|| 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000ps निर्ग्रन्थ प्रवचन/114 DJoo0000000000000000a Soooo000000000000 For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः धर्ममपि हि श्रद्दधतः, दुर्लभकाः कायेन स्पर्शकाः। इह कामगुणै मूर्छिताः, समयं गौतम! मा प्रमादी।।२०।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (धम्मं पि) धर्म को भी (सद्दहंतया) श्रद्धते हुए (काएण) काया करके (फासया) स्पर्श करना (दुल्लहया) दुर्लभ है (ह) क्योंकि (इह) इस संसार में बहुत से जन (कामगुणेहि) भोगादि के विषयों से (मच्छिया) मूर्छित हो रहे हैं अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। _भावार्थ : हे गौतम! प्रधान धर्म पर श्रद्धा होने पर भी उसके अनुसार चलना ओर भी कठिन है। धर्म को सत्य कहने वाले वाचाल तो बहुत लोग मिलेंगे पर उसके अनुसार अपना जीवन बिताने वाले बहुत ही थोड़े देखे जावेंगे। क्योंकि इस संसार के काम भोगों से मोहित हाकर अनेकों प्राणी अपना अमूलय समय अपने हाथों सेखो रहे हैं। इसलिए श्रद्धापूर्वक क्रिया करने वाले हे गोतम! कर्मों का नाश करने में एक क्षणमात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल : परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते से सोयबले य हायई, समयं गोयम! मा पमायए||२१|| छायाः परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। . तत् श्रोत्रबलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 21 / / - अन्वयार्थ : (गोयम) हे गौतम! (ते) तेरा (सरीरयं) शरीर (परिजूरइ) जीर्ण होते जा रहा है। (ते) तेरे (केसा) बाल (पंडुरया) सफेद (हवंति) होते जा रहे हैं। (य) और (से) वह शक्ति जो पहले थी (सोयबले) श्रोतेन्द्रिय की शक्ति अथवा 'सव्वबले" कान, नाक, आंख, जिह्वा आदि की शक्ति (हायई) हीन होती जा रही है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। _भावार्थ : हे गौतम! आये दिन तेरी वृद्धावस्था निकट आती जा रही है। बाल सफेद होते जा रहे हैं और कान, नाक, आंख, जीभ, शरीर, हाथ, पैर आदि की शक्ति भी पहले की अपेक्षा न्यून होती जा रही है। अतः हे गौतम! समय को भी अमूल्य समझकर धर्म का पालन करने में क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। मूलः अरई गंडं विसूइया, आयंका विविहा फुसंति ते| विहडइ विद्धंसइतेसरीरयं, समयंगोयम! मापमायए||२२|| 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool 000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/115 Soooo00000000000000 Jan Education International boo000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 agoo000000000000000000 DOG 1000 ooooood DOOOOOOOK 000000K छायाः अरतिगण्डं विसूचिका, आतंका विविधा स्पृशन्ति ते। विह्नियते विध्वस्यति ते शरीरकं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 22 / / अन्वयार्थ : (गोतम) हे गौतम! (अरई) चित्त को उद्वेग (गंड) गांठ गूमड़े (विसूइया) दस्त उल्टी और (विविहा) विविध प्रकार के (आयंका) प्राण घातक रोगों को (ते) तेरे जैसे ये बहुत से मानव शरीर (फुसंति) स्पर्श करते हैं (ते सरीरयं) तेरे जैसे ये बहुत मानव शरीर (विहडइ) बल की हीनता से गिरते जा रहे हैं और (विद्धंसइ) अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! यह मानव शरीर उद्वेग, गांठ, गूमड़ी (फंसी), वमन, विरेचन और प्राणघातक रोगों का घर है और अन्त में बलहीन होकर मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है। अतः मानव शरीर को ऐसे रोगों का घर समझ कर हे गौतम! मुक्ति को पाने में विलम्ब मत कर। मूल: वोच्छिंद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं वा पाणियं| से सबसिणेह वज्जिए, समयं गोयम, मा पमायए||२३|| छायाः व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः, कुमुद्र शारदमिव पानीयम्। तत् सर्वस्नेहवर्जितः समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 23 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (सारइयं) शरद ऋतु के (कुमुयं) कुमुद (पाणिय) पानी को (वा) जैसे त्याग देते हैं। ऐसे ही (अप्पणो) तू अपने (सिणेह) स्नेह को (वोछिंद) दूर कर (से) इसलिये (सव्वसिणेहवज्जिए) सर्व प्रकार के स्नेह को त्यागता हुआ (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! शरद ऋतु का चन्द्र विकासी कमल जैसे पानी को अपने से पृथक कर देता है। उसी तरह तू अपने मोह को दूर करने में समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल : चिच्चाण धणंच भारियं, पबइओ हि सि अणगारिया मा वंतं पुणो वि आविए, समयं गोयम! मा पमायए||२४|| छायाः त्यक्त्वा धनं च भार्यां, प्रवजितो ह्यस्य अनगारताम्। मा वान्तं पुनरप्यापिवेः, समयं गौतम् मा प्रमादीः।।२४।। अन्वयार्थ : (गोयम) हे गौतम! (हि) यदि तूने (धणं) धन (च) और (भारियं) भार्या को (चिच्चाण) छोड़कर (अणगारियं) साधुयन को 00000000000000000000000000000000000000000000000oog 00000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/116 00000000000000000 0000000000000oob.in For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jg000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 (पव्वइओसि) प्राप्त कर लिया है। अतः (वंत) वमन किये हुए को (पुणो वि) फिर भी (मा) मत (आविए) पी, प्रत्युत त्यागवृत्ति को निश्चल रखने में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर।। भावार्थ : हे गौतम! तूने धन और स्त्री को त्याग कर साधु वृत्ति को धारण करने की मन में इच्छा कर ली है। तो उन त्यागे हुए विषैले पदार्थों का पुनः सेवन करने की इच्छा मत कर। प्रत्युत त्याग वृत्ति को दृढ़ करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर। मूल : नहु जिणे अज्ज दिसई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए। संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए||२५|| छाया: नखलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदेशकः / सम्प्रति नैयायिके पथि, समय गौतम! मा प्रमादीः / / 25 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (अज्ज) आज (ह) निश्चय करके (जिणे) तीर्थंकर (न) नहीं (दिसई) दिखते हैं, किन्तु (मग्गदेसिए) मार्गदर्शक और (बहुमए) बहुतो का माननीय मोक्षमार्ग (दिस्सई) दिखता है। ऐसा कहकर पंचम काल के लोग धर्मध्यान करेंगे। तो भला (संपइ) वर्तमान में मेरे मौजूद होते हुए (नेयाउए) नैयायिक (पहे) मार्ग में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। ___भावार्थ : हे गौतम! पंचम काल में लोग कहेंगे कि आज तीर्थंकर तो हैं नहीं, पर तीर्थंकर प्ररूपित मार्गदर्शक और अनेकों के द्वारा माननीय यह मोक्षमार्ग है; ऐसा वे सम्यक् प्रकार से समझते हुए धर्म की आराधना करने में प्रमाद नहीं करेंगे। तो मेरे मौजूद रहते हुए न्याय पथ से साध्य स्थान पर पहुंचने के लिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूलः अवसोहिय कंटगापहं, ओइण्णो सि पहं महालयं| गच्छसिमग्गं विसोहिया, समयंगोयम! मापमायए||२६|| छायाः अवशोध्य कण्टकपथं, अवतीर्णोऽसि पन्थानं महालयं। ___ गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 26 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (कंटगापह) कंटक सहित पंथ को (अवसोहिया) छोड़ कर (महालय) विशाल मार्ग को (ओइण्णोसि) प्राप्त होता हुआ, उसी (विसोहिया) विशेष प्रकार से शोधित (मग्गं) मार्ग को 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mo00000000000000000 Jair Education International निर्ग्रन्थ प्रवचन/117 0000000000 For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000 soooooooooooo 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (गच्छसि) जाता है। अतः इसी मार्ग को तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। ___भावार्थ : हे गौतम! संकुचित अतथ्य पथ को छोड़कर जो तूने विशाल तथ्य मार्ग को प्राप्त कर लिया है और उसके अनुसार तू उसी विशाल मार्ग का पथिक भी बन चुका है। अतः इसी मार्ग से अपने निजी स्थान पर पहुंचने के लिए हे गौतम! तू एक समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल : अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम! मा पमायए||२७|| छायाः अबलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषममव गाह्य। पश्चात्पश्चादनुताप्यते, समय गौतम! मा प्रमादीः / / 2 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (जह) जैसे (अबले) बल रहित (भारवाहए) बोझा ढ़ोने वाला मनुष्य (विसमे) विषम (मग्गे) मार्ग में (अवगाहिया) प्रवेश हो कर (पच्छा) फिर (पच्छाणुतावए) पश्चाताप करता है। (मा) ऐसा मत बन / परन्तु जो सरल मार्ग मिला है उसको तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जैसे एक दुर्बल आदमी बोझा उठाकर विकट मार्ग में चले जाने पर महान पश्चाताप करता है। ऐसे ही जो नर अल्पज्ञों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को ग्रहण कर कुपंथ के पथिक होंगे, वे चौरासी की चक्र फेरी में जा पड़ेंगे और वहां वे महाने कष्ट उठावेंगे। अतः पश्चाताप करने का मौका न आवे ऐसा कार्य करने में हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। मूल: तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुरं पारंगमित्तए, समयं गोयम! मा पमायए||२|| छायाः तीर्णः खल्वस्यर्णवं महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः। अभित्वरस्व पारं गन्त, समयं गौतम! मा प्रमादी।।२८।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (मह) बड़ा (अण्णवं) समुद्र (तिण्णो हु सि) मानो तू पार कर गया (पुण) फिर (तीरमागओ) किनारे पर आया हुआ (किं) क्यों (चिट्ठसि) रूक रहा है। अतः (पार) परले पार (गमितए) जाने के लिए (अभितुर) शीघ्रता कर, ऐसा करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/118 Sooo000000000000000 000000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! अपने आपको संसार रूप महान समुद्र के पार गया हुआ समझकर फिर उस किनारे पर ही क्यों रुक जाता है?पार होने के लिए अर्थात् "मुक्ति में जाने के लिए शीघ्रता कर!" ऐसा करने में हे गौतम तू क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। मूल : अकलेवरसेणिमूसिया, सिद्धिं गोयम! लोयं गच्छसि। खेवं च सिवं अणुचरं, समयं गोयम! मा पमायए||२९|| छाया: अकलेवर श्रेणि मुच्छित्य, सिद्धिं गौतम! लोकंगच्छसि। क्षेमं च शिवमनुत्तरं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 26 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (अकलेवरसेणिं) कलेवर रहित होने में सहायक भूत श्रेणी को (ऊसिआ) बढ़ाकर अर्थात् प्राप्त कर (खेम) पर चक्र का भय रहित (च) और (सिव) उपद्रव रहित (अणुत्तर) प्रधान (सिद्धिं) सिद्धि (लोय) लोक को (गच्छसि) जाना ही है, फिर (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! सिद्ध पद पाने में जो शुभ अध्यवसाय रूप क्षपक श्रेणि सहायक भूत है, उसे पाकर एवं उत्तरोत्तर उसे बढ़ाकर, भय एवं उपद्रव रहित अटल सुखों का जो स्थान है, वहीं तुझे जाना है। अतः हे गौतम! धर्म आराधना करने में पल मात्र की भी ढ़ील मत कर। इस प्रकार निर्ग्रन्थ की ये सम्पूर्ण शिक्षाएँ प्रत्येक मानव देहधारी को अपने लिए भी समझना चाहिए और धर्म की अधराधना करने में पल भर का भी प्रमाद कभी न करना चाहिए। goo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000 5000000000000000000000000000000000000000opl 00000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/119 500000000000000000 Sanducation International For Personal & Private Use Only 00000000000000 , Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000006/ 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oon अध्याय ग्यारह - भाषा स्वरूप एवं प्रयोग ॥श्रीभगवानुवाच।। मूल : जाय सच्चा अवतव्वा, सच्चामोसाय जा मुसा जाय बुद्धेहिऽणाइण्णा, नतं भासिज्ज पन्नवं||१|| छायाः या च सत्याऽवक्तव्या, सत्यामृषा च या मृषा। ___या च बुद्ध चीणा, न ता भाषेत प्रज्ञावान।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जा) जो (सच्चा) सत्य भाषा है, तदपि वह (अवत्तव्वा) नहीं बोलने योग्य (य) और (जा) जो (सच्चामोसा) कुछ सत्य कुछ असत्य ऐसी मिश्रित भाषा (य) और (मुसा) झूठ, इस प्रकार (जा) जो भाषाएँ (बुद्धेहि) तीर्थंकरों द्वारा (अणाइण्णा) अनाचीर्ण हैं (तं) उन भाषाओं को (पन्नवं) प्रज्ञावान् पुरुष (न भासिज्ज) कभी नहीं बोलते। भावार्थ : हे गौतम! सत्य भाषा होते हुए भी यदि सावध है जो बोलने के योग्य नहीं है, और कुछ सत्य कुछ असत्य ऐसी मिश्रित भाषा तथा बिलकुल असत्य ऐसी जो भाषाएँ है। जिनका कि तीर्थंकरों ने प्रयोग नहीं किया और बोलने के लिए निषेध किया है, ऐसी भाषा बुद्धिमान् मनुष्य को कभी नहीं बोलनी चाहिये। मूल: असच्चमोसं सच्चं च, अणवज्जमकक्कसं। समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरंभासिज्ज पन्नवं||२|| छायाः असत्या मृषां सत्यांच, अनवद्यामकर्कशाम्। समुत्प्रेक्ष्याऽसंदिग्धां, गिरं भाषेत प्रज्ञावान्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (असच्चमोसं) व्यावहारिक भाषा (च) और (अणवज्ज) बध्य रहित (अकक्कस) कर्कशता रहित (असंदिद्ध) संदेह रहित (समुप्पेह) विचार कर ऐसी (सच्च) सत्य (गिरं) भाषा (पन्नवं) बुद्धिमान् (भासिज्ज) बोले। भावार्थ : हे गौतम! ऐसी व्यवहारिक भाषा बोलना चाहिये जिससे किसी को कष्ट न पहुंचे एवं जो कर्ण कठोर न हो तथा संदेह रहित हो ऐसी भाषा को ही बुद्धिमान पुरुष समयानुसार विचार कर बोलते हैं। मूल : वहेव फरुसा भासा, गुरुभुओवघाइणि| सच्चा वि सा न वत्तवा, जओ पावस्स आगमो||३|| 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/120K 50000000000000 0000000000000000 For Petsonal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oooooooooooooooooooooo0000000000 1000000000000000000000000000g do0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः तथैव परुषा भाषा, गुरु भूतोपघातिनी। सत्याऽपि सा न वक्तव्या, मतः पापस्यागमः।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तहेव) इसी प्रकार (फरुसा) कठोर (गुरुभूओवघाइणी) अनेकों प्राणियों का नाश करने वाली (सच्चा वि) सत्य है। तो भी (जओ) जिससे (पावस्स) पाप का (आगमो) आगमन होता है (सा) वह भाषा (वत्तव्वा) बोलने याग्य (न) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य कहलाते हैं उनके लिए कठोर एवं जिससे अनेकों प्राणियों की हिंसा हो, ऐसी सत्य भाषा भी बोलने योग्य नहीं होती है। यद्यपि वह सत्य है, तदपि वह हिंसाकारी है, उसके बोलने से पाप का आगमन होता है, जिससे आत्मा पाप से भारवान् बनती है। मूल: वहेव काणं कणे ति, पंडगं पंडगे ति वा। वाहिअंवा विरोगि ति, तेणं चोरे ति नो वए|४|| छायाः तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक इति वा। व्याधिमन्तं वाऽपि रोगीति, स्तेनं चौर इति न वदेत्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तहेव) वैसे ही (काणं) काने को (काणे) काना है (त्ति) ऐसा (वा) अथवा (पंडग) नपुंसक को (पंडगे) नपुंसक है (त्ति) ऐसा (वा) अथवा (वाहिअ) व्याधि वाले को (रोगि) रोगी है (त्ति) ऐसा और (तणं) चोर को (चोरे) चोर है (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोलना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! जो सच्चे सरल मनुष्य काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, व्याधि वाले को रोगी और चोर को चोर, ऐसा कभी नहीं बोलते हैं। क्योंकि वैसा बोलने में भाषा भले ही सत्य हो, पर ऐसा बोलने से उनका दिल दुखता है। इसीलिए यह असभ्य भाषा है और इसे कभी न बोलना चाहिए। मूल : देवाणं मणुयाणंच, तिरियाणंचवुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ तिनो वए||५|| छायाः देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विग्रहे। अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवत्विति नो वदेत्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (देवाणं) देवताओं के (च) और (मणुयाणं) मनुष्यों के (च) और (तिरियाणं) तिर्यंचों के (वुग्गहे) युद्ध में (अमुगाणं) अमुक की (जओ) जय (होउ) हो (वा) अथवा अमुक की (मा) मात (होउ) हो (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोलना चाहिए। 00000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000oot निर्ग्रन्थ प्रवचन/121 5000000000000oold 00000000000006 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 doo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! देवता मनुष्य और तिर्यंचों में जो परस्पर युद्ध हो रहा हो उसमें भी अमुक की जय हो अथवा अमुक की पराजय हो, ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि एक की जय और दूसरे की पराजय बोलने से एक प्रसन्न होता है और दूसरा नाराज़ होता है और जो बुद्धिमान मनुष्य (ज्ञानी) होते हैं वे किसी को दुःखी नहीं करते हैं। मूलः तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघइणी। से कोह लोह भयसावमाणवो, न हासमाणे वि गिरंवएज्जा||६|| छायाः तथैव सावधानुमोदिनी गिरा, अवधारिणी या च परोपघातिनी। ___ता क्रोध लोभ भयहास्येभ्यो मानवः, न हसन्नपि गिर वदेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (माणवो) मनुष्य (हासमाणे) हँसता हुआ (वि) भी (गिरं) भाषा को (न) न (वएज्जा ) बोले (य) और (तहेव) वैसे ही (से) वह (कोह) क्रोध से (लोह) लोभ से (भयसा) भय से (सावज्जणुमोयणी) सावध अनुमोदन के साथ (ओहारिणी) निश्चित और (परोवघाइणी) दूसरे जीवों की हिंसा करने वाली, ऐसी (जा) जो (गिरा) भाषा है उसको न बोले। भावार्थ : हे गौतम! बुद्धिमान् मनुष्य वह है जो विनोद पूर्वक हँसता हुआ कभी नहीं बोलता और इसी तरह सावध भाषा का अनुमोदन करके तथा निश्चयकारी और दूसरे जीवों को दुःख देने वाली भाषा कभी नहीं बोलता है। मुल: अपूच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जएHoll छाया: अपृष्ठो न भाषेत, भाषमाणस्यान्तरा। पृष्ठमासं न खादेत्, मायामृषां विवर्जयेत्।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! बुद्धिमान मनुष्यों को (भासमाणस्स) बोलते हुए के (अन्तरा) बीच में (अपुच्छिओ) नहीं पूछने पर (न) नहीं (भासिज्ज) बोलना चाहिए और (पिट्ठिमंस) चुगली भी (न) नहीं (खाएज्जा) खानी चाहिए एवं (मायामोस) कपट युक्त असत्य बोलना (विवज्जए) छोड़ना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! बुद्धिमान वह है, जो दूसरे बोल रहे हों उनके बीच में उनके पूछे बिना न बोले और जो उनके परोक्ष में उनके अवगुणों को भी कभी न बोलता हो, तथा जिसने कपट युक्त असत्य भाद्याा को भी सदा के लिए छोड़ रखा हो। Agoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/1223000 ooooo0000000000od For Personal & Private Use Only 0000000000000oon Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं| अणासएजोउसहेज कंटए, वइमएकण्णसरेसपुज्जोlll छायाः शक्या: सोढुमाशयाकण्टकाः, अयोमया उत्साहमानेन नरेण। __अनाशया यस्तु स हेत कण्टकान्, वाच्यमान् कर्णशरान् सः पूज्यः / / 8 / / ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उच्छहया) उत्साही (नरेणं) मनुष्य (आसाइ) आशा से (अओमया) लोहमय (कंटया) कंटक या तीन (सहेउ) सहने को (सक्का) समर्थ है। परन्तु (कण्णसरे) कान के छिद्रों में प्रवेश करने वाले (कंटए) काँटे के समान (वइमए) वचनों को (अणासए) बिना आशा से (जो) जो (सहेज) सहन करता है (स) वह (पुज्जो ) श्रेष्ठ है। भावार्थ : हे गौतम! उत्साह पूर्वक मनुष्य अर्थप्राप्ति की आशा से लौह खण्ड के तीर और काँटों तक की पीड़ा को खुशी खुशी सहन कर जाते हैं। परन्तु उन्हें वचन रूपी कण्टक सहन होना बड़ा ही कठिन मालूम होता है। तो फिर आशा रहित होकर कठिन वचन सुनना तो बहुत ही दुष्कर है। परन्तु बिना किसी भी प्रकार की आशा के, कानों के छिद्रों द्वारा कण्टक के समान वचनों को सुनकर जो सह लेता है बस, उसी को श्रेष्ठ मनुष्य समझना चाहिए। मूलः मुहुत्तदुक्खाउहबंति कंटया, अओमयाते वितओसुउद्धरा। वायादुरुत्वाणि दुरुद्धराणि, चेराणुबंधीणि महब्भयाणि||९|| छाया: मुहूर्त दुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, अयोमयास्तेऽपि ततः सूद्धराः / वाचा दुरुक्तानि दुरुद्धराणि, वैरानुबन्धीनि महब्भयानि।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अओमया) लोह निर्मित (कंटया) काँटों से (उ) तो (मुहुत्तदुक्खा) मुहूर्त मात्र से (सुउद्धरा) सुख पूर्वक निकल सकता है। परन्तु विराणुबंधीणि) वैर को बढ़ाने वाले और (वायादुरुत्ताणि) कहे हुए कठिन वचनों का (दुरुद्धराणि) हृदय से निकलना मुश्किल है। भावार्थ : हे गौतम! लोह निर्मित कण्टक-तीर से तो कुछ समय तक ही दुःख होता है और वह भी शरीर से अच्छी तरह निकाला जा सकता है। किन्तु कहे हुए तीक्ष्ण मार्मिक वचन वैर को बढ़ाते हुए नरकादि दुःखों को प्राप्त कराते हैं और जीवन पर्यन्त उन कटु वचनों का हृदय से निकलना कठिन है। मूलः अवण्णवायं च परंमुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं| ओहारिणिंअप्पियकारिणिंच,भासंनभासेज्जसयासपुज्जो||9011 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 1000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/123 Soooooo000000000006 nal6. Fon Personal & Private Use Only 5000000000000000060 o Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oop 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः अवर्णवादं च पाराड्मुखस्य, प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम्। अवधारिणीमप्रियकारिणी च, भाषा न भाषेत् सदा सः पूज्यः।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परंमुहस्स) उस मनुष्य के बिना मौजूदगी में (च) और (पच्चक्खउ) उसके प्रत्यक्ष रूप में (अवण्णवायं) अवर्णावाद (भास) भाषा को (सया) हमेशा (न) नहीं (भासेज्ज) बोलना चाहिए (च) और (पडिणीयं) अपकारी (उहारिणिं) निश्चयकारी (अप्पियकारिणिं) अप्रियकारी (भास) भाषा को भी हमेशा नहीं बोलता हो (स) वह (पुज्जो) पूजनीय मानव है। भावार्थ : हे गौतम! जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में अवगुणवाद के वचन कभी भी नहीं बोलता हो / जैसे तू चोर है। पुरुषार्थी पुरुष को कहना कि तू नपुंसक है। ऐसी भाषा तथा अप्रियकारी, अपकारी, निश्चयकारी भाषा जो कभी नहीं बोलता हो, वह पूजनीय मानव है। मूल : जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जड़ सब्बसो। एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जड़||११|| छायाः यथा शुनी पूर्तिकर्णी, निः कास्यते सर्वतः / एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः, मुखारिनिःकास्यते।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (पूहकण्णी) सड़े कान वाली (सुणी) कुत्तिया को (सव्वसो) सब जगह से (निक्कसिज्जइ) निकालते हैं। (एवं) इसी प्रकार (दुःस्सील) खराब आचरण वाले (पडिणीए) गुरु और धर्म से द्वेष करने वाले और (मुहरी) अंट संट बड़बड़ाने वाले को (निक्कसिज़्जइ) कुल में से बाहर निकाल देते हैं। भावार्थ : हे गौतम! सड़े कान वाली कुतिया को सब जगह दुत्कार मिलता है और वह हर जगह से निकाली जाती है। इसी तरह दुराचारियों एवं धर्म से द्वेष करने वालों और मुँह से कटुवचन बोलने वालों को सब जगह से दुत्कारा मिलता है और वहां से निकाल दिया जाता है। मल: कणकुंडगं चइत्ताणं, विट्ठं भुंजड़ सूयरे) एवं सीलं चइताणं, दुस्सीले रमई मिए||१२|| छाया: कणकुण्डकं त्यक्त्वा, विष्टां भुक्ते शूकरः। ___एवं शीलं त्यक्त्वा , दु: शीलं रमते मृगः / / 12 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जैसे (सूयरे) शूकर (कणकुंडग) धान के ड्डे को (चइत्ताणं) छोड़ कर (विट्ठ) विष्टा ही को (भुंजइ) खाता है, Logo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf निर्ग्रन्थ प्रवचन/124 000000000000 0000000000000000 For Personal & Private Use Only For RES Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 (एवं) इसी तरह (मिए) पशु के समान मूर्ख मनुष्य (सील) अच्छी प्रवृत्ति को (चइत्ताणं) छोड़ कर (दुस्सीले) खराब प्रवृत्ति ही में (रमई) आनंद मानता है। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार सुअर धान्य के भोजन को छोड़कर विष्टा ही खाता है, इसी तरह मूर्ख मनुष्य सदाचार-सेवन और मधुर भाषण आदि अच्छी प्रवृत्ति को छोड़कर दुराचार सेवन करने तथा कटुभाषण करने ही में आनंद मानता रहता है, परन्तु उस मूर्ख मनुष्य को इस प्रवृत्ति से अन्त में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है। मूल: आहच्च चंडालियंकटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि| कडं कडेति भासेज्जा, अकडं णो कडेति य||१३|| छायाः कदाचिच्च चाण्डालिकं कृत्वा, न निन्हवीत कदापि च। कृतं कृतामिति भाषित, अकृतं नो कृतमितिच।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आहच्च) कदाचित (चंडालियं) क्रोध से झूठ भाषण हो गया हो तो झूठ भाषण (कट्ठ) करके उसको (कयाइ) कभी (वि) भी (न) न (निण्हविज्ज) छिपाना चाहिए (कड) किया हो तो (कडेत्ति) किया है ऐसा (भासेज्जा) बोलना चाहिए (य) और (अकड) नहीं किया हो तो (णो) नहीं (कडेत्ति) किया ऐसा बोलना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! कभी किसी से क्रोध के आवेश में आकर झूठ भाषण हो गया हो तो उसका प्रायश्चित करने के लिए उसे कभी भी नहीं छिपाना चाहिए। कटु भाषण किया हो तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि हाँ मुझ से हो तो गया है और नहीं किया हो तो ऐसा कह देना चाहिए कि मैंने नहीं किया है। मूल: पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से, णेव कुज्जा कयाइ वि||१४|| छायाः प्रत्यनीकं च बुद्धानां, वाचाऽथवा कर्मणा। _आविर्वा यदि वा रहसि, नैव कुर्यात् कदापि च।।१४।। ___अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बुद्धाणं) तत्वज्ञ (च) और सभी साधारण मनुष्यों से (पडिणीयं) शत्रुता (वाया) वचन द्वारा और (अदुव) अथवा (कम्मुणा) काया द्वारा (आवि वा) मनुष्यों के देखते कपट रूप में (जइ वा) अथवा (रहस्से) एकान्त में (कयाइ वि) कभी भी (णेव) नहीं (कुज्जा) करना चाहिए। ooooooooooooooo gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooo 5000000000000000000 000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/125 P000000000000000000 Fon Personal & Private Use Only 00000000ooooooooo www.janelibrary.org Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 gooo000000000000000000000000000000000000000000000 Mooooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! क्या तो तत्वज्ञ और क्या साधारण सभी मनुष्यों के साथ कटु वचनों से तथा शरीर द्वारा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में कभी भी शत्रुता करना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। मूल: जणवयसम्मयठवणा, नामे रूवे पहुच्च सच्चे या ववहारभावजोगे, दसमे ओवम्म सच्चे य||१५|| छाया: जनपद-सम्यक्त्वस्थापना च, नाम रूपं प्रतीत्य सत्यं च। व्यवहारभावे योगानि दशमौपमिकं सत्यं च।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जणवय) अपने अपने देश की (य) और (सम्मयठवणा) एकमत की स्थापना की (नामे) नाम की (रूवे) रूप की (पडुच्च सच्चे) अपेक्षा से कही हुई (य) और (ववहार) व्यवहारिक (भाव) भाव ली हुई (जोगे) यौगिक (य) और (दसमे) दशवीं (ओवम्म) औपमिक भाषा (सच्चे) सत्य है। भावार्थ : हे गौतम! जिस देश में जो भाषा बोली जाती हो, जिसमें अनेकों का एक मत हो, जैसे पंक से और भी वस्तु पैदा होती है, पर कमल ही को पंकज कहते हैं। जिसमें एकमत है। नापने के गज और तोलने के बाट वगैरह को जितना लम्बा और जितना वंजन में लोगों ने मिलकर स्थापन कर रखा हो। गुण सहित या गुण शून्य जिसका जैसा नाम हो, वैसा उच्चारण करने में, जिसका जैसा वेश हो उसके अनुसार कहने में और अपेक्षा से, जैसे एक की अपेक्षा से पुत्र और दूसरे की अपेक्षा से पिता उच्चारण करने में जो भाषा का प्रयोग होता है, वह सत्य भाषा है और ईंधन के जलने पर भी चूल्हा जल रहा है, ऐसा व्यवहारिक उच्चारण एवं तोते में पांचों वर्गों के होते हुए भी “हरा" ऐसा भावमय वचन और अमुक सेठ क्रोड़पति है फिर भले दो चार हजार अधिक हो या कम हो, उसको क्रोडपति कहने में एवं दशमी उपमा में जिन वाक्यों का उच्चारण होता है, वह सत्य भाषा है। यों दस प्रकार की भाषाओं को ज्ञानीजनों से सत्य भाषा कही है। मूले: कोहेमाणे माया, लोभे पेज्ज तहेव दोसे या हासे भए अक्खाइय, उवघाए निस्सिया दसमा||१६| छायाः क्रोधं मानं माया, लोभं राग तथैव द्वेषञ्च। हास्यं भयं आख्यातिकः उपघाते नि:श्रितो दशमाः।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कोहे) क्रोध (माणे) मान (माया) कपट (लोभे) लोभ (पेज्ज) राग (तहेव) वैसे ही (दोसे) द्वेष (य) और (हासे) हँसी 0000000000000000000000000000000000000000000000000oog निर्ग्रन्थ प्रवचन/126 0000000000ooooodh 000000000000 c, For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 90000000000000 0000000000000000000000000000000000000 doo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 (य) और (भए) भय और (अक्खाइय) कल्पित व्याख्या (दसमा) दशवीं (अवघाए) उपघात के (निस्सिया) आश्रित कही हुई भाषा असत्य है। भावार्थ : हे गौतम! क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, हास्य और भय से बोली जाने वाली भाषा तथा काल्पनिक व्याख्या और दशवीं उपघात (हिंसा) के आश्रित जिस भाषा का प्रयोग किया गया हो, वह असत्य भाषा है। इस प्रकार की भाषा बोलने से आत्मा की अधोगति होती है। मूल: इणमन्नं तु अन्नाणं इहमेगेसिं आहियं| देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तं ति आवरे||१७|| छायाः इदमन्यत्तं, अज्ञानं, इहैकैतदाख्यातम। देवाप्तोऽयं लोकः, ब्रह्मोप्त इत्यपरे।।१७।। ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ वहावरे। जीवा जीव समाउत्ते, सुहदुक्ख समन्निए||१८|| ईश्वरेण कृतोलोक: प्रधानादिना तथाऽपरे। जीवाजीवसमायुक्तः, सुखदुःखसमन्वितः।।१८।। संयभुणा कडे लोए, इति वुत्वं महेसिणा| मारेण संथया माया, तेण लोए असासए||१९|| स्वयम्भुवा कृतो लोकः, इत्युक्तं महर्षिणा। मारेण संस्तुता माया, तेन लोकोऽशाश्वतः / / 16 / / माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे। असो तत्तमकासीय, अयाणंता मुसंवदे||२०| माहनाः श्रमणा एके, आहुरण्डकृतं जगत्। असो तत्त्वमकार्षीत्, अजानन्तः मृषा वदन्ति।।२०।। 'अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस संसार में (मेगेसिं) कई एक (अन्न) अन्य (अन्नाणं) अज्ञानी (इण) इस प्रकार (आहियं) कहते हैं, कि (अय) इस (जीवाजीव समाउत्ते) जीव और अजीव पदार्थ से युक्त (सहदुक्खसमन्निए) सुख और दुःखों से युक्त ऐसा (लोए) लोक (देवउत्ते) देवताओं ने बनाया है (आवरे) और दूसरे यों कहते हैं कि (बंभउत्तोसि) ब्रह्मा ने बनाया है। कोई कहते हैं कि (लोए) लोक (इसरेण) ईश्वर ने (कडे) बनाया है। (तहावरे) तथा दूसरे यों कहते हैं कि 000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot * निर्ग्रन्थ प्रवचन/127 do00000000000000ooth Jan Bordcation International For Personal & Private Use Only 00000000000000 . LON Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 1000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 (पहाणाइ) प्रकृति ने बनाया है तथा नियति ने बनाया है। कोई बोलते हैं कि (लोए) लोक (सयंभुणा) विष्णु ने (कड़े) बनाया है। फिर मार "मृत्यु" बनाई। (मारेण) मृत्यु से (माया) माया (संथुया) पैदा की (तेण) इसी से (लोए) लोक (असासए) अशाश्वत है। (इति) ऐसा (महेसिणा) महर्षियों ने (वुत्त) कहा है और (एगे) कई एक (माहणा) ब्राह्मण (समणा) संन्यासी (जगे) जगत् (अंडकडे) अण्डे से उत्पन्न हुआ ऐसा (आह) कहते हैं। इस प्रकार (असो) ब्रह्मा ने (तत्तमकासी य) तत्व बनाया ऐसा कहने वाले (अयाणंता) तत्व को नहीं जानते हुए (मुस) झूठ (वदे) कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इस संसार में ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं, कि जड़ और चेतन स्वरूप एवं सुख दुख युक्त जो यह लोक हैं, इसकी इस प्रकार की रचना देवताओं ने की है। कोई कहते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि बनायी है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि ईश्वर ने जगत की रचना की है। कोई यों बोलते हैं कि सत्व, रज, तम, गुण की सम अवस्था को प्रकृति कहते हैं। उस प्रकृति ने इस संसार की रचना की है। कोई यों भी मानते है, कि जिस प्रकार कांटे तीक्ष्ण, मयुर के पंख विचित्र रंग वाले, गन्ने में मिठास, लहसुन में दुर्गंध, कमल सुगंधमय स्वभाव से ही होते हैं, ऐसे ही सृष्टि की रचना भी स्वभाव से ही होती है। कोई इस प्रकार कहते हैं कि इस लोक की रचना में स्वयंभू विष्णु अकेले थे। फिर सृष्टि रचने की चिन्ता हुई जिससे शक्ति पैदा हुई। तदनंतर सारा ब्रह्माण्ड रचा और इतनी विस्तार वाली सृष्टि की रचना होने पर यह विचार हुआ कि इस का समावेश कहाँ होगा? इसलिए जन्मे हुओं को मारने के लिए यम बनाया। उसने फिर माया को जन्म दिया। कोई यों कहते हैं कि पहले ब्रह्मा ने अण्डा बनाया। फिर वह फूट गया। जिसके आधे का ऊर्ध्व लोक और आधे का अधोलोक बन गया और उसमें उसी समय समुद्र, नदी, पहाड़, गांव आदि सभी की रचना हो गई। इस तरह सृष्टि को बनाया। ऐसा उनका कहना है, हे गौतम! यह सत्य से एकदम अलग व भ्रांत मान्यता है। मूल: सरहिं परियाएहिं, लोयंबूया कडे ति या तत्वं तेणं विजाणंति, ण विणासी कयाइ वि||२१|| छायाः स्वकैः प्रयायै लोक-मब्रवन कतमिति च। तत्त्व ते न विजानन्ति, न विनाशी कदापि च।।२१|| अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो (सएहिं) अपनी अपनी (परियाएहिं) पर्याय कल्पना करके (लोयं) लोक को अमुक अमुक ने (कडे सि) निर्ग्रन्थ प्रवचन/128 ago000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000pt 50000000000000 500000000000 For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog बनाया है, ऐसा (बूया) बोलते हैं। (ते) वे (तत्तं) यथातथ्य तत्व को (ण) नहीं (विजाणंति) जानते हैं। क्योंकि लोक (कयाइ वि) कभी भी (विणासी) नाशमान (ण) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! जो लोग यह कहते हैं, कि इस सृष्टि को ईश्वर ने, देवताओं ने, ब्रह्मा ने तथा स्वयंभू ने बनायी है, उनका यह कहना अपनी अपनी कल्पना मात्र है वास्तव में यथातथ्य बात को वे जानते ही नहीं है। क्योंकि यह लोक सदा से अविनाशी है। न तो इस सृष्टि के बनने की आदि ही है और न अन्त ही है। हाँ, कालानुसार इसमें परिवर्तन होता रहता है परन्तु सम्पूर्ण रूप से सृष्टि का नाश कभी नहीं होता है। 00000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool ने निर्ग्रन्थ प्रवचन/1293 doo000000000000000 Jain Education international Do0000000000000006 For Personal & Private Use Only , Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 अध्याय बारह - लेश्या स्वरूप ॥श्रीभगवानुवाच| मूल: किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव या सुक्कलेसा यछट्ठा य, बामाइंतु जहक्कम||१|| छायाः कृष्णा नीला च कापोती च, तेजः पद्मा तथैव च। शुक्ललेश्या च षष्ठी च, नामानि तु यथाक्रमम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (किण्हा) कृष्ण (य) और (नीला) नील (य) और (काऊ) कपोत (य) और (तेऊ) तेजो (तहेव) तथा (पम्हा) पद्म (य) और (छट्ठा) छठी (सुक्कलेसा) शुक्ल लेश्या (नामाइं) ये नाम (जहकम्मे) यथा क्रम जानो। ___भावार्थ : हे आर्य! पुण्य पाप करते समय आत्मा के जैसे परिणाम होते हैं उसे यहां लेश्या के नाम से पुकारेंगे। वे लेश्या छ: भागों में विभक्त है उनके यथाक्रम से नाम यों हैं। (1) कृष्ण (2) नील (3) कापोत (4) तेज (5) पद्म और (6) शुक्ल लेश्या / हे गौतम! कृष्ण लेश्या का स्वरूप यों हैं : सन्दर्भ : (1) कृष्ण लेश्या वाले की भावना हिंसा से भरी है कि अमुक को मार डालो, काट डालो, सत्यानाश कर दो आदि आदि। (2) नील लेश्या के परिणाम वे हैं जो कि दूसरे के प्रति हाथ, पैर तोड़ डालने के हों। (3) कापोत लेश्या भावना उन मनुष्यों के है जो कि नाक, कान, अंगुलियों आदि को कष्ट पहुँचाने में तत्पर हो। (4) तेजो लेश्या के भाव वह है जो दूसरे को लात, घूसा, मुक्की आदि से कष्ट पहुंचाने में अपनी बुद्धिमत्ता समझता हो। (5) पद्मलेश्या वाले की भावना इस प्रकार होती है कि कठोर शब्दों की बौछार करने में आनन्द मानता हो। (6) शुक्ल लेश्या के परिणाम वाला अपराध करने वाले के प्रति भी करुणा रखता है, मधुर शब्दों का प्रयोग करता है। मूल : पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसुं अविरओय। तिबारंभपरिणओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो||२|| निबंधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ। एअजोगसमाउत्तो, किण्हलेसंतु परिणमे||३|| 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000oope निर्ग्रन्थ प्रवचन/1303 000000000000ood 000000000000 For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः पञ्चाश्रवप्रवृत्तस्त्रिभिरगुप्त षट्सु अविरतश्च। तीव्रारम्भ परिणतः क्षुद्रः साहसिको नरः।।२।। निध्वंसपरिणामः, नृशंसोऽजितेन्द्रियः। एतद्योग समायुक्तः, कृष्णलेश्यां तु परिणमेत्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पंचासवप्पवत्तो) हिंसादि पाँच आश्रवों में प्रवृत्ति करने वाला (तीहिं) मन वच, काय के तीनों योगों को बुरे कामों में जाते हुए को (अगुत्तो) नहीं रोकने वाला (य) और (छसु) षट्काय जीवों की हिंसा से (अवरिओ) निवृत्त नहीं होने वाला (तिव्वारंभपरिणओ) तीव्र है आरंभ करने में लगा हुआ (खुद्दो) क्षुद्र बुद्धि वाला, (साहस्सिओ) अकार्य करने में साहसिक (निद्धंधसपरिणामो) नष्ट करने वाले हिताहित के परिणाम को और (निस्संसो) निशंक रूप से पाप करने वाला (अजिइंदिओ) इन्द्रियों को न जीतने वाला (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के आचरणों से युक्त (नरो) मनुष्य, (किण्हलेस) कृष्ण लेश्या के (परिणमे) परिणाम वाले होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जिसकी प्रवृत्ति हिंसा, झूठ, चोरी व्यभिचार और ममता में अधिकतर फँसी हुई हो एवं मन द्वारा जो हर एक का बुरा चितवन करता हो, जो कटु और मर्म भेदी बोलता हो, जो प्रत्येक के साथ कपट का व्यवहार करने वाला हो, जो बिना प्रयोजन के भी पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसकाय के जीवों की हिंसा से निवृत्त न हुआ हो, बहुत जीवों की हिंसा हो ऐसे महारंभ के कार्य करने में तीव्र भावना रखता हो, हमेशा जिसकी बुद्धि तुच्छ रहती हो, अकार्य करने में बिना किसी प्रकार की हिचकिचाहट के जो प्रवृत्त हो जाता हो, निःसंकोच भावों से पापाचरण करने में जो रत हो, इन्द्रियों को प्रसन्न रखने में अनेक दुष्कार्य जो करता हो, ऐसे मार्गों में जिस किसी भी आत्मा की प्रवृत्ति हो वह आत्मा कृष्ण लेश्या वाली है। ऐसी लेश्या वाला फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, मर कर नीची गति में जावेगा। हे गौतम! नील लेश्या का वर्णन यों है। मूल : इस्सा अमरिए अतवो, अविज्ज माया अहीरिया। गेही पओसे य सढ़े, पमचे रसलोलुए|४|| सायगवेसए य आरंभा अविरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो। एअजोगसमाउत्तो, नीललेसं तुपरिणमे||५|| goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1316 1000000000000od For Personal & Private Use Only loo000000000000 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooog Joo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छाया: ईर्ष्याऽमर्षातपः, अविद्या मायाऽहिकता। गृद्धिः प्रद्वेषश्च शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः।।४।। सातागवेषकश्चारंभादविरतः, क्षुद्रः साहसिको नरः। एतद्योगसमायुक्तः, नीललेश्यां तु परिणमेत्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इस्सा) ईर्ष्या (अमरिस) अत्यन्त क्रोध, (अतवो) अतप (अविज्ज) कुशास्त्र पठन (माया) कपट (अहीरिया) पापाचार के सेवन करने में निर्लज्ज (गेही) गृद्धपन (य) और (पओसे) द्वेषभाव (सढ़े) धर्म में मंद स्वभाव (पमत्ते) मदोन्मत्तता (रसलोलुए) रसलोलुपता (सायगवेसए) पौदगलिक सुख की अन्वेषणा (अ) और (आरंभा) हिंसादि आरंभ से (अविरओ) अनिवृत्ति। (खुद्दो) क्षुद्रभावना (साहस्सिओ) अकार्य में साहसिकता (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के आचरणों से युक्त (नरो) जो मनुष्य हैं, वे (नीललेस) नील लेश्या को (परिणामे) परिणमित होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो दूसरों के गुणों को सहन न करके रात दिन उनसे ईर्ष्या करने वाला हो, बात बात में जो क्रोध करता हो। खा पीकर जो मदमत्त बना रहता हो, पर कभी भी तपस्या न करता हो, जिनसे अपने जन्म मरण की वृद्धि हो ऐसे कुशास्त्रों का पठन पाठन करने वाला हो, कपट करने में किसी भी प्रकार की कोर कसर न रखता हो, जो भली बात कहने वाले के साथ द्वेष भाव रखता हो, धर्मकार्य में शिथिलता दिखाता हो, हिंसादि महारंभ से तनिक भी अपने मन को न खींचता हो, दूसरों के अनेकों गुणों की तरफ दृष्टिपात तके न करते हुए उसमें जो एक आध अवगुण हो उसकी ओर निहारने वाला हो और अकार्य करने में बहादुरी दिखाने वाला हो, जिस आत्मा का ऐसा व्यवहार हो, उसे नीललेशी कहते हैं। इस तरह की भावना रखने वाला व उसमें प्रवृत्ति करने वाला चाहे कोई पुरुष हो या स्त्री वह मरकर अधोगति में ही जायेगा। मूल : वंके वंकसमायरे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचगओवहिए, मिच्छदिठ्ठि अणारिएllll उपफालग दुलवाई य, वेणे आवि यमच्छरी। एअजोगसमाउत्तो, काऊलेसंतु परिणमे||७|| छायाः वक्रो वक्रसमाचारः, नि कृतिमाननृजुकः / परिकुंचक औषधिकः, मिथ्यादृष्टिरनार्थः / / 6 / / . 0000000000000000000000000000boo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooo ooooooood 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/132 10000000000000 00000000000000ood For Personal & Private use onlys Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उत्सयाशेक दृष्टवादी च, स्तेनश्चापिचमत्सरी। एतद्योगसमायुक्तः, कापोतलेश्यां तु परिणमेत्।।७।। 1 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वंके) वक्र भाषण करना (वंकसमायरे) वक्र वक्र क्रिया अंगीकार करना, (नियडिल्ले) मन में कपट रखना, (अणुज्जुए) टेढ़ेपन से रहना (पलिउंचग) स्वकीय दोषों को ढकना, (ओवहिए) सब कामों में कपटता (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यात्व में अभिरुचि रखना (अणारिए) अनार्य प्रवृत्ति करना (य) और (तेणे) चोरी करना (अविमच्छरी) फिर मात्सर्य रखना (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकरा के व्यवहारों से जो युक्त हो वह (काउलेस) कापोत लेश्या को (परिणमे) परिणमित होता है। भावार्थ : हे गौतम! जो बोलने में सीधा न बोलता हो, व्यापार भी जिसका टेढ़ा हो दूसरे को न जान पड़े ऐसे मानसिक कपट से व्यवहार करता हो, सरलता जिसके दिल को छूकर भी न निकली हो, अपने दोषों को ढंकने की भरपूर चेष्टा जो करता हो, जिसके दिन भर के सारे कार्य छल-कपट से भरे पड़े हों, जिसके मन में मिथ्यात्व की अभिरुचि बनी रहती हो, जो अमानुषिक कामों को भी कर बैठता हो, जो वचन ऐसे बोलता हो कि जिस से प्राणि मात्र को त्रास होता हो, दूसरों की वस्तु को चुराने में ही अपने मानव जन्म की सफलता समझता हो, मत्सर भाव से युक्त हो, इस प्रकार के व्यवहारों में जिस आत्मा की प्रवृत्ति हो, वह कापोत लेशी कहलाता है। ऐसी भावना रखने वाला चाहे पुरुष हो या स्त्री, वह मर कर अधोगति में जावेगा। हे गौतम! तेजो लेश्या के सम्बन्ध में यों हैं। मूल: नीयवित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवंllll पियधम्मे दढधम्मेऽवज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो, तेऊलेसं तुपरिणमे||९|| छायाः नीचवृत्तिरचपलः अमाय्यकुतूहलः / विनीतविनयो दान्तः, योगवानुपधानवान्।।८।। प्रियधर्मा दृढ़धर्मा, अवधमीरुर्हितैषिकः। एतद्योगसमायुक्तः, तेजो लेश्या तु परिणमेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नीयावित्ती) जिसकी वृत्ति नम्र स्वभाव वाली हो (अचवले) अचपल (अमाई) निष्कपट (अकुऊहले) कुतुहल से gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/133 00000000000000ood Jal Education International 0000000000000 o, 0000006GO For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooooo boota 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रहित (विणीयविणए) अपने बड़ों का विनय करने में विनीत वृत्ति वाला (दंते) इन्द्रियों को दमन करने वाला (जोगवं) शुभ योगों को लाने वाला (उवहाणव) शास्त्रीय विधि से तप करने वाला (पियधम्मे) जिसकी धर्म में प्रीति हो, (दढधम्मे) दृढ़ है मन धर्म में जिसका (अवज्जभीरू) पाप से डरने वाला (हिएसए) हित को ढूंढ़ने वाला, मनुष्य (तेऊलेस) तेजो लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है। भावार्थ : हे गौतम! जिसकी प्रवृत्ति नम्र है, जो स्थिर बुद्धि वाला है, जो निष्कपट है, हंसी-मज़ाक करने का जिसका स्वभाव नहीं है, बड़ों का विनय कर जिसने विनीत की उपाधि प्राप्त कर ली है, जो जितेन्द्रिय है, मानसिक, वाचिक और कायिक इन तीनों योगों के द्वारा जो कभी किसी का अहित न चाहता हो, शास्त्री विधि विधान युत तपस्या करने में दत्त चित्त रहता हो, धर्म में सदैव प्रेम भाव रखता हो, चाहे उस पर प्राणान्त कष्ट ही क्यों न आ जावे, पर धर्म में जो दृढ़ रहता है, किसी जीव को कष्ट न पहुंचे ऐसी भाषा जो बोलता हो और हितकारी मोक्ष धाम को जाने के लिए शुद्ध क्रिया करने की गवेषणा जो करता रहता हो, वह तेजोलेशी कहलाता है। जो जीव इस प्रकार की भावना रखता हो वह मर कर ऊर्ध्वगति अर्थात् परलोक में उत्तम स्थान को प्राप्त होता है। हे गौतम! पद्मलेश्या का वर्णन यों है:मूल: पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए। पसंतचिचे दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं||१०|| वहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउचो, पम्हलेसं तु परिणमे||११|| छायाः प्रतनुक्रोधमानश्च, मायालोभौ च प्रतनुकौ। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान्।।१०।। तथा प्रतनुवादी च, उपशान्तो जितेन्द्रियः। एतद्योगसमायुक्तः, पद्मलेश्या तु परिणमेत्।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पयणुक्कोहमाणे) पतले हैं क्रोध और मान जिसके (अ) और (मायालोभे) माया तथा लोभ भी जिसके (पयणुए) अल्प हैं, (पसंतचित्ते) प्रशान्त है चित जिसका (दंतप्पा) जो आत्मा को दमन करता है, (जोगवं) जो मन, वचन, काया के शुभ योगों को प्रवृत्त करता है, (उवहाणव) जो शास्त्रीय तप करता है, (तहा) तथा (पयणुवाई) जो अल्प भाषी है और वह भी सोच विचार कर बोलता है, (य) और 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oor KARooo00000000000000 000000000000 0000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/134 10000000000000081 500000000000000 For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ogs Agooo000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (उवसंते) शान्त है स्वभाव जिसका, (य) और (जिइंदिए) जो इन्द्रियों को जीतता हो, (एय जोगसमाउत्तो) इस प्रकार की प्रवृत्ति वाला जो मनुष्य हो, वह (पम्हलेस) पद्म लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है। कि भावार्थ : हे गौतम! जिसको क्रोध, मान, माया, लोभ कम है, जो सदैव शान्त चित्त से रहता है, आत्मा का जो दमन करता है, मन, वचन, काया के शुभ योगों में जो अपनी प्रवृत्ति करता है, शास्त्रीय विधि से तप करता है, सोच विचार कर जो मधुर भाषण करता है, जो शरीर के अंगोपांगों को शांत रखता है। इन्द्रियों को हर समय जो काबू में रखता है, वह पद्मलेशी कहलाता है। इस प्रकार की भावना का एवं प्रवृत्ति का जो मनुष्य अनुशीलन करता है, वह मनुष्य मर कर ऊर्ध्वगति में जाता है। हे गौतम! शुक्ल लेश्या का कथन यों है। मूल : अट्टाहाणि वज्जिता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु||२|| सरागो वीयरागोवा, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसंतु परिणमे||१३|| छाया: आर्तरौद्रे वर्जयित्वा, धर्मशुक्ले ध्यायति। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः / / 12 / / सरागो वीतरागो वा, उपशान्तो जितेन्द्रियः। एतद्योग समायुक्तः, शुक्ललेश्यातु परिणमेत्।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अट्टरुद्दाणि) आर्तं और रौद्र ध्यानों को (वज्जित्ता) छोड़कर (धम्मसुक्काणि) धर्म और शुक्ल ध्यानों को (झायए) जो चिंतवन करता हो, (पसंतचिते) प्रशान्त है चित्त जिसका (दंतप्पा) दमन की है अपनी आत्मा को जिसने (समिए) जो पांच समिति करके युक्त हो, (य) और (गत्तिसु) तीन गुप्ति से (गुत्ते) गुप्त है (सरागो) जो सराग (वा) अथवा (वीयरागो) वीतराग संयम रखता हो, (उवसंते) शांत है चित्त और (जिइंदिए) जो जितेन्द्रिय है, (एयजोगसमाउत्तो) ऐसे आचरणों से जो युक्त है, वह मनुष्य (सुक्कलेस) शुक्ल लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है। भावार्थ : हे आर्य! जो आर्त और रौद्र ध्यानों को परित्याग करके सदैव धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान का चिन्तवन करता है, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के शान्त होने से प्रशान्त हो रहा है चित्त जिसका, सम्यक ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से जिसने अपनी आत्मा को 00000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000 %EN निर्ग्रन्थ प्रवचन/135 Moo00000000000000ot Education International For Personal & Private Use Only 000000000000 c/a Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000 दमन कर रखा है, चलने, बैठने, खाने, पीने आदि सभी व्यवहारों में संयम रखता है, मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति से जिसने अपनी आत्मा को वीतरागतामय संयम में रखता है, जिसका चेहरा शान्त है, इन्द्रिय जन्य विषयों को विष समझकर जिसने छोड़ रखा हैं, वही आत्मा शुक्ल लेशी है। यदि इस अवस्था में मनुष्य मरता है तो वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है। मूल: किण्हा नीला काऊ तिण्णि वि, एयाओ अहमलेसाओ। एयाहिं तिहिं वि जीवो, दुग्गइं उववजई||१४|| छायाः कृष्णा नीला कापोता, तिस्त्रोऽप्येता अधर्म लेश्याः। एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, दुर्गतिमुपपद्यते।।१४।।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (किण्हा) कृष्ण (नीला) नील (काऊ), कापोत (एयाओ) ये (तिण्णि) तीनों (वि) ही (अहमलेसाओ) अधम लेश्याएँ हैं। (एयाहिं) इन (तिहिं) तीनों (वि) ही लेश्याओं से (जीवो) जीव (दुग्गइं) दुर्गति को (उव्वज्जई) प्राप्त करता है। __भावार्थ : हे गौतम! कृष्ण, नील और कपोत इन तीनों को ज्ञानीजनों ने अधर्म लेश्याएँ (अधर्म भावनाएँ) कही हैं। इस प्रकार की अधर्म भावनाओं से जीव दुर्गति में जाकर महान कष्टों को भोगता है। अतः ऐसी बुरी भावनाओं को कभी भी हृदयंगम न होने देना, यही श्रेष्ठ मार्ग है। मूल : तेउ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहिं तिहिं वि जीवो, सुम्गइं उववज्जई||१५| छायाः तेजसो पद्मा शुक्ला, तिस्त्रोऽप्येता धर्मलेश्याः। एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तेऊ) तेजो (पम्हा) पद्म और (सुक्का) शुक्ल (एयाओ) ये (तिण्णि) तीनों (वि) ही (धम्म लेसाओ) धर्म लेश्याएँ हैं। (एयाहिं) इन (तिहिं) तीनों (वि) ही लेश्याओं से (जीवो) जीव (सुग्गइं) सुगति को (उववज्जइ) प्राप्त करता है। भावार्थ : हे आर्य! तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीनों ज्ञानीजन द्वारा धर्म लेश्याएँ (धर्म भावनाएँ) कही गई हैं। इस प्रकार धर्म भावना रखने से वह जीव यहाँ भी प्रशंसा का पात्र होता है, और मरने के पश्चात् भी वह सुगति ही में जाता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वो अपनी 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/136 oooo00000000000ood 000000000000000008 . For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ so00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावनाओं को सदा शुभ या शुद्ध रखें। जिससे उस आत्मा को मोक्ष धाम मिलने से विलम्ब न हो। मूल: अन्तमुहुचम्मि गए, अंतमुहुचम्मि सेसए चेवा लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं||१६|| छायाः अन्तर्मुहुर्ते गते, अन्तर्मुहूर्ते शेषे चैव। लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छन्ति परलोकम्।।१६।। 5 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परिणयाहिं) परिणमित हो गयी है (लेसाहि) लेश्या जिसके ऐसा (जीवा) जीव (अंतमुहुत्तम्मि) अन्तर्मुहूर्त (गए) होने पर (चव) और (अंतमुहुत्तम्मि) अन्तर्मुहूर्त (सेसए) अवशेष रहने पर (परलोय) परलोक को (गच्छंति) जाते हैं। भावार्थ : हे आर्य! मनुष्य और तिर्यंचों के अन्तिम समय में, योग्य व अयोग्य, जिस किसी भी स्थान पर उन्हें जाना होता है उसी स्थान के अनुसार उसकी भावना मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले आती है और वह भावना उसने अपने जीवन में भले और बुरे कार्य किये होंगे उसी के अनुसार अन्तिम समय में वैसी ही लेश्या (भावना) उसकी होती और देवलोक तथा नरक में रहे हुए देव और मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले अपने स्थानानुसार लैश्या (भावना) ही में मरेंगे। मूल : तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया। अप्पसत्याओ वज्जिता, पसत्याओऽहिटिट्ठए मुणी||१७ छायाः तस्मादेतासां लेश्यानां, अनुभावं विज्ञाय। अप्रशस्तास्तु वर्जयित्वा, प्रशस्ता अधितिष्ठन् मुनिः।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तम्हा) इसलिए (एयासि) इन (लेसाणं) लेश्याओं के (अणुभावं) प्रभाव को (वियाणिया) जानकर (अप्पसत्थाओ) बुरी लेश्याओं (भावनाओं) को (वज्जिता) छोड़ कर (पसत्था) अच्छी प्रशस्त लेश्याओं को (मुणी) मुनि (अहिट्ठिए) अंगीकार करे। भावार्थ : हे भले बुरे के फल जानने वाले ज्ञानी साधुजनों। इस प्रकार छहों लेश्याओं का स्वरूप समझकर इनमें से बुरी लेश्याओं (भावनाओं) को तो कभी भी अपने हृदय तक में फटकने मत दो और अच्छी भावनाओं को सदैव हृदयंगम करके रखो। इसी में मानव जीवन की सफलता है। 990000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 oooor 5000000000 0000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/137 OOOOOOOOOOC 0000000000000000oda Jalin Education International For Personal & Private Use Only " Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Qoo0000000000000000000000000 Mooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय तेरह - कषाय स्वरूप ||श्रीभगवानुवाच| मूलः कोहोअमाणोअअणिग्गहीआ, माया अलोभोअपवड्ढमाणा| चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स||१|| छाया: क्रोधश्च मानश्चातिगृहीतो, माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ। चत्वारि एते कृत्स्नाः कषायाः, सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्मवस्य।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अणिग्गहीआ) अनिग्रहीत (कोहो) क्रोध (अ) और (माणो) मान (पवड्ढमाणा) बढ़ता हुआ (माया) कपट (अ) और (लोभो) लोभ (एए) ये (कसिणा) सम्पूर्ण (चत्तारि) चारों ही (कसाया) कषाय (पुणब्भवस्स) पुनर्जन्म रूप वृक्ष के (मूलाई) मूलों को (सिंचंति) सींचते हैं। भावार्थ : हे आर्य! जिसका निग्रह नहीं किया है ऐसा क्रोध ओर मान तथ बढ़ता हुआ कपट और लोभ ये चारों ही सम्पूर्ण कषाय पुनः पुनः जन्म-मरण रूप वृक्ष के मूलों को हरा भरा रखते हैं। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों ही कषाय दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। मूलः जे कोहणे हो जगय भासी, विओसियं जे उ उदीरएज्जा अंधेव से दंडपहंगहाय, अविओसिए घासति पावकम्मी||२|| छायाः यः क्रोधनो भवति जगदर्थभाषी, व्यपशमितं यस्तु उदीरयेत्। / अन्ध इव सदण्डपथं गृहीत्वा, अव्यपशमितं घृष्यति पापकर्मा।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (कोहणे) क्रोधी (होइ) होता है वह (जगयभासी) जगत् के अर्थ को कहने वाला है (उ) और (जे) वह (विओसियं) उपशान्त क्रोध को (उदीरएज्जा) पुनः जाग्रत करता है। (व) जैसे (अन्धे) अन्धा (दंडपह) लकड़ी (गहाय) ग्रहण कर मार्ग में पशुओं से कष्ट पाता हुआ जाता है, ऐसे ही (से) वह (अविओसिए) अनुपशान्त (पावकम्मी) पाप करने वाला (धासति) चतुर्गति रूप मार्ग में कष्ट उठाता है। भावार्थ : हे गौतम! जिसने बात बात में क्रोध करने का स्वभाव कर रखा है, वह जगत के जीवों में अपने कर्मों से लूलापन, अंधापन, बधिरता आदि न्यूनताओं को अपनी जिहा के द्वारा सामने रख देता है 0000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/1385 000000000000 0000000000000 For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooop 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 और जो कलह उपशान्त हो रहा है, उसको पुनः चेतन कर देता है। जैसे अन्धा मनुष्य लकड़ी को लेकर चलते समय मार्ग में पशुओं आदि से कष्ट पाता है ऐसे ही वह महाक्रोधी चतुर्गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार के जन्म मरणों का दुःख उठाता रहता है। मूलः जेआवि अप्पं वसुमंतिमत्ता, संखायवायंअपरिक्ख कुज्जा। तवेणवाहं सहिउ तिमत्ता, अण्णंजणंपस्सति बिंबभूय||३|| छाया: यश् चापि आत्मानं वसुमान् मत्त्वा, संख्यां च वादमपरीक्ष्य कुर्यात्। तपसा वाऽहं सहित इति मत्वा, अन्यं जनं पश्यति बिम्बमूतम्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे आदि) जो अल्प मति है, वह (अप्पं) अपनी आत्मा को (वसुमंति) संयमवान है, ऐसा (मत्ता) मानकर और (संखाय) अपने को ज्ञानवान समझता हुआ (अप्परिक्ख) परमार्थ को नहीं जानकर (वाय) वाद विवाद करता है। (अह) मैं (तवेण) तपस्या करके (सहिउत्ति) सहित हूँ, ऐसा (मत्ता) मानकर (अण्ण) दूसरे (जणं) मनुष्य को (बिंबभूयं) केवल आकार मात्र (पस्सति) देखता है। भावार्थ : हे आर्य! जो अल्प मति वाला मनुष्य है, वह अपने ही को संयमवान समझता है और कहता है कि मेरे समान संयम रखने वाला कोई दूसरा है ही नहीं। जिस प्रकार मैं ज्ञान वाला हूँ, वैसा दूसरा कोई है ही नहीं, इस प्रकार अपनी श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटता फिरता है तथा तपवान भी मैं ही हूँ, ऐसा मानकर वह दूसरे मनुष्य को गुणशून्य और केवल मनुष्याकार मात्र ही देखता है। इस प्रकार मान करने से वह मानी, पाई हुई वस्तु से ही हीनावस्था में जा गिरता है। मूल : पूयणट्ठी, जसोकामी, माणसम्माणामए। बहुं पसवइ पावं, मायासल्लं च कुवई||४|| छायाः पूजनार्थी यशस्कामी, मानसन्मानकामुकः। बहु प्रसूते पापं, मायाशल्यं च कुरुते।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पूयणट्ठा) ज्यों की त्यों अपनी शोभा रखने के अर्थ (जसोकामी) यश का कामी और (माणसम्माण) मान-सम्मान का (कामए) चाहने वाला (बहु) बहुत (पावं) पाप (पसवइ) पैदा करता है (च) और (मायासल्लं) कपट, शल्य को (कुव्वइ) करता है। ___ भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य पूजा, यश, मान और सम्मान का भूखा है, वह इनकी प्राप्ति के लिए अनेक तरह के प्रपंच करके अपने 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/139 000000000000od 0000000000000000 Gal Education International For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 00000000001 लिए पाप पैदा करता है और साथ ही कपट करने में भी वह कुछ कम नहीं उतरता है। मूल: कसिणं पि जो इमं लोगं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। तेणावि से न संतुस्से, इह दुप्पूरए इमे आया||५|| छायाः कृत्स्नमपि य इमं लोकं, प्रतिपूर्णं दद्यादेकस्मै। तेनापि स न संतुष्येत्, इति दुःपूरकोऽयमात्मा।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जो) यदि (इक्कस्स) एक मनुष्य को (पंडिपुण्णं) धनधान से परिपूर्ण (इम) यह (कसिणं पि) सारा ही (लोगं) लोक (दलेज्ज) दे दिया जाए तो (तेणावि) उससे भी (से) वह (न) नहीं (संतुस्से) संतोषित होता है। (इइ) इस प्रकार से (इमे) यह (आया) आत्मा (दुप्पूरए) इच्छा से पूर्ण नहीं हो सकता है। भावार्थ : हे गौतम! वैश्रमण देव किसी मनुष्य को हीरे, पन्ने, माणिक, मोती तथा धन धान से भरी हुई सारी पृथ्वी देवे तो भी उससे उसको संतोष नहीं हो सकता है। अतः इस आत्मा की इच्छा को पूर्ण करना महान कठिन है। मूल: सुब्बणरुप्पस उ पन्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्सलुद्धम्सनतेहि किंचि, इच्छाहुआगाससमाअणंतिआ||६|| छायाः सुवर्णरूप्ययोः पर्वता भवेयुः, स्यात्कदाचित्खलु कैलाशसमा असंख्यकाः नरस्य लुब्धस्य न तैः किचित्, इच्छा हि आकाशसमा अनन्तिका।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (केलाससमा) कैलाश पर्वत के समान (सुवण्णरुप्पस्स) सोने, चांदी के (असंखया) अगणित (पव्वया) पर्वत (ह) निश्चय (भवे) हो और वे (सिया) कदाचित् मिल गये, तदपि (तहि) उससे (लुद्धस्स) लोभी (नरस्स) मनुष्य की (किंचि) किंचित मात्र भी तृप्ति (न) नहीं होती है, (हु) क्योंकि (इच्छा) तृष्णा (आगाससमा) आकाश के समान (अणंतिया) अनंत है। - भावार्थ : हे गौतम! कैलाश पर्वत के समान लम्बे चौड़े असंख्य पर्वतों के जितने सोने चांदी के ढेर किसी लोभी मनुष्य को मिल जाए तो भी उसकी तृष्णा पूर्ण नहीं होती है। क्योंकि जिस प्रकार आकाश का अन्त नहीं है, उसी प्रकार इस तृष्णा का कभी अन्त नहीं आता है। मूल: पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सहा पडिपुण्णं नालगस्स, इह विज्जा तवं चरे||७|| 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000000000000oogl नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/1403 000000000000000ood For Personal & Private Use Only 0000000000 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000oooooooooooooood do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 छायाः पृथिवी शालिर्यवाश्चैव, हिरण्यं पशुभिःसह। प्रतिपूर्णं नालमेकस्मै, इति विदित्वा तपश्चरेत्।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (साली) शालि (जव) सहित (चेव) और (पसुभिस्सह) पशुओं के साथ (हरिण्ण) सोने वाली (पडिपुण्णं) सम्पूर्ण भरी हुई (पुढवी) पृथ्वी (एगस्स) एक की तृष्णा को बुझाने के लिए (नालं) समर्थवान् नहीं है। (इइ) इस तरह (विज्जा) जानकर (तव) तप रूप मार्ग में (चरे) विचरण करना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! शालि, सोना, चांदी और पशुओं से परिपूर्ण पृथ्वी भी किसी एक मनुष्य की इच्छा को तृप्त करने में समर्थ नहीं हैं ऐसा जानकर तप रूप मार्ग में घूमते हुए लोभदशा पर विजय प्राप्त करना चाहिए। इसी से आत्मा की तृप्ति होती है। मूले: अहे वयह कोहिणं, माणेणं अहमा गइ। माया गइपडिगघाओ, लोहाओ दुहओभय|६| छायाः अधोव्रजति क्रोधेन, मानेनाधमा गतिः। __मायया सुगति प्रतिघातः, लोभाद् द्विधाभयम्।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! आत्मा (कोहेणं) क्रोध से (अहे) अधोगति में (वयइ) जाता है (माणेणं) मान से उसको (अहमा) अधम (गई) गति मिलती है (माया) कपट से (गइपडिग्घाओ) अच्छी गति का प्रतिघात होता है। (लोहाओ) लोभ से (दुहओ) दोनों भव संबंधी (भये) भय प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! जब आत्मा क्रोध करता है, तो उस क्रोध से उसे नरक आदि स्थानों की प्राप्ति होती है। मान करने से वह अधम गति को प्राप्त करता है। माया करने से पुरुषत्व या देवगति आदि अच्छी गति मिलने में रूकावट होती है और लोभ से जीव इस भव एवं पर भव संबंधी भय को प्राप्त होता है। मूल: कोहो पीइंपणासेइ, माणे विणयनासणो। माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सबविणासणो||९|| छायाः क्रोधः प्रीति प्रणश्यति, मानो विनयनाशनः। _माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कोहो) क्रोध (पीई) प्रीति को (पणासेइ) नाश करता है (माणो) मान (विणय) विनय को (नासणो) नाश करने वाला है। (माया) कपट (मित्ताणि) मित्रता को (नासेइ) नष्ट करता है और (लोभो) लोभ (सव्व) सारे सद्गुणों का (विणसणो) विनाशक हैं। 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000oope नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/141 1000000000000ooda 500000000000000 For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dooooooooooooooooooooooooo00000000000000000000000000000000oogl 10000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! क्रोध ऐसा बुरा है, कि वह परस्पर की प्रीति को क्षण भर में नष्ट कर देता है। मान विनम्र भाव को भी अपनी ओर झांकने तक भी नहीं देता। कपट से मित्रता का भंग हो जाता है और लोभ सभी गुणों का नाश कर देता है। अतः क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों ही दुर्गुणों से अपनी आत्मा को सदा सर्वदा बचाते रहना चाहिए। मूल : उवसमेण हणे कोहं, माणंमद्दवया जिणे। मायंचज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे||१०|| छाया: उपशमेन हन्यात् क्रोधं, मानं मार्दवेन जयेत्। माया चार्जवभावेन, लोभं सन्तोषतो जयेत्।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उवसमेण) उपशान्त "क्षमा" से (कोह) क्रोध का (हणे) नाश करे (मद्दवया) नम्रता से (माणं) मान को (जिणे) जीते (मज्जव) सरल (भावेण) भावना से (माया) कपट को और (संतोसओ) संतोष से (लोभ) लोभ को (जिणे) पराजित करना चाहिए। - भावार्थ : हे आर्य! इस क्रोध रूप चाण्डाल को क्षमा से दूर भगाओ और विनम्र भावों से इस मान का मद नाश करो। इसी प्रकार सरलता से कपट को और संतोष से लोभ को पराजित करो। तभी वह मोक्ष प्राप्त होगा जहाँ पर कि गये बाद, वापिस दुःखों में आने का काम नहीं। मूल: असंख्यं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं| एअं वियाणाहि जणे पमचे, कं नु विहिंसा अजया गहिंति|१|| छायाः असंस्कृतं जीवितं मा प्रमादीः।, जरोपनीतस्य खलु नास्ति त्राणम्। एवं विजानीति जनाः प्रमत्ताः, किं नु विहिस्त्रा अयता गमिष्यन्ति।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीविय) यह जीवन (असंख्य) असंस्कृत है। अतः (मा पमायए) प्रमाद मत करो (हु) क्योंकि (जरोवणीयस्स) वृद्धावस्था वाले पुरुष को किसी की (ताणं) शरण (नत्थि) नहीं है (एअं) ऐसा तू (वियाणाहि) हिंसा करने वाले (अजया) अजितेन्द्रिय (जणे) मनुष्य हैं, वे (नु) बेचारे (क) किसकी शरण (गहिति) ग्रहण करेंगे। भावार्थ : हे गौतम! इस मानव जीवन के टूट जाने पर न तो पुनः इसकी संधि हो सकती है, और न यह बढ़ ही सकता है। अतः धर्माचरण करने में प्रमाद मत कर / यदि कोई वृद्धावस्था में किसी की शरण प्राप्त करनाचाहे तो इस में भी वह असफल होता है। भला फिर जो प्रमादी और हिंसा करने वाले अजातेन्द्रिय मनुष्य हैं, वे परलोक में किसकी शरण ग्रहण करेंगे? अर्थात् वहां के होने वाले दुःखों से उन्हें कौन छुड़ा सकेगा? कोई भी बचाने वाला नहीं है। lgoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope निर्ग्रन्थ प्रवचन/142 Vdoo000000000000 For Personal & Private Use Only 00000000000006 www.jainelibrary org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooooooooope Agoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्या। दीवप्पणठेव अणंतमोहे, नेयाउअंदठुमदटठुमेव||१२| छायाः वित्तेन त्राणं न लभेत प्रमत्तः, अस्मिल्लोकेऽथवा परत्र। दीपंप्रणष्ट इवानन्तमोहः, नैयायिकं दृष्ट्वाऽप्पदृष्ट्वे व।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पमत्ते) वह प्रमादी मनुष्य (इमम्मि) इस (लोए) लोक में (अहुवा) अथवा (परत्था) परलोक में (वित्तेण) द्रव्य से (ताणं) त्राण (शरण) (न) नहीं (लभे) पाता है (अणंतमोहे) वह अनंत मोह वाला (दीवप्पणठेव) दीपक के नाश हो जाने पर (ने याउअं) न्यायकारी मार्ग को (दठुमदठुमेव) देखने पर भी न देखने वाले के समान है। भावार्थ : हे गौतम! धर्म साधन करने में आलस्य करने वाले प्रमादी मनुष्यों की इस लोक और परलोक में द्रव्य के द्वारा रक्षा नहीं हो सकती है। प्रत्युत वे अनंत मोही पुरुष, दीपक के नाश हो जाने पर न्यायकारी मार्ग को देखते हुए भी नहीं देखने वाले के समान हैं। मूलः सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिए आसुपण्णे। घोरामुहुत्ता अबलं सरीरं,भारंडपक्खीवचरऽप्पमत्तो||१३|| छायाः सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः / घोरा मुहूर्ता अबलं शरीरं, भारण्डपक्षीव चरेऽप्रमत्तः।।१३।। 11 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आसुपण्णे) तीक्ष्ण बुद्धि वाला (पडिबुद्धजीवी) द्रव्य निन्द्रा रहित तत्वों का जानकार (पंडिए) पण्डित पुरुष (सुत्तेसुयावी) द्रव्य और भाव से जो सोते हुए प्रमादी मनुष्य हैं, उनका (न) नहीं (वीससे) विश्वास करे, अनुकरण करें, क्योंकि (मुहुत्ता) समय आयुक्षण करने में (घोरा) भयंकर है और (सरीरं) शरीर भी (अबलं) बल रहित है। अतः (भारंडपक्खीव) भारंड पक्षी की तरह (अप्पमत्तो) प्रमाद रहित (चर) संयम में विचरण कर। भावार्थ : हे गौतम! द्रव्य निंद्रा से जागृत तीक्ष्ण बुद्धि वाले पण्डित पुरुष जो होते हैं, वे द्रव्य और भाव से नींद लेने वाले प्रमादी पुरुषों के आचरणों का अनुकरण नहीं करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि समय जो है वह मनुष्य की आयु कम करने में भयंकर है और यह भी नहीं है कि यह शरीर मृत्यु का सामना कर सके। अतएव जिस प्रकार भारंड पक्षी अपना चुगा चुगने में प्रायः प्रमाद नहीं करता है उसी तरह तुम भी प्रमाद रहित होकर संयमी जीवन बिताने में सफलता प्राप्त करो। 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000 Soooo00000000000ool Jan Education International निर्ग्रन्थ प्रवचन/143 2003 For Personal & Private Use Only boo000000000000006 _ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: जे गिद्धे कामभोएसु, एगे कूडाय गच्छड़ा। न में दिट्टे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमारई||१४|| छायाः यो गृद्धः कामभोगेषु, एकः कूढ़ाय गच्छति। न मया दृष्टः परलोकः, चक्षुदृष्टेयं रतिः।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (एगे) कोई एक (कामभोएसु) काम भोगों में (गिद्धे) आसक्त होता है वह (कूडाय) हिंसा और मृषा भाषा को (गच्छइ) प्राप्त होता है, फिर उससे पूछने पर वह बोलता है कि (मे) मैंने (परलोए) परलोक (न) नहीं (दिटठे) देखा है। (इमा) इस (रइ) पौद्गलिक सुख को (चक्खुदिट्ठा) प्रत्यक्ष आंखों से देख रहा हूँ। भावार्थ : हे आर्य! जो काम भोग में सदैव लीन रहता है। यदि उनसे कहा जाए कि हिंसादि कर्म करोगे तो नरक में दुःख उठाओगे और सत्कर्म करोगे तो स्वर्ग में दिव्य सुख भोगोगे। ऐसा कहने पर वह प्रमादी बोल उठता है कि मैंने कोई भी स्वर्ग नरक नहीं देखें हैं कि जिनके लिए इन प्रत्यक्ष काम भोगों का आनंद छोड़ बैलूं। मूल: हत्यागया इमे कामा, कालिआ जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अत्यि वा नत्यि वा पुणो||१५|| छाया: हस्तागता इमे कामाः, कालिका येऽनागताः। को जानाति परः लोकः, अस्ति वा नास्ति वा पुनः।।१५।। अन्वयार्थ : हे धर्म तत्वज्ञ! (इमे) ये (कामा) काम भोग (हत्थागया) हस्तगत हो रहे हैं और इन्हें त्यागने पर (जे) जो (अणागया) आगामी भव में सुख होगा, यह तो (कालिआ) भविष्यत् की बात है (पणो) तो फिर (को) कौन (जाणइ) जानता है (परेलोए) परलोक (अत्थि) है (वा) अथवा (नत्थि) नहीं है। _भावार्थ : अज्ञानी नास्तिक इस प्रकार कहते हैं कि हे धर्म के तत्व को जानने वालों! ये काम भोग जो प्रत्यक्ष रूप में मुझे मिल रहे हैं और जिन्हें त्याग देने पर आगामी भव में इससे भी बढ़कर तथा आत्मिक सुख प्राप्त होगा, ऐसा तुम कहते हो, परन्तु यह तो भविष्यत् की बात है और फिर कौन जानता है, कि नरक-स्वर्ग और मोक्ष है भी या नहीं? मूल : जणेण संधि होक्खामि, इइ बाले पगभइ। कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवजह||६|| 2000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/144 ooooooooooooooood For Personal & Private Use Only 000000000000 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot soooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool छायाः जनेन सार्द्ध भविष्यामि, इति बालः प्रगल्भते। कामभोगानुरागेण, क्लेशं सः सम्प्रतिपद्यते।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जणेण सद्धिं) इतने मनुष्यों के साथ मेरा भी (होक्खामि) जो होना होगा, सो होगा। (इइ) इस प्रकार (बाले) वे अज्ञानी (पगभइ) बोलते हैं, पर वे आखिर (कामभोगाणुराएण) काम भोगों के अनुराग के कारण (केस) दुःख ही को (संपडिवज्जइ) प्राप्त होते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! वे अज्ञानीजन इस प्रकार फिर बोलते हैं कि "इतने दुष्कर्मी लोगों का परलोक में जो होगा, वह मेरा भी हो जाएगा।" इतने सबके सब लोग क्या मूर्ख हैं? पर हे गौतम! आखिर में वे काम भोगों के अनुरागी लोक इस लोक और परलोक में महान् दुःखों को भोगते हैं। मूलः तओसेदंडंसमारभइ, वसेसुथावरेसुय। अट्ठाएवअणट्ठाए, भूयग्गामंविहिंसह||७|| छायाः ततो दण्डं समारभते, त्रसेषु स्थावरेषु च। अर्थाय चानाय, भूतग्रामं विहिनस्ति।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! यों स्वर्ग नरक आदि को असम्भावना मान करके (तओ) उसके बाद (से) वह मनुष्य (तसेसु) त्रस (अ) और (थावरेसु) स्थावर जीवों के विषय में (अट्ठाए) प्रयोजन से (व) अथवा (अणट्ठाए) बिना प्रयोजन से (दंड) मन, वचन, काया के दण्ड को (समारभइ) समारंभ करता है और (भूयग्गाम) प्राणियों के समूह का (विहिंसइ) वध करता है। भावार्थ : हे आर्य! नास्तिक लोग प्रत्यक्ष भोगों को छोड़कर भविष्यत् की कौन आस करे, इस प्रकार कहकर अपने दिल को कठोर बना लेते हैं। फिर वे हिलते-चलते त्रस जीवों और स्थावर जीवों की प्रयोजन से अथवा बिना प्रयोजन से, हिंसा करने के लिए, मन, वचन, काया के योगों को प्रारम्भ कर असंख्य जीवों की हिंसा करते हैं। मूलः हिंसेबाले मुसावाई,माइल्ले पिसुणेसढ़े। भुंजमाणेसुरंमसं, सेयमेअंतिमन्नई||१८| छायाः हिंस्त्रो बालो मृषावादी, मायी च पिशुनः शठः। भुञ्जानः सुरा मांस, श्रेयो मे इदमिति मन्यते।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! स्वर्ग नरक को न मानकर वह (हिंसे) हिंसा करने वाला (वाले) अज्ञानी (मुसावाइ) फिर झूठ बोलता है (माइल्ल) कपट करता है, (पिसुणे) निन्दा करता है (स) दूसरों को ठगने की करतूत 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope निर्ग्रन्थ प्रवचन/1453 00000000000000000 00000000000 00000006 For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 करता रहता है (सुरं) मदिरा (मंस) मांस (भुंजमाणे) भोगता हुआ (सेयमेअं) श्रेष्ठ है (ति) ऐसा (मन्नइ) मानता है। 4 भावार्थ : हे गौतम! स्वर्ग नरक आदि की असम्भावना करके वह अज्ञानी जीव हिंसा करने के साथ ही साथ झूठ बोलता है, प्रत्येक बात में कपट करता है। दूसरों की निंदा करने में अपना जीवन अर्पण कर बैठता है। दूसरों को ठगने में अपनी सारी बुद्धि खर्च कर देता है और मदिरा एवं मांस खाता हुआ भी अपना जीवन श्रेष्ठ मानता है। मूल: कायसावयसामते, वित्तेगिद्धेयइत्थिसु। दुहओमलंसंचिणइ, सिसुणागुब्वमट्टिय||१९|| छायाः कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु / द्विधा मलं सञ्चिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! वे नास्तिक लोग (कायसा) काय से (वयसा) वचन से (मत्ते) गर्वान्वित होने वाला (वित्ते) धन में (य) और (इत्थिसु) स्त्रियों में (गिद्ध) आसक्त हो वह मनुष्य (दुहओ) राग द्वेष के द्वारा (मल) कर्म मल को ( संचिणइ) इकट्ठा करता है। (व्व) जैसे (सिसुणागु) शिशूनाग "अलसिया" (मट्टिअं) मिट्टी से लिपटा रहता है। भावार्थ : हे आर्य! मन, वचन और काया से गर्व करने वाले वे नास्तिक लोग धन और स्त्रियों में आसक्त होकर राग-द्वेष से गाढ़े कर्मों का अपनी आत्मा पर लेप कर रहे हैं पर उन कर्मों के उदय काल में, जैसे अलसिया मिट्टी से उत्पन्न होकर, फिर मिट्टी ही से लिपटता है, किन्तु सूर्य की आतापना से मिट्टी के सूखने पर वह अलसिया महान कष्ट उठाता है। उसी तरह से वे नास्तिक लोग भी जन्म जन्मान्तरों में महान कष्टों को उठावेंगे। मूलः तओपुट्ठो आयंकेण, गिलाणोपरितप्पहा पभीओकम्माणुप्पेहि अप्पणो||२०|| छायाः ततः स्पृष्ट आतंकेन, ग्लानः परितप्यते। प्रभीतः परलोकात्, कर्मानुप्रेश्यात्मनः।।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! कर्म बांध लेने के (तओ) पश्चात् (आयंकेण) असाध्य रोगों से (पुट्ठो) घिरा हुआ वह नास्तिक (गिलाणो) ग्लानि पाता है और (परलोगस्स) परलोक के भय से (पभीओ) डरा हुआ (अप्पणो) अपने किये हुए (कम्माणुप्पेहि) कर्मों को देखकर (परितप्पइ) खेद पाता है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000 000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/146 Soooo00000000000 For Personal & Private Use Only 000000000000000oon Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000006 भावार्थ : हे गौतम! पहले तो ऐसे नास्तिक लोग विषयों के लोलुप होकर कर्म बांध लेते हैं फिर जब उन कर्मों का उदयकाल निकट आता है तो असाध्य रोगों से घिर जाते हैं। उस समय उन्हें बड़ी ग्लानि होती है। नरकादि के दुखों से वे बड़े घबराते हैं और अपने किये हुए बुरे कर्मों के फलों को देखकर अत्यन्त खेद पाते हैं। मूलः सुआमेनरएठाणा, असीलाणंचजागई। बालाणंकूरकम्माणं, पगाढाजत्यवेयणा||२१|| छायाः श्रुतानि मया नरकस्थानानि, अशीलानां च या गतिः / बालानां क्रूरकर्माणां, प्रगाढ़ा यत्र वेदना।।२१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! वे बोलते हैं कि (जत्थ) जहां पर उन (कूरकम्माणं) क्रूर कर्मों के करने वाले (बालाणं) अज्ञानियों को (पगाढ़ा) प्रगाढ़ (वयणा) वेदना होती है। मैंने (नरए) नरक में (ठाणा) कुंभी, वैतरणी आदि जो स्थान हैं, वे (सुआ) सुने हैं, (च) और (असीलाणं) दुराचारियों की (जा) जो (गई) नारकीय गति होती है, उसे भी सुना है। भावार्थ : हे आर्य! नास्तिक जन नर्क और स्वर्ग किसी को भी न मानकर खूब पाप करते हैं। जब उन कर्मों का उदय काल निकट आता है तो उनको कुछ असारता मालूम होने लगती है। तब वे बोलते हैं कि सच है, हमने तत्वज्ञों द्वारा सुना है कि नरक में पापियों के लिए कुम्भियाँ, वैतरणी नदी आदि स्थान है और उन दुष्कर्मियों की जो नारकीय गति होती है, वहाँ क्रूरकर्मी अज्ञानियों को प्रगाढ़ वेदना होती है। मूलः सबविलविअंगीअं, सबंनट विडंबिध सव्वे आहरणाभारा, सव्वेकामादुहावहा||२|| छायाः सर्वं विलपितं गीतं, सर्वं नृत्यं विडम्बितम। सर्वाण्याभरणानि भाराः, सर्वे कामा दुःखावहाः / / 22 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सव्वं) सारे (गीअं) गीत (विलवियं) विलाप के समान हैं। (सव्वं) सारे (नट्ट) नृत्य (विडंबिअं) विडम्बना रूप हैं। (सब्वे) सारे (आहरणा) आभरण (भारा) भार के समान हैं और (सव्वे) सम्पूर्ण (कामा) काम भोग (दुहावहा) दुःख प्राप्त कराने वाले हैं। _भावार्थ : हे गौतम! सारे गीत विलाप के समान हैं। सारे नृत्य विडम्बना के समान हैं। सारे रत्न जड़ित आभरण भार रूप हैं और सम्पूर्ण काम भोग जन्म जन्मांतरों में दुख देने वाले हैं। 0000000000000000 5000000000000000000000000000000000000 5000000 5000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/147 10000000000000000000 af Education internauonar For Personal & Private Use calsO00000000000000000 0000000000000mnyairlibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 doooooooooooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 मूलः जहेह सीहो व मिअं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। नतस्समायावपिआवभाया, कालम्मितम्मंसहराभवंति||२३|| छायाः यथेह सिंह इव मृगं गृहीत्वा, मृत्युर्नर नयति ह्यन्तकाले। न तस्य माता वा पिता वा भ्राता, काले तस्यांशधरा भविन्त।।२३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस संसार में (जहा) जैसे (सीहो) सिंह (मिअं) मृग को (गहाय) पकड़कर उसका अन्त कर डालता है। (व) वैसे ही (मच्चू) मृत्यु हु) निश्चय करके (अन्तकाले) आयुष्य पूर्ण होने पर (नरं) मनुष्य को (नेइ) परलोक में ले जाकर पटक देती है। (कालम्मि) उस काल में (माया) माता (वा) अथवा (पिआ) पिता (व) अथवा (भाया) भ्राता (तम्मसहरा) उसके दुःख को अंशमात्र भी बंटाने वाले (न) नहीं. (भवंति) होते हैं। ___भावार्थ : हे आर्य! जिस प्रकार सिंह भागते हुए मृग को पकड़कर उसे मार डालता है। इसी तरह मृत्यु भी मनुष्य का अन्त कर डालती है। उस समय उसके माता-पिता, भाई आदि कोई भी उसके दुःख का बंटवारा करके भागीदार नहीं बनते। अपनी निजी आयु में से आयु का कुछ भाग देकर मृत्यु से उसे बचा नहीं सकते हैं। मूल: इमंच मे अत्यि इमंच नत्यि, इमंच मे किच्चामिमं अकिच्चं| वंएवमेवंलालप्पमाणं, हराहरंतितिकडंपमाए||२४|| छायाः इदं च मेऽस्ति, इदम् च नास्ति, इदं च कृत्यमिदमकृत्यम् / तमेवमेवं लालप्पमान, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः।।२४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इम) यह (म) मेरा (अस्थि) है, (च) और (इम) यह घर (मे) मेरा (नत्थि) नहीं है, यह (किच्च) करने योग्य है (च) और (इम) यह व्यापार (अकिच्च) नहीं करने योग्य है, (एवमेव) इस प्रकार (लालप्पमाण) बोलने वाले प्रमादियों के (त) आयु को (हरा) रात दिन रूप चोर (हरंति) हरण कर रहे हैं (त्ति) इसलिए (कह) कैसे (पमाए) प्रमाद कर रहे हो? भावार्थ : हे गौतम! यह मेरा है, यह मेरा नहीं है यह काम करने का है और यह बिना लाभ का व्यापार आदि मेरे नहीं करने का है। इस प्रकार बोलने वालों का आयु तो रात दिन रूप चोर हरण करते जा रहे हैं। फिर प्रमाद क्यों करते हो? अर्थात् एक ओर मेरे तेरे की कल्पना और करने न करने के संकल्प चालू बने रहते हैं और दूसरी ओर काल रूपी चोर जीवन को हरण कर रहा है। अतः शीघ्र ही सावधान हरेकर परमार्थ साधन में लग जाना चाहिए। goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 300000000000000000000000 5000000000000000000c VM Jain Edi ferational doooo000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/148 ra 00000000 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO 000000000 अध्याय चौदह - वैराग्य सम्बोधन ||श्रीभगवानुवाच|| मूल : संबुज्झाह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा, णो हवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणारावि जीवियं||१|| छायाः संबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं, सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा। नो खल्वुपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम्।।१।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (संबुज्झह) धर्म बोध करो (किं) सुविधा पाते हुए क्यों (न) नहीं (बुज्झह) बोध करते हो?क्योंकि (पेच्च) परलोक में (खलु) निश्चय ही (संबोही) धर्म-प्राप्ति होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। (राइओ) गयी हुई रात्रि (णो) नहीं (ह) निश्चय (उवणमंति) पीछी आती है। (पुणरावि) और फिर भी (जीवियं) मनुष्य जन्म मिलता (सुलभं) सुगम (न) नहीं है। ___भावार्थ : हे पुत्रो! सम्यक्त्व रूप धर्म बोध को प्राप्त करो। सब तरह से सुविधा होते हुए भी धर्म को प्राप्त क्यों नहीं करते?अगर मानव जन्म में धर्मबोध प्राप्त न किया, तो फिर धर्मबोध प्राप्त होना महान कठिन है। गया हुआ समय तुम्हारे लिए वापस लौटकर आने का नहीं, और न मानव जीवन ही सुलभता से मिल सकता है। मूल : डहरा बुड्ढाय पासह, गब्भत्या विचयंति माणवा। सेणे जह बट्टयं हरे, एवमायाउ खयम्मि तुट्टई||२|| छाया: डिंभावृद्धाः पश्यत, गर्भस्था अपि त्यजन्ति मानवः / श्येनों यथा वर्तकं हरेत्, एवमायुक्षये त्रुट्यति।।२।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (पासह) देखो (डहरा) बालक तथा (बुड्ढा) वृद्ध (चयंति) शरीर त्याग देते हैं और (गब्भत्था) गर्भस्थ (माणवा वि) मनुष्य भी शरीर त्याग देते हैं (जह) जैसे (सेणे) बाज पक्षी (वट्टयं) बटेर को (हरे) हरण कर ले जाता है (एव) इसी तरह (आउ खयम्मि) उम्र के बीत जाने पर (तुट्टई) मानव जीवन टूट जाता है। भावार्थ : हे गौतम! देखो कितने तो बालवय में ही तथा कितने वृद्धावस्था में अपने मानव शरीर को छोड़ कर यहां से चल बसते हैं और कितने गर्भावस्था में ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे, बाज पक्षी अचानक बटेर को आ दबोचता है, वैसे ही न मालूम किस समय gooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope boooooooooooor थ प्रवचन 149 ForPersonal &PriMate Use onDo000000000000000Opairedibrary.org Epagal 300000oooooodh ल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf आयु के क्षय हो जाने पर मृत्यु प्राणों को हरण कर लेगी। अर्थात् आयु के क्षय होने पर मानव जीवन की श्रृंखला टूट जाती है। मूल : मायाहिं पियाहिं लुप्पइ, नो सुलहा सुगई य पेच्चओ। एयाइं भयाइं पहिया, आरंभा विरमेज्ज सुब्बए||३|| छायाः मातृभिः पितृभिलृप्यते, नो सुलभा सुगतिश्च प्रेत्यतु। एतानि भयानि प्रेक्ष्य, आरम्भद्विरमेत्सुव्रतः / / 3 / / अन्वयार्थ : हे पुत्रो! माता पिता के मोह में फंसकर जो धर्म नहीं, करता है, वह (मायाहिं) माता (पियाहिं) पिता के द्वारा ही (लुप्पइ) परिभ्रमण करता है (य) और उसे (पेच्चओ) परलोक में (सुगई) सुगति मिलना (सुलहा) सुलभ (न) नहीं है। (एयाइं) इन (भयाइं) भयों को (पहिया) देखकर (आरंभा) हिंसादि आरंभ से (विरमेज्ज) निवृत्त हो, वही (सुव्वए) सुव्रत वाला है। भावार्थ : हे गौतम! माता पितादि कौटुम्बिक जनों के मोह में फंस कर जिसने धर्म नहीं किया, वह उन्हीं के कारण संसार के चक्र में अनेक प्रकार के कष्टों को उठाता हुआ भ्रमण करता रहता है और जन्म जन्मान्तरों में भी उसे सुगति का मिलना सुलभ नहीं है। अतः इस प्रकार संसार में भ्रमण करने से होने वाले अनेकों कष्टों को देखकर जो हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि कामों से विरक्त रहे वही मानव जीवन को सफल करने वाला सुव्रती पुरुष है। मूल: जमिणं जगती पुढोजगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो। सयमेव कडेहिं गाहइ, णो तस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठयं||४|| छायाः यदिदं जगति पृथक् जगत्, कर्मभिलुप्यन्ते प्राणिनः / स्वयमेव कृतैाहते नो, तस्य मुच्येत् अस्पृष्टः / / 4 / / अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (जम्मिणं) जो हिंसा से निवृत्त नहीं होते हैं उनको याद होता है कि (जगती) संसार में (पाणिणो) वे प्राणी (पुढो) पृथक् पृथक् (जगा) पृथ्वी आदि स्थानों में (कम्मेहिं) कर्मों से (लुप्पंति) भ्रमण करते हैं। क्योंकि (सयमेव) अपने (कडेहिं) किये हुए कर्मों के द्वारा (गाहइ) नरकादि स्थानों को प्राप्त करते हैं। (तस्स) उन्हें (ऽपुठ्ठयं) कर्म स्पर्शे अर्थात् भोगे बिना (णो) नहीं (मुच्चेज्ज) छोड़ते हैं। भावार्थ : हे पुत्रो! जो हिंसादि से मुंह नहीं मोड़ते हैं, वे इस संसार में पृथ्वी, पानी, नरक और तिर्यंच आदि अनेकों स्थानों और 0000000000000000000000 00000000000000000 ooooood Jain Educa निर्गन्थ प्रवचन/150, 00000000000000000 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000c योनियों में कष्टों के साथ घूमते रहते हैं क्योंकि उन्होंने स्वयमेव ही ऐसे कार्य किये हैं कि जिन कर्मों के भोगे बिना उनका छुटकारा कभी हो ही नहीं सकता है। मूल : विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकायरियाइपीसणा। पाणे ण हणंति सबसो, पावाओ विरयाभिनिबुडा||५|| छाया: वीरता वीराः समुत्थिताः, क्रोधकातरिकादिषीषणः / प्राणन्न घनन्त सर्वशः पापाद्विरता अभिनिर्वृताः / / 5 / / अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (विरया) जो पौद्गलिक सुखों से विरक्त है और (समुठिया) सदाचार के सेवन करने में सावधान है, (कोहकायरियाइ) क्रोध, माया और उपलक्षण से मान एवं लोभ को (पीसणा) नाश करने वाला है, (सव्वसो) मन, वचन, काया से जो (पाणे) प्राणों को (ण) नहीं (हणंति) हनता है (पावाओ) हिंसाकारी अनुष्ठानों से जो (विरयाभिनिव्वुडा) विरक्त है और क्रोधादि से उपशान्त है चित्त जिसका, उसको (वीरा) वीर पुरुष कहते हैं। भावार्थ : हे पूत्रों! मार काट या युद्ध करके कोई वीर कहलाना चाहे तो वास्तव में वह वीर नहीं है। वीर तो वह है जो पौद्गलिक सुखों से अपना मन मोड़ लेता है, सदाचार का पालन करने में सदैव सावधानी रखता है, क्रोध, मान, माया और लोभ इन्हें अपना आन्तरिक शत्रु समझ कर, इनके साथ युद्ध करता रहता है और उस युद्ध में उन्हें नष्ट कर विजय प्राप्त करता है, मन, वचन और काया से किसी तरह दूसरों का हक में बुरा न हो, ऐसा हमेशा ध्यान रखता रहता है और हिंसादि आरम्भ से दूर रहकर जो उपशान्त चित्त से रहता है। मूलः जेपरिभवईपरंजणं,संसारेपरिवत्तईमहं। * अदुइंखिणियाउंपाविया, इतिसंखायमुणीणमज्जई||६|| छायाः यः परिभवति परं जनं, संसारे परिवर्त्तते महत्। अतः इंखिनिका तु पापिका, इति संख्याय मुनिन माद्यतिः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे पुत्रों! (जे) जो (पर) दूसरे (जणं) मनुष्य को (पारिभवई) अवज्ञा से देखता है, वह (संसारे) संसार में (मह) अत्यन्त (परिवत्तइं) परिभ्रमण करता है (अदु) इसलिए (पाविया) पापिनी (इंखिणिया) निंदा को (इति) ऐसी (संखाय) जानकर (मुणी) साधु पुरुष (ण) नहीं (मज्जई) अभिमान करे। goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ooood 500000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/151 w a boo0000000000000oodi lion International For Personal & Private Use Only Sooo000000000000006 AN Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे पुत्रों! जो मनुष्य अपने से जाति, कुल, बल, रूप आदि में न्यून हो, उसकी अवज्ञा या निन्दा करने से, वह मनुष्य दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। जिस वस्तु को पाकर निन्दा की थी, वह पापिनी निन्दा उससे भी अधिक हीनावस्था में पटकने वाली है। ऐसा जानकर साधुजन न तो कभी दूसरे की निन्दा ही करते हैं, और न, पायी हुई वस्तु ही का कभी गर्व करते हैं। मूल: जे इह सायाणुगनरा, अज्झोववन्ना कामेहिं मुच्छिया। किवणेणसमंपगभिया, न विजणंतिसमाहिमाहित|७|| छायाः य इह सातानुगनरा, अध्युपपन्नाः कामैच्छिताः। कृष्णेन समं प्रगल्भिताः न विजानन्ति समाधिमाण्यातम्।।७।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (इह) इस संसार में (जे) जो (नरा) मनुष्य (सायाणुग) ऋद्धि, रस साता के (अज्झोववन्ना) साथ (कामेहि) काम भोगों से (मुच्छिया) मोहित हो रहे हैं, और (किवणेण सम) दीन सरीखे (पगमिया) घेटे हैं वे (आहित) कहे हुए (समाहि) समाधि मार्ग को (न) नहीं (वि जाणंति) जानते हैं। भावार्थ : हे पुत्रो! इस संसार में अनेक प्रकार के वैभवों से युक्त जो मनुष्य है, वे काम भोगों में आसक्त होकर कायर की तरह बोलते हुए, धर्माचरण में हठीलापन दिखाते हैं, उन्हें ऐसा समझो कि वे वीतराग के कहे हुए समाधि मार्ग को नहीं जानते हैं। मूलः अबक्खुव दक्खुवाहियं, सद्दहसु अद्दवखुदंसणा। हंदि हुसुनिरुद्भदंसणे, मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणाlllll छायाः अपश्य इव पश्वव्याख्यातं, श्रद्धस्व अपश्यक दर्शनाः। हहो हि सुनिरुद्धदर्शनाः, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा।।८।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (अद्दक्खुव) तुम अन्धे क्यों बने जा रहे हो। (दक्खुवाहियं) जिनने देखा है उनके वाक्यों में (सद्दहसु) श्रद्धा रखो और (हंदि अदक्खुदंसणा) हे ज्ञान शून्य मनुष्यों! ग्रहण करो वीतराग के कहे हुए आगमों को। परलोकादि नहीं है, ऐसा कहने वालों के (मोहणिज्जेण) मोहवश (कडेण) अपने किए हुए (कम्मुणा) कर्मों द्वारा (दसणे) सम्यक् ज्ञान (सुनिरुद्ध) अच्छी तरह ढका है। भावार्थ : हे पुत्रो! कर्मों के शुभाशुभ फल होते हुए भी जो उसकी नास्तिकता बताता है, वह अन्धा ही है। ऐसे को कहना पड़ता है कि 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooc 1000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1523 Jain ESTE ooooooooooooool For Personal & Private Use only 0000 M er org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ soooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooo00000000 Vdoo0000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000 जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप में अपने केवल ज्ञान के बल से स्वर्ग नरकादि देखे हैं, उनके वाक्यों को प्रमाण भूत वह माने और उनके कहे हुए वाक्यों को, ग्रहण कर उनके अनुसार अपनी प्रकृति बनावे। हे ज्ञान शून्य मनुष्यों! तुम कहते हो कि वर्तमान काल में जो होता है, वही है और सब ही नास्तिरूप हैं। ऐसा कहने से तुम्हारे पिता और पितामह की भी नास्तिता सिद्धा होगी और जब इनकी ही नास्ति होगी, तो तुम्हारी उत्पत्ति कैसे हुई?पिता के बिना पुत्र की कभी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। अतः भूतकाल में भी पिता था, ऐसा अवश्य मानना होगा। इसी तरह भूत और भविष्य काल में नरक स्वर्ग आदि के होने वाले सुख दुःख भी अवश्य हैं। कर्मों के शुभ-शुभ फल स्वरूप नरक स्वर्गादि नहीं है, ऐसा जो कहता है, उसका सम्यक् ज्ञान मोहवश किये हुए कर्मों से ढंका हुआ है। मूल : गारं पि अ आवसे नरे, अणुपुत्वं पाणेहिं संजए। समता सव्वत्य सुब्बते, देवाणं गच्छे सलोग||५|| छायाः अगारमपि चावसन्नर, आनुपूर्व्या प्राणेषु संयतः। समता सर्वत्र सुव्रतः, देवानां गच्छेत्सलोकताम्।।६।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (गारं पि उ) घर में (आवसे) रहता हुआ (नरे) मनुष्य भी (अणुपुव्वं) जो धर्म श्रवणादि अनुक्रम से (पाणेहिं) प्राणों की (संजए) यतना करता रहता है। (सव्वत्थ) सब जगह (समता) समभाव है जिसके ऐसा (सुव्वते) सुव्रतवान गृहस्थ भी (देवाणं) देवताओं के (सलोगय) लोक को (गच्छे) जाता है। भावार्थ : हे पुत्रो! जो गृहस्थावास में रहकर भी धर्म श्रवण करके अपनी शक्ति के अनुसार अपनों तथा परायों पर सब जगह समभाव रखता हुआ प्राणियों की हिंसा नहीं करता है वह गृहस्थ भी इस प्रकार का व्रत अच्छी तरह पालता हुआ स्वर्ग को जाता है। भविष्य में उसके लिए मोक्ष भी निकट ही है। ॥श्रीसुधर्मोवाच| मूल : अभविंसु पुरा वि भिक्खुवो, आएसा वि भवंति सुन्वता। एयाइं गुणाई आहुते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो||१०|| छायाः अभवत् पुराऽपि भिक्षवः, आगमिष्या अपि सुव्रताः। एतान् गुणाना हुस्ते, काश्यपस्यानु धर्मचारिणः।।१०।। ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000 000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1533 00000000000000ook boo00000000000 Helgary.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oop 00000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे (भिक्खुवो) भिक्षुकों! (पुरा) पहले (अभविंसु) हुए जो (वि) और (आएसा वि) भविष्यत् में होंगे, वे सब (सुव्वता) सुव्रती होने से जिन (भवंति) होते हैं। (ते) वे सब जिन (एयाइं) इन (गुणाई) गुणों को एकसे (आहु) कहते हैं। क्योंकि (कासवस्स) महावीर भगवान के (अणुधम्मचारिणो) वे धर्मानुचारी हैं। भावार्थ : हे भिक्षको! जो बीते हए काल में तीर्थंकर हए हैं, उनके और भविष्यत में होंगे उन सभी तीर्थंकरों के कथनों में अन्तर नहीं होता है। सभी का मन्तव्य एक ही सा है क्योंकि वे सुव्रती होने से राग द्वेष रहित जो जिनपद है, उसको प्राप्त कर लेते हैं और सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। इसी से ऋषभदेव और भगवान महावीर आदि सभी "ज्ञान दर्शन चारित्र से मुक्ति होती है," ऐसा एक ही सा कथन करते हैं। ||श्रीऋषभोवाच| मूल: तिविहेण वि पाणमा हणे, आयहिते अणियाण संबुडे। एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अणागयावरे||११ छायाः त्रिविधेनापि प्रणान् मा हन्यात्, आत्महितोऽनिदानः संवृतः। एवं सिद्धा अनन्तशः, संप्रति ये अनागत अपरे।।११।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (जे) जो (आयहिते) आत्म हित के लिए (तिविहेण वि) मन, वचन, कर्म से (पाण) प्राणों को (मा हणे) नहीं हनते (अणियाण) निदान रहित (संवुडे) इन्द्रियों को गोपे (एवं) इस प्रकार का जीवन करने से (अणंतसो) अनंत (सिद्धा) मोक्ष गये हैं और (सम्पइ) वर्तमान में जा रहे हैं (अणागयावरे) और अनागत अर्थात् भविष्यत् में जावेंगे। _ भावार्थ : हे पुत्रों! जो आत्महित के लिए एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत प्राणी मात्र की मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करते हैं और अपनी इन्द्रियों को विषय वासना की ओर घूमने नहीं देते हैं, बस इसी व्रत के पालन करते रहने से भूत काल में अनंत जीव मोक्ष पहुंचे हैं और वर्तमान में जा रहे हैं। इसी तरह भविष्यत् काल में भी जावेंगे। ||श्रीभगवानुवाच।। मूलः संबुज्झहा जंतवो माणुसतं, दर्छ भयं वालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिएवलोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेइ||२|| 50000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g So00000000000000000000000 JainEdline ternational Jo0000000000000000 निम्रन्थ प्रवचन/154 Neeraorg 00000000000000000 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः संबुध्यध्वम् जन्तव! मानुष्यत्वं, दृष्ट्वा भयं बालिशेनालंभः। एकान्ते दुःखाज्ज्वरित इव लोकः, स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति।।१२।। अन्वयार्थ : (जंतवो) हे मनुजो! तुम (माणुसत्तं) मनुष्यता को (संबुज्झहा) अच्छी तरह जानो। (भयं) नरकादि भय को (दुठ्ठ) देखकर (वालिसेणं) मूर्खता के कारण विवेक को (अलंभो) जो प्राप्त नहीं करता वह (सकम्सुणा) अपने किये हुए कर्मों के द्वारा (जरि) ज्वर से पीड़ित मनुष्यों की भांति (एगंत दुक्खे) एकान्त दुख युक्त (लोए) लोक में (विप्परियासुवेइ) पुनः पुनः जन्म मरण को प्राप्त होता है। _भावार्थ : हे मनुजो! दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त कर के फिर भी जो सम्यक् ज्ञान आदि को प्राप्त नहीं करते हैं, और नरकादि के नाना प्रकार के दुःख रूप भयों के होते हुए भी मूर्खता के कारण विवेक को प्राप्त नहीं करते हैं, वे अपने किये हुए कर्मों के द्वारा ज्वर से पीड़ित मनुष्यों की तरह एकान्त दुःखकारी जो यह लोक है, इसमें पुनः पुनः जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं। मूल : जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेधावी, अझप्पेण समाहरे||१३|| छायाः यथा कूर्मः स्वांगानि स्वदेहे समाहरेत्। एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत्।।१३।। अन्वयार्थ : हे आर्य! (जहा) जैसे (कुम्मे) कछुआ (सअंगाई) अपने अंगोपांगों को (सए) अपने (देहे) शरीर में (समाहरे) सिकोड़ लेता है (एवं) इसी तरह (मेधावी) पण्डित जन (पावाइं) पापों को (अज्झप्पेण) अध्यात्म ज्ञान से (समाहरे) संहार कर लेते हैं। __भावार्थ : हे आर्य! जैसे कछुआ अपना अहित होता हुआ देखकर अपने अंगोपांगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, इसी तरह पण्डितजन भी विषयों की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियों को अध्यात्मिक ज्ञान से संकुचित कर रखते हैं। मूल: साहरे हत्यपाए य, मणं पश्चेन्दियाणि या पावकं च परिणाम भासा, दोसंच तारिसं||१४|| छायाः संहरेत् हस्तपादोवा, मनः पञ्चेन्द्रियाणि च। पापकं च परिणामं भाषादोषंच तादृशम्।।१४।। _अन्वयार्थ : हे आर्य! (तारिस) कछुवे की तरह ज्ञानी जन (हत्थपाए य) हाथ और पावों की व्यर्थ चलन क्रिया को (मणं) मन की चपलता को 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooog निर्ग्रन्थ प्रवचन/155 GO d 00000000000000000MA ucation International 00000000000 For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og soooo0000000000000000000000000000000000000000000 Boo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (य) और (पंचेन्द्रियाणि) विषय की ओर घूमती हुई पाँचों ही इन्द्रियों को (च) और (पावकं) पाप के हेतु (परिणाम) आने वाले अभिप्राय को (च) और (भासादोस) सावध भाषा बोलने को (साहरे) रोके रखते हैं। _भावार्थ : हे आर्य! जो ज्ञानीजन हैं, वे कछुए की तरह अपने हाथ पावों को संकुचित रखते हैं। अर्थात् उनके द्वारा पाप कर्म नहीं करते हैं और पापों की ओर घूमते हुए इस मन के वेग को रोकते हैं। विषयों की ओर इन्द्रियों को झांकने तक नहीं देते हैं और बुरे भावों को हृदय में नहीं आने देते और जिस भाषा से दूसरों का बुरा होता हो, ऐसी भाषा भी कभी नहीं बोलते हैं। मूल : एयं खुणाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं| अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया||१५|| छायाः एतत् खलु ज्ञानिनः सारं, यन्न हिंस्यति कञ्चन्। अहिंसा समयं चैव, एतावती विज्ञानिता।।१५।। अन्वयार्थ : हे आर्य! (खु) निश्चय करके (णाणिणो) ज्ञानियों का (एय) यह (सारं) तत्व है कि (ज) जो (कंचणं) किसी भी जीव की (न) नहीं (हिंसति) हिंसा करते (अहिंसा) अहिंसा (चेव) ही (समय) शास्त्रीय तत्व है (एतावंत) बस, इतना ही (वियाणिया) विज्ञान है। यह यथेष्ट ज्ञानीजन है। भावार्थ : हे आर्य! ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात उन ज्ञानियों का सारभूत तत्व यही है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते। वे अहिंसा ही को शास्त्रों का प्रधान विषय समझते हैं। वास्तव में इतना जिसे सम्यक् ज्ञान है वही यथेष्ट ज्ञानीजन है। बहुत अधिक ज्ञान सम्पादन करके भी यदि हिंसा को न छोड़े, तो उनका विशेष ज्ञान भी अज्ञान रूप है। मूल: संबुज्झामाणे उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएजा। हिंसप्पसूयाइंदुहाइंमत्ता, वेराणुबंधीणिमहब्भयाणि||१६|| छायाः संबुद्ध्यमानस्तु नरे मतिमान्, पापादात्मानं निवर्तयेत्। हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, बैरानुबन्धीनि महाभयानिः।।१६।। अन्वयार्थ : हे आर्य! (संबुज्झमाणे) तत्वों को जानते वाला (मतीम) बुद्धिमान (णरे) मनुष्य (हिंसप्पसूयाई) हिंसा से उत्पन्न होने वाले (दुहाई) दुःखों को (वराणुबंधीणि) कर्मबंध हेतु (महब्भयाणि) महाभयकारी (मत्ता) 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooo Jain E निर्गन्थ प्रवचन/1563 = 0 booooooooo0000000dnararylorg Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मान कर (पावाउ) पाप से (अप्पाण) अपनी आत्मा को (निवट्टएज्जा) निवृत्त करते रहते हैं। भावार्थ : हे आर्य! बुद्धिमान मनुष्य वही है, जो सम्यक ज्ञान को प्राप्त करता हुआ, हिंसा से उत्पन्न होने वाले दुःखों को कर्मबंध का हेतु और महाभयकारी मानकर, पापों से अपनी आत्मा को दूर रखता है। मूल: आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे। जे धम्मंसुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणालिसं||१७|| छायाः आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्न शोकोऽनाश्रवः। यो धर्मं शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनादृशम्।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (आयगुत्ते) आतमा को गोपता हो (सया) हमेशा (दंते) इन्द्रियों का दमन करता हो (छिन्नसोए) संसार के स्रोतों को मूंदने वाला या इष्ट वियोग आदि के शोक से रहित और (अणासवे) नूतन कर्म बंधन रहित जो पुरुष हो, वह (पडिपुन्न) परिपूर्ण (अणेलिस) अनन्य (सुद्धं) शुद्ध (धम्म) धर्म को (अक्खाति) कहता है। भावार्थ : हे गौतम! जो अपनी आत्मा का दमन करता है, इन्द्रियों के विषयों के साथ जो विजय को प्राप्त करता है, संसार में परिभ्रमण करने के हेतुओं को नष्ट कर डालता है और नवीन कर्मों का बंध नहीं करता है, अथवा इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग आदि होने पर भी जो शोक नहीं करता-समभावी बना रहता है, वही ज्ञानीजन हितकारी धर्म मूलक तत्वों को कहता है। मूलः न कम्मुणा कम्म खति बाला, अकम्मुणा कम्म खवैति धीरा। मेधाविणोलोभमयावतीता, संतोसिणोनोपकरेंतिपावं||१८|| छायाः न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः। मेधाविनो लोभमदव्यतीताः, सन्तोषिणो नोपकुर्वन्ति पापम्।।१८।। . अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बाला) जो अज्ञानीजन हैं वे (कम्मुणा) हिंसादि कामों से (कम्म) कर्म को (न) नहीं (खंवेति) नष्ट करते हैं, किन्तु (धीरो) बुद्धिमान मनुष्य (अकम्मुणा) अहिंसादिको से (कम्म) कर्म (खंवेति) नष्ट करते हैं, (मेधाविणो) बुद्धिमान् (लोभमया) लोभ तथा मद से (वतीता) रहित (संतोसिणो) संतोषी होते हैं, वे (पावं) पाप (नो पकरेंति) नहीं करते हैं। भावार्थ : हे गौतम! हिंसादि के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को हिंसादि से ही जो अज्ञानी जीव नष्ट करना चाहते हैं, यह उनकी भूल 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool निर्ग्रन्थ प्रवचन/1576 0000000000000ood Dein Education International Doo00000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हैं प्रत्युत कर्मनाश के बदले उनके गाढ़े कर्मों का बंध होता है। क्योंकि खून से भीगा हुआ कपड़ा खून ही के द्वारा कभी साफ नहीं होता है। बुद्धिमान् तो वही है, जो हिंसादि के द्वारा बंधे हुए कर्मों को अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य आदि के द्वारा नष्ट करते हैं और वे लोभ ओर मद से रहित होकर संतोषी हो जाते हैं। वे फिर भविष्यत् में नवीन पाप कर्म नहीं करते हैं। यहाँ 'लोभ' शब्द राग का सूचक और 'मद' द्वेष का सूचक है। अतएव लोभ या माया शब्द का अर्थ राग द्वेष समझना चाहिए। मूलः डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सब्बलोए। उल्लेहती लोगमिणंमहतं, बुद्धेऽपमचेसुपरिव्वएज्जा||१९|| छायाः डिभश्च प्राणो वृद्धश्च प्राणः, स आत्मवत् पश्यति सर्वलोकान्। उत्प्रेक्षते लोकमिमं महान्तम्, बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (डहरे) छोटे (पाणे) प्राणी (य) और (बुड्ढे) बड़े (पाणे) प्राणी (ते) उन सभी को (सव्वलोए) सर्व लोक में (आत्तउ) आत्मवत् (पासइ) जो देखता है (इणं) इस (लोग) लोक को (महंत) बड़ा (उव्वेहती) देखता है (बुद्ध) वह तत्वज्ञ (अपमत्तेसु) आलस्य रहित संयम में (परिव्वएज्जा) गमन करता है। भावार्थ : हे गौतम! चींटियाँ, मकोड़े, कंथवे आदि छोटे छोटे प्राणी और गाय, भैंस, हाथी बकरा आदि बड़े-बड़े प्राणी आदि सभी को अपने आत्मा के समान जो समझता है और महान लोक को चराचर जीव के जन्म-मरण से अशाश्वत देखकर जो बुद्धिमान मनुष्य संयम में रत रहता है। वही मोक्ष में पहुंचने का अधिकारी है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1583 18000000000000000000 For Personal & Privateuse Orissoor 100000000000000KNarvard Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय पन्द्रह - मनो निग्रह ||श्रीभगवानुवाच|| मूल : एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दसा दसहा उ जिणिताणं, सबसचू जिणामह||१|| छायाः एकस्मिन् जिते जिताः पञ्च, पंचसु जितेषु जिता दश। दशधा तु जित्वा, सर्वशत्रून् जयाम्यहम्।।१।। अन्वयार्थ : हे मुनि! (एगे) एक मन को (जिए) जीतने पर (पंच) पांचों इन्द्रियाँ (जिया) जीत ली जाती है और (पंच) पाँच इन्द्रियाँ (जिए) जीतने पर (दस) एक मन पाँच इन्द्रियाँ और चार कषाय, यों दसों (जिया) जीत लिये जाते हैं। (दसहा उ) दशों को (जिणित्ता) जीतकर (णं) वाक्यालंकार (सव्वसत्तू) सभी शत्रुओं को (मह) मैं (जिणा) जीत लेता हूँ। भावार्थ : हे मुनि! एक मन को जीत लेने पर पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली जाती है और पांचों इन्द्रियों को जीत लेने पर एक मन पाँच इन्द्रियाँ और क्रोध, मान, माया, लोभ ये दशों ही जीत लिये जाते हैं और इन दशों को जीत लेने से, सभी शत्रुओं को जीता जा सकता है। इसीलिए सब मुनि और गृहस्थों के लिए एक बार मन को जीत लेना श्रेयस्कर है। मूल: मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई। तं सम्मंतु निगिण्हामि, धम्मसिक्कखड़ कंथग||२|| छायाः मनः साहसिको भीमः दुष्टाश्वः परिधावति। तं सम्यक् तु निगृहणामि, धर्मशिक्षायै कन्थकम्।।२।। - अन्वयार्थ : हे मुनि! (मणो) मन बड़ा (साहसिओ) साहसिक और (भीमो) भयंकर (दुट्ठस्स) दुष्ट घोड़े की तरह इधर उधर (परिधावई) दौड़ता है (तं) उसको (धम्म-सिक्खाइ) धर्म रूप शिक्षा से (कंथग) जातिवंत अश्व की तरह (सम्म) सम्यक् प्रकार से (निगिण्हामि) ग्रहण करता है। भावार्थ : हे मुनि! यह मन अनर्थों के करने में बड़ा साहसिक और भयंकर है। जिस प्रकार दुष्ट घोड़ा इधर-उधर दौड़ता है उसी तरह यह मन भी ज्ञान रूप लगाम के बिना इधर-उधर चक्कर मारता फिरता है। ऐसे इस मन को धर्म रूप शिक्षा से जातिवंत घोड़े की तरह मैंने निग्रह 99000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooot 0000000000000 500000000000000000006 0000000000000000000 al Education internationals निर्ग्रन्थ प्रवचन/159 TO For Personal & Private Use Only 000000000000000000 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Agoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 o000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर रखा है। इसी तरह सब मुनियों को चाहिए कि वे ज्ञान रूप लगाम से इस मन को निग्रह करते रहें। मूल : सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव या चउत्थी असच्चमोसा य, मणगुत्ती चउलिहा||३|| छाया: सत्या तथैव मृषा च सत्यामुषा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यामृषा तु, मनोगुप्तिश्चतुर्विधा / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मणगुत्ती) मन गुप्ति (चउव्विहा) चार प्रकार की है। (सच्चा) सत्य (तहेव) तथा (मोसा) मुषा (य) और (सच्चामोसा) सत्य मृषा (य) और (तहेव) वैसे ही (चउत्थी) चौथी (असच्चमोसा) असत्यमृषा है। भावार्थ : हे गौतम! मन चारों ओर घूमता रहता है। (1) सत्य विषय में (2) असत्य विषय में (3) कुछ सत्य और कुछ असत्य विषय में, (4) सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं ऐसे असत्यमृषा विषय में प्रवृत्ति करता है। जब यह मन असत्य कुछ सत्य और कुछ असत्य इन दो विभागों में प्रवृत्ति करता है तो महान अनर्थों को उपार्जन करता है। उन अनर्थों के भार से आत्मा अधोगति में जाती है। अतएव असत्य और मिश्र की ओर घूमते हुए इस मन को निग्रह करके रखना चाहिए। मूल: संरंभसंमारंभे, आरंभिम्मिय तहेव या मणं पवत्तमाणंतु, निअत्तिज्ज जयं जई||४|| छायाः संरंभे समारंभे, आरंभे च तथैव च। मनः प्रवर्तमान तु, निवर्तयेद्यत यतिः / / 4 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जयं) यत्नवान् (जई) यति (संरंभसमारंभे) किसी को मारने के संबंध में और पीड़ा देने के सम्बन्ध में (य) और (तहेव) वैसे ही (आरम्भम्मि) हिंसक परिणाम के विषय में (पवत्तमाणं तु) प्रवृत्त होते हुए (मणं) मन को (निअत्ति ज्ज) निवृत्त करना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! यत्नवान साधु हो, या गृहस्थ हो, चाहे जो हो, किन्तु मन के द्वारा कभी भी ऐसा विचार तक न करे कि अमुक को मार डालूं या उसे किसी तरह पीड़ित कर दूं तथा उसका सर्वस्व नष्ट कर डालूं। क्योंकि मन के द्वारा ऐसा विचार मात्र कर लेने से वह आत्मा महा पातकी बन जाता है। अतएव हिंसक अशुभ परिणामों की ओर जाते हुए इस मन को पीछे घुमाओ और निग्रह करके रखो। इसी तरह कर्म बन्धने की ओर घूमते हुए, वचन और काया को भी निग्रह करके रखो।' 990000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain निर्गस्थ प्रवचन/160, KRIORal 00000000000000000 AIDADUCERAMAdh 200000000000866 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : वत्यगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि या अच्छंदाजे नभुंजंति, न से चाइ ति वुच्चई||५|| छायाः वस्त्रगन्धमलंकारं, स्त्रियः शयनानि च। अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति, न ते त्यागिन इत्युच्यते।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वत्थगंधमलंकार) वस्त्र, सुगंध, भूषण (इत्थीओ) स्त्रियो (य) और (सयणाणि) शय्या वगैरह को (अच्छंदो) पराधीन होने से (जे) जो (न) नहीं (भुजंति) भोगते हैं (से) वे (चाइ) त्यागी (न) नहीं (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहा है। ___भावार्थ : हे आर्य! सम्पूर्ण परित्याग अवस्था में, या गृहस्थ की सामायिक अवस्था में, अथवा त्याग होने पर कई प्रकार के बढ़िया वस्त्र, सुगंध, इत्र आदि भूषण वगैरह एवं स्त्रियों और शय्या आदि के सेवन करने की जो मन द्वारा केवल इच्छा मात्र ही करता है, परन्तु उन वस्तुओं को पराधीन होने से भोग नहीं सकता है, उसे त्यागी नहीं कहते हैं, क्योंकि उसकी इच्छा नहीं मिटी, वह मानसिक त्यागी नहीं बना है। मूल : जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिढिकुलहा साहीणे चयई भोए, से हुचाई चि वुच्चइ||६|| छायाः यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्ध्वानपि विपृष्ठीकुरुते। _ स्वाधीनात्त्यजति भोगान्, स हि त्यगीत्युच्यते।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कंते) सुन्दर (पिए) मन मोहक (लद्धे) पाये हुए (भोए) भोगों को (वि) भी (जे) जो (पिट्ठिकुब्वइ) पीछ दे देवें, यही नहीं, जो (भोए) भोग (साहीणे) स्वाधीन हैं उन्हें (चयई) छोड़ देता है। (हु) निश्चय (से) वह (चाइ) त्यागी है (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो गृहस्थाश्रम में रह रहा है, उसको सुन्दर और प्रिय भोग प्राप्त होने पर भी उन भोगों को पीठ दे देता है, यही नहीं, स्वाधीन होते हुए भी उन भोगों का परित्याग करता है। वही निश्चय रूप से सच्चा त्यागी है ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। मूलः समाए पेहाए परिव्ययंतो, सिया मणो निस्सरई बहिदा। "नसामहंनोविअहंपितीसे," इच्चेवताओविणएज्जरागllol छायाः समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यान्मनो निःसरति बहिः / न सा मम नोऽप्यहं तस्याः, इत्येव तस्या विनयेत रागम्।।७।। 090000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000ood 50000000000000000000 00000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/161 Jaimac000000000000000000 For.Personal &Private use only. 300000000000000 amavbajartemblery.org. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000 0000000000000000000000000000000 Pooooooooooooooooooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (समाए) समभाव से (पेहाए) देखता हआ जो (परिव्वयंतो) सदाचार सेवन में रमण करता है। उस समय (सिया) कदाचित् (मणो) मन उसका (बहिद्धा) संयम जीवन से बाहर (निस्सरई) निकल जाए तो विचार करे कि (सा) वह (मह) मेरी (न) नहीं है। और (अहं पि) मैं भी (तीसे) उसका (नो वि) नहीं ही हूँ। (इच्चेव) इस प्रकार विचार कर (ताओ) उससे (राग) स्नह भाव को (विणएज्ज) दूर करना चाहिए। भावार्थ : हे आर्य! सभी जीवों पर समदृष्टि रख कर आत्मिक ज्ञानादि गुणों में रमण करते हुए भी प्रमादवश यह मन कभी कभी संयमी जीवन से बाहर निकल जाता है, क्योंकि हे गौतम! यह मन बड़ा चंचल है वायु की गति से भी अधिक तीव्र गतिमान है। अतः जब संसार के मनमोहक पदार्थों की ओर यह मन चला जाए, उस समय यों विचार करना चाहिए कि मन की यह धृष्टता है, जो सांसारिक प्रपंच की ओर घूमता है। स्त्री, पुत्र, धन वगैरह सम्पत्ति मेरी नहीं है और मैं भी इनका नहीं हैं। ऐसा विचार कर उस सम्पत्ति से स्नेह भाव को दूर करना चाहिए। जो इस प्रकार मन का निग्रह करता है, वही उत्तम मनुष्य है। मूल : पाणिवहमुसावायाअदत्तमेहुणपरिग्गहा निरओ। राईभोयणविरओ, जीवो होइ अणासवो||ll छायाः प्राणि वधमृषावाद-अदत्तमैथुनपरिग्रहेभ्यो विरतः। रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अनाश्रवः / / 8 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीवो) जो जीव (पाणि वहमुसावाया) प्राणवध, मृषावाद (अदत्तमेहुणपरिग्गहा) चोरी, मैथुन और ममत्व से (विरओ) विरक्त रहता है और (राइभोयण विरओ) रात्रि भोजन से भी विरक्त रहता है, वह (अणासवो) अनाश्रवी (होइ) होता है। ___ भावार्थ : हे गौतम! आत्मा ने चाहे जिस गति व कुल में जन्म लिया हो, अगर वह हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, ममत्व और रात्रि भोजन से पृथक रहती हो तो वही आत्मा अनाश्रव होती है। अर्थात् उसके भावी नवीन पाप रूक जाते हैं और जो पूर्व भवों के संचित कर्म हैं, वे यहाँ भोग करके नष्ट कर दिये जाते हैं। मूल : जहा महातलागस्स, सनिरुद्धे जलागमे। उरिसंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे||९|| 000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 Jain delantemeten 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1620 T arelibrary.org 00000000000 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooge Vdo000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः यथा महातडागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे। उत्सिंचनेन तपनेन, क्रमेण शोषणा भवेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (महातलागस्स) बड़े भारी एक तालाब के (जलागमे) जल के आने के मार्ग को (सन्निरुद्धे) रोक देने पर, फिर उसमें का रहा हुआ पानी (उस्सिंचणाए) उलीचने से तथा (तवणाए) सूर्य के आतप से (कमेणं) क्रमशः (सोसणा) उसका शोषण (भवे) होता है। भावार्थ : हे आर्य! जिस प्रकार एक बड़े भारी तालाब के जल आने के मार्ग को रोक देने पर नवीन जल उस तालाब में नहीं आ सकता है। फिर उस तालाब में रहे हुए जल को किसी प्रकार उलीच कर बाहर निकाल देने से अथवा सूर्य के आतप से क्रमशः वह सरोवर सूख जाता है। अर्थात् फिर उस तालाब में पानी नहीं रह सकता है। मूल: एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिज्जह||0|| छायाः एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिराश्रवे। भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीर्यते।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इस प्रकार (पावकम्मनिरासवे) जिसके नवीन पाप कर्मों का आना रुक गया है, ऐसे (संजयस्सावि) संयमी जीवन बिताने वाले के (भवकोडिसंचियं) करोड़ों भवों के पूर्वोपार्जित (कम्म) कर्म (तवसा) तप द्वारा (निज्जरिज्जह) क्षय हो जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जैसे तालाब में नवीन आते हुए पानी को रोक कर पहले के पानी को उलीचने से तथा आतप से उसका शोषण हो जाता है। इसी तरह संयमी जीवन बिताने वाला यह जीव भी हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और ममत्व के द्वारा आते हुए पाप को रोककर, जो करोडों भवों में पहले संचित किये हुए कर्म हैं उनको तपस्या द्वारा क्षय कर लेता है। तात्पर्य यह कि आगत कर्मों का संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा ही कर्मक्षय-मोक्ष का कारण है। मूल: सोतवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभितरो वहा। बाहिरो छबिहो वुत्तो, एवमभितरो तवो||१|| छायाः तत्तपो द्विविधमुक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। बाह्यं षड्विधमुक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः।।११।। gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000 Dooooooooooooc 5000000000000000000000 100000000000000 - निर्ग्रन्थ प्रवचन/163 000000000000000000 Education International For Personal & Private Use Only Coooo00000000000006 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot Boooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सो) वह (तवो) तप (दुविहो) दो प्रकार का (वुत्तो) कहा गया है। (बाहिरभिंतरो तहा) बाह्य तथा आभ्यन्तर (बाहिरो) बाह्य तप (छविहो) छ: प्रकार का (वुत्तो) कहा है। (एवं) इसी प्रकार (अभिंतरो) आभ्यन्तर (तवो) तप भी है। __भावार्थ : हे आर्य! जिस तप से पूर्व संचित कर्म नष्ट किये जाते हैं, वह तप दो प्रकार का है। एक बाह्य और दूसरा आभ्यान्तर / बाह्य के छ: प्रकार हैं। इसी तरह आभ्यन्तर के भी छ: प्रकार हैं। मूल : अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया, य बज्झो तवो होइ||२|| छायाः अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। __कायक्लेशः सलीनता च, बाह्य तपो भवतिः।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! बाह्य तप के छ: भेद यों हैं(अणसणमूणोयरिया) अनशन, ऊनोदरिका (य) और (भिक्खायरिया) भिक्षाचर्या (रसपरिच्चाओ) रसपरित्याग (कायकिलेसो) काय क्लेश (य) और (सलीणया) नो इन्द्रियों को वश में करना। यह छ: प्रकार का (बज्झो) बाह्य (तवो) तप (होइ) है। _ भावार्थ : हे गौतम! एक दिन, दो दिन यों छ: छ: महीने तक भोजन का परित्यगा करना, या सर्वथा प्रकार से भोजन का परित्याग करके संथारा कर ले उसे अनशन तप कहते हैं। अनैमित्तिक भोजी होकर नियमानुकूल माँग करके भोजन खाना वह भिक्षाचर्या नाम का तप है। घी, दूध, दही, तेल और मिष्ठान्न आदि का परित्याग करना, वह रस परित्याग तप है। शीत व ताप आदि को सहन करना कायक्लेश नाम का तप है और पांचों इन्द्रियों को वश में करना एवं क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त करना, मन, वचन, काया के अशुभ योगों को रोकना यह छठा संलीनता तप है। इस तरह बाह्य तप के द्वारा आत्मा अपने पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर सकती है। मूल: पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणंच विउस्सग्गो, एसो अभिंवरो तवो||१३|| छायाः प्रायश्चितं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः / ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः / / 13 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! आभ्यन्तर तप के छ: भेद यों हैं। (पायच्छित्तं) प्रायश्चित (विणयो) विनय (वेयावच्चं) वैयावृत्य (तहेव) वैसे 90000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOO निर्ग्रन्थ प्रवचन/164 dooooooooooooooooo s booooooooooooooook ___www.jaineliorary.org. 00000 For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ही (सज्झाओ) स्वाध्याय (झाणो) ध्यान (च) और (विउस्सग्गो) व्युत्सर्ग (एसो) यह (अभिंतरो) आभ्यन्तर (तवो) तप है। ___ भावार्थ : हे आर्य! यदि भूल से कोई गलती हो गई हो तो उसकी आलोचक के पास आलोचना करके शिक्षा ग्रहण करना, इसको प्रायश्चित तप कहते हैं। विनम्र भाव मय अपना रहन-सहन बना लेना, यह विनय तप कहलाता है। सेवा धर्म के महत्व को समझकर सेवा धर्म का सेवन करना वैयावृत्य नामक तप है, इसी तरह शास्त्रों का मनन पूर्वक पठन-पाठन करना स्वाध्याय तप है। शास्त्रों में बताये हुए तत्वों का बारीक दृष्टि से मनन पूर्वक चिन्तन करना ध्यान तप कहलाता है और शरीर से सर्वथा ममत्व को परित्याग कर देना यह छठा व्युत्सर्ग तप है। यों ये छः प्रकार के आभ्यन्तर तप हैं। इन बारह प्रकार के तप में से, जितने भी बन सकें, उतने प्रकार के तप करके पूर्व संचित करोड़ों जन्मों के कर्मों को यह जीव सहज ही में नष्ट कर सकता है। मूल: रुवेसु जो गिदिमुवेइ तिवं, अकालिअंपावइ से विणासं। रागाउरेसे जहवापयंगे, आलोअलोले समुवेइमच्||१४|| छायाः रुपेषु यो गृद्धिमुपैति तीवं, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् / रागातुर्रः स यथा वा पतंग, आलोकलोकः समुपेति मृत्युम्।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जो) जो प्राणी (रूवेस) रूप देखने में (गिद्धि) गृद्धि को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालिअं) असमय (तिव्व) शीघ्र ही (विणासं) विनाश को (पावइ) पाता है (जह वा) जैसे (आलोअलोले) देखने में लोलुप (से) वह (पयंगे) पतंग (रागाउरे) रागातुर (मच्छु) मृत्यु को (समुवेइ) प्राप्त होता है। . भावार्थ : हे गौतम! जैसे देखने का लोलुपी पतंग जलते हुए दीपक की लौ पर गिरकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है। वैसे ही जो आत्मा इन चक्षुओं के वशवर्ती हो विषय सेवन में अत्यन्त लोलुप हो जाती है, वह शीघ्र ही असमय में अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है। मूलः सद्देसु जो गिदिमुवेइ तिळ, अकालिअंपावइ से विणासं| रागाउरे हरिणमिए ब्वमुद्धे,सद्धे अतितेसमुवेइमच्||१५|| छायाः शब्देषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नोति च विनाशम् / रागातुरो हरिणमृग इव मुग्धः शब्देऽतृप्तः समुपैति मृत्युम्।।१५।। goo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOooood 50000000000000 3000000* निर्ग्रन्थ प्रवचन/165 . MERO For Personal & Pivate Use of 0000000000000000 www.jame brary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COO oboo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 00000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (व्व) जैसे (रागाउरे) रागातुर (मुद्धे) मुग्ध (सद्दे) शब्द के विषय से (अतित्ते) आतृप्त (हरिणमिए) हरिण (मच्चुं) मृत्यु को (समुवेइ) प्राप्त होता है, वैसे ही (जो) जो आत्मा (सद्देसु) शब्द विषयक (गिद्धिं) गृद्धि को (मुवेइ) प्राप्त होती है (से) वह (अकालिअं) असमय में (तिव्वं) शीघ्र ही (विणास) विनाश को (पावइ) पाती है। __भावार्थ : हे आर्य! राग भाव में लवलीन, हित अहित का अनभिज्ञ, श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में अतृप्त ऐसा जो हिरण है वह केवल श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती होकर अपना प्राण खो बैठता है। उसी तरह जो आत्मा श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में लोलुप होता है, वह शीघ्र ही असमय में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। मूल: गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिलं, अकालिअं पावइ से विणासं| रागाउरेओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंतेll६|| छायाः गन्धेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। रागातुर औषधगंधगृद्धः, सर्पो बिलान्निव निःक्रामन्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (ओसहिगंध गिद्धे) नाग दमनी औषध की गंध में मग्न (रागाउरे) रागातुर (सप्पे) सर्प (विलाओ) बिल से बाहर (निक्खमते) निकलने पर नष्ट हो जाता है। (विव) ऐसे ही (जो) जो जीव (गंधेसु) गंध में (गिद्धिं) गृद्धिपने को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालिअं) असमय ही में (तिव्वं) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! जैसे नागदमनी गंध का लोलुप ऐसा जो रागातुर सर्प है, वह अपने बिल से बाहर निकलने पर मृत्यु को प्राप्त होता है। वैसे ही जो जीव गंध विषयक पदार्थों में लीन हो जाता है, वह शीघ्र ही असमय में अपनी आयु का अन्त कर बैठता है। मूल: रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिळ, अकालिअं पावइ से विणासं| रागाउरेबडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहाआमिसभोगगिद्धे||१७| छायाः रसेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नौति स विनाशम्। रागातुरो बडिशविभिन्नकायः, मत्स्यो यथाऽऽमिषभोगगृद्धः / / 17 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (आमिसभोगगिद्धे) माँस भक्षण के स्वाद में लोलुप ऐसा (रागाउरे) रागातुर (मच्छे) मच्छ (बडिसविभिन्नकाए) माँस या आटा लगा हुआ ऐसा जो तीक्ष्ण कांटा 5000000000000000000000000000000000 Jain ED UCgpuri 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/166 WWAAIER 00000000000000 Ara Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000 000000OC 0 उससे बिंधकर नष्ट हो जाता है। ऐसे ही (जो) जो जीव (रसेसु) रस में (गिद्धिं) गृद्धिपन को (उवेइ) प्राप्त होता है, (से) वह (अकालिअं) असमय में ही (तिव्वं) शीघ्र (विणासं) विनाश को (पावइ) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार मांस भक्षण के स्वाद में लोलुप जो रागातुर मच्छ है वह मरणावस्था को प्राप्त होता है। ऐसे ही जो आत्मा इस रसेन्द्रिय के वशवर्ती होकर अत्यन्त गृद्धिपन को प्राप्त होती है वह असमय ही में द्रव्य और भाव प्राणों से रहित हो जाता है। मूलः फासस्स जोगिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअंपावइसे विणासं| रागाउरेसीयजलावसब्ने, गाहग्गहीए महिसेवरण्णे||१८|| छायाः स्पर्शेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् / रागातुरः शीतजलावसन्नः ग्राहा गृहीतो महिष इवारण्ये।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (व) जैसे (रण्णे) अरण्य में (सीयजलावसन्ने) शीतल जल में बैठे रहने का प्रलोभी ऐसा जो (रागाउरे) रागातुर (महिसे) भैंसा (गाहग्गहीए) मगर के द्वारा पकड़ लेने पर मारा जाता है, ऐसे ही (जो) मनुष्य (फासस्स) त्वचा विषयक विषय के (गिद्धि) गृद्धिपन को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालिअं) असमय ही में (तिव्वं) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) पाता है। . भावार्थ : जैसे बड़ी भारी नदी में त्वचेन्द्रिय के वशवर्ती होकर और शीतल जल में बैठकर आनंद मानने वाला वह रागातुर भैंसा मगर से जब घेरा जाता है, तो सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। ऐसे ही जो मनुष्य अपनी त्वचेन्द्रिय जन्य विषय में लोलुप होता है, वह शीघ्र ही असमय में नाश को प्राप्त हो जाता है। हे गोतम! जब इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के वशवर्ती होकर भी यह प्राणी अपना प्राणान्त कर बैठते हैं, तो भला उनकी क्या गति होगी जो पांचों इन्द्रियों को पाकर उनके विषय में लोलुप हो रहे हैं?अतः पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य मात्र का परम कर्तव्य और श्रेष्ठ धर्म है। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ooo DOOOOO Pos 5000000000000000000000 30000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/167 100000 boo000000000000OOKaiswary.orgs Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय सोलह - आवश्यक कृत्य ॥श्रीभगवानुवाच मूलः समरेसु अगारेसु, संधीसु य महापहे। एगो एगितिथए सद्धिं, णेव चिढ़े ण संलवे||१|| छायाः समरेषु अगारेषु, सन्धिषु च महापथे। _एक एकस्त्रिया सार्धं, नैव तिष्ठेन्न संलपेत्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (समरेसु) लुहार की शाला मे (अंगारेसु) घरों में (संधीसु) दो मकानों की बीच की संधि में (य) और (महापहे) मोटे पंथ में (एगो) अकेलरा (एगित्थिए) अकेली स्त्री के (सद्धि) साथ (णेव) न तो (चिट्टे) खड़ा ही रहे और (ण) न (संलवे) वार्तालाप करें। भावार्थ : हे गौतम! लुहार की शून्य शाला में, या पड़े हुए खण्डहरों में तथा दो मकानों के बीच में और जहाँ अनेकों मार्ग आकर मिलते हों वहां अकेला पुरुष अकेली औरत के साथ न कभी खड़ा ही रहे और न कभी कोई उससे वार्तालाप ही करे। ये सब स्थाल उपलक्षण मात्र हैं। तात्पर्य यह है कि कहीं भी पुरुष अकेली स्त्री से वार्तालाप न करें। मूल : साणं सूइअंगाविं, दित्तं गोणं हयं गयं| _संडिब्भं कलहं जुद्धं दूरओ परिवज्जए२|| छायाः श्वानं सूतिकां गां, दृप्तं गोणं हयं गजम्। सडिम्भं कलहं युद्धं, दूरतः परिवर्जयेत्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (साणं) श्वान (सूइअं) प्रसूता (गाविं) गो (दित्तं) मतवाला (गोणं) बैल (हय) घोड़ा (गय) हाथी इनको और (संडिब्भ) बालकों के क्रीड़ास्थल (कलह) वाक्युद्ध की जगह (जुद्ध) शस्त्र युद्ध की जगह आदि को (दूरओ) दूर ही से (परिवज्जए) छोड़ देना चाहिए। भावार्थ : हे आर्य! जहाँ श्वान, प्रसूता गाय, मतवाला बैल, हाथी, घोड़े आदि खड़े हों, या परस्पर लड़ रहे हों, वहां ज्ञानीजन को नहीं जाना चाहिए। इसी तरह जहाँ बालक खेल रहे हों या मनुष्यों में परस्पर वाक् युद्ध हो रहा हो, अथवा शस्त्र युद्ध हो रहा हो, ऐसी जगह पर जाना बुद्धिमानों के लिए दूर से ही त्यागने योग्य हैं। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000 00000000000 Doooooooooooook Jain Edomemadona M8000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1680000000000000000017 Enary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0900000000000000000000000 5000000000000000000000000000000r मूल: एगया अचेलए होइ, सचेले आवि एगया। एअंधम्महियं णच्चा, णाणी णो परिदेवए||३|| छायाः एकदाऽचेलको भवति, सचेलको वाप्येकदा। ____एतं धर्मे हितं ज्ञात्वा, ज्ञानी नो परिदेवेत्।।३।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एगया) कभी (अचेलए) वस्त्र रहित (होइ) हो (एगया) कभी (सचेलेआवि) वस्त्र सहित हो, उस समय समभाव रखना (एअं) यह (धम्महिय) धर्म हितकारी (णच्चा) जानकर (णाणी) ज्ञानी (ण) नहीं (परिदेवए) खेदित होता है। _____ भावार्थ : हे गौतम! कभी ओढ़ने को वस्त्र हो या न हो, उस अवस्था में समभाव से रहना, इसी को धर्म हितकारी जान कर योग्य वस्त्रों के होने पर अथवा वस्त्रों के बिलकुल अभाव में या फटे वस्त्रों के प्राप्त होने पर ज्ञानीजन कभी खेद नहीं करते हैं। मूल : अक्कोसेज्जा परे भिक्खू, न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले||४|| छाया: आक्रोशेत् परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत्। सदृशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परे) कोई दूसरा (भिक्खु) भिक्षु का (अक्कोसेज्जा) तिरस्कार करे (तसिं) उस पर वह (न) न (पडिसंजले) क्रोध करे, क्योंकि क्रोध करने से (बालाणं) मूर्ख के (सरिसो) सदृश (होइ) होता है (तम्हा) इसलिए (भिक्खू) भिक्षु (न) न (संजले) क्रोध करे। भावार्थ : हे आर्य! भिक्षु या साधू या ज्ञानी वही है, जो दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होने पर भी उन पर बदले में क्रोध नहीं करता। क्योंकि क्रोध करने में ज्ञानीजन भी मूर्ख के सदृश कहलाता है। इसिलए बुद्धिमान श्रेष्ठ मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध न करें। मूल : समणं संजयं दंतं, हणेज्जा को वि कत्थइ। नत्यि जीवरस नासो ति, एवं पेहिज्ज संजए||५|| छायाः श्रमणं संयतं दान्तं, हन्यात् कोऽपि कुत्रचित्। नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः / / 5 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (को वि) कोई भी मनुष्य (कत्थइ) कहीं 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/169 in Education 00000000000006 For Personal & Private Use Only 00000000000 ang library.org Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oob0000000000000000000000000000000000000000000000000000r पर (संजय) जीवों की रक्षा करने वाले (दंत) इन्द्रियों को दमन करने वाले (समणं) तपस्वियों को (हणेज्जा) ताड़ना करे, उस समय (जीवस्स) जीव का (नासो) नाश (नत्थि) नहीं है (एवं) इस प्रकार (संजए) वह तपस्वी (पहिज्ज) विचार कर। भावार्थ : हे गौतम! सम्पूर्ण जीवों की रक्षा करने वाले तथा इन्द्रिय और मन को जीतने वाले, ऐसे तपस्वी ज्ञानीजनों को कोई मुर्ख मनुष्य कहीं पर ताड़ना भी करे तो उस समय वे ज्ञानी यों विचार करें कि जीव का तो नाश होता ही नहीं है। फिर किसी के ताड़ने पर व्यर्थ ही क्रोध क्यों करना चाहिए! मूल : बालाणं अकामंतु, मरणं असइं भवे। पंडिआणं सकामंतु, उक्कोसेणं सइं भवे||६|| छाया: बालानामकामं तु, मरणमसकृद् भवेत्। पण्डितानां सकामं तु, उत्कर्षेण सकृद् भवेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बालाणं) अज्ञानियों का (अकाम) निष्काम (मरणं) मरण (तु) तो (असई) बार-बार (भवे) होता है। (तु) और (पंडिआण) पण्डितों का (सकाम) इच्छा सहित (मरणं) मरण (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट (सई) एक बार (भवे) होता है। भावार्थ : हे गौतम! दुष्कर्म करने वाले अज्ञानियों को तो बार बार जन्मना और मरना पड़ता है और जो ज्ञानी हैं वे अपना जीवन ज्ञानपूर्वक सदाचारमय बनाकर मरते हैं। वे एक ही बार में मुक्ति धाम को पहुंच जाते हैं। या सात आठ भव से तो ज्यादा जन्म-मरण करते ही नहीं हैं। मूल: सत्यग्गहणं विसभक्खणंच जलणंच जलपवेसया अणायारभंडसेवी, जम्मणमरणाणि बंधंति||७|| छायाः शस्त्रग्रहणं विषभक्षणं च, ज्वलनं च जलप्रवेशश्च। अनाचारभाण्डसेवी च, जन्ममरणानि बध्यते।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो आत्मघात के लिए (सत्थग्गहणं) शस्त्र ग्रहण करे (च) और (विसभक्खणं) विष भक्षण करे (च) और (जलणं) अग्नि में प्रवेश करे, (जलपवेसो) जल में प्रवेश करे (य) और (अणायारभंडसेवी) नहीं सेवन करने योग्य सामग्री की बलात् इच्छा करे। 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Ede निम्रन्थ प्रवचन /170, 5000000000000ooti boo00000000000000000Tra.org Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 300000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000008 ऐसा करने से (जम्मणमरणाणि) अनेकों जन्म-मरण हो ऐसा कर्म (बंधति) बांधता है। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्महत्या करने के लिए, तलवार, बरछी, कटारी आदि शस्त्र का प्रयोग करे या अफीम, संखिया, मोरा, वछनाग, हिरकणी आदि का उपयोग करे अथवा अग्नि में पड़कर या अग्नि में प्रवेश कर या कुंआ, बावड़ी, नदी, तालाब में गिरकर मरे तो, उसका यह मरण अज्ञानपूर्वक है। इस प्रकार मरने से अनेक जन्म और मरणों की वृद्धि के सिवाय और कुछ नहीं होता। वहीं जो मर्यादा के विरुद्ध अपने जीवन को कलुषित करने वाली सामग्री ही को प्राप्त करने के लिए रात-दिन जुटा रहता है, ऐसे पुरुष की आयुष्य पूर्ण होने पर भी उसका मरण आत्महत्या के समान ही है। मूल : अहपंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लभई। थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणलस्सएण याll छायाः अथ पञ्चभिः, स्थानेः, यैः शिक्षा न लभ्यते। स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन, रोगेनाऽलस्येन च।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अह) उसके बाद (जेहिं) जिन (पंचहिं) पाँच (ठाणेहि) कारणों से (सिक्खा) शिक्षा (न) नहीं (लब्भई) पाता है, वे यों हैं (थंभा) मान से (कोहा) क्रोध से (पमाएण) प्रमाद से (रोगेणालस्सएणय) रोग से और आलस से। - भावार्थ : हे गौतम! ज्ञान प्राप्त करने में अभिमान, क्रोध, टालमटोल, रोग और आलस्य ये पांच बाधाएँ हैं। साधक ज्ञान पीपासु को इनसे सायास बचना चाहिये। मूल: अह अहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दंते, न यमम्ममुदाहरे||| नासीले न विसीले अ, न सिआ अइलोलुए। अक्कोहणं सच्चरए, सिक्खासीले चि वुच्चइ||१०|| छायाः अथाष्टभिः स्थानैः, शिक्षाशील इत्युच्यते। अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्मोदाहरः / / 6 / / नाशीलो न विशीलः न स्यादति लोलुपः / अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते।।१०।। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/171 00000000000ood 50000000000000 For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 __ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अह) अब (अट्ठहिं) आठ (ठाणेहिं) कारणों से (सिक्खासीले) शिक्षा प्राप्त करने वाला होता है (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहा है। (अहस्सिरे) हंसोड़ न हो (सया) हमेशा (दंते) इन्द्रियों को दमन करने वाला हो, (य) और (मम्म) मर्म भाषा (न) नहीं (उदाहरे) बोलता हो, (असीले) सर्वथा शील रहित (न) नहीं हो (अ) और (विसीले) शील दूषित करने वाला (न) न हो (अइलोलुए) अति लोलुपी (न) ने (सिआ) हो, (अक्कोहणे) क्रोध न करने वाला हो (सच्चरए) सत्य में रत रहता हो, वह (सिक्खासीले) ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है (ति) ऐंसा (वुच्चइ) कहा है। भावार्थ : हे गौतम! अगर किसी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हो तो, वह अनावश्यक न हंसे सदैव खेल नाटक वगैरह देखने को त्यागकर विषयों से इन्द्रियों का दमन करता रहे, किसी की मार्मिक बात को प्रकट न करे, शीलवान रहे, अपना आचार विचार शुद्ध रखे, अति लोलुपता से सदा दूर रहे, क्रोध न करे और सत्य का सदैव अनुयायी बना रहे, इस प्रकार रहने से ज्ञान की विशेष प्राप्ति होती है। मूल : जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्त कोऊहलसंपगाढे। कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छइ सरणं तम्मि काले||११|| छायाः यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुञ्जानः, निमित्तकौतूहलसंप्रगाढः / कुहेटकविद्यास्त्रवदारजीवी, न गच्छति शरणं तस्मिन् काले।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो साधु होकर (लक्खणं) स्त्री, पुरुष के हाथादि की रेखाओं के लक्षण और (सुविण) स्वप्न का फलादेश बताने का (पउंजमाणे) प्रयोग करते हों एवं (निमित्तकोउसंपगाढे) भावी फल बताने तथा कौतूहल करने में, या पुत्रोत्पत्ति के साधन बताने में आसक्त हो रहा हो, इसी तरह (कुहेडविज्जासवदारजीवी) मंत्र, तंत्र, विद्या रूप आश्रव के द्वारा जीवन निर्वाह करता हो। वह (तम्मि काले) कर्मोदय काल में (सरणं) दुख से बचने के लिए किसी की शरण (न) नहीं (गच्छई) पाता है। भावार्थ : हे गौतम! जो सब प्रपंच छोड़ करके साधु तो हो गया है मगर फिर भी वह स्त्री पुरुषों के हाथ व पैरों की रेखाएँ एवं तिल, मस आदि के भले बुरे फल बताता है, या स्वप्न के शुभाशुभ फलादेश को जो कहता है, एवं पुत्रोत्पत्ति आदि के साधन बताता है, इसी तरह मंत्र तंत्रादि विद्या रूप आश्रव के द्वारा जीवन का निर्वाह करता है तो 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000 5000000000000000 so00000000 Japacation internetion 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1723 100000 Sboo0000000000000obp MONTHellorary.org Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl Boooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000opoo0000000000000000000 उसके अन्त समय में, जब वे कर्म फल स्वरूप में आकर खड़े होंगे उस समय उसके कोई भी शरण नहीं देगा, अर्थात् उस समय उसे दुःख से कोई भी नहीं बचा सकेगा! मूल : पडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो। __दिवं च गई गच्छंति, चरित्ता धम्ममारियं||२|| छायाः पतन्ति नरके घोरे, ये नराः पापकारिणः। दिव्यां च गतिं गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम्।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जो) जो (नरा) मनुष्य (पावकारिणो) पाप करने वाले हैं वे (घोरे) महा भयंकर (नरए) नरक में (पडंति) जाकर गिरते हैं। (च) और (आरियं) सदाचार रूप प्रधान (धम्म) धर्म को जो (चरित्ता) अंगीकार करते हैं, वे मनुष्य (दिव्व) श्रेष्ठ (गइं) गति को (गच्छंति) जाते हैं। _भावार्थ : हे आर्य! जो आत्माएँ मानव जन्म को पा करके हिंसा, झूठ, चोरी आदि दुष्कृत्य करती हैं। वे पापात्माएँ महाभयंकर दुःखों के ऐसे नरक में जा गिरेंगी जहाँ से बचना संभव नहीं है और जिन आत्माओं ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को अपने जीवन में परिश्रमपूर्वक संग्रह कर लिया है। वे आत्माएँ यहाँ से मरने के बाद जहाँ स्वर्गीय सुख अधिकता से होते हैं, ऐसे श्रेष्ठ स्वर्ग में जाती हैं। मूल: बहुआगमविण्णाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही। एएण कारणेण, अरिहा आलोयणं सोउं||१३|| छाया: बहुवागमविज्ञानाः, समाध्युत्पादकाश्च गुणग्राहिणः / एतेन कारणेन, अर्हा आलोचना श्रोतम्।।१३। _अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बहुआगम विण्णाणा) बहुत शास्त्रों का जानने वाला हो (समाहिउप्पायगा) कहने वाले को समाधि उत्पन्न करेन वाला हो (य) और (गुणगाही) गुणग्राही हो (एएणं) इन (कारणेणं) कारणों से (आलोयणं) आलोचना को (सोउं) सुनने के लिए (अरिहा) योग्य है। भावार्थ : हे आर्य! आन्तरिक बात उसके सामने प्रकट की जाए जो कि बहुत शास्त्रों को जानता हो। जो प्रकाशक को सांत्वना देने वाला हो, गुणग्राही हों उसी के सामने अपने हृदय की बात खुले दिन से करने में कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि इन बातों से युक्त मनुष्य ही आलोचक के योग्य है। 190000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/173 mooooo0000000000 0000000000000000 ile Education International For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo0000000000000000000000 Moo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000 मूल : भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तीरसम्पन्ना, सबदुक्खा तिउट्ठ ||14|| छायाः भावना योगशुद्धात्मा, जले नौरिवाख्याता। नौरिव तीरसम्पन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भावणा) शुद्ध भावना रूप (जोगसुद्धप्पा) योग से शुद्ध हो रही है आत्मा जिनकी ऐसे पुरुष (जले णावा व) नौका के समान जल के ऊपर ठहरे हुए हैं। ऐसा (आहिया) कहा गया है। (नावा) जैसे नौका अनुकूल वायु से (तीरसम्पन्ना) तीर पर पहुंच जाती है व (वैसे ही) नौका रूप शुद्धात्मा के उपदेश से जीव (सव्वदुक्खा) सर्व दुःखों से (तिउट्ठइ) मुक्त हो जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! शुद्धाभावना रूप ध्यान से जिनकी आत्मा निर्मल हो रही है, ऐसी शुद्धात्माएँ संसार रूप समुद्र में नौका के समान हैं। ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। ये नौका के समान शुद्धात्माएँ आप स्वयं तिर जाती हैं और उनके उपदेश अन्य जीव भी चरित्रवान होकर, सर्व दुःख रूप संसार समुद्र का अन्त करके पार हो जाते हैं। मूल : सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणाहए तवे चेव वोदाणे, अकिरिया सिद्धी||१५|| छायाः श्रवणं, ज्ञान, विज्ञानं, प्रत्याख्यानं च संयमः। अनाश्रवं तपश्चैव, व्यवदानमक्रिया सिद्धिः।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! ज्ञानीजनों के संसर्ग से (सवणे) धर्म श्रवण होता है। धर्म श्रवण से (नाणे) ज्ञान होता है। ज्ञान से (विण्णाणे) विज्ञान होता है। विज्ञान से (पच्चक्खाणे) दुराचार का त्याग होता है। (य) ओर त्याग से (संजमे) संयमी जीवन होता है। संयमी जीवन से (अणाहए) अनाश्रवी होता है (चव) और अनावी होने से (तवे) तपवान होता है। तपवान होने से (वोदाणे) पूर्व संचित कर्मों का नाश होता है और कर्मों का नाश होने से (अकिरिया) क्रिया रहित होता है और सावध क्रिया रहित होने से सिद्धि की प्राप्ति होती है। _भावार्थ : हे गौतम! सम्यक् ज्ञानियों की संगति से धर्म का श्रवण होता है, धर्म के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान से विशेष ज्ञान या विज्ञान होता है। विज्ञान से पापों के करने का प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान से संयमी जीवन की प्राप्ति होती है। संयमी जीवन- से 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000 Jain need on nematonai Roooo00000000000ood निर्ग्रन्थ प्रवचन/174 amelurry.org 50000000 000000 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 0000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अनाश्रुव अर्थात् आते हुए नवीन कर्मों की रोक हो जाती है। फिर अनाश्रव से जीव तपवान बनता है। तपवान होने से पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है। कर्मों के क्षय हो जाने से सावद्य क्रिया का आगमन भी बंद हो जाता है। जब हिंसाजन्य क्रिया ही रुक गई तो फिर जीव की मुक्ति ही मुक्ति है यों, सदाचारी पुरुषों की संगति करने से उत्तरोत्तर सद्गुण ही सद्गुण प्राप्त होते हैं। मूल: अवि से हासमासज्ज, हंताणंदीति मन्नति। अलं बालस्स संगणं, वेरं वड्ढति अप्पणो||१६| छायाः अपि स हास्यामासज्य, हन्ता नन्दीति मन्यते। अलं बालस्य संगेन, वैरं वर्धत आत्मनः / / 16 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अवि) और जो कुसंग करता है (से) वह (हासमासज्ज) हास्य आदि में आसक्त होकर (हंता) प्राणियों की हिंसा ही में (णंदीति) आनंद प्राप्त करता है, ऐसा मन्नति मानता है उस (बालस्स) अज्ञानी की आत्मा का (वर) कर्म बंध (वड्ढति) बढ़ता है। भावार्थ : हे गौतम! सत्पुरुषों की संगति करने से इस जीव को गुणों की प्राप्ति होती है और जो हास्यादि में आसक्त होकर प्राणियों की हिंसा करके आनंद मानते हैं। ऐसे अज्ञानियों की संगति कभी मत करो! क्योंकि ऐसे दुराचारियों का संसर्ग से शराब पीना, मांस खाना, हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार का सेवन करना आदि दुष्कर्म बढ़ जाते हैं और उन दुष्कर्मों से आत्मा को महान कष्ट होता है। अतः मोक्षाभिलाषियों को अज्ञानियों की संगति भूलकर भी नहीं करनी चाहिए। मूल : आवस्सयं अवस्सं करणिज्जं, धुवनिम्गहो विसोही | अज्झयणाछक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो||१६|| छायाः आवश्यकमवश्यं करणीयम, ध्रुवनिग्रहः विशोधितम्। अध्ययनषट्कवर्गः, ज्ञय आराधना मार्गः।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (ध्रुवनिग्गहो) सदैव इन्द्रियों को निग्रह करने वाला (विसोही अ) आत्मा को विशेष प्रकार से शोधित करने वाला (नाओ) न्याय के कांटे के समान (आराहणा) जिससे वीतराग के वचनों का पालन हो ऐसा (मग्गो) मोक्ष मार्ग रूप (अज्झयणछक्कवग्गो) छ: Agooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope Daina beton International 1000000000000000000 % निम्रन्थ प्रवचन/175, STATEHPraorg 00000000000000 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 वर्ग 'अध्ययन' हैं, पढ़ने के जिसके ऐसा (आवस्सयं) आवश्यक प्रतिक्रमण (अवस्स) अवश्य (कहणिज्ज) करने योग्य है। भावार्थ : हे गौतम! हमेशा इन्द्रियों के विषय को रोकने वाला और अपवित्र आत्मा को भी निर्मल बनाने वाला, न्यायकारी, अपने जीवन को सार्थक करने वाला और मोक्ष मार्ग का प्रदर्शक रूप छ: अध्ययन हैं। जिसमें ऐसा आवश्यक सूत्र साधु साध्वी तथा गृहस्थों को सदैव प्रातःकाल और सायंकाल दोनों समय अवश्य करना चाहिये। जिसके करने से अपने नियमों के विरुद्ध दिन रात भर में भूल से किये हुए कार्यों का प्रायश्चित हो जाता है। हे गौतम! वह आवश्यक यों हैं। मूल: सावज्जजोगविरई, उक्कित्तण गुणवओ च पडिवत्तिा खलिअस्स निंदणा, वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव||८|| छायाः सावद्ययोग विरतिः, उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः, स्खलितस्य निन्दना, व्रणे चिकित्सा गुणधारणा चैव।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सावज्जजोविरई) सावध योग से निवृत्ति (उक्कित्तण) प्रभु की प्रार्थना (य) और (गुणवओ) गुणवान् गुरुओं को (पडिवत्ति) विधि पूर्वक नमस्कार / (खलिअस्स) अपने दोषों का (निंदणा) निरीक्षण (वणतिगिच्छ) छिद्र के समान लगे हुए दोषों का प्रायश्चित ग्रहण करता हुआ निवृत्ति रूप औषधि का सेवन करना (चेव) और (गुणधारणा) अपनी शक्ति के अनुसार त्याग रूप गुणों को धारण करना। ___ भावार्थ : हे गौतम! जहाँ हरी वनस्पति चींटियाँ कुंथुए बहुत ही छोटे जीव वगैरह न हों ऐसे एकान्त स्थान पर, 'कुछ भी पाप नहीं करना', ऐसा निश्चय करके, कुछ समय के लिए अपने चित्त को स्थिर कर लेना, यह आवश्यक का प्रथम अध्ययन हुआ। फिर प्रभु की प्रार्थना करना, यह द्वितीय अध्ययन है। उसके बाद गुणवान गुरुओं को विधि पूर्वक हृदय से नमस्कार करना यह तीसरा अध्ययन है। किये हुए पापों की आलोचना करना चौथा अध्ययन और उसका प्रायश्चित ग्रहण करना पाँचवां अध्ययन और छठी बार यथाशक्ति त्याग की वृद्धि करे। इस तरह षडावश्यक हमेशा दोनों समय करता रहे। यह साधु और गृहस्थों का नियम है। मूल: जो समो सवभूएसु, तसेसु थावरेसु या तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिय||१९|| ooo0000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooooo Jain EdemaA Crnational निम्रन्थ प्रवचन /176 0000000000000od Aman-jainstiavorg 00000000000000000 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 छायाः यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च। तस्य सामायिकं भवति, इति केवलिभाषितम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जो) जो मनुष्य (तसेसु) त्रस (य) और (थावरेसु) स्थावर (सव्वभूएसु) समस्त प्राणियों पर (समो) समभाव रखने वाला है। (तस्स) उसके (सामाइय) सामायिक (होइ) होती है (इइ) ऐसा (केवली) वीतराग ने (भासिय) कहा है। ___भावार्थ : हे गौतम! जिस मनुष्य का हरी वनस्पति आदि जीवों पर तथा हिलते फिरते प्राणियों मात्र के ऊपर भी समभाव है अर्थात् सूई चुभोने से अपने को कष्ट होता है। ऐसे ही कष्ट दूसरों के लिए भी समझता है। बस, उसी की सामायिक होती है ऐसा वीतरागों ने प्रतिपादन किया है। इस तरह सामायिक करने वाला समदृष्टा मोक्ष का पथिक बन जाता है। मूल : तिण्णिय सहस्सा सत्त सयाई, तेहुचरिं च ऊसासा| एस मुहुनो दिट्ठो, सवेहिं अणंतनाणीहि||२०|| छाया: त्रीणि सहस्त्राणि सप्तशतानि, त्रिसप्ततिश्च उच्छ्वासः / एषो मुहूर्ता दृष्टः, सर्वैरनन्त ज्ञानिभिः / / 20 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तिण्णियसहस्सा) तीन हजार (सत्तसयाई) सात सौ (च) और (तेहत्तरि) तिहत्तर (ऊसासा) उच्छवासों का (एस) यह (मुहूत्तो) मुहूर्त होता है। ऐसा (सव्वेहि) सभी (अणंतनाणीहिं) अनंत ज्ञानियों के द्वारा (दिटठो) देखा गया है। ___ भावार्थ : हे गौतम! तीन हजार सात सौ तिहत्तर (3773) उच्छ्वासों का समूह एक मुहूर्त होता है। ऐसा सभी अनंत ज्ञानियों ने कहा है। 19000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ook 64 निर्ग्रन्थ प्रवचन/177 00000000000000ood Education International 0000000000000 , For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g oooooooooooooooooooooooooo 00000 0000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय सत्रह - नरक-स्वग निरुपण ||श्रीभगवानुवाच।। मूलः नेरइयासत्तविहा, पुढवीसुसत्तसूभवे। रयणाभसक्कराभा,बालुयाभायआहिआ||१|| पंकाभाधूमाभा, तमातमतमातहा। इइनेरइआएए, सत्तहापरिकित्तिया||२|| छायाः नैरयिकाः सप्तविधाः, पृथिवीषु सप्तसु भवेयुः / रत्नभा शर्कराभा, वालुकाभा च आख्याता।।१।। पंकाभा धूमाभा, तमः तमस्तमः तथा। इति नैरयिका एते, सप्तधा परिकीर्तिताः / / 2 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नरेइया) नरक (सत्तम्) सात अलग अलग (पुढवीसु) पृथ्वी में (भवे) होने से (सत्तविहा) सात प्रकार का (आहिआ) कहा गया है। (रयणाभासक्कराभा) रत्न प्रभा, शर्कराप्रभा (य) और (वालुयाभा) बालु प्रभा (प्रकाभा) पंक प्रभा (धूमाभा) धूमप्रभा (तमा) तम प्रभा (तहा) वैसे ही तथा (तमतमा) तमतमा प्रभा (इह) इस प्रकार (एए) ये (नेरइया) नरक (सत्तहा) सात प्रकार के (परिकित्तिआ) कहे गये हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! एक से एक भिन्न होने से. नरकों को ज्ञानीजनों ने सात प्रकार का कहा है। वे इस प्रकार हैं। (1) वैडुर्य रत्न के समान है प्रभा जिसकी उसको रत्न प्रभा नाम से पहला नरक कहा है। (2) इसी तरह पाषाण, धूल, कर्दम, धुम्र के समान है प्रभा जिसकी उसको यथाक्रम शर्करा प्रभा, (3) बालुका प्रभा (4) पंक प्रभा और (5) धूम प्रभा कहते हैं और जहाँ अंधकार है उसको (6) तम प्रभा कहते हैं और जहाँ विशेष अन्धकार है उसको (7) तमतमा प्रभा सातवा नरक कहते हैं। मूलः जेकेडबालाइहजीवियट्ठी, पावाइंकम्माइंकरंतिरुद्दा। तेघोररूवेतमिसंधायारे, तिब्बाभितावेनरएपडंति||३|| छायाः ये केऽपि बाला इह जीवितार्थिनः, पापानि कर्माणि कुर्वन्ति रुद्राः / ते घोररूपे तमिस्त्रान्धकारे, तीव्राभितापे नरके पतन्ति / / 3 / / 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000AL 00000000 10000000000000000000000000000 नै निर्गन्थ प्रवचन/1783 Jai Boooooooooooooobi 00000000000000ccidgebaaj.org Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस संसार में (ज) जो (केइ) कितने (जीवियट्ठी) पापमय जीवन वाले (बाला) अज्ञानी लोग (रुद्दा) रौद्र (पावाइं) पाप (कम्माइं) कर्मों को (करंति) करते हैं। (ते) वे (घोररूवे) अत्यंत भयानक और (तमिसंधयारे) अत्यन्त अन्धकार युक्त एवं (तिव्वाभितावे) तीव्र है ताप जिसमें ऐसे (नरए) नरक में (पडंति) जा गिरते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! इस संसार में कितने ही ऐसे जीव हैं, जो अपने पापमय जीवन में महान हिंसा आदि पाप कर्म करते हैं। इसीलिए वे महाभयानक और अत्यन्त अन्धकार युक्त तीव्र असन्तोष दायक नरक में जा गिरते हैं और वर्षों तक अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करते रहते हैं। मूलः तिवं तसे पाणिणो थावरे या, जे हिंसती आयसुहं पडुच्च। जेलूसएहोइअदत्तहारी, णसिक्खतीसेयविस्स किंचि||४|| छायाः तीव्र त्रसान् प्राणिनः आत्मसुखं प्रतीत्य। यो लूषको भवन्ति अदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (तसे) त्रस (या) और (थावरे) स्थावर (पाणिणो) प्राणियों की (तिव्वं) तीव्रता से (हिंसती) हिंसा करता है और (आयसुह) आत्म सुख के (पडुच्च) लिए (जे) जो मनुष्य (लूसए) प्राणियों का उपमर्दक (होइ) होता है एवं (अदत्तहारी) नहीं दी हुई वस्तुओं का हरण करने वाला (किंचि) थोड़ा सा भी (सेयविस्स) अंगीकार करने योग्य व्रत के पालन का (ण) नहीं (सिक्खती) अभ्यास करता हैं वह नरक में जाकर दुःख उठाता है। भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य, हलन, चलन करने वाले अर्थात् त्रस तथा स्थावर जीवों की निदर्यता पूर्वक हिंसा करता है और जो शारीरिक पौद्गलिक सुखों के लिए जीवों का उपमर्दन करता है. एवं दूसरों की चीजें हरण करने में ही अपने जीवन की सफलता समझता है और किसी भी व्रत को अंगीकार नहीं करता, वह यहाँ से मर कर नरक में जाता है और स्व-कृत कर्मों के अनुसार वहाँ नाना भांति के दुःख भोगता है। मूलः छिदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उठे वि छिदंति दुवेवि कण्णे। जिविणिक्करस विहत्यिमेत्तं, तिक्खाहिसूलाभितावयंति||५|| 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope 000 500000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/179 doooooooooooooooook Jain Educanon international For Personal & Private Use Only 00000000000000000 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000r oooooood 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool छायाः छिन्दन्ति बालस्य क्षुरेण नासिकाम, औष्ठावपि छिन्दन्ति द्वावपि कणौ। जिव्हां विनिष्कास्य वितस्तिमात्रं, तीक्ष्णैः शूलादभितापयन्ति।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! परमाधामी देव नरक में (बालस्स) अज्ञानी के (खुरेण) छुरी से (नक्क) नाक को (छिदंति) छेदते हैं। (उडेवि) औठों को भी और (दुवे) दोनों (कन्ने) कानों को (वि) भी (छिदंति) छेदते हैं। तथा (विहत्थिमित्त) बेतं के समान लम्बाई भर (जिब्भ) जिव्हा को (विणिकेस्स) बाहर निकाल करके (तिक्खाहि) तीक्ष्ण (सूला) शूलों आदि से (अभितावयंति) छेदते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! अज्ञानी जीव, हिंसा, झूठ चोरी और व्यभिचार आदि करके नरक में जा गिरते हैं। असुर कुमार परमाधामी उन पापियों के कान नाक और ओठों को छुरी से छेदते हैं और उनके मुंह में से जिव्हा को बेंत जितनी लम्बाई भर बाहर खींच कर तीक्ष्ण शूलों से छेदते हैं। . मूल: ते तिप्पमाणा तलसंपुडं ब्ल, राइंदियं तत्य थणंति बाला| गलंतिते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइयाखारपइद्रियंगा||६|| छायाः ते तिप्पमाना तलसम्पुटइव, रात्रिन्दिवा तत्र स्तनन्ति बालाः / गलन्ति ते शोणितपूतमांस, प्रद्योनिता क्षार प्रद्ग्धांगा।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) वहां नरक में (ते) वे (तिप्पमाणा) रुधिर झरते हुए (बाला) अज्ञानी (राइंदिय) रात दिन (तलसंपुडं) पवन से प्रेरित ताल वृक्षों के सूखे पत्तों के शब्द के (व्व) समान (थणंति) आक्रन्दन का शब्द करते हैं। (ते) वे नारकीय जीव (पज्जोइया) अग्नि से प्रज्ज्वलित (खारपइद्धियंगा) क्षार से जलाये हुए अंग जिससे (सोणिअपूयमंस) रुधिर, रसी और मांस (गलंति) झरते रहते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! नरक में गये हुए उन हिंसादि महान आरम्भ के करने वाले नारकीय जीवों के नाक, कान, आदि काट लेने से रूधिर बहता रहता है और वे राग-दिन बड़े आक्रंदन स्वर से रोते हैं और उस छेदे हुए अंग को अग्नि से जलाते हैं। फिर उसके ऊपर लवणादिक क्षार को छिंटकते हैं, जिससे और भी बड़ी मात्रा में रूधिर पीप और मांस झरता रहता है। मूल : रुहिरे पुणो वच्चसमुरिसअंगे, भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता। पयंतिणंणेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अयोकवल्लेllull 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot Jain End निर्ग्रन्थ प्रवचन/180 EN UPTalary.org 0000000 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000t 0000000000000000000000000000 छायाः रुधिरे पुनो वर्चः समुच्छ्रितांगान्, भिन्नुत्तमांगान् परिवर्तयन्तः / पचन्ति नैरयिकान स्फुरतः, सजीवमत्स्यानिवाय: कटाहे|७|| अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पुणो) फिर (वच्च) दुर्गंध मल से (समुस्सिअंगे) लिपटा हुआ है अंग जिनका और (भिन्नुत्तमंगे) सिर जिनका छेदा हुआ है ऐसे नारकीय जीवों का खून निकालते हैं और (रुहिरे) उसी खून से तपे हुए कड़ाहे में उन्हें डालकर (परिवत्तयत्ता) इधर-उधर हिलाते हुए परमाधामी (पयंति) पकाते हैं। तब (णेरइए) नारकीय जीव (अयोकवल्ले) लोहे के कढ़ाहे में (सजीव मच्छेव) सजीव मच्छी की तरह (फुरते) तड़फड़ाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जिन आत्माओं ने शरीर को आराम पहुंचाने के लिए हर तरह से अनेकों प्रकार के जीवों की हिंसा की है, वे आत्माएँ नरक में जाकर जब उत्पन्न होती हैं, तब परमाधामी देव दुर्गंध युक्त वस्तुओं से लिपटे हुए उन नारकीय आत्माओं के सिर छेदन कर उन्हीं के शरीर से खून निकाल उन्हें तप्त कड़ाहे में डालते हैं और उन्हें खूब ही उबाल करके जलाते हैं। असुर कुमारों के ऐसा करने पर वे नारकीय आत्माएँ उस तपे हुए कड़ाहे में तप्त तवे पर डाली हुई सजीव मछली की तरह तड़फड़ाती है। ____नोट : ये सारे उदाहरण आत्मा को पाप भीरु बनानें एवं सद्मार्ग पर चलने हेतु प्रस्तुत किए गए हैं। मूल: नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जती तिब्वाभिवेयणाए। तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेण||ll छायाः नो चैव ते तत्र मषीभवंति, न प्रियन्ते तीव्राभी।दनाभिः / तदनुभागमनुवेदयन्तः, दुःखयन्ति दुःखिनः इह दुष्कृतेन।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) नरक में (त) वे नारकीय जीव पकाने से (नो चेव) नहीं (मसी भवंति) भस्म होते हैं और (तिव्वाभिचेयणाए) तीव्र वेदना से (न) नहीं (मिज्जति) मरते हैं। (दुक्खी) वे दुखी जीव (दुक्कडेणं) अपने किए हुए दुष्कर्मों के द्वारा (तमाणुभाग) उसके फल को (अणुवेदयंता) भोगते हुए (दुक्खंति) कष्ट उठाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! नारकीय जीव उन परमाधामी देवों के द्वारा पकाये जाने पर न तो भस्मीभूत ही होते हैं, और न उस महान भयानक छेदन भेदन तथा ताड़न आदि से मरते हैं। किन्तु अपने किए हुए दुष्कर्मों के फलों को भोगते हुए बड़े कष्ट से समय बिताते रहते हैं। 99000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOOOOOOC 00000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000 pood * निर्ग्रन्थ प्रवचन/181 00000000000odh 00000000000000ook Wein Education International For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000ood Moooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मूल : अच्छीनिमिलियमेवं, नत्यि सुहं दुक्खमेव अणुबद्ध। नरए नेरइयाणं, अहोनिसं पच्चमाणाणं|||| छायाः अक्षिनिमीलितमात्रं, नास्ति सुखं दुःखमेवानुबद्धम् / नरके नैरयिकाणाम्, अहर्निशं पच्यमानानाम्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहोनिसं) रात दिन (पच्चमाणाणं) पचते हुए (नरइयाणं) नारकीय जीवों को (नरए) नरक में (अच्छी) आँख (निमिलियमेत्तं) टिम टिमावे इतने समय के लिये भी (सुह) सुख (नत्थि) नहीं है। क्योंकि (दुक्खमेव) दुख ही (अणुबद्ध) अनुबद्ध हो रहा है। भावार्थ : हे गौतम! सदैव कष्ट उठाते हुए नारकीय जीवों को एक पल भी सुख नहीं मिलता है। एक दुख के बाद दूसरा दुख उनके लिए तैयार रहता है। मूल : अइसीयं अइउण्हं, अइतण्हा अइक्खुहा। अईभयं च नरए नेरयाणं, दुक्खसयाई अविस्साम||१०|| छायाः अतिशीतम् अत्युष्णं, अतितृषाऽति क्षुधा। अतिभयं च नरके नैरयिकाणाम्, दुःखशतान्यविश्रामम्।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नरए) नरक में (नेरयाणं) नारकीय जीवों को (अइसीय) अति शीत (अइउण्ह) अति उष्ण (अइतण्हा) अति तृष्ण (अइक्खुहा) अति भूख (च) और (अईभयं) अति भय (दुक्खसयाई) सैंकड़ों दुख (अविस्साम) विश्राम रहित भोगना पड़ता है। भावार्थ : हे गौतम! नरक में रहे हुए जीवों को अत्यंत ठण्ड गर्मी भूख प्यास और भय आदि सैंकड़ों दुःख एक के बाद एक लगातार रूप से कृत-कर्मों के फलरूप में भोगने पड़ते हैं। मूल : जंजारिसं पुल्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए। एगंतदुक्खं भवमज्जणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं||११|| छायाः यात्यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म, तदेवागच्छति सम्पराये। एकान्तदुःखं भव मर्जयित्वा, वेदयन्ति दुःखिन स्तमनन्तदुःखम्।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जं) जो (कम्म) कर्म (जारिस) जैसे (पुव्वं) पूर्व भव में जीव ने (अकासि) किये हैं (तमेव) वैसे ही, उसके फल (संपराए) संसार में (आगचछति) प्राप्त होते हैं। (एगंतदुक्खं) केवल दुःख 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl निर्ग्रन्थ प्रवचन /1823 Jain Bela todococUo0d0000000067 Personal & Private Use only 50000000000000000morey.org Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 B0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 है जिसमें ऐसे नारकीय (भव) जन्म को (अज्जणित्ता) उपार्जन करके (दुक्खी) वे दुखी जीव (तं) उस (अणंतदुक्खं) अपार दुख को (वेदंति) भोगते हैं। _ भावार्थ : हे गौतम! इस आत्मा ने जैसे पुण्य पाप किये हैं, उसी के अनुसार जन्म जन्मान्तर रूप इस संसार में उसे सुख-दुख मिलते रहते हैं। यदि उनसे विशेष पाप किये हैं तो जहाँ घोर कष्ट होते हैं, ऐसे नारकीय जन्म उपार्जन करके वह उस नरक में जा पड़ती है और अनंत दुःखों को सहती रहती है। मूल : जे पावकम्मेहि धणं मणुस्सा, समाययंती अमइं गहाय| ___पहाय ते पासपयट्ठिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उविंति||१२|| छायाः ये पापकर्म भिर्धनं मनुष्याः, समार्जयन्ति अमतिं गृहीत्वा। प्रदाय ते पाशप्रवृत्ताः नराः, वैरानुबद्धा नरकमुपयान्ति।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (मणुस्सा) मनुष्य (अमइं) कुमति को (गहाय) ग्रहण करके (पावकम्मेहि) पापकर्म के द्वारा (धणं) धन को (समाययंती) उपार्जन करते हैं, (ते) वे (नरे) मनुष्य (पासपयट्ठिए) कुटुम्बियों के मोह में फंसे हुए होते हैं, वे (पहाय) उन्हें छोड़कर (वराणुबद्धा) पाप के अनुबंध करने वाले (नरयं) नरक में जाकर (उविंति) उत्पन्न होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य पाप बुद्धि से कुटुम्बियों के भरण पोषण रूप मोह-पाश में फंसता हुआ, गरीब लोगों को ठगकर अन्याय से धन पैदा करता है, वह मनुष्य धन और कुटुम्ब को यहीं छोड़कर और जो पाप किये हैं उनको अपना साथी बनाकर नरक में उत्पन्न होता है। मूल: एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे, न हिंसए किंचण सबलोए। ... एगंतदिट्ठी अपरिम्गहे उ, बुझिज लोयस्स वसं न गच्छे||१३|| छायाः एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरः, नहिंस्यात् कञ्चन् सर्वलोके। एकान्त दृष्टिरपरिग्रहस्तु, बुध्वा लोकस्य वशं न गच्छेत्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एगंतदिट्ठी) केवल सम्यक्त्व की है दृष्टि जिनकी और (अपरिग्गहेउ) ममत्व भाव रहित ऐसे जो (धीरे) बुद्धिमान मनुष्य हैं वे (एयाणि) इन (णरगाणि) नरक के दुखों को (सोच्चा) सुनकर (सव्वलोए) सम्पूर्ण लोक में (किंचण) किसी भी प्रकार goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 1000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/183 1000000000000000000 Dooooo0000000000000 For Personal & Private Use Only /, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 के जीवों की (न) नहीं (हिंसए) हिंसा करें (लोयस्स) कर्म रूप लोक को (बुज्झिज्ज) जानकर (वसं) उसकी आधीनता में (न) नहीं (गच्छे) जावे। ____ भावार्थ : हे गौतम! जिसने सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है और ममत्व से विमुख हो रहा है ऐसा बुद्धिमान तो इस प्रकार के नारकीय दुखों को एक मात्र सुनकर किसी भी प्रकार की कोई हिंसा नहीं करेगा। यही नहीं वह क्रोध, मान, माया, लोभ तथा अहंकार रूप लोक के स्वरूप को समझकर और उसके आधीन होकर कभी भी कर्मों के बन्धनों को प्राप्त न करेगा। वह स्वर्ग में जाकर देवता होगा। देवता चार प्रकार के हैं। वे यों हैं:मूल : देवा चउबिहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण। . भोमेज्ज वामन्तर, जोइस वेमाणिया तहा||१४|| छायाः देवाश्चतुर्विधा उक्ताः, तान्मे कीर्तयतः श्रृणु। भौमेया व्यन्तराः, ज्योतिष्का वैमानिकास्तथा।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (देवा) देवता (चउव्विहा) चार प्रकार के (वुत्ता) कहे हैं। (ते) वे (मे) मेरे द्वारा (कित्तयओ) कहे हुए तू (सुण) श्रवण कर (भोमेज्ज वाणणियां) ज्योतिषी और वैमानिक देव। भावार्थ : हे गौतम! देव चार प्रकार के होते हैं। उन्हें तू सुन / (1) भवनपति (2) वाणव्यन्तर (3) ज्योतिषी और (4) वैमानिक / भवनपति इस पृथ्वी से 100 योजन नीचे की ओर रहते हैं। वाणव्यन्तर 10 योजन नीचे रहते हैं। ज्योतिषी देव 760 योजन इस पृथ्वी से ऊपर की ओर रहते हैं। परन्तु वैमानिक देव तो इन ज्योतिषी देवों से भी असंख्य योजन ऊपर रहते हैं। मूल: दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो। म पंचविहा जोइसिया; दुविहा वेमाणिया तहा||१५|| छायाः दशधा तु भवनवासिनः, अष्टधा वन चारिणः। पञ्चविधा ज्योतिष्काः, द्विविधा वैमानिकास्तथा।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भवणवासी) भवनपति देव (दसहा) दस प्रकार के होते हैं और (वणचारिणो) वाणव्यन्तर (अट्ठहा) आठ प्रकार के हैं। (जोइसिया) ज्योतिषी (पंचविहा) पांच प्रकार के होते हैं। (तहा) वैसे ही (वैमाणिया) वैमानिक (दुविहा) दो प्रकार के हैं। odiooo0000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000ooooot निर्ग्रन्थ प्रवचन/184 Jain EdLOTondobooveicboo00000000 Soooooo000000000Ccorarytorg Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000008 भावार्थ : हे गौतम! भवनपति देव दस प्रकार के हैं। बाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं और ज्योतिषी पांच प्रकार के हैं। वैसे ही वैमानिक देव भी दो प्रकार के हैं। अब भवनपति के दस भेद कहते हैं। मूल : असुरा नागसुवण्णा, विज्जू अग्गी वियाहिया। दीवोदहि दिसा वाया, थणिया भवणवासिणो||१६|| छाया: असुरा नागाः सुपर्णाः, विद्युतोऽग्रयो व्याख्याताः। द्वीपा उदधयो दिशो वायवः, स्तनिता भवनवासिनः।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (असुरा) असुर कुमार (नागसुवण्णा) नाग कुमार, सुवर्ण कुमार (विज्जू) विद्युत कुमार (अग्गी) अग्नि कुमार (दीवोदहि) द्वीपकुमार उदधि कुमार (दिसा) दिक्कुमार (वाया) वायु कुमार तथा (थणिया) स्तनित कुमार। इस प्रकार (भवणवासिणो) भवनवासी देव (वियाहिया) कहे गये हैं। भावार्थ : हे गौतम! असुर कुमार, नाग कुमार, सुवर्ण सुकार, विद्युत कुमार, अग्नि कुमार, द्वीप कुमार, उदधि कुमार, दिक्कुमार, पवन कुमार और स्तनित कुमार यों ज्ञानियों द्वारा दस प्रकार के भवनपति देव कहे गये हैं। अब आगे आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव यों हैं। मूल : पिसाय भूय जक्खा य, रक्खसा किन्नरा किंपुरिसा। महोरगा य गंधब्बा, अविहा वाणमन्तरा||१७|| छाया: पिशाचा भूता यक्षाश्च, राक्षसाः किन्नराः किंपुरुषाः। _महोरगाश्च गन्धर्वाः, अष्टविधा व्यन्तराः / / 17 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वाणमंतरा) वाणव्यन्तर देव (अट्ठविहा) आठ प्रकार के होते हैं। जैसे (पिसाय) पिशाच (भूय) भूत (जक्खा) यक्ष (य) और (रक्खसा) राक्षस (य) और (किन्नरा) किंनर (किंपुरिसा) किंपुरुष (महोरगा) महोरग (य) और (गंधव्वा) गंधर्व / भावार्थ : हे गौतम! वाणव्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं। जैसे (1) पिशाच (2) भूत (3) यक्ष (4) राक्षस (5) किन्नर (6) किंपुरुष (7) महोरग और (8) गंधर्व / ज्योतिषी देवों के पांच भेद यों हैं:मूल: चन्दा सूरा य नक्खचा, गहा तारागणा वहा। ठिया विचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया||१४|| 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot TOD Ndooo000000000000000 Jan Education International निर्ग्रन्थ प्रवचन/1851 Fon Personal & Private Use Only 50000000000000 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ood छायाः चन्द्राः सूर्याश्च नक्षत्राणि, ग्रहास्तारागणस्तथा। स्थिरा विचारिण श्चैव, पंचधा ज्योतिरालयाः / / 18 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जोइसालया) ज्योतिषी देव (पंचहा) पांच प्रकार के हैं। (चन्द्रा) चन्द्र (सूरा) सूर्य (य) और (नक्खत्ता) नक्षत्र (गहा) ग्रह (तहा) तथा (तारागणा) तारागण। जो (ठिया) ढाईद्वीप के बाहर स्थिर हैं। (चेव) और ढाईद्वीप के भीतर (विचारिणो) चलते फिरते हैं। भावार्थ : हे गौतम! ज्योतिषी देव पांच प्रकार के हैं। (1) चन्द्र (2) सूर्य (3) ग्रह (4) नक्षत्र और (5) तारागण / ये देव ढाइद्वीप के बाहर तो स्थिर रहने वाले हैं और उसके भीतर चलते फिरते हैं। वैमानिक देवों के भेद यों हैं:मूल : वैमाणिया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया| कप्पोवगा य बोवा, कप्पाईया तहेव य||६|| छायाः वैमानिकास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः / ___कल्पोपगाश्च बोद्धव्याः, कल्पातीतास्तथैव च।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (देवा) देव (व्रमाणिया उ) वैमानिक हैं। (ते) वे (देविहा) दो प्रकार के (वियाहिया) कहे गये हैं। एक तो (कप्पोवगा) कल्पोत्पन्न (य) और (तहेव य) वैसे ही (कप्पाईया) कल्पातीत (बोधव्वा) जानना। ___ भावार्थ : हे गौतम! वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। एक तो कल्पोत्पन्न और दूसरे कल्पातीत। कल्पोत्पन्न से ऊपर के देव कल्पातीत कहलाते हैं और जो कल्पोत्पन्न हैं वे बारह प्रकार के हैं। वे यों हैं :मूल : कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसणगा वहा| सणंकुमारमाहिन्दा, बम्भलोगा यलंतगा||२०|| महासुक्का सहस्सारा, आणया पाणया तहा| आरणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा||१|| छायाः कल्पोपगा द्वादशधा, सौधर्मे शानगास्तथा। सनत्कुमारा माहेन्द्राः, ब्रह्मलोकाश्च लान्तका।।२०।। महाशुक्राः सहस्राराः, आनताः प्राणतास्तथा। आरणा अच्युताश्चैव, इति कल्पोपगाः सुरा।।२१।। . oooooooooooooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 po0000 निर्गन्थ प्रवचन /186. Jain ! 0000ooo ooooooooooooodaihary.org, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 88000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 .अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कप्पोवगा) कल्पोत्पन्न देव (बारसहा) बारह प्रकार के हैं (सोहम्मीसाणगा) सुधर्म, ईशान (तहा) तथा (सणंकुमार) सनत्कुमार (माहिन्दा) महेन्द्र (बम्भलोगा) ब्रह्म (य) और (लंतगा) लांतक (महासुक्का) महाशुक्र (सहस्सारा) सहस्रार (आणया) आणत (पाणया) प्राणत (तहा) तथा (आरणा) अरण (चेव) और (अच्चूया) अच्युत, देव लोक (इइ) ये हैं और इन्हीं के नामों पर से (कप्पोवगा) कल्पोत्पन्न (सुरा) देवों के नाम भी हैं। र भावार्थ : हे गौतम! कल्पोत्पन्न देवों के बारह भेद हैं और वे यों हैं :- (1) सुधर्म, (2) ईशान, (3) सनत्कुमार (4) महेन्द्र, (5) ब्रह्म, (6) लांतक, (7) महाशुक्र, (8) सहस्रार, (6) आणत, (10) प्राणत, (11) आरण और (12) अच्युत ये देवलोक हैं। इन स्वर्गों के नामों पर से ही इनमें रहने वाले इन्द्रों के भी नाम हैं। कल्पातीत देवों के नाम यों हैं:मूल : कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया गेविज्जाणुचरा चेव, गेविज्जानवविहा तहिं||२२|| छायाः कल्पातीतास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः / ग्रैवेयका अनुत्तराश्चैव, अवेयका नवविधास्तत्र।।२२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (कप्पाईयाउ) कल्पातीत देव हैं, (ते) वे (दुविहा) दो प्रकार के (वियाहिया) कहे गये हैं। (गेविज्ज) ग्रैवेयक (चेव) और (अणुत्तरा) अनुत्तर (तहिं) उस में (गेविज्ज) ग्रैवेयक (नवविहा) नव प्रकार के हैं। भावार्थ : हे गौतम! कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं। एक तो ग्रैवेयक और दूसरे अणुत्तर वैमानिक / उनमें भी ग्रैवेयक नो प्रकार के और अणुत्तर पांच प्रकार के हैं। मूल : हेट्ठिमा हेट्ठिमा चेव, हेट्ठिमा मज्झिमा वहा| हेट्ठिमा उवरिमा चेव, मज्झिमा हेट्ठिमा तहा||३|| मज्झिमा मज्झिमा चेव, मज्झिमा उवरिमा तहा। उवरिया हेट्ठिमा चेव, उवरिमा मज्झिमा तहा||२४|| उवरिमा उवरिमा चेव, इय गेविजगा सुरा। विजया वेजयंता य, जयंता अपराजिया||२५| gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 P 0 0000000000000000CA * निर्ग्रन्थ प्रवचन/187 For Personal & Prvale Use DoooooooooooooooooorN www.jainenbrary.org For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Vooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 सवत्यसिद्धगा चेव, पंचहाणुचरा सुरा। इइ वेमाणिया, एएऽणेगहा एवमायओ||६|| छाया: अधस्तनाधस्तनाश्चैव, अधस्तनामध्यमास्तथा। अधस्तनोपरितनाश्चैव, मध्यमाऽधस्तनास्तथा।।२३।। मध्यमामध्यामाश्चैव, मध्यमोपरितनास्तथा। उपरितनाऽधस्तनाश्चैव, उपरितनमध्यमास्तथा।।२४।। उपरितनोपरितनाश्चैव, इति ग्रैवेयकाः सुरा। विजया वैजयन्ताश्च, जयन्ता अपराजिताः / / 25 / / सवार्थसिद्धकाश्चैव, पंचधाऽनुत्तराः सुराः। इति वैमानिका एते, अनेकधा एवमाद्यः / / 26 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (हेट्ठिमा हेठिमा) नीचे की त्रिक का नीचे वाला (चेव) और (हेट्ठिमा मज्झिमा) नीचे की त्रिक का बीच वाला। (तहा) तथा (हेट्टिमाउवरिमा) नीचे की त्रिक का ऊपर वाला (चेव) और (मज्झिमा हेट्ठिमा) बीच की त्रिक का नीचे वाला (तहा) तथा (मज्झिमा मज्झिमा) बीच की त्रिक का ऊपर वाला (तहा) तथा (उवरिमाहेट्ठिमा) ऊपर की त्रिक का नीचे वाला (चेव) और (उवरिमामज्झिमा) ऊपर की त्रिक का बीच वाला (तहा) तथा (उवरिमा उवरिमा) ऊपर की त्रिक का ऊपर वाला (इह) इस प्रकार नौ भेदों से (गेविज्जगा) ग्रैवेयक के (सुरा) देवता हैं। (विजया) विजय (वेजयंता) वैजयंत (य) और (जयंता) जयंत (अपराजिया) अपराजित (चेव) और (सव्वत्थसिद्धगा) सर्वाथसिद्ध ये (पंचहा) पाँच प्रकार के (अणुत्तरा) अनुत्तर विमान के (सुरा) देवता कहे गये हैं। (इइ) इस प्रकार (एए) ये मुख्य मुख्य (वेमाणिया) वैमानिक देवों के भेद कहे गये हैं और प्रभेद तो (उवमायओ) ये आदि में (अणेगहा) अनेक प्रकार के हैं। भावार्थ : हे गौतम! बारह देवलोक से ऊपर नौ ग्रैवेयक जो हैं उनके नाम यों हैं। (1) भद्दे (2) सुभद्दे (3) सुजाये (4) सुमाणसे (5) सुदर्शने (6) प्रियदर्शने (7) अमोहे (8) सुपडिभद्दे और (6) यशोधर और पांच अनुत्तर विमान यों हैं :- (1) विजय (2) वैजयंत (3) जयंत (4) अपराजित (5) सर्वाथसिद्ध, ये सब वैमानिक देवों के भेद बताए गये हैं। 000000000000000000000000opoo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000oot निर्ग्रन्थ प्रवचन/188 Ka Jain Eduremedoooooooooooooooood 2 Fot Personal & Private Use Only ) 3000000000000000pcretprary.org Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot 180000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूलः जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलि' यं ते अइत्यिया। सीलवंता सवीसेसा, अदीणा जंति देवयं||२७|| छायाः येषां तु विपुला शिक्षा, मूलकं तेऽतिक्रान्ताः। शीलवन्तः सविशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम्।।२७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जेसिं) जिन्होंने (विउला) अत्यन्त (सिक्खा) शिक्षा का सेवन किया है। (ते) वे (सीलवंता) सदाचारी (सवीसेसा) उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करने वाले (अदीणा) अदीन-वृत्ति वाले (मूलिय) मूल धन रूप मनुष्य-भव को (अइत्थिया) उल्लंघन कर (देवयं) देव लोक को (जंति) जाते हैं। ____भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार के देवलोकों में वे ही मनुष्य जाते हैं जो सदाचार रूप शिक्षाओं को नित्य सेवन करते हैं और त्याग धर्म में जिनकी निष्ठा दिनों दिन बढ़ती ही जाती है। वे मनुष्य, मनुष्य भव को त्यागकर स्वर्ग में जाते हैं। मूल : विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा। महासुक्का वदिपंता, मण्णंता अपुणच्चवं|२८| छाया: विलदृशैः शीलैः, यक्षा उत्तरोत्तराः। महा शुक्ला इव दीप्तमानाः, मन्यमाना अपुनश्चैवम्।२८।। gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope कथा सन्दर्भ : किसी एक साहूकार ने अपने तीन लड़कों को एक-एक हजार रूपया देकर व्यापार करने के लिए इतर देश को भेजा। उनमें से एक ने तो यह विचार किया कि अपने घर में खूब धन है। फिजूल ही व्यापार कर कौन कष्ट उठावे, अतः एशोआराम करके उसने मूल पूंजी को भी खो दिया। दूसरे ने विचार किया कि व्यापार करके मूल पूंजी तो ज्यों की त्यों कायम रखनी चाहिए परन्तु जो लाभ हो, उसे एशो आराम में खर्च कर देना चाहिए और तीसरे ने विचार किया कि मूल पूंजी को खूब ही बढ़ाकर घर चलाना चाहिए। इसी तरह वे तीनों नियत समय पर घर आये। एक मूल पूंजी को खूबकर, दूसरा मूल पूंजी लेकर और तीसरा मूल पूंजी को खूब ही खूब बढ़ाकर घर आया। सहा इसी तरह आत्माओं को मनुष्य भव रूप मूल धन प्राप्त हुआ है। जो आत्माएँ मनुष्य भव रूप मूल धन की अपेक्षा करके खूब पापाचरण करती हैं वे मनुष्य भव को खोकर नरक और तिर्यंच योनियों में जाकर जन्म धारण करती हैं और जो आत्माएँ पाप करने से पीछे हटती हैं, वे अपनी मूल पूंजी रूप मनुष्य जन्म ही को प्राप्त होती हैं। परन्तु जो आत्मा अपना वश चलते सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, ममत्व आदि का परित्याग करके अपने त्याग धर्म में वृद्धि करती जाती हैं। वे सांसारिक सुख की दृष्टि से मनुष्य भव रूपी मूल पूंजी से भी बढ़कर देव-योनि को प्राप्त होती हैं। अर्थात् स्वर्ग में जाकर वे आत्माएँ जन्म धारण करती हैं और वहाँ नाना भाँति के सुखों को भोगती हैं। निर्ग्रन्थ प्रवचन/189 do00000000000000000 Vain Education Internationals EA boo00000000000000 c For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Moo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउविणो। उड्ढं कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वा बाससया बहू||२९|| अर्पिता देवकामान्, कामरुपवैक्रेपिणः। ऊर्ध्वं कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणि वर्ष शतानि बहूनि।।२६ / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (विसालिसेहिं) विसदृश अर्थात् भिन्न भिन्न (सीलेहिं) सदाचारों से (उत्तरउत्तरा) प्रधान से प्रधान (महासुक्का) महाशुक्ल अर्थात् बिलकुल सफेद चन्द्रमा की (व) तरह (दिप्पंता) देदीप्यमान (अपुणच्चव) फिर चवना नहीं ऐसा (मण्णता) मानते हुए (कामरूवविउविणो) इच्छित रूप के बनाने वाले (बहू) बहुत (पुव्वावाससया) सैंकड़ों पूर्व वर्ष पर्यंत (उड्ढ) ऊँचे (कप्पेसु) देवलोक में (देवकामाणं) देवताओं के सुख प्राप्त करने के लिए (अप्पिया) अर्पण कर दिये हैं। सदाचार रूप व्रत अपनाकर ऐसी आत्माएँ (जक्खा) देवता बनकर (चिट्ठति) रहती हैं। भावार्थ : हे गौतम! आत्मा अनेक प्रकार के सदाचारों का सेवन कर स्वर्ग में जाती हैं। तब वह वहाँ एक से एक देदीप्यमान शरीर को धारण करती हैं और वहाँ दस हजार वर्ष से लेकर कई सागरोपम तक रहती है। ऐसी आत्माएँ देव लोक के सुखों में ऐसी लीन हो जाती हैं कि वहाँ से अब मानों वे कभी मरेंगी ही नहीं, इस तरह से वे मान बैठती हैं। मूल : जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण सम मिणे। एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए||३०|| छायाः यथा कुशाग्रे उदकं, समुद्रेण समं मिनुयात्। एवं मानुष्यकाः कामाः, देवकामानामन्तिके।।३०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (कुसग्गे) घास के अग्र भाग पर की (उदगं) जल की बूंद का (समुद्देण) समुद्र के (सम) साथ (मिणे) मिलान किया जाए तो क्या वह उसके बराबर हो सकती है! नहीं (एवं) ऐसे ही (माणुस्सगा) मनुष्य संबंधी (कामा) काम भोगों के (अंतिए) समीप (देवकामाणं) देव संबंधी काम भोगों को समझना चाहिए। _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार घास के अग्र भाग पर जल की बूंद में और समुद्र की जल राशि में भारी अन्तर है। अर्थात् कहाँ तो पानी igooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 oooooooo D0000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/190K Jan E For Personal &Private Usea000000000000000004 www.gainelibrary.org/ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 3000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000 की बूंद और कहाँ समुद्र की जन राशि! इसी प्रकार मनुष्य संबंधी काम भोगों के सामने देव संबंधी काम भोगों को समझना चाहिए। सांसारिक सुख का परम प्रकर्ष बताने के लिए यह कथन किया गया है। आत्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य भव देवभव से श्रेष्ठ है। मूल : तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायइ||३१|| छायाः तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा आयुःक्षये च्युताः। जो उपयान्ति मानुषी योनिं, स दशांगोऽभिजायते।।३१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) यहाँ देव लोक में (जक्खा) देवता (जहाठाणं) यथास्थान (ठिच्चा) रहकर (आउक्खए) आयुष्य के क्षय होने पर वहाँ से (चुया) चव कर (माणुस) मनुष्य (जोणिं) योनि को (उ-ति) प्राप्त होता है और जहाँ जाती है वहाँ (से) वह (दसंगे) दस अंग वाला अर्थात् समृद्धिशाली (अभिजायई) होता है। भावार्थ : हे गौतम! यहाँ जो आत्माएँ शुभ कर्म करके स्वर्ग में जाती हैं, वहाँ वे अपनी आयुष्य को पूरा कर अवशेष पुण्यों से फिर वे मनुष्य योनि को प्राप्त करती हैं और पृथ्वी पर भी समृद्धिशाली होती हैं। स्मरण रहे इस कथन का यह आशय नहीं समझना चाहिए कि देव गति के बाद मनुष्य ही होता है। देव तिर्यंच भी हो सकता है और मनुष्य भी, परन्तु यहाँ उत्कृष्ट आत्माओं का प्रकरण है इसी कारण मनुष्य गति की प्राप्ति मान्य की गई है। मूल: खित्तं वत्युं हिरण्णं च, पसवो दासपोरुसं| चित्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जई||३२| छाया: क्षेत्रं वास्तु हिरण्यञ्च, पशवो दासपौरुषम्। चत्वारः कामस्कन्धाः, तत्र स उत्पद्यते।।३२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (खित्तं) क्षेत्र जमीन (वत्थु) घर वगैरह (च) और सोना चांदी (पसवो) गाय, भैंस वगैरह (दास) नौकर (पोरुसं) कुटुम्बी ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000 विशेष सन्दर्भ : एक वचन होने से इसका आशय यह है कि समृद्धि के दस अंग अन्यत्र कहे हुए हैं। उनमें से देव लोक से चव कर मृत्यु लोक में आने वाली कितनी ही आत्माओं को तो समृद्धि के नौ ही अंग प्राप्त होते हैं और किसी को आठ / इसीलिए एक वचन दिया है। निर्ग्रन्थ प्रवचन/191 0000000000000000 laln Educauon International For Personal & Private Use Only 000000000000 as Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ogy 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जन, इस तरह से (चत्तारि) ये चार (कामखंधाणि) काम भोगों का समूह बहुतायत से है, (तत्थ) वहां पर (से) वह (उववज्जई) उत्पन्न होता है। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्मा गृहस्थ का यथातथ्य धर्म तथा साधुव्रत पाल कर स्वर्ग में जाती है। वह वहां से चव कर ऐसे गृहस्थ के घर जन्म लेती है, कि जहाँ (1) खुली जमीन अर्थात् बाग वगैरह (2) ढंकी जमीन अर्थात् मकान वगैरह (3) पशु और (4) नौकर चाकर एवं कुटुम्बीजन भी बहुत हैं, इस प्रकार जो चार प्रकार के काम भोगों की सामग्री है उसे समृद्धि का प्रथम अंग कहते हैं। इस अंग की जहां प्रचुरता होती है वहां स्वर्ग से आने वाली आत्मा जन्म लेती है और साथ ही में जो आगे नौ अंग कहेंगे वे भी उसे यहां मिलते हैं। मूल: मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं। अप्पायंके महापण्णे, अभिजाए जसोबले||३|| छायाः मित्रवान् ज्ञातिवान् भवति, उच्चैर्गोत्रोवीर्यवान्। अल्पातको महाप्राज्ञः अभिजातो यशस्वी बली।।३३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! स्वर्ग से आने वाला जीव (मित्तवं) मित्र वाला (नाइव) कुटुम्ब वाला (वण्णवं) क्रांति वाला (अप्पायंके) अल्प व्याधि वाला (महापण्णे) महान बुद्धिवाला (अभिजाए) विनय वाला (जसो) यश वाला (य) और (बले) बल वाला (होइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! स्वर्ग से आये हुए जीव को समृद्धि का संग मिलने के साथ ही साथ (1) वह अनेकों मित्रों वाला होता है। (2) इसी तरह कुटुम्बी जन भी उसके बहुत होते हैं। (3) वह उच्च गोत्र वाला होता है। (4) अल्प व्याधि वाला (5) रूपवान (6) विनयवान् (7) यशस्वी (8) बुद्धिशाली एवं (6) बली होता है। Jgoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - 00000000000000000odl Jain Edgaton international निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ प्रवचन/192 - For Personal & Private Use Only boo00000000000000bf T, re Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jgooo0000000000000000000000000000000000000000000000 Moo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 . अध्याय अठारह-मनो निग्रह ||श्रीभगवानुवाच| मूल : आणाणिद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए। इंगियागारसंपन्ने, से विणीए ति वुच्चई||१|| छायाः आज्ञानिर्देशकरः, गुरुणामुपपातकारकः / इंगिताकारसम्पनः, स विनीत इत्युच्यते।।१।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आणाणिद्देसकरे) जो गुरुजन एवं बड़े बूढ़ों की न्याय युक्त बातों का पालन करने वाला हो और (गुरुणं) गुरु जनों के (उववायकारए) समीप रहने वाले हो और उनकी (इंगियागारसंपन्ने) कुछेक भृकुटी आदि चेष्टाएँ एवं आकार को जानने में सम्पन्न हो (से) वही (विणीए) विनीत है (त्ति) ऐसा (वुच्चई) कहा जाता है। भावार्थ : हे गौतम! मोक्ष के साधन रूप विनम्र भावों को धारण करने वाला विनीत है, जो कि अपने बड़े बूढ़े गुरुजनों तथा आप्त पुरुषों की आज्ञा का यथायोग्य रूप से पालन करता हो, उनकी सेवा में रहकर अपना अहोभाग्य समझता हो, और उनकी प्रवृत्ति, निवृत्ति सूचक संकेत आदि चेष्टाओं तथा मुखाकृति को जानने में जो कुशल हो, वह विनीत है और इसके विपरीत जो अपना बर्ताव रखने वाला हो, अर्थात बड़े-बूढ़े, गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करता हो तथा उनकी सेवा की जो उपेक्षा करे, वह अविनीत है या धृष्ट है। मूल: अणुसासिओ न कुप्पिज्जा, खंति सेविज पंडिए। खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए|२| छायाः अनुशासितो न कुप्येत्, शान्ति सेवेत पण्डितः। क्षुद्रेः सह संसर्ग, हास्यं क्रीड़ां च वर्जयेत्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पंडिए) पंडित वही है, जो (अणुसासिओ) शिक्षा देने पर (न) नहीं (कुप्पिज्जा) क्रोध करे, और (खंति) क्षमा को (सेविज्ज) सेवन करता रहे। (खुड्डेहिं) बाल अज्ञानियों के (सह) साथ (संसग्गिं) संसर्ग (हासं) हास्य (च) और (कीड) क्रीड़ा को (बज्जए) त्यागे। भावार्थ : हे गौतम! पंडित वही है जो कि शिक्षा देने पर क्रोध न करे और क्षमा को अपना अंग बना ले तथा दुराचारी और अज्ञानियों के साथ कभी भी हंसी ठट्ठा न करे, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। ooooooooooooooooo0000000000000000 00000000000000000000000000pe ने निर्ग्रन्थ प्रवचन/193K 000000000000000oCl S 00000000000000000 , For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ligooo000000000000000000 DOOOOOOOOOOO P00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : आसणगओण पुच्छेज्जा, णेव सेज्जागओ कयाइवि। आगम्मुक्कुडुओ संतो, पुच्छेज्जा पंजलीउडो||३|| छायाः आसनगतो न पृच्छेत्, नैव शय्यागतः कदापि च। आगम्य उत्कुटुकः सन्, पृच्छेत प्राञ्जलिपुटः / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! गुरुजनों से (आसणगओ) आसन पर बैठे हुए कोई भी प्रश्न (ण) नहीं (पुच्छेज्जा) पूछना और (कयाइवि) कदापि (सेज्जागओ) शय्या पर बैठे हुए भी (ण) नहीं पूछना, हाँ (आगम्मुक्कुडुओ) गुरुजनों के पास आकर उकडू आसन से (संतों) बैठकर (पंजलीउडो) हाथ जोड़कर (पुच्छिज्जा) पूछना चाहिए। __भावार्थ : हे गौतम! अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों को कोई भी बात पूछना हो तो आसन पर बैठे हुए या शयन करने के बिछोने पर बैठे कभी नहीं पूछना चाहिए। क्योंकि इस तरह पूछने से गुरुजनों का अपमान होता है और ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होती है। अतः उनके पास जाकर उकडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर प्रत्येक बात को गुरु से पूछे / मूल : जंमे बुद्धाणुसासंति, सीएणा फरुसेण वा। मम लाभो तिपेहाए, पयओतं पडिस्सुणे||४|| छायाः यन्मां बुद्धा अनुशासन्ति, शीतेन परुषेण वा। मम लाभ इति प्रेक्ष्य, प्रयतस्तत् प्रतिश्रृणुयात्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बुद्धा) बड़े-बूढ़े गुरुजन (ज) जो शिक्षा दे, उस समय यों विचार करना चाहिए, कि (मे) मुझे (सीएण) शीतल (व) अथवा (फरुसेण) कठोर शब्दों से (अणुसासंति) शिक्षा देते हैं। यह (मम) मेरा (लाभो) लाभ है (ति) ऐसा (पेहाए) समझकर षट्कायों की रक्षा के लिए (पयओ) प्रयत्न करने वाला महानुभाव (तं) उस बात को (पडिस्सुणे) श्रवण करे। भावार्थ : हे गौतम! बड़े-बूढ़े व गुरुजन मधुर या कठोर शब्दों में शिक्षा दें, उस समय अपने को यों विचार करना चाहिए, कि जो यह शिक्षा दी जा रही है, वह मेरे लौकिक ओर पारलौकिक सुख के लिए है। अतः उनकी अमूल्य शिक्षाओं को प्रसन्न चित्त से श्रवण करते हुए अपना अहोभाग्य समझना चाहिए। मूल : हियं विगयभया बुद्धा, फरुसं पि अणुसासणं| वेसं तं होइ मूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं||५|| 50000000000000000000000000000000000000 Do000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/194 DO 000000000000 Jain conmemorar For Personal & Private Use Only 00000000000 /www.jairnelibrary.org Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छाया: हितं विगतभया बुद्धाः, परुषमप्यनु शासनम्। द्वेषं भवति मूढ़ानां, शान्ति शुद्धिकरं पदम्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (विगयाभया) चला गया हो भय जिससे ऐसा (बुद्धा) तत्वज्ञ, विनयशील अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों की (फरुसं) कठोर (अणुसासणं) शिक्षा को (पि) भी (हियं) हितकारी समझता है और (मूढाणं) मूर्ख, "अविनीत" (खंतिसोहिकर) क्षमा उत्पन्न करने वाला तथा आत्म शुद्धि करने वाला, ऐसा जो (पय) ज्ञान रूप पद (तं) उसको श्रवण कर (वेस) द्वेष युत (होइ) हो जाता है। भावार्थ : हे गौतम! जिसको किसी प्रकार की चिन्ता भय नहीं है, ऐसा जो तत्वज्ञ, विनयवान महानुभाव अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों की अमूल्य शिक्षाओं को कठोर शब्दों में भी श्रवण करके उन्हें अपना परम हितकारी समझता है और जो अविनीत मूर्ख होते हैं, वे उनकी हितकारी और श्रवण सुखद शिक्षाओं को सुनकर भी द्वेषाग्नि में जल मरते हैं। मूल : अभिक्खणं कोही हवइ, पबंधं च पकुम्बई। मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जई||६|| अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं||७|| पइण्णवाई दुहिले, थट्टे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अवियत्ते, अविणीए चिवुच्चई|lll छाया: अभीक्ष्णं क्रोधी भवति, प्रबन्धं च प्रकरोति। मैत्रीयमाणो वमति, श्रुतं लब्ध्वा मद्यति।।६।। अपि पापपरिक्षेपी, अपि मित्रेभ्यः कुप्यति। सुप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि भाषत पापकम्।।७।। प्रकीर्णवादी द्रोहशीलः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः / असंविभाग्यप्रीतिकरः अविनयीत्युच्यते।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अभिक्खणं) बार बार (कोही) क्रोध युत् (हवइ) होता हो (च) और सदैव (पबंध) कलहोत्पादक ही कथा (पकुव्वई) करता हो (मेत्तिज्जमाणो) मैत्रीभाव को (वमइ) वमन कर (सुयं) श्रुत ज्ञान को (लक्ष्ण) पाकर (मज्जई) मद करे (पावपरिक्खेवी) बड़े-बूढ़े व गुरुजनों की न कुछ भूल को भी निंदा रूप में करता (अवि) ही रहे 9900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 500000000000000000000000000000000000000000ood निर्ग्रन्थ प्रवचन/195 600000000000000000 For Personal & Private Use Only boo000000000000000 www.jaine brary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (मित्तेसु) मित्रों पर (अवि) भी (कुप्पइ) क्रोध करता रहे (सुप्पियस्स) सुप्रिय (मित्तस्स) मित्र के (अवि) भी (रहे) परोक्ष रूप में उसको (पावगं) पाप दोष (भासइ) कहता हो। (पइण्णवाई) संबंध रहित बहुत बोलने वाला हो, (दुहिले) द्रोही हो (थद्धे) घमण्डी हो। (लद्धे) रसादिक स्वाद में लिप्त हो (अणिग्गहे) अनिग्रहीत इन्द्रियों वाला हो (असंविभागी) किसी को कुछ नहीं देता हो (अवियत्ते) पूछने पर भी अस्पष्ट बोलता हो, वह (अविणीए) अविनीत है। (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) ज्ञानीजन कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो सदैव क्रोध करता है, जो कलहौत्पादक नयी नयी बातें ही घडकर सदा कहता रहता है, जिसका हृदय मैत्री भावों से विहीन हो, ज्ञान सम्पादन करके जो उसके गर्व में चूर रहता हो, अपने बड़े-बूढ़े व गुरुजनों की न कुछ सी भूलों को भी भयंकर रूप जो देता हो, अपने प्रगाढ़ मित्रों के परोक्ष में दोष प्रकट करता रहता हो, वाक्य या कथा का संबंध न मिलने पर भी जो वाचाल की भांति बहुत अधिक बोलता हो, प्रत्येक के साथ द्रोह किये बिना जिसे चैन ही नहीं पड़ता हो, गर्व करने में भी जो कुछ कोर कसर नहीं रखता हो, रसादिक पदार्थों के स्वाद में सदैव आसक्त रहता हो, इन्द्रियों के द्वारा जो पराजित होता रहता हो, जो स्वयं पेटू हो और दूसरों को एक कौर भी कभी नहीं देता हो और पूछने पर भी जो सदा अनजान की ही भांति बोलता हो, ऐसा जो पुरुष है, वह फिर चाहे जिस जाति, कुल का क्यों न हो, अविनीत है, अर्थात् अविनयशील है उसकी इस लोक में तो प्रशंसा होगी ही क्यों? बल्कि परलोक में भी वह अधोगामी बनेगा। मूल : अह पण्णरसहिं ठाणेहि, सुविणीए ति वुच्चई। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहलेllell छायाः अथ पञ्च दशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते। नीचवृतयचपलः, अमाय्यकुतूहलः।।६।। अथ पञ्च दशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते। नीचवृतयचपलः, अमाय्यकुतूहलः / / 6 / / ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अह) अब (पण्णरसहिं) पंद्रह (ठाणेहिं) स्थानों (सुविणीए) बातों से अच्छा विनीत है (त्ति) ऐसा (वुच्चई) ज्ञानीजन कहते हैं और वे पन्द्रह स्थान यों है। (नीयावित्ती) नम्र हो, बड़े-बूढ़े व गुरुजनों के आसन से नीचे बैठने वाला हो, (अचवले) चपलता रहित हो (अमाई) निष्कपट हो (अकुऊहले) कुतूहल रहित हो।। pooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/196. Jabal 0000000000000000 S00000000000000 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl bo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! पन्द्रह कारणों से मनुष्य विनम्र शीलवान या विनीत कहलाता है- वे पन्द्रह कारण यों हैं (1) अपने बड़े बूढ़े व गुरुजनों के साथ नम्रता से जो बोलता हो, (2) उनसे नीचे आसन पर बैठता हो, पूछने पर हाथ जोड़कर बोलता हो, बोलने, चलने, बैठने आदि में जो चपलता न दिखाता हो (3) सदैव निष्कपट भाव से जो बर्ताव करता हो (4) खेल, तमाशे आदि कौतुकों के देखने में विशेष उत्सुक न हो। मूल : अप्पं चाहिक्खिवई, पबंधं च न कुई। मेतिन्जमाणो मयई, सुयं लद्धं न मज्जई||१०|| न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई||११|| कलहडमरवज्जए, बुद्धे अभिजाइए। हिरिमं पडिसंलीणे, सुवणीए ति वुच्चई||१२|| छायाः अल्पं च अधिक्षिपति, प्रबन्धं च न करोति। मैत्रीपमाणो भजते, श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति।।१०।। न च पापपरिक्षेमी, न च मित्रेषुः कुप्यति। अप्रियस्यापि मित्रस्य, रहिस कल्याण भाषते||११|| कलहडमरवर्जकः, बुद्धोऽभिजातकः। हीमान् प्रतिसंलीन५, सुविनीत इत्युच्यते।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहिक्खिवई) बड़े-बूढ़े तथा गुरुजन आदि किसी का भी जो तिरस्कार न करता हो (च) और (पबंध) कलहौत्पादक कथा (न) नहीं (कुव्वई) करता हो, (मतिज्जमाणो) मित्रता को (भयई) निभाता हो, (सुयं) श्रुत ज्ञान को (लद्धं) पा करके जो (न) नहीं (मज्जई) मद करता हो (य) और (न) नहीं करता हो (पावपरिक्खेवी) बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों की भूल को (य) और (मित्तेसु) मित्रों पर (न) नहीं (कुप्पई) क्रोध करता हो (अप्पियस्स) अप्रिय (मित्तस्स) मित्र के (रहे) परोक्ष में (अवि) भी, उसके (कल्लाण) गुणानुवाद और काया युद्ध दोनों से अलग रहता हो, (बुद्ध) वह तत्वज्ञ फिर (अभिजाइए) कुलीनता के गुणों से युक्त हो, (हिरिम) लज्जावान् हो, (पडिसलीणे) इन्द्रियों पर विजय पाया हुआ हो, वह (सुविणीए) विनीत है। (त्ति) ऐसा ज्ञानीजन (वुच्चई) कहते हैं। 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/197 goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 00000000000000 For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! फिर तत्वज्ञ महानुभाव कहते हैं कि जो (5) अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों का कभी भी तिरस्कार नहीं करता हो (6) व्यर्थ विवाद की बातें न करता हो (7) उपकार करने वाले मित्र के साथ बने वहाँ तक पीछ उपकार ही करता हो, यदि उपकार करने की शक्ति न हो तो अपकार से तो सदा सर्वदा दूर ही रहता हो (8) ज्ञान पाकर घमण्ड न करता हो (6) अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों की भूल को भी बढ़ा-चढ़ा कर न देखता है (10) अपने मित्र पर कभी भी क्रोध न करता हो (11) परोक्ष में भी अप्रिय मित्र का अवगुणों के बजाय गुणगान ही करता हो (12) वाक् युद्ध और काया युद्ध दोनों से जो कतई दूर रहता हो, (13) कुलीनता के गुणों से सम्पन्न हो (14) लज्जावान् अर्थात् अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों के समक्ष नेत्रों में शरम रखने वाला हो (15) और जिसने इन्द्रियों पर पूर्ण साम्राज्य प्राप्त कर लिया हो, वही विनीत है। ऐसे ही व्यक्ति की इस लोक में प्रशंसा होती है और परलोक में उन्हें शुभ गति मिलती है। मूलः जहा हिअम्गी जलणं नमसे, नाणाहुई मंतपयामिसत्त। एवायरियं उवचिठ्ठइज्जा, अणंतनाणोवगओ वि संतो||१३|| छायाः यथाहिताग्निर्व्वलनं नमस्यति, नानाऽऽहुतिमंत्रपदाभिषिक्तम्। पवमाचार्यमुपतिष्ठेत्, अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (आहिअग्गी) अग्नि होत्री ब्राह्मण (जलणं) अग्नि को (नमंसे) नमस्कार करते हैं तथा (नाणाहुईमंतपयाभिसत्त) नाना प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति और मंत्र पदों से उसे सिंचित करते हैं (एवायरियं) इसी तरह से बड़े-बूढ़े व गुरुजनों और आचार्य आदि की (अणंतनाणोवगओसंतो) अनंत ज्ञान सम्पन्न होने पर भी (उवचिट्ठइज्जा) सेवा करनी चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि को नमस्कार करते हैं और उसको अनेक प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति एवं मंत्र पदों से सिंचित करते हैं। इसी तरह पुत्र और शिष्यों का कर्तव्य और धर्म है कि चाहे वे अनंत ज्ञानी भी क्यों न हो उनको अपन बड़े-बूढ़े और गुरुजनों एवं आचार्य की सेवा शुश्रूषा करनी ही चाहिए। जो ऐसा करते हैं, वे ही सचमुच में विनीत हैं। अर्थात् ज्ञानीजनों को सेवा भावपूर्वक सम्मान देना चाहिये। goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1985 00000000000000000 For Personal & Private Use Only 000000000 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 मूल : आयरियं कुवियं णच्चा, पत्तिएण पसायए। विज्झवेज पंजलीउडो, वइज्ज णपुणुति य||१४|| छायाः आचार्यं कुपितं ज्ञात्वा, प्रीत्या प्रसादयत्। विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेन्न पुनरिति च।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आयरियं) आचार्य को (कुवियं) कुपित (ण'च्चा) जानकर (पत्तिएण) प्रीति कारक शब्दों से फिर (पसायए) प्रसन्न करे (पंजलीउडो) हाथ जोड़कर (विज्झवेज्ज) शान्त करे (य) और (ण-पुणुत्ति) फिर ऐसा अविनय नहीं करूंगा ऐसा (वइज्ज) बोले। भावार्थ : हे गौतम! बड़े-बूढ़े गुरुजन एवं आचार्य अपने पुत्र शिष्यादि के अविनय से कुपित हो उठे तो प्रीति कारक शब्दों के द्वारा पुनः उन्हें प्रसन्नचित्त करे, हाथ जोड़-जोड़कर उनके क्रोध को शान्त करे और यों कहकर कि "इस प्रकार" का अविनय या अपराध आगे से मैं कभी नहीं करूंगा, अपने अपराध की क्षमा याचना करें। _सन्दर्भ : (1) कई जगह "णच्चा" की जगह (नच्चा) भी मूल पाठ में आता है। ये दोनों शुद्ध हैं। क्योंकि प्राकृत में नियम है, कि "नो णः" नकार का णकार होता है। पर शब्द के आदि में हो तो वहां “वा आदौ" इस सूत्र से नकार का णकार विकल्प से हो जाता है। अर्थात् नकार या णकार दोनों में से कोई भी एक हो। मूल : णच्चा णमइ मेहावी, लोए कित्ती से जाय। हवइ किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहा||१५|| छायाः ज्ञात्वा नमति मेधावी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते। भवति कृत्यानां शरणं, भूतानां जगती यथा।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! इस प्रकार विनय की महत्ता को (णच्चा) जानकर (मेहावी) बुद्धिमान् मनुष्य (णमइ) विनयशील हो, जिससे (से) वह (लोए) इस लोक में (कित्ति) कीर्ति का पात्र (जायइ) होता है (जहा) जैसे (भूयाण) प्राणियों को (जगई) पृथ्वी आश्रव भूत है, ऐसे ही विनीत महानुभाव (किच्चाण) पुण्य क्रियाओं का (सरणं) आश्रय रूप (हवइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार विनय की महत्ता को समझकर बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि इस विनय को अपना परम सहचार सखा बना ले। जिससे वह इस संसार में प्रशंसा का पात्र हो जाए। जिस 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/199 B0000000000000000od For Personal & Private Use Only 00000000000000 c/a Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mdoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000d प्रकार यह पृथ्वी सभी प्राणियों को आश्रय रूप है, ऐसे ही विनयशील मानव भी सदाचार रूप अनुष्ठान का आश्रय है। मूलः स देवगंधव्वमणुस्सपूइए, चइवु देहं मलपंकपुव्वयं सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिड्डिए||१६|| छायाः स देवगन्धर्व मनुष्य पूजितः, त्यक्त्वा देहं मलपंक पूर्वकम् / __सिद्धो भवति शाश्वतः, देवो वापि महर्द्धिकः / / 16 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (देवगंधव्वमणुस्सपूइए) देव, गंधर्व और मनुष्य से पूजित (स) वह विनयशील मनुष्य (मलपंकपुव्वयं) रुधिर और वीर्य से बनने वाले (देह) मानव शरीर को (चइत्तु) छोड़ करके (सासए) शाश्वत (सिद्धे वा) सिद्ध (हवइ) होता है (वा) अथवा (अप्परए) अल्प कर्म वाला (महिड्ढिए) महा ऋद्धिवंत (देवे) देवता होता है। भावार्थ : हे गौतम! देव, गंधर्व और मनुष्यों के द्वारा पूजित ऐसा वह विनीत मनुष्य रुधिर और वीर्य से बने हुए इस शरीर को छोड़कर शाश्वत सुखों को सम्पादन कर लेता है अथवा अल्प कर्म वाले महा ऋद्धिवंत देवों की श्रेणी में जन्म धारण करता है। ऐसा ज्ञानीजनों ने कहा है। मूल: अत्यि एगंधुवं ठाणं, लोगग्गम्मि दुरारुह। जत्थ नत्यि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा||१७|| छायाः अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं, लोकाग्रे दुरारोहम्। यत्र नास्ति जरामृत्यु, व्याधयो वेदनास्तथा।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (लोगग्गम्मि) लोक के अग्र भाग पर (दुरारुह) कठिनता से चढ़ सके ऐसा (एग) एक (धुवं) निश्चल (ठाणं) स्थान (अत्थि) है। (जत्थ) जहां पर (जरामच्चू) जरामृत्यु (वाहिणो) व्याधियों (तहा) तथा (वयणा) वेदना (नत्थि) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! कठिनता से चढ़ा जा सके, पा सके ऐसा एक निश्चल स्थान, लोक के अग्र भाग पर है। जहाँ पर न वृद्धावस्था का दुख है और न व्याधियों ही की लेन-देन है तथा शारीरिक व मानसिक वेदनाओं का भी वहां नाम नहीं है। मूल: निब्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव या खेमं सिवमणा बाह, जंचरंति महेसिणो||१८ go00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poooo00000000000 4निर्ग्रन्थ प्रवचन/2003 300000000000000 0000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 छाया : निर्वाणमित्यबाधमिति, सिद्धार्लोकाग्रमेव च। क्षेमं शिवमनाबाधं, यच्चरन्ति महर्षयः / / 18 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! वह स्थान (निव्वाणंति) निर्वाण (अबाहं ति) अबाध (सिद्धी) सिद्धि (य) और (एव) ऐसे ही (लोगग्गं) लोकाग्र (खेम) क्षेम (सिव) शिव (अणाबाह) अनाबाध, इन शब्दों से भी पुकारा जाता है। ऐसे (ज) उस स्थान को (महेसिणो) महर्षि लोग (चरंति) जाते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! इस स्थान को निर्वाण भी कहते हैं, क्योंकि वहाँ आत्मा के सर्व प्रकार के संतापों का एकदम अभाव रहता है। अबाधा भी उसी स्थान का नाम है, क्योंकि वहां आत्मा को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती है। उसको सिद्धि भी कहते हैं, क्योंकि आत्मा ने अपना इच्छित कार्य सिद्ध कर लिया है और लोक के अग्र भाग पर होने से लोकाग्र भी उसी स्थान को कहते हैं। फिर उसका नाम क्षोम भी है, क्योंकि वहां आत्मा को शाश्वत सुख मिलता है। उसी को शिव भी कहते हैं, क्योंकि आत्मा निरुपद्रव होकर सुख भोगती रहती है। इसी तरह उसको अनाबाध भी कहते हैं क्योंकि वहाँ गयी हुई आत्मा स्वाभाविक सुखों का उपभोग करती रहती है, किसी भी तरह की बाधा उसे वहाँ नहीं होती। इस प्रकार के उस स्थान को संयमी जीवन के बिताने वाली आत्माएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करती हैं। मूल: नाणं च दंसणंचेव, चरित्वं च तवो वहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं||१९|| छाया: ज्ञानं च दर्शनं चैव, चरित्रं च तपस्तथा। एतन्मार्गमनुप्राप्ताः, जीवा गच्छन्ति सुगतिम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणं) ज्ञान (च) और (दसणं) श्रद्धान (चेव) और इसी तरह (चरित्त) चारित्र (च) और (तहा) वैसे ही (तवो) तप (एयं) इन चार प्रकार के (मग्गं) मार्ग को (अणुप्पत्ता) प्राप्त होने पर (जीवा) जीव (सोग्गइं) मुक्ति गति को (गच्छंति) प्राप्त होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार के मोक्ष स्थान में वही जीव पहुंच पाता है, जिसे सम्यक् ज्ञान है, वीतरागों के वचनों पर जिसे श्रद्धा है, जो चारित्रवान है और तप में जिसकी प्रवृत्ति है। इस तरह इन चारों मार्गों को यथा विधि जो पालन करता रहता है। फिर उसके लिए मुक्ति कुछ भी दूर नहीं है। क्योंकि : 090000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/2011 00000000000000 500000000000000ooth For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्रेण निगिण्हइ, तवेण परिसुज्झई||२०|| छायाः ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रद्धधत्ते। चारित्रेण निगृह्णाति, तपसा परिशुद्धयति।।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणेण) ज्ञान से (भावे) जीवादिक तत्वों को (जाणाई) जानता है (य) ओर (दंसणेण) दर्शन से उन तत्वों को (सद्दहे) श्रद्धता है। (चरित्तेण) चारित्र से नवीन पाप (निगिण्हइ) रुकता है और (तवेण) तपस्या करके (परिसुज्झई) पूर्व संचित कर्मों को क्षय कर डालता है। भावार्थ : हे गौतम! सम्यक ज्ञान के द्वारा जीव तात्विक पदार्थों को भलीभांति जान लेता है, दर्शन के द्वारा उसकी उनमें श्रद्धा हो जाती है। चारित्र अर्थात् सदाचार से भावी नवीन कर्मों को वह रोक लेता है और तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के पापों को क्षय कर डालता है। मूलः नाणस्स सबस्स पगासणाए, अण्णाण मोहस्स विवज्जणाए। रागरस दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं||२१|| छायाः ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया। रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम्।।२१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! आत्मा (सव्वस्स) सर्व (नाणस्स) ज्ञान के (पगासणाए) प्रकाशित होने से (अण्णाणमोहस्स) अज्ञान और मोह के (विवज्जणाए) छूट जाने से (य) और (रागस्स) राग (दोसस्स) द्वेष के (संखएण) क्षय हो जाने से (एगतसोक्ख) एकान्त सुख रूप (मोक्ख) मोक्ष की (समुवेइ) प्राप्ति करता है। भावार्थ : हे गौतम! सम्यक ज्ञान के प्रकाशन से अज्ञान, अन्ध श्रद्धान के छूट जाने से और राग द्वेष के समूल नष्ट हो जाने से, एकान्त सुख रूप जो मोक्ष है, उसकी प्राप्ति होती है। मूलः सव्वं तओ जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए। अणासवे झाणसमाहिजुचे, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे||२२|| छायाः सर्वं ततो जानाति पश्यति च, अमोहनो भवति निरन्तरायः। अनास्रवो ध्यान समाधियुक्तः, आयुःक्षये मोक्षमुपैति शुद्धः / / 22 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तओ) सम्पूर्ण ज्ञान के हो जाने के पश्चात् (सव्वं) सर्व जगत् को (जाणइ) जान लेता है। (य) और (पासए) 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/202 000000000000000000od EA 00000000000 For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500000000000000000000000000000000000000000000r OOOOOOOC gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ood देख लेता है। फिर (अमोहणे) मोह रहित और (अणासवे) आश्रव रहित (होइ) होता है। (झाणसमाहिजुत्ते) शुक्ल ध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह (आउक्खए) आयुष्य क्षय होने पर (सुद्ध) निर्मल (मोक्खं) मोक्ष को (उवेइ) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! शुक्ल ध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह जीव मोह और अन्तराय रहित हो जाता है तथा वह सर्व लोक को जान लेता है और देख लेता है। अर्थात् शुक्ल ध्यान के द्वारा जीव चार घनघातियाँ कर्मों का नाश करके इन चार गुणों को पाता है। तदनन्तर आयु आदि चार अघातिया कर्मों का नाश हो जाने पर वह निर्मल मोक्ष स्थान को पा लेता है। मूल: सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति। एवं कम्माण रोहति, मोहणिज्जे खयंगए||३|| छायाः शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिञ्चमानो न रोहति। एवं कर्माणि न रोहन्ति, मोहनीये क्षयंगते।।२३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (सुक्क मूले) सूख गया है मूल जिसका ऐसा (रुक्खे), वृक्ष, (सिच्चमाणे) सींचने पर (ण) नहीं (रोहति) लहलहाता है (एवं) उसी प्रकार (मोहणिज्जे) मोहनीय कर्म (खयंगए) क्षय हो जाने पर पुनः (कम्मा) कर्म (ण) नहीं (रोहति) उत्पन्न होता है। भावार्थ : हे गौतम! जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो उसे पानी से सींचने पर भी वह लहलहाता नहीं है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि, जब कारण ही नष्ट हो गया तो कार्य कैसे हो सकता है? मूल : जहा ददाणंबीयाणं, ण जायंति पुणंकुरा। .. कम्म बीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा||२४|| छायाः यथा दग्धानामंकुराणाम्, न जायन्ते पुनरंकुराः। कर्म बीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः / / 24 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (दद्धाणं) दग्ध (बीयाणं) बीजों के (पुणंकुरा) फिर अंकुर (ण) नहीं (जायंति) उत्पन्न होते है। उसी प्रकार (दड्ढेसु) दग्ध (कम्मबीएसु) कर्म बीजों में से (भवंकुरा) भव रूपी अंकुर (न) नहीं (जायंति) उत्पन्न होते हैं। 0000000000000000ooot निर्ग्रन्थ प्रवचन/203 JameRE D0000000000oobi For Personal & Private Use One 00000000 One Orary.org Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000 0000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार जले भूजे बीजों को बोने से अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार जिसके कर्म रूपी बीज नष्ट हो गये हैं, सम्पूर्ण क्षय हो गये हैं, उस अवस्था में उसके भव रूपी अंकुर पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं। यही कारण है कि मुक्तात्मा फिर कभी मुक्ति से लौटकर संसार में नहीं आते। ॥श्रीगौतमउवाच|| मूल: कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पाइट्ठिया। कहिं बोदिं चइताणं, कत्य गंतूण सिज्झई||२५| छायाः क्व प्रतिहताः सिद्धा, क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिताः। क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिद्ध्यन्तिः / / 25 / / अन्वयार्थ : हे भन्ते! (सिद्धा) सिद्ध जीव (कहिं) कहां पर (पडिहया) प्रतिहत हुए हैं? (कहिं) कहाँ पर (सिद्धा) सिद्ध जीव (पइट्ठिया) रहे हुए हैं? (कहिं) कहां पर (बोंदि) शरीर को (चइत्ता) छोड़ कर (कत्थ) कहां पर (गंतूण) जाकर (सिज्झई) सिद्ध होते हैं। भावार्थ : हे प्रभो! जो आतमाएँ, मुक्ति पा गयी हैं, वे कहां तो प्रतिहत हुई हैं? कहाँ ठहरी हुई हैं? और उन्होंने मानव शरीर कहां पर छोड़ा है? और कहां जाकर वे आत्माएँ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होती हैं? ॥श्रीभगवानुवाच| मूल : अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे अपइट्ठिया। इह बोदिं चइताणं तत्य गंतूणं सिज्झाई||२६| छायाः अलोके प्रतिहृताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः / इह शरीरं त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिद्ध्यन्ति।।२६।। ____ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सिद्धा) सिद्ध आत्माएँ (अलोए) अलोक में तो (पडिहृया) प्रतिहत हुई हैं। (य) और (लोयग्गे) लोकाग्र पर (पइट्ठिया) ठहरी हुई हैं। (इह) इस लोक में (बोदि) शरीर को (चइत्ता) छोड़कर (तत्थ) लोक के अग्रभाग पर (गंतूण) जाकर (सिज्झई) सिद्ध हुई हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्माएँ सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों द्वारा प्राप्त सिद्धि से मुक्त होती हैं, वे शीघ्र ही स्वाभाविकता से ऊर्ध्वलोक को गमन कर अलोक से प्रतिहत होती हैं / अर्थात् अलोक में गमन करने में सहायक वस्तु धर्मास्तिकाय होने से लोकाग्र में ही गति रुक जाती है, तब वे सिद्ध 00000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/204 14000000000 00000000000000 For Personal & Private Use Only 000000000000 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 0000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 आत्माएँ लोक के अग्रभाग पर ठहरी रहती हैं। वे आत्माएँ इस मानव शरीर को यहीं छोड़कर लोकाग्र पर सिद्धात्मा होती हैं। मूलः अरुविणोजीवघणा, नाणदंसणसन्निया। अउलंसुहसंपन्ना, उवमाजस्सनत्थिउ||२७|| छायाः अरुपिणो जीवघन्नाः, ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः। अतुलं सुखं सम्पन्नाः, उपमा यस्य नास्ति तु।।२७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अरुविणो) सिद्धात्मा अरूपी है और (जीवघणा) वे जीव घन रूपी हैं। (नाणदंसणसन्निया) जिनकी केवल ज्ञानदर्शन रूप ही संज्ञा है। (अउल) अतुल (सुहसंपन्ना) सुखों से युक्त हैं (जस्स उ) जिसकी तो (उवमा) उपमा भी (नत्थि) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्मा सिद्धात्मा के रूप में होती हैं, वे अरूपी हैं, उनके आत्म प्रदेश घन रूप में होते हैं। ज्ञान दर्शन रूप ही जिनकी संज्ञा होती है और वे सिद्धात्माएँ अतुल सुख से युक्त रहती हैं। उनके सुखों की उपमा किसी से भी नहीं जा सकती हैं। प्रथमाचार्यश्रीसुधर्मोवाच|| मूलः एवं से उदाहु अणुचरनाणी, अणुचरदंसी अणुचरनाणदंसणधरे। अरहा णायपुत्चे भयवं, वेसालिए विआहिए ति बेमि||२८| छायाः एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञानदर्शनधरः। अर्हन् ज्ञातपुत्रः भगवान्, वैशालिको विख्यातः इति बवीमि।।२८।। अन्वयार्थ : हे जम्बू ! (अणुत्तरनाणी) प्रधान ज्ञान (अणुत्तरदंसी) प्रधान दर्शन अर्थात् (अणुत्तरनाणदंसणधरे) प्रधान ज्ञान और दर्शन उसके धारक और (विआहिए) सत्योपदेशक (से) उन निग्रंथ (णायपुत्ते) ज्ञातपुत्र (वसालिए) त्रिशला के अंगज (अरहा) अरिहंत (भयवं) भगवान ने (एवं) इस प्रकार (उदाहु) कहा है। (त्ति वेमि) इस प्रकार सुधर्म स्वामी ने जम्बू स्वामी को कहा। ___ भावार्थ : हे जम्बू! प्रधान ज्ञान और प्रधान दर्शन के शाश्वत धारक, सत्योपदेश करने वाले, प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल के सिद्धार्थ राजा के पुत्र और त्रिशला रानी के अंगज, निर्ग्रन्थ, अरिहंत भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा है। तदनुसार सुधर्म स्वामी ने जम्बू स्वामी को निर्ग्रन्थ प्रवचन समझाया है। Agoooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/205 100000000000000000 For Personal & Private Use Only 000000000000064 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Nooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 महामंत्र नवकार नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सबसाहूण एसो पंच णमोक्कारो, सब पावप्पणासणो। मंगलाणंच सब्वेसिं, पढमहवइ मंगलं|| agoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000 नमस्कार महामंत्र भावार्थ नमन हमारा अहँतों को, सिद्धों को, आचार्यों को 'आगम पुरुष' उपाध्यायों को, अखिल जगत के संतों को नमस्कार पंचक यह पावन, सब पापों का करता नाश, सभी मंगलों में प्रधान है, प्रकटे आतम दिव्य प्रकाश।। 0000000 तिक्खुत्तो - गुरुवन्दन सूत्र तिक्खुत्तो, आयाहिणं, पयाहिणं, करेमि वंदामि, नमसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि।। मैं तीन बार दायीं ओर से प्रदीक्षणा वंदना नमस्कार सत्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ। आप कल्याणकारी, मंगलकारी धर्मदेव हैं, ज्ञानवान हैं। मैं आपकी पर्युपासना मस्तक झुकाकर करता हूँ। . निर्ग्रन्थ प्रवचन/206 C000000000000000000 Jain Education internatonian For Personal & Private Use Only boooo0000000000006 . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000 करेमि भंते - सामायिक पाठ करेमि भंते सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, जाव नियम (मुहुर्त) पज्जुवासामि। दुविहं तिविहेणं मणेणं, वायाए, काएणं न करेमि, न कारवेमि तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं बोसिरामि।। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000084 प्रणिपात सूत्र नमोत्थुण! अरिहंताणं, भगवतंताणं। आइगराणं, तित्थयराणं, सयं - संबुद्धाणं। पुरिसुत्तमाणं पुरिस सीहाणं, पुरिसवरपुंडरियाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं। लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं लोगपईवाणं, लोग-पज्जोयगराणं अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाण। धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं। दीवो-ताणं-सरण-गई-पइट्ठाणं अप्पडिहय-वरनाण दसण-धराणं, वियट्टछउमाणं। जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं, मोयगाणं, सव्वनूणं, सव्व-दरि सीणं, सिव मयलम-रूय मणंत मक्खय मव्वावाह मपुणरावित्ति-सिद्धिंगइ नामधेयं ठाणसंपत्ताणं, नमो जिणाणं जियभयाणं। gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl EN निर्ग्रन्थ प्रवचन/207 000000000000 V d000000000000000000 For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Nooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र / लोगस्स उज्जोयगरे, धम्म-तित्थयरे जिणे। अरिहन्ते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली।।१।। उसभ मजियं च वंदे, संभव मभिणंदणं च सुमई च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे / / 2 / / सुविहिं च पुफ्फदंतं, सीअल-सीज्जंस-वासुपुज्जं च। . विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि।।३।। कुंथु अरंच मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च। वंदामि रिट्ठनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च।।४।। एवं मए अभित्थुआ, विहुय-रय मला पहीणं जर मरणा। चउवीसपि जिणवरा तित्थयरा में पसीयतु।।५।। कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरूग्ग बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं किंतु।।६।। चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागर-वर-गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।७।। नित्य भावना जिसने श्री वीगराग देव के, शुद्ध रूप का ध्यान किया। राग द्वेष मोह माया, मत्सर, मिथ्या मद को त्याग दिया।। भक्त/मुमुक्ष/प्रेमी उसको, साधक या महावीर कहो। धर्म साधना के साधन में, हरदम बन कर्मवीर रहो।।१।। विषय भोग की नहीं कामना, विषयों को जो विष माने। शारीरिक सुख से बढ़कर, जो आत्मिक सुख को पहचाने। जर जमीन जोरु के त्यागी, आत्म रमण जो करते हैं। ऐसे त्यागी संतों के, चरणों में मस्तक धरते हैं।।२।। रहे सदा सम्पर्क उन्हीं का, उन जैसा मैं बन जाऊं। आत्म साधना के पथ पर चल, उन जैसा ही पद पाऊ।। भोगों का मैं त्याग करूं, और योगी बनकर जिया करूं। सुबह शाम जिनदेवों का ही, शुद्ध ध्यान में किया करूं।।३।। निर्ग्रन्थ प्रवचन/208 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000px 000000000000ookan 500000000000000000 For Personal & Private Use Only " Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g DOOK 0000000000000000000000000000000 agoo000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्राणी मात्र सब सुख से जीएं, कभी न कोई दुख पावे। ऋद्धि सिद्धि घर घर में होवे, यही भावना नित भावे।। नहीं किसी को भी मैं दुख दूं, कोई न मुझसे भय खावे। क्षीर नीर सम मैत्री भाव हो, नेह नीर में सब न्हावें।।४।। कदाचार के पथ को छोडूं, सदाचार पथ अपनावे। शुद्ध शील की करूं पालना, ऐसी दृढ़ता मन आवे।। पर धन वनिता पर न लुभाऊं, 'स्व' पर न अभिमान करूँ। न्याय नीति की करुं कमाई, सदा आत्महित ध्यान धरूँ।।५।। आर्तध्यान और रौद्र ध्यान में, मन मलीन न हो पावें। धर्म ध्यान करूणा मैत्री में, सारा समय गुजर जावें।। रोम रोम हो हर्षित मेरा, जब कोई गुणवान मिले। मैं समझं भगवान मिले, जब सद्कर्मी इन्सान मिले।।६।। धन्य दिवस वह मेरा होगा, जब 'परिग्रह' का त्याग करूं। गृहस्थवास को तज कर होऊँ, मुंडित मन वैराग्य धरूं।। धन्य धन्य वह दिन होगा, जब अंत समय संलेखना हो। खाना पीना सब कुछ तजकर, समाधि भाव में मरणा हो।७।। मृत्यु से नहीं भय हो मुझको, जीवन की नहीं आशा हो। चाहे लक्ष्मी आवे जावे, मन में नहीं निराशा हो।। धर्माराधन की ही निशदिन, मझको लगी पिपासा हो। आगम ज्ञान सीखने की ही, एक मात्र जिज्ञासा हो।।८।। नहीं कभी भी क्रोध करूं मैं, क्षमा स्त्रोत मन बहा करे। अभिमान नहीं रखू मन में, सरल नम्र बन रहा करें।। मधुर मधु से प्रिय वचन ही, मेरा मुख ये कहा करे। प्रेम शांति समभाव धार कर, कटु वचन भी सहा करे।।६।। शुद्धाचार विचार रहे नित, शुद्धाचार व्यवहार रहे। गुरुजनों के प्रति हृदय में, श्रद्धाभाव सत्कार रहे।। मात-पिता अतिथि संत की, सेवा का नित भाव रहे। महामंत्र नवकार जाप का, सबके मन में चाव रहे।।१०।। महामंत्र नवकार ये प्यारा, चौदह पूर्व का है सार / वीतराग की वाणी है ये, श्रद्धा से धारो नर नार।। शुद्ध भाव से जो भी प्राणी, जपता इसको बारम्बार / जपते-जपते भव सागर से, हो जाएगा बेड़ा पार।।११।। 00000000000000 >0000000000000000000000000000000000000000000000ool निर्ग्रन्थ प्रवचन/209 000000000000000ood For Personal & Private Use Only 500000000000000 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 श्रावक चिन्तन प्रतिज्ञा OOOOOOK 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 मैं श्रावक हूँ श्रमणोपासक, जिन धर्म आराधक हूँ। गृहस्थावस्था में रहकर भी, मुक्ति पथ का साधक हूँ।। श्रावक के 12 व्रतों का, मैं आराधन करता हूँ। उनमें जो अतिचार लगे, उनका आलोचन करता हूँ।। सम्यक्त्व राग द्वेष के जो हैं विजेता, अरिहंत हैं मेरे देव। सच्चे पंच महाव्रत धारी, साधु साध्वी हैं गुरुदेव।। जिन प्ररूपित तत्व रूप ही. दया मय है धर्म मेरा। यही सम्यक्त्व करूं मैं धारण, कटे चौरासी का फेरा।। प्रथम अणुव्रत जिनरपराध जीवों की मोटी, हिंसा का मैं त्याग करूं। सभी जीव हैं जीना चाहते, यही भावना मन में धरूं।। नहीं किसी को मारूं बांधू, नहीं कोई अंग छेद करूं। अतिभार आरोपण भक्त, पान विच्छेद का खेद करूं।। _ द्वितीय अणुव्रत झूठ नहीं बोलूं बिन कारण, सदा सत्य व्यवहार करूं। कन्या गौ भूमि के हेतू, नहीं झूठा व्यापार करूं। झूठी गवाही देऊं नहीं, न धरोहर रख इंकार करूं। नहीं किसी पर कलंक लगाऊ, नहीं झूठा प्रचार करूं।। तृतीय अणुव्रत कभी किसी की करुं न चोरी, चोरी का न लूं समान। कम नहीं तोलूं कम नहीं मापूं, रखू शुद्ध सही परिमाण।। नहीं मिलावट करूं कभी भी, करूं न मन को बेईमान। असली-असली/नकली-नकली, रखू सबकी अलग पहचान।। चतुर्थ अणुव्रत स्वदार संतोष करूं मैं, करूं ब्रह्मचर्य धारण। पर स्त्री वेश्या गमन करूं नहीं, समझू सबको माता बहन।। अनंग क्रीड़ा करूं नहीं, न विवाह कराऊं बिन कारण। मर्यादित हो मैथुन सेवन, पापों का हो निवारण।। पांचवा अणुव्रत जितनी आवश्यकता होवे, उतना करूं वस्तु संग्रह। भूमि घर व सोना चांदी, धन धान्य चतुष्पद परिग्रह।। परिग्रह संग्रह से ही होता, यत्र तत्र सर्वत्र विग्रह। अतः परिग्रह की मर्यादा, करके करूं शोषण भवद्रह।। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000 . निर्ग्रन्थ प्रवचन/210 00000000000000 For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छठाव्रत गमन आगमन हेतु रखू, सभी दिशाओं का मैं ध्यान। पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व अधो दिशा परिमाण।। जितनी रखी है मर्यादा, और अधिक न करूं प्रयाण। यदि भूल से अतिक्रमण हो, करुं शीघ्र मैं उसका निदान।। सातवां व्रत अशन पान मर्दन शयन हित, जिस वस्तु का करुं उपभोग। उन सबकी मैं करूं मर्यादा, रखू सदा ही मैं उपयोग।। मर्यादा का भंग करूं नहीं, करके अनुचित मौज व शौक। 15 कर्मादान त्याग कर, सर्वकर्म का करुं वियोग।। आठवां व्रत बिना प्रयोजन करुं न हिंसा, नहीं स्वार्थ का हो पोषण। नहीं प्रमाद का करूं मैं सेवन, नहीं किसी का हो शोषण।। अनर्गल भाषा अंग चेष्टा, नहीं करूं मैं दुश्चिंतन। सदा शुद्ध भावना रखू, धुल जाएं सब ही दूषण।। नौंवा व्रत करूं प्रतिदिन शुद्ध सामायिक, गृह कार्य से निवृत्त हो। पाप. आश्रव छोड़ आत्मा, संवर में ही संवृत हो।। अशुभ कार्य न करूं कराऊं, जिससे कहीं अनादृत हों। मन वच काय शुद्ध योग से, आतम शक्ति अनावृत हो।। दशवां व्रत करी दिशा की जो मर्यादा, उसमें प्रतिदिन की सीमा। प्रातः उठकर करूं सदा ही, सदा बढ़ाऊं गुण गरिमा।। चौदह नियम सदा चितारूं, भारी है जिनकी महिमा।। लोक और परलोक सुधारू, कराऊ मुक्ति की बीमा।। ग्यारहवां व्रत अष्टमी पक्खी करूं मैं पौषध, तप से आत्म श्रृंगार करूं। दोष रहित कर तपाराधना, कर्मों का संहार करूं।। तीन मनोरथ का करूं चिंतन, नव तत्वों पर विचार करूं। स्वभाव रमण करके मैं निशदिन, मोक्ष पुरी में विहार करूं।। बारहवां व्रत शुद्ध संयमी साधु साध्वी, का जब घर दर्शन पाऊं। हर्षित होकर दोष रहित मैं, उनको गोचरी बहराऊं।। शुद्ध भाव से अप्रमत्त हो, मैं कुछ सेवा कर पाऊं। पंच महाव्रती की सेवा कर, मैं भी मुक्ति पद पाऊं।। Jigoo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000 do0000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/211 0000000000ooooobi 100000000000 For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000 &00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मंगल प्रार्थना अरिहंत जय जय, सिद्ध प्रभु जय जय, साधु-जीवन जय जय, जिनधर्म जय जय!! अरिहंत मंगलं, सिद्ध प्रभु मंगलं ! साधु-जीवन मंगलं, जिन-धर्म मंगलं !! अरिहंत उत्तम, सिद्ध प्रभु उत्तम, साधु-जीवन उत्तम, जिन-धर्म उत्तमं !! अरिहंत शरणं, सिद्ध प्रभु शरणं ! साधु-जीवन शरणं, जिन-धर्म शरणं !! जिनशासन प्रार्थना मंगलमय भगवान वीर हैं, मंगलमय गौतम स्वामी। मंगलमय श्री स्थूलभद्रादिक, मंगल जैन-धर्म नामी !! अति उत्तम भगवान वीर हैं, अति उत्तम गौतम स्वामी। अति उत्तम श्री स्थूलभद्रादिक, उत्तम जैन-धर्म नामी!! शरण-योग्य भगवान वीर हैं, शरण-योग्य गौतम स्वामी ! शरण-योग्य श्री स्थूलभद्रादिक, शरणा जैन-धर्म नामी !! 90000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000px निर्ग्रन्थ प्रवचन/212 0000000000000000ol 000000000 For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्नप्रकाशन की भाव-भूमि र "संघ रत्न" उपाध्याय प्रवर श्री रवीन्द्र मुनि जी म. जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति, रतलाम ने अनेकों वर्ष पूर्व जगद्वल्लभ जैन दिवाकर, प्रसिद्ध वक्ता पंडित रत्न गुरुदेव श्री चौथमल जी म.सा. की साहित्यिक जिज्ञासाओं से संकलित जैनागमों के सार रूप गाथाओं का चयन निर्ग्रन्थ प्रवचन के रूप में प्रकाशित किया था। यह पुस्तक और इसमें दी गई सामग्री के प्रति मैं सदैव से ही आकर्षित रहा हूँ, क्योंकि इस ग्रन्थ में दशवैकालिक सूत्र, जीवाभिगम सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, स्थानांग सूत्र, प्रश्न-व्याकरण सूत्र, समवायांग सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र, ज्ञातधर्मकथांग सूत्र और आचारांग सूत्र के साथ ही भगवती सूत्र की गाथाओं का संकलन प्रस्तुत किया गया है। पूज्य गुरुदेव श्री चौथमल जी म. का यह पुरुषार्थ अनेकों आत्माओं को ज्ञान का प्रकाश देते हुए स्वाध्याय क्रम में एक उत्कृष्ठ आलम्बन बनकर स्थापित रहा है। __मेरी समझ में आज यह पुस्तक लगभग उपलब्ध नहीं है। शायद इतने वर्षों पश्चात् इसके पुर्नप्रकाशन पर विद्वत्त मंडल का ध्यान नहीं गया या जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति के वर्तमान में अवस्थित न रहने की वजह से यह उपयोगी पुस्तिका पुर्नप्रकाशन में नहीं आई है। मेरे विचार में यह पुस्तक "गागर में सागर" रूप ऐसी पुस्तक है जिससे जिनशासन में निमज्ज श्रमण–श्रमणी एवं श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ लाभ ले सकता है। इसी शुभ भाव के कारण मैंने पुस्तक को यथावत प्रकाशित करने का आग्रह कुछ श्रावकों के सम्मुख रखा और मुझे यह जानकर खुशी हुई कि इस प्रकाशन की आवश्यकता अनेक लोगों ने अनुभव की। मेरे निश्रायी श्रमण मण्डल में भी इस पुस्तक का नित्य पठन-पाठन वर्षों से होता आया है। मैं चाहता हूँ कि यह पुस्तक पुर्नप्रकाशित होकर जगदवल्लभ गुरुदेव श्री चौथमल जी म. के पुरुषार्थ को पुनः-पुनः रेखांकित करें एवं भव्यात्माओं के लिए मार्गदर्शन करने में उपयोगी बने। इसी दृष्टि से इस लघु पुस्तिका का यथातथ्य पुर्नप्रकाशन किया जा रहा है। इस कार्य में जिन-जिन महानुभावों का साहचर्य-सहयोग प्राप्त हुआ है, मैं उन सभी को हृदय से साधुवाद प्रदान करता हूँ और यह अपेक्षा करता हूँ कि श्रमण-श्रमणी एवं श्रावक-श्राविका इस उपयोगी पुस्तक को अपने नित्य स्वाध्याय में स्थान देकर लाभान्वित होंगे। Jain Education international For Personal & Private Use Only Printed by: Creative Delhi # 09810554810