________________ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl do000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (चउप्पयं) हाथी घोड़े आदि (च) और (खित्तं) खेत वगैरह (गिह) घर (धण) रुपया, पैसा, सिक्का वगैरह (धन्न) अन्न वगैरह को (चिच्चा) छोड़कर (सुन्दरं) स्वर्गादि उत्तम (वा) अथवा (पावगं) नरकादि अधम ऐसे (परंभवं) परभव को (पयाइ) जाता है। __भावार्थ : हे गौतम! स्वकृत कर्मों के आधीन होकर यह आत्मा स्त्री, पुत्र, हाथी, घोड़े, खेत, घर, रुपया, पैसा, धान्य, चांदी, सुवर्ण आदि सभी को मृत्यु की गोद में छोड़कर जैसे भी शुभाशुभ कर्म किये होते हैं उनके अनुसार ही स्वर्ग तथा नर्क में जाकर उत्पन्न होता है। मूलः जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य| एमेव मोहाययणंखुतण्हा, मोहंचतण्हाययणं वयंति||६|| छायाः यथा अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च। ना एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णा, मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति।।२६।। 1 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा य) जैसे (अंडप्प भवा) अण्डा से बगुली उत्पन्न हुई (य) और (जहा) जैसे (बलागप्पभवं) बगुली से अंडा उत्पन्न हुआ (एमेव) इसी तरह (खु) निश्चय कर के (मोहाययणं) मोह का स्थान (तण्हा) तृष्णा (च) और (तण्हाययणं) तृष्णा का स्थान (मोह) मोह है, ऐसा (वयंति) ज्ञानीजन कहते हैं। ही भावार्थ : हे गौतम! जैसे अण्डे से बगुली (मादा-बगुला) उत्पन्न होती है और बगुली से अण्डा पैदा होता है। इसी तरह से मोह कर्म से तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है। हे गौतम! ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। मूल: रागो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मंच मोहप्पभवं वयंति। कम्मंचजाईमरणस्समूलं, दुक्खंच जाइमरणंवयंति|२७|| छायाः रागश्चद्वेषोऽपि च कर्मबीजं, कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति। कर्म च जातिमरणयोर्मूलं, दुःखं च जातिमरणं वदन्ति।।२७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (रागो) राग (य) और (दोसो वि य) दोष ये दोनों (कम्मं बीयं) कर्म उत्पन्न करने में कारण भूत हैं (च) और (कम्म) कर्म (मोहप्प भवं) मोह से उत्पन्न होते हैं। ऐसा (वयंति) ज्ञानीजन कहते हैं। (च) और (जाइमरणस्स) जन्म मरण का (मूल) मूल कारण (कम्म) कर्म है (च) और (जाईमरणं) जन्म मरण ही (दुक्ख) दुःख है, ऐसा (वयंति) ज्ञानी जन कहते हैं। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/44 Doo00000000000obar 000000000 For Personal & Private Use Only Vain Education International www.jainelibrary.org