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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops Ag0000000000000000000000000000000000000000000000000 do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000081 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संसारमावण्ण) संसार के प्रपंच में फंसा हुआ आत्मा (परस्स) दूसरों के (अट्ठा) लिण (च) तथा (साहारणं) स्व और पर के लिए (ज) जो (कम्म) कर्म (करेई) करता है। (तस्स उ) उस (कम्मस्स) कर्म के (वेयकाले) भोगते समय (ते) वे (बंधवा) कौटुम्बिक जन (बंधवयं) बन्धुत्वजन को (न) नहीं (उविंति) प्राप्त होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! संसारी आत्मा ने दूसरों के तथा अपने लिए जो दुष्ट कर्म उपार्जन किये हैं, कर्म जब उसके फल स्वरूप में आवेंगे उस समय जिन बन्धु बान्धवों और मित्रों के लिए तथा स्वतः के लिए वे दुष्कर्म किये थे, वे कोई भी आकर पाप के फल भोगने में सम्मिलित नहीं होंगे। मूलः नतस्सदुक्खं विभयंतिनाइओ, नमित्तवग्गनसुयानबन्धवा। इक्कोसयंपच्चणुहोइ दुक्खं, कतार मेव अणुजाइ कम्म||४|| छायाः न तस्स दुःखं विभजन्ते ज्ञातयः, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः / एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कर्तारमेवानुयाति कर्म।।२४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तस्स) उस पाप कर्म करने वाले के (दुक्ख) दुःख को (नाइओ) स्वजन वगैरह भी (न) नहीं (विभयंति) विभाजित कर सकते हैं और (न) न (मित्तवग्ग) मित्रवर्ग (न) न (सुया) पुत्र वर्ग,(न) न (बंधवा) बंधुजन, कर्मों के फल में भाग ले सकते हैं। (इक्को) वही अकेला (दुक्खं) दुःख को (पच्चणुहोइ) भोगता है। क्योंकि (कम्म) कर्म (कत्तारमेव) करने वाले ही के साथ (अणुजाइ) जाता है। भावार्थ : हे गौतम! किये हुए कर्मों का जब उदय होता है उस समय ज्ञाति जन, मित्र लोग, पुत्रवर्ग, बन्धु जन आदि कोई भी उस में हिस्सा नहीं बांट सकते हैं। जिस आत्मा ने कर्म किये हैं वही आत्मा अकेला उसका फल भोगता है। यहां से मरने पर किये हुए कर्म करने वाले के साथ ही जाते हैं। मूलः चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खित्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं| सकम्मबीओ अवसापयाइ, परंभवंसुन्दरंपावगंवा||२५|| छायाः त्यक्त्वा द्विपदं चतुष्पदं च, क्षेत्रं गृहं धनधान्यं च सर्वम। स्वकर्म द्वितीयोऽवशः प्रयाति, परं भवं सुन्दरं पापकं वा।।२५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सकम्मबीओ) आत्मा का दूसरा साथी उसका अपना किया हुआ कर्म ही है। इसी से (अवसो) परवश होता हुआ यह जीव (सव्वं) सब (दुपय) स्त्री, पुत्र, दास, दासी आदि (च) और 0000000000000000000000000000000000000000000000opl नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/433 000000000000000 000000000000ODA Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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