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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot 100000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : तेणे जहा संधिमुहे गहीए; सकम्मण किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए; कडाण-कम्माण न मुक्ख अत्थि||२|| छायाः स्तेनो यथा सन्धिमुखे गृहितः, स्वकर्मणा क्रियते पापकारी। एवं प्रजा प्रेत्यइह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति।।२२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (पावकारी) पाप करने वाला (तेणे) चोर (संधिमुखे) खात के मुंह पर (गहीए) पकड़ा जा कर (सकम्मुण) अपने किए हुए कर्मों के द्वारा ही (किच्चई) छेदा जाता है, दुःख उठाता है, (एवं) इसी प्रकार (पया) प्रजा अर्थात लोक (पेच्चा), परलोक (च) और (इहलोए) इस लोक में किये हुए दुष्कर्मों के द्वारा दुःख उठाते हैं। क्योंकि (कडाण) किये हुए (कम्माण) कर्मों को भोगे बिना (मुक्ख) छुटकारा (न) नहीं (अत्थि) होता। _भावार्थ : हे गौतम! कर्म कैसे हैं? जैसे कोई अत्याचारी चोर खात के मुँह पर पकड़ा जाता है, और अपने कृत्यों के द्वारा कष्ट उठाता है अर्थात् प्राणान्त तक करा बैठता है। वैसे ही यह आत्मा अपने किये हुए कर्मों के द्वारा इस लोक और परलोक में महान दुःख उठाता है क्योंकि किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है।* मूल: संसारमावण्ण परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म। कम्मरसते तस्स उवेयकाले, नबंधवाबंधवयंउविंति||२३|| छायाः संसारमापन्नः परस्यार्थाय, साधारणं यच्च करोति कर्म। कर्मणस्ते तस्य तु वेदकाले, न बान्धवा बान्धवत्त्वमुपयान्ति।।२३।। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000coooooooooope सन्दर्भ कथा *(1) किसी समय कई एक चोर चोरी करने जा रहे थे। उनमें एक सुतार भी शामिल हो गया। वे चोर एक नगर में एक धनाढ्य सेठ के यहां पहुंचे। वहां उन्होंने सैंध लगाई। सैंध लगाते लगाते दीवाल में काठ का एक पटिया दिख पड़ा, तब वे चोर साथ के उस सुतार से बोले कि अब तुम्हारी बारी है, पटिया काटना तुम्हारा काम है। अतः सुतार अपने शस्त्रों द्वारा काठ के पटिये को काटने लगा। अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सैंध के छेदों में चारों ओर तीखे तीखे कंगुरे उसने बना दिये। फिर वह खुद चोरी करने के लिए अन्दर घुसा। ज्योंही उसने अंदर पैर रखा, त्यों ही मकान मालिक ने उसका पैर पकड़ लिया। सुतार चिल्लाया, दौड़ो-दौड़ो, और बोला- म-का-न मा-लि-क मकान मा-लि-क! मेरे पांच छुड़ाओ। यह सुनते ही चोर झपटे, और लगे सर पकड़ कर खींचने / सुतार बेचारा बड़े ही झमेले में पड़ गया। भीतर और बाहर दोनों तरफ से जोरों की खींचातानी होने लगी बस फिर क्या था? जैसे बीज उसने बोये, फसल भी वैसी ही उसे काटनी पड़ी। उसके निजू बनाये हुए सैंध के पैने पैने कंगूरों ने ही उसके प्राणों का अंत कर दिया। आत्मा के लिए भी यही बात लागू होती है। वह भी अपने ही अशुभ कर्मों के द्वारा लोक और परलोक में महान कष्टों के झकझोरों में पड़ता है। / नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/42 00000000000000 Jain Education International boo0000000000000 wwwijainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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