________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000 0000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 उदधिसदंगनाम्नां, विंशतिः कोटाकोटयः। नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यका।।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय कर्म की (उक्कोसा) उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक स्थिति (सत्तरं) सत्तर (कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) सागरोपम है और (जहण्णिया) जघन्य (अन्तोमुहुतं) अन्तरमुहूर्त और (आउकम्मस्स) आयुष्य कर्म की (उक्कोसेण) उत्कृष्ट स्थिति (तेत्तीसं सागरोवम) तैंतीस सागरोपम की है और (जहणिया) जघन्य (अन्तोमुहुतं) अन्तरमुहूर्त की और इसी प्रकार (नामगोत्तणं) नाम कर्म और गौत्र कर्म की (उक्कोसा) उत्कृष्ट स्थिति (वीसई) बीस (कोडिकोडीओ) कोटाकोटि (उदहीसरिसनामाणं) सागरोपम की है और (जहण्णिया) जघन्य (अट्ठ) आठ (मुहुर्ता) मुहूर्त की (ठिई) स्थिति (विआहिया) कही गई है। ती भावार्थ : हे गौतम! मोहनीय कर्म की ज्यादा से ज्यादा स्थिति सत्तर क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम की है और जघन्य (कम से कम) स्थिति अन्तर मुहूर्त की है। आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम की और जघन्य अन्तर मुहूर्त की है। नाम कर्म एवं गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम की है और जघन्य आठ मुहूर्त की कही है। मूल : एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छई||२१|| छाया: एकदा देवलोकेषु नरकेष्वेकदा। एकदा आसुरं कायं, यथा कर्मभिर्गच्छति।।२१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहाकम्मेहिं) जैसे कर्म किये हैं, उनके अनुसार आत्मा (एगया) कभी तो (देवलोएस) देवलोक में (एगया) कभी (नरएसु वि) नरक में (एगया) कभी (आसुरं) भवनपति आदि असुर की (कायं) काय में (गच्छइ) जाता है। भावार्थ : हे गौतम! आत्मा जब शुभ कर्म उपार्जन करता है तो वह देवलोक में जाकर उत्पन्न होता है। यदि वह आत्मा अशुभ कर्म उपार्जन करता है तो नरक में जाकर घोर यातना सहता है, और कभी अज्ञानपूर्वक बिना इच्छा से क्रियाकर्म करता है तो वह भवनपति आदि देवों में जाकर उत्पन्न होता है। इससे सिद्ध हुआ कि यह आत्मा जैसा कर्म करता है वैसा ही स्थान पाता है। 0000000000000000000000000 000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/412 50000000000000ola Jain Education International 0000000000000 www.jaipelibrary.orgs For Personal & Private Use Only