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________________ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आउकम्म) आयुष्य कर्म (चउव्विह) चार प्रकार का है। (नेरइयतिरिक्खाउं) नरकायुष्य तिर्यंचायुष्य (तहेव) वैसे ही (मणुस्साउं) मनुष्यायुष्य (य) और (चउत्थं तु) चौथा (देवाउअं) देवायुष्य है। भावार्थ : हे गौतम! आत्मा के नियत समय तक एक ही शरीर में रोक रखने वाले कर्म को आयुष्य कर्म कहते हैं। यह आयुष्य कर्म चार प्रकार का है। (1) नरक योनि में रखने वाला नरकायुष्य (2) तिर्यंच योनि में रखने वाला तिर्यंचायुष्य (3) मनुष्य योनि में रखने वाला मनुष्यायुष्य और (4) देव योनि में रखने वाला देवायुष्य कहलाता है। हे गौतम! अब हम इन चारों जगह का आयुष्य किन किन कारणों से बंधता है उसे कहते हैं। महारम्भ करना, अत्यन्त लालसा रखना, पंचेन्द्रिय जीवों का वध करना तथा मांस खाना, आदि कार्यों से नरकायुष्य का बंध होता है। कपट करना, कपटपूर्वक फिर कपट करना, असत्य भाषण करना, तौलने की वस्तुओं में और नापने की वस्तुओं में कमीवेशी लेना-देना आदि ऐसे कार्यों के करने से तिर्यंचायुष्य का बंध होता है। निष्कपट व्यवहार करना, नम्रभाव होना, सब जीवों पर दया भाव रखना तथा ईर्ष्या नहीं करना आदि कार्यों से मनुष्यायुष्य का बंध होता है। सराग संयम व गृहस्थ धर्म के पालने, अज्ञानयुक्त तपस्या करने, बिना इच्छा से भूख, प्यास आदि सहन करने तथा शीलव्रत पालने से देवायुष्य का बंध होता है। मूल : नामकम्मं तु दुविहं, सुहं असुहंच आहिये। सुहस्स तु बहु भेया, एमेव असुहस्स वि||१३|| छायाः नामकर्म तु द्विविधं शुभमशुभं चाख्यातम्। शुभस्य तु बहवो भेदा एवमेवाशुभस्याऽपि।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नामकम्मं तु) नाम कर्म तो (दुविह) दो प्रकार का (आहिय) कहा गया है। (सुह) शुभ नाम कर्म (च) और (असुह) अशुभ नाम कर्म जिसमें (सुहस्स) शुभ नाम कर्म के (तु) तो (बहू) बहुत (भेया) भेद हैं। (असुहस्स वि) अशुभ नाम कर्म के भी (एमेव) इसी प्रकार अनेक भेद माने गये हैं। भावार्थ : हे गौतम! शरीर सुन्दराकार होने अथवा असुन्दराकार होने के कारण भूत नाम कर्म है। यह नाम कर्म दो प्रकार 0000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000ps DIdoo0000000000000000AM Jain Education International 500 निर्ग्रन्थ प्रवचन/373 अपना Doooo000000000000061 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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