________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 का माना गया है। उनमें से एक शुभ नाम कर्म और दूसरा अशुभ नाम कर्म है। मनुष्य शरीर, देव शरीर, सुन्दर अंगोपांग गौर वर्णादि, वचन में मधुरता का होना, लोकप्रिय, यशस्वी तीर्थंकर आदि आदि का होना, ये सब शुभ नाम कर्म के फल हैं। नारकीय, तिर्यंच का शरीर धारण करना, पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति आदि में जन्म लेना अक्षम व बेडोल अंगोपांग लेकर कुरुप और अयशस्वी होना। ये सब अशुभ नाम कर्म के फल है। हे गौतम! शुभ अशुभ नाम कर्म कैसे बंधता है सो सुनो! मानसिक वाचिक और कायिक कृत्य की सरलता रखने से और किसी के साथ किसी भी प्रकार का वैर विरोध न करने व न रखने से शुभनाम कर्म बंधता हैं। शुभनाम कर्म के बंधन से विपरीत बर्ताव के करने से अशुभ नाम कर्म बंधता है। ॐ हे गौतम! अब हम आगे गौत्र कर्म का स्वरूप बतायेंगे। मूल: गोयकम्मं तु दुविहं, उच्चं नीयं च आहि। उच्चं अविहं होइ, एवं नीअं वि आहि||१४|| छायाः गौत्रकर्म तु द्विविधं, उच्चं नीचं चाख्यातम्। उच्चमष्टविधं भवति, एवं नीचमप्याख्यातम्।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (गोयकम्मं तु) गोत्र कर्म (दुविह) दो प्रकार का (आहिअं) कहा गया है। (उच्च) उच्च गौत्र कर्म (च) और (नीअं) नीच गोत्र कर्म (उच्च) उच्च गौत्र कर्म (अट्ठविहं) आठ प्रकार का (होइ) है (नीअं वि) नीच गोत्र कर्म भी (एवं) इसी तरह आठ प्रकार का होता है। ऐसा (आहिअं) कहा गया है। भावार्थ : हे गौतम! उच्च तथा नीच जाति आदि मिलने में जो कारण भूत हो, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह गोत्र कर्म ऊंच, नीच में विभक्त होकर आठ प्रकार का होता है। उच्च जाति और ऊँचे कुल में जन्म लेना, बलवान होना, सुन्दराकार होना, तपवान होना, प्रत्येक व्यवहार में अर्थ प्राप्ति का होना, विद्वान होना, ऐश्वर्यवान होना ये सब ऊँचे गौत्र के फल हैं और इन सब बातों के विपरीत जो कुछ है उसे नीच गौत्र कर्म का फलादेश समझो। हे गौतम! वह ऊँच नीच गोत्र कर्म इस प्रकार से बंधता है। स्वकीय माता के वंश का, पिता के वंश का, ताकत का, रूप का, तप का, विद्वत्ता का और सुलभता से लाभ होने का, घमण्ड न करने से ऊंच गोत्र कर्म का 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog निर्ग्रन्थ प्रवचन/38 5000000000000od 00000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org