________________ poo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 N0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (चरित्तमोहण) चारित्र मोहनीय (कम्म) कर्म (त) वह (दुविह) दो प्रकार का (विआहिय) कहा गया है। (कसायमोहणिज्ज) क्रोधादि रूप भोगने में आवे वह (य) और (तहेव) वैसे ही (नोकसाय) क्रोधादि के सहचारी हास्यादिक के रूप में जो अनुभव में आवें। ___ भावार्थ : हे गौतम! संसार में सम्पूर्ण वैभव को त्यागना चारित्र धर्म कहलाता है, उस चारित्र के अंगीकार करने में जो रोड़ा अटकाता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। यह कर्म दो प्रकार का है। एक तो क्रोधादि रूप में अनुभव आता है। अर्थात् हंसना, भोगों में आनंद मानना, धर्म में नाराजी आदि होना वह इस कर्म का उदय है। मूल : सोलसविहभएणं, कम्मं तु कसायजं| सत्तविहं नवविहं वा, कम्मंच नोकसायज||१|| छाया: षोडश विध भेदेन कर्म तु कषायजम्। सप्तविधं नवविधं वा, कर्म च नोकषायजम् / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कसायजं) क्रोधादिक रूप से उत्पन्न होने वाला (कम्मं तु) कर्म तो (भेण्णं) भेद करके (सोलसविह) सोलह प्रकार का है। (च) और (नोकसायजं) हास्यादि से उत्पन्न होने वाला जो (कम्म) कर्म है वह (सत्तविह) सात प्रकार का (वा) अथवा (नवविह) नौ प्रकार का माना गया है। ____ भावार्थ : हे गौतम! क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले कर्म के सोलह भेद हैं| अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, यों अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के चार भेदों के साथ इसके सोलह भेद हो जाते हैं और नो कषाय से उत्पन्न होने वाले कर्म के सात अथवा नो भेद कहे गये हैं। वे ये हैं, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद यों सात भेद होते हैं और वेद के उत्तर भेद (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद) लेने से नौ भेद हो जाते हैं। अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ करने से तथा मिथ्या श्रद्धा में रत रहने से और अव्रती रहने से मोहनीय कर्म का बंध होता है। हे गौतम! अब हम आयुष्यकर्म का स्वरूप बतायेंगे। मूल : नेरइयतिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव या देवाउयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउबिह||१२|| छायाः नैरयिकतिर्यगायः मनुष्यायुस्तथैव च। देवायुश्चतुर्थं तु आयुः कर्म चतुर्विधम् / / 12 / / . igooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000 000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/36, 00000000000000000 000000000000000 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only