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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 agoo000000000000000000 DOG 1000 ooooood DOOOOOOOK 000000K छायाः अरतिगण्डं विसूचिका, आतंका विविधा स्पृशन्ति ते। विह्नियते विध्वस्यति ते शरीरकं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 22 / / अन्वयार्थ : (गोतम) हे गौतम! (अरई) चित्त को उद्वेग (गंड) गांठ गूमड़े (विसूइया) दस्त उल्टी और (विविहा) विविध प्रकार के (आयंका) प्राण घातक रोगों को (ते) तेरे जैसे ये बहुत से मानव शरीर (फुसंति) स्पर्श करते हैं (ते सरीरयं) तेरे जैसे ये बहुत मानव शरीर (विहडइ) बल की हीनता से गिरते जा रहे हैं और (विद्धंसइ) अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! यह मानव शरीर उद्वेग, गांठ, गूमड़ी (फंसी), वमन, विरेचन और प्राणघातक रोगों का घर है और अन्त में बलहीन होकर मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है। अतः मानव शरीर को ऐसे रोगों का घर समझ कर हे गौतम! मुक्ति को पाने में विलम्ब मत कर। मूल: वोच्छिंद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं वा पाणियं| से सबसिणेह वज्जिए, समयं गोयम, मा पमायए||२३|| छायाः व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः, कुमुद्र शारदमिव पानीयम्। तत् सर्वस्नेहवर्जितः समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 23 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (सारइयं) शरद ऋतु के (कुमुयं) कुमुद (पाणिय) पानी को (वा) जैसे त्याग देते हैं। ऐसे ही (अप्पणो) तू अपने (सिणेह) स्नेह को (वोछिंद) दूर कर (से) इसलिये (सव्वसिणेहवज्जिए) सर्व प्रकार के स्नेह को त्यागता हुआ (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! शरद ऋतु का चन्द्र विकासी कमल जैसे पानी को अपने से पृथक कर देता है। उसी तरह तू अपने मोह को दूर करने में समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल : चिच्चाण धणंच भारियं, पबइओ हि सि अणगारिया मा वंतं पुणो वि आविए, समयं गोयम! मा पमायए||२४|| छायाः त्यक्त्वा धनं च भार्यां, प्रवजितो ह्यस्य अनगारताम्। मा वान्तं पुनरप्यापिवेः, समयं गौतम् मा प्रमादीः।।२४।। अन्वयार्थ : (गोयम) हे गौतम! (हि) यदि तूने (धणं) धन (च) और (भारियं) भार्या को (चिच्चाण) छोड़कर (अणगारियं) साधुयन को 00000000000000000000000000000000000000000000000oog 00000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/116 00000000000000000 0000000000000oob.in Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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