________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jg000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 (पव्वइओसि) प्राप्त कर लिया है। अतः (वंत) वमन किये हुए को (पुणो वि) फिर भी (मा) मत (आविए) पी, प्रत्युत त्यागवृत्ति को निश्चल रखने में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर।। भावार्थ : हे गौतम! तूने धन और स्त्री को त्याग कर साधु वृत्ति को धारण करने की मन में इच्छा कर ली है। तो उन त्यागे हुए विषैले पदार्थों का पुनः सेवन करने की इच्छा मत कर। प्रत्युत त्याग वृत्ति को दृढ़ करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर। मूल : नहु जिणे अज्ज दिसई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए। संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए||२५|| छाया: नखलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदेशकः / सम्प्रति नैयायिके पथि, समय गौतम! मा प्रमादीः / / 25 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (अज्ज) आज (ह) निश्चय करके (जिणे) तीर्थंकर (न) नहीं (दिसई) दिखते हैं, किन्तु (मग्गदेसिए) मार्गदर्शक और (बहुमए) बहुतो का माननीय मोक्षमार्ग (दिस्सई) दिखता है। ऐसा कहकर पंचम काल के लोग धर्मध्यान करेंगे। तो भला (संपइ) वर्तमान में मेरे मौजूद होते हुए (नेयाउए) नैयायिक (पहे) मार्ग में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। ___भावार्थ : हे गौतम! पंचम काल में लोग कहेंगे कि आज तीर्थंकर तो हैं नहीं, पर तीर्थंकर प्ररूपित मार्गदर्शक और अनेकों के द्वारा माननीय यह मोक्षमार्ग है; ऐसा वे सम्यक् प्रकार से समझते हुए धर्म की आराधना करने में प्रमाद नहीं करेंगे। तो मेरे मौजूद रहते हुए न्याय पथ से साध्य स्थान पर पहुंचने के लिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूलः अवसोहिय कंटगापहं, ओइण्णो सि पहं महालयं| गच्छसिमग्गं विसोहिया, समयंगोयम! मापमायए||२६|| छायाः अवशोध्य कण्टकपथं, अवतीर्णोऽसि पन्थानं महालयं। ___ गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 26 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (कंटगापह) कंटक सहित पंथ को (अवसोहिया) छोड़ कर (महालय) विशाल मार्ग को (ओइण्णोसि) प्राप्त होता हुआ, उसी (विसोहिया) विशेष प्रकार से शोधित (मग्गं) मार्ग को 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mo00000000000000000 Jair Education International निर्ग्रन्थ प्रवचन/117 0000000000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org