________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000 soooooooooooo 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (गच्छसि) जाता है। अतः इसी मार्ग को तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। ___भावार्थ : हे गौतम! संकुचित अतथ्य पथ को छोड़कर जो तूने विशाल तथ्य मार्ग को प्राप्त कर लिया है और उसके अनुसार तू उसी विशाल मार्ग का पथिक भी बन चुका है। अतः इसी मार्ग से अपने निजी स्थान पर पहुंचने के लिए हे गौतम! तू एक समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल : अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम! मा पमायए||२७|| छायाः अबलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषममव गाह्य। पश्चात्पश्चादनुताप्यते, समय गौतम! मा प्रमादीः / / 2 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (जह) जैसे (अबले) बल रहित (भारवाहए) बोझा ढ़ोने वाला मनुष्य (विसमे) विषम (मग्गे) मार्ग में (अवगाहिया) प्रवेश हो कर (पच्छा) फिर (पच्छाणुतावए) पश्चाताप करता है। (मा) ऐसा मत बन / परन्तु जो सरल मार्ग मिला है उसको तय करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जैसे एक दुर्बल आदमी बोझा उठाकर विकट मार्ग में चले जाने पर महान पश्चाताप करता है। ऐसे ही जो नर अल्पज्ञों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को ग्रहण कर कुपंथ के पथिक होंगे, वे चौरासी की चक्र फेरी में जा पड़ेंगे और वहां वे महाने कष्ट उठावेंगे। अतः पश्चाताप करने का मौका न आवे ऐसा कार्य करने में हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। मूल: तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुरं पारंगमित्तए, समयं गोयम! मा पमायए||२|| छायाः तीर्णः खल्वस्यर्णवं महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः। अभित्वरस्व पारं गन्त, समयं गौतम! मा प्रमादी।।२८।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (मह) बड़ा (अण्णवं) समुद्र (तिण्णो हु सि) मानो तू पार कर गया (पुण) फिर (तीरमागओ) किनारे पर आया हुआ (किं) क्यों (चिट्ठसि) रूक रहा है। अतः (पार) परले पार (गमितए) जाने के लिए (अभितुर) शीघ्रता कर, ऐसा करने में (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/118 Sooo000000000000000 000000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org