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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! अपने आपको संसार रूप महान समुद्र के पार गया हुआ समझकर फिर उस किनारे पर ही क्यों रुक जाता है?पार होने के लिए अर्थात् "मुक्ति में जाने के लिए शीघ्रता कर!" ऐसा करने में हे गौतम तू क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। मूल : अकलेवरसेणिमूसिया, सिद्धिं गोयम! लोयं गच्छसि। खेवं च सिवं अणुचरं, समयं गोयम! मा पमायए||२९|| छाया: अकलेवर श्रेणि मुच्छित्य, सिद्धिं गौतम! लोकंगच्छसि। क्षेमं च शिवमनुत्तरं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 26 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (अकलेवरसेणिं) कलेवर रहित होने में सहायक भूत श्रेणी को (ऊसिआ) बढ़ाकर अर्थात् प्राप्त कर (खेम) पर चक्र का भय रहित (च) और (सिव) उपद्रव रहित (अणुत्तर) प्रधान (सिद्धिं) सिद्धि (लोय) लोक को (गच्छसि) जाना ही है, फिर (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! सिद्ध पद पाने में जो शुभ अध्यवसाय रूप क्षपक श्रेणि सहायक भूत है, उसे पाकर एवं उत्तरोत्तर उसे बढ़ाकर, भय एवं उपद्रव रहित अटल सुखों का जो स्थान है, वहीं तुझे जाना है। अतः हे गौतम! धर्म आराधना करने में पल मात्र की भी ढ़ील मत कर। इस प्रकार निर्ग्रन्थ की ये सम्पूर्ण शिक्षाएँ प्रत्येक मानव देहधारी को अपने लिए भी समझना चाहिए और धर्म की अधराधना करने में पल भर का भी प्रमाद कभी न करना चाहिए। goo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000 5000000000000000000000000000000000000000opl 00000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/119 500000000000000000 Sanducation International For Personal & Private Use Only 00000000000000 www.jainelibrary.org,
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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