________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 (एवं) इसी तरह (मिए) पशु के समान मूर्ख मनुष्य (सील) अच्छी प्रवृत्ति को (चइत्ताणं) छोड़ कर (दुस्सीले) खराब प्रवृत्ति ही में (रमई) आनंद मानता है। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार सुअर धान्य के भोजन को छोड़कर विष्टा ही खाता है, इसी तरह मूर्ख मनुष्य सदाचार-सेवन और मधुर भाषण आदि अच्छी प्रवृत्ति को छोड़कर दुराचार सेवन करने तथा कटुभाषण करने ही में आनंद मानता रहता है, परन्तु उस मूर्ख मनुष्य को इस प्रवृत्ति से अन्त में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है। मूल: आहच्च चंडालियंकटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि| कडं कडेति भासेज्जा, अकडं णो कडेति य||१३|| छायाः कदाचिच्च चाण्डालिकं कृत्वा, न निन्हवीत कदापि च। कृतं कृतामिति भाषित, अकृतं नो कृतमितिच।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आहच्च) कदाचित (चंडालियं) क्रोध से झूठ भाषण हो गया हो तो झूठ भाषण (कट्ठ) करके उसको (कयाइ) कभी (वि) भी (न) न (निण्हविज्ज) छिपाना चाहिए (कड) किया हो तो (कडेत्ति) किया है ऐसा (भासेज्जा) बोलना चाहिए (य) और (अकड) नहीं किया हो तो (णो) नहीं (कडेत्ति) किया ऐसा बोलना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! कभी किसी से क्रोध के आवेश में आकर झूठ भाषण हो गया हो तो उसका प्रायश्चित करने के लिए उसे कभी भी नहीं छिपाना चाहिए। कटु भाषण किया हो तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि हाँ मुझ से हो तो गया है और नहीं किया हो तो ऐसा कह देना चाहिए कि मैंने नहीं किया है। मूल: पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से, णेव कुज्जा कयाइ वि||१४|| छायाः प्रत्यनीकं च बुद्धानां, वाचाऽथवा कर्मणा। _आविर्वा यदि वा रहसि, नैव कुर्यात् कदापि च।।१४।। ___अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बुद्धाणं) तत्वज्ञ (च) और सभी साधारण मनुष्यों से (पडिणीयं) शत्रुता (वाया) वचन द्वारा और (अदुव) अथवा (कम्मुणा) काया द्वारा (आवि वा) मनुष्यों के देखते कपट रूप में (जइ वा) अथवा (रहस्से) एकान्त में (कयाइ वि) कभी भी (णेव) नहीं (कुज्जा) करना चाहिए। ooooooooooooooo gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooo 5000000000000000000 000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/125 P000000000000000000 Jain Education International Fon Personal & Private Use Only 00000000ooooooooo www.janelibrary.org