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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 gooo000000000000000000000000000000000000000000000 Mooooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! क्या तो तत्वज्ञ और क्या साधारण सभी मनुष्यों के साथ कटु वचनों से तथा शरीर द्वारा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में कभी भी शत्रुता करना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। मूल: जणवयसम्मयठवणा, नामे रूवे पहुच्च सच्चे या ववहारभावजोगे, दसमे ओवम्म सच्चे य||१५|| छाया: जनपद-सम्यक्त्वस्थापना च, नाम रूपं प्रतीत्य सत्यं च। व्यवहारभावे योगानि दशमौपमिकं सत्यं च।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जणवय) अपने अपने देश की (य) और (सम्मयठवणा) एकमत की स्थापना की (नामे) नाम की (रूवे) रूप की (पडुच्च सच्चे) अपेक्षा से कही हुई (य) और (ववहार) व्यवहारिक (भाव) भाव ली हुई (जोगे) यौगिक (य) और (दसमे) दशवीं (ओवम्म) औपमिक भाषा (सच्चे) सत्य है। भावार्थ : हे गौतम! जिस देश में जो भाषा बोली जाती हो, जिसमें अनेकों का एक मत हो, जैसे पंक से और भी वस्तु पैदा होती है, पर कमल ही को पंकज कहते हैं। जिसमें एकमत है। नापने के गज और तोलने के बाट वगैरह को जितना लम्बा और जितना वंजन में लोगों ने मिलकर स्थापन कर रखा हो। गुण सहित या गुण शून्य जिसका जैसा नाम हो, वैसा उच्चारण करने में, जिसका जैसा वेश हो उसके अनुसार कहने में और अपेक्षा से, जैसे एक की अपेक्षा से पुत्र और दूसरे की अपेक्षा से पिता उच्चारण करने में जो भाषा का प्रयोग होता है, वह सत्य भाषा है और ईंधन के जलने पर भी चूल्हा जल रहा है, ऐसा व्यवहारिक उच्चारण एवं तोते में पांचों वर्गों के होते हुए भी “हरा" ऐसा भावमय वचन और अमुक सेठ क्रोड़पति है फिर भले दो चार हजार अधिक हो या कम हो, उसको क्रोडपति कहने में एवं दशमी उपमा में जिन वाक्यों का उच्चारण होता है, वह सत्य भाषा है। यों दस प्रकार की भाषाओं को ज्ञानीजनों से सत्य भाषा कही है। मूले: कोहेमाणे माया, लोभे पेज्ज तहेव दोसे या हासे भए अक्खाइय, उवघाए निस्सिया दसमा||१६| छायाः क्रोधं मानं माया, लोभं राग तथैव द्वेषञ्च। हास्यं भयं आख्यातिकः उपघाते नि:श्रितो दशमाः।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कोहे) क्रोध (माणे) मान (माया) कपट (लोभे) लोभ (पेज्ज) राग (तहेव) वैसे ही (दोसे) द्वेष (य) और (हासे) हँसी 0000000000000000000000000000000000000000000000000oog निर्ग्रन्थ प्रवचन/126 0000000000ooooodh Jain Education International 000000000000 cwww.jainelibrary.org, For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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