________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oop 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः अवर्णवादं च पाराड्मुखस्य, प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम्। अवधारिणीमप्रियकारिणी च, भाषा न भाषेत् सदा सः पूज्यः।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परंमुहस्स) उस मनुष्य के बिना मौजूदगी में (च) और (पच्चक्खउ) उसके प्रत्यक्ष रूप में (अवण्णवायं) अवर्णावाद (भास) भाषा को (सया) हमेशा (न) नहीं (भासेज्ज) बोलना चाहिए (च) और (पडिणीयं) अपकारी (उहारिणिं) निश्चयकारी (अप्पियकारिणिं) अप्रियकारी (भास) भाषा को भी हमेशा नहीं बोलता हो (स) वह (पुज्जो) पूजनीय मानव है। भावार्थ : हे गौतम! जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में अवगुणवाद के वचन कभी भी नहीं बोलता हो / जैसे तू चोर है। पुरुषार्थी पुरुष को कहना कि तू नपुंसक है। ऐसी भाषा तथा अप्रियकारी, अपकारी, निश्चयकारी भाषा जो कभी नहीं बोलता हो, वह पूजनीय मानव है। मूल : जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जड़ सब्बसो। एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जड़||११|| छायाः यथा शुनी पूर्तिकर्णी, निः कास्यते सर्वतः / एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः, मुखारिनिःकास्यते।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (पूहकण्णी) सड़े कान वाली (सुणी) कुत्तिया को (सव्वसो) सब जगह से (निक्कसिज्जइ) निकालते हैं। (एवं) इसी प्रकार (दुःस्सील) खराब आचरण वाले (पडिणीए) गुरु और धर्म से द्वेष करने वाले और (मुहरी) अंट संट बड़बड़ाने वाले को (निक्कसिज़्जइ) कुल में से बाहर निकाल देते हैं। भावार्थ : हे गौतम! सड़े कान वाली कुतिया को सब जगह दुत्कार मिलता है और वह हर जगह से निकाली जाती है। इसी तरह दुराचारियों एवं धर्म से द्वेष करने वालों और मुँह से कटुवचन बोलने वालों को सब जगह से दुत्कारा मिलता है और वहां से निकाल दिया जाता है। मल: कणकुंडगं चइत्ताणं, विट्ठं भुंजड़ सूयरे) एवं सीलं चइताणं, दुस्सीले रमई मिए||१२|| छाया: कणकुण्डकं त्यक्त्वा, विष्टां भुक्ते शूकरः। ___एवं शीलं त्यक्त्वा , दु: शीलं रमते मृगः / / 12 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जैसे (सूयरे) शूकर (कणकुंडग) धान के ड्डे को (चइत्ताणं) छोड़ कर (विट्ठ) विष्टा ही को (भुंजइ) खाता है, Logo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf निर्ग्रन्थ प्रवचन/124 000000000000 0000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only For RES www.jainelibrary.org