________________ oooooooooooooooooooooo0000000000 1000000000000000000000000000g do0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः तथैव परुषा भाषा, गुरु भूतोपघातिनी। सत्याऽपि सा न वक्तव्या, मतः पापस्यागमः।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तहेव) इसी प्रकार (फरुसा) कठोर (गुरुभूओवघाइणी) अनेकों प्राणियों का नाश करने वाली (सच्चा वि) सत्य है। तो भी (जओ) जिससे (पावस्स) पाप का (आगमो) आगमन होता है (सा) वह भाषा (वत्तव्वा) बोलने याग्य (न) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य कहलाते हैं उनके लिए कठोर एवं जिससे अनेकों प्राणियों की हिंसा हो, ऐसी सत्य भाषा भी बोलने योग्य नहीं होती है। यद्यपि वह सत्य है, तदपि वह हिंसाकारी है, उसके बोलने से पाप का आगमन होता है, जिससे आत्मा पाप से भारवान् बनती है। मूल: वहेव काणं कणे ति, पंडगं पंडगे ति वा। वाहिअंवा विरोगि ति, तेणं चोरे ति नो वए|४|| छायाः तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक इति वा। व्याधिमन्तं वाऽपि रोगीति, स्तेनं चौर इति न वदेत्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तहेव) वैसे ही (काणं) काने को (काणे) काना है (त्ति) ऐसा (वा) अथवा (पंडग) नपुंसक को (पंडगे) नपुंसक है (त्ति) ऐसा (वा) अथवा (वाहिअ) व्याधि वाले को (रोगि) रोगी है (त्ति) ऐसा और (तणं) चोर को (चोरे) चोर है (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोलना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! जो सच्चे सरल मनुष्य काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, व्याधि वाले को रोगी और चोर को चोर, ऐसा कभी नहीं बोलते हैं। क्योंकि वैसा बोलने में भाषा भले ही सत्य हो, पर ऐसा बोलने से उनका दिल दुखता है। इसीलिए यह असभ्य भाषा है और इसे कभी न बोलना चाहिए। मूल : देवाणं मणुयाणंच, तिरियाणंचवुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ तिनो वए||५|| छायाः देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विग्रहे। अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवत्विति नो वदेत्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (देवाणं) देवताओं के (च) और (मणुयाणं) मनुष्यों के (च) और (तिरियाणं) तिर्यंचों के (वुग्गहे) युद्ध में (अमुगाणं) अमुक की (जओ) जय (होउ) हो (वा) अथवा अमुक की (मा) मात (होउ) हो (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोलना चाहिए। 00000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000oot निर्ग्रन्थ प्रवचन/121 5000000000000oold 00000000000006 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only