________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 doo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! देवता मनुष्य और तिर्यंचों में जो परस्पर युद्ध हो रहा हो उसमें भी अमुक की जय हो अथवा अमुक की पराजय हो, ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि एक की जय और दूसरे की पराजय बोलने से एक प्रसन्न होता है और दूसरा नाराज़ होता है और जो बुद्धिमान मनुष्य (ज्ञानी) होते हैं वे किसी को दुःखी नहीं करते हैं। मूलः तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघइणी। से कोह लोह भयसावमाणवो, न हासमाणे वि गिरंवएज्जा||६|| छायाः तथैव सावधानुमोदिनी गिरा, अवधारिणी या च परोपघातिनी। ___ता क्रोध लोभ भयहास्येभ्यो मानवः, न हसन्नपि गिर वदेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (माणवो) मनुष्य (हासमाणे) हँसता हुआ (वि) भी (गिरं) भाषा को (न) न (वएज्जा ) बोले (य) और (तहेव) वैसे ही (से) वह (कोह) क्रोध से (लोह) लोभ से (भयसा) भय से (सावज्जणुमोयणी) सावध अनुमोदन के साथ (ओहारिणी) निश्चित और (परोवघाइणी) दूसरे जीवों की हिंसा करने वाली, ऐसी (जा) जो (गिरा) भाषा है उसको न बोले। भावार्थ : हे गौतम! बुद्धिमान् मनुष्य वह है जो विनोद पूर्वक हँसता हुआ कभी नहीं बोलता और इसी तरह सावध भाषा का अनुमोदन करके तथा निश्चयकारी और दूसरे जीवों को दुःख देने वाली भाषा कभी नहीं बोलता है। मुल: अपूच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्ठिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जएHoll छाया: अपृष्ठो न भाषेत, भाषमाणस्यान्तरा। पृष्ठमासं न खादेत्, मायामृषां विवर्जयेत्।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! बुद्धिमान मनुष्यों को (भासमाणस्स) बोलते हुए के (अन्तरा) बीच में (अपुच्छिओ) नहीं पूछने पर (न) नहीं (भासिज्ज) बोलना चाहिए और (पिट्ठिमंस) चुगली भी (न) नहीं (खाएज्जा) खानी चाहिए एवं (मायामोस) कपट युक्त असत्य बोलना (विवज्जए) छोड़ना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! बुद्धिमान वह है, जो दूसरे बोल रहे हों उनके बीच में उनके पूछे बिना न बोले और जो उनके परोक्ष में उनके अवगुणों को भी कभी न बोलता हो, तथा जिसने कपट युक्त असत्य भाद्याा को भी सदा के लिए छोड़ रखा हो। Agoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/1223000 ooooo0000000000od Jain Education International For Personal & Private Use Only 0000000000000oon www.jainelibrary.org