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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000t 0000000000000000000000000000 छायाः रुधिरे पुनो वर्चः समुच्छ्रितांगान्, भिन्नुत्तमांगान् परिवर्तयन्तः / पचन्ति नैरयिकान स्फुरतः, सजीवमत्स्यानिवाय: कटाहे|७|| अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पुणो) फिर (वच्च) दुर्गंध मल से (समुस्सिअंगे) लिपटा हुआ है अंग जिनका और (भिन्नुत्तमंगे) सिर जिनका छेदा हुआ है ऐसे नारकीय जीवों का खून निकालते हैं और (रुहिरे) उसी खून से तपे हुए कड़ाहे में उन्हें डालकर (परिवत्तयत्ता) इधर-उधर हिलाते हुए परमाधामी (पयंति) पकाते हैं। तब (णेरइए) नारकीय जीव (अयोकवल्ले) लोहे के कढ़ाहे में (सजीव मच्छेव) सजीव मच्छी की तरह (फुरते) तड़फड़ाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जिन आत्माओं ने शरीर को आराम पहुंचाने के लिए हर तरह से अनेकों प्रकार के जीवों की हिंसा की है, वे आत्माएँ नरक में जाकर जब उत्पन्न होती हैं, तब परमाधामी देव दुर्गंध युक्त वस्तुओं से लिपटे हुए उन नारकीय आत्माओं के सिर छेदन कर उन्हीं के शरीर से खून निकाल उन्हें तप्त कड़ाहे में डालते हैं और उन्हें खूब ही उबाल करके जलाते हैं। असुर कुमारों के ऐसा करने पर वे नारकीय आत्माएँ उस तपे हुए कड़ाहे में तप्त तवे पर डाली हुई सजीव मछली की तरह तड़फड़ाती है। ____नोट : ये सारे उदाहरण आत्मा को पाप भीरु बनानें एवं सद्मार्ग पर चलने हेतु प्रस्तुत किए गए हैं। मूल: नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जती तिब्वाभिवेयणाए। तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेण||ll छायाः नो चैव ते तत्र मषीभवंति, न प्रियन्ते तीव्राभी।दनाभिः / तदनुभागमनुवेदयन्तः, दुःखयन्ति दुःखिनः इह दुष्कृतेन।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) नरक में (त) वे नारकीय जीव पकाने से (नो चेव) नहीं (मसी भवंति) भस्म होते हैं और (तिव्वाभिचेयणाए) तीव्र वेदना से (न) नहीं (मिज्जति) मरते हैं। (दुक्खी) वे दुखी जीव (दुक्कडेणं) अपने किए हुए दुष्कर्मों के द्वारा (तमाणुभाग) उसके फल को (अणुवेदयंता) भोगते हुए (दुक्खंति) कष्ट उठाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! नारकीय जीव उन परमाधामी देवों के द्वारा पकाये जाने पर न तो भस्मीभूत ही होते हैं, और न उस महान भयानक छेदन भेदन तथा ताड़न आदि से मरते हैं। किन्तु अपने किए हुए दुष्कर्मों के फलों को भोगते हुए बड़े कष्ट से समय बिताते रहते हैं। 99000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOOOOOOC 00000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000 pood * निर्ग्रन्थ प्रवचन/181 00000000000odh 00000000000000ook Wein Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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