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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000r oooooood 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool छायाः छिन्दन्ति बालस्य क्षुरेण नासिकाम, औष्ठावपि छिन्दन्ति द्वावपि कणौ। जिव्हां विनिष्कास्य वितस्तिमात्रं, तीक्ष्णैः शूलादभितापयन्ति।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! परमाधामी देव नरक में (बालस्स) अज्ञानी के (खुरेण) छुरी से (नक्क) नाक को (छिदंति) छेदते हैं। (उडेवि) औठों को भी और (दुवे) दोनों (कन्ने) कानों को (वि) भी (छिदंति) छेदते हैं। तथा (विहत्थिमित्त) बेतं के समान लम्बाई भर (जिब्भ) जिव्हा को (विणिकेस्स) बाहर निकाल करके (तिक्खाहि) तीक्ष्ण (सूला) शूलों आदि से (अभितावयंति) छेदते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! अज्ञानी जीव, हिंसा, झूठ चोरी और व्यभिचार आदि करके नरक में जा गिरते हैं। असुर कुमार परमाधामी उन पापियों के कान नाक और ओठों को छुरी से छेदते हैं और उनके मुंह में से जिव्हा को बेंत जितनी लम्बाई भर बाहर खींच कर तीक्ष्ण शूलों से छेदते हैं। . मूल: ते तिप्पमाणा तलसंपुडं ब्ल, राइंदियं तत्य थणंति बाला| गलंतिते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइयाखारपइद्रियंगा||६|| छायाः ते तिप्पमाना तलसम्पुटइव, रात्रिन्दिवा तत्र स्तनन्ति बालाः / गलन्ति ते शोणितपूतमांस, प्रद्योनिता क्षार प्रद्ग्धांगा।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) वहां नरक में (ते) वे (तिप्पमाणा) रुधिर झरते हुए (बाला) अज्ञानी (राइंदिय) रात दिन (तलसंपुडं) पवन से प्रेरित ताल वृक्षों के सूखे पत्तों के शब्द के (व्व) समान (थणंति) आक्रन्दन का शब्द करते हैं। (ते) वे नारकीय जीव (पज्जोइया) अग्नि से प्रज्ज्वलित (खारपइद्धियंगा) क्षार से जलाये हुए अंग जिससे (सोणिअपूयमंस) रुधिर, रसी और मांस (गलंति) झरते रहते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! नरक में गये हुए उन हिंसादि महान आरम्भ के करने वाले नारकीय जीवों के नाक, कान, आदि काट लेने से रूधिर बहता रहता है और वे राग-दिन बड़े आक्रंदन स्वर से रोते हैं और उस छेदे हुए अंग को अग्नि से जलाते हैं। फिर उसके ऊपर लवणादिक क्षार को छिंटकते हैं, जिससे और भी बड़ी मात्रा में रूधिर पीप और मांस झरता रहता है। मूल : रुहिरे पुणो वच्चसमुरिसअंगे, भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता। पयंतिणंणेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अयोकवल्लेllull 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot Jain End निर्ग्रन्थ प्रवचन/180 EN UPTalary.org 0000000
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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