________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस संसार में (ज) जो (केइ) कितने (जीवियट्ठी) पापमय जीवन वाले (बाला) अज्ञानी लोग (रुद्दा) रौद्र (पावाइं) पाप (कम्माइं) कर्मों को (करंति) करते हैं। (ते) वे (घोररूवे) अत्यंत भयानक और (तमिसंधयारे) अत्यन्त अन्धकार युक्त एवं (तिव्वाभितावे) तीव्र है ताप जिसमें ऐसे (नरए) नरक में (पडंति) जा गिरते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! इस संसार में कितने ही ऐसे जीव हैं, जो अपने पापमय जीवन में महान हिंसा आदि पाप कर्म करते हैं। इसीलिए वे महाभयानक और अत्यन्त अन्धकार युक्त तीव्र असन्तोष दायक नरक में जा गिरते हैं और वर्षों तक अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करते रहते हैं। मूलः तिवं तसे पाणिणो थावरे या, जे हिंसती आयसुहं पडुच्च। जेलूसएहोइअदत्तहारी, णसिक्खतीसेयविस्स किंचि||४|| छायाः तीव्र त्रसान् प्राणिनः आत्मसुखं प्रतीत्य। यो लूषको भवन्ति अदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (तसे) त्रस (या) और (थावरे) स्थावर (पाणिणो) प्राणियों की (तिव्वं) तीव्रता से (हिंसती) हिंसा करता है और (आयसुह) आत्म सुख के (पडुच्च) लिए (जे) जो मनुष्य (लूसए) प्राणियों का उपमर्दक (होइ) होता है एवं (अदत्तहारी) नहीं दी हुई वस्तुओं का हरण करने वाला (किंचि) थोड़ा सा भी (सेयविस्स) अंगीकार करने योग्य व्रत के पालन का (ण) नहीं (सिक्खती) अभ्यास करता हैं वह नरक में जाकर दुःख उठाता है। भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य, हलन, चलन करने वाले अर्थात् त्रस तथा स्थावर जीवों की निदर्यता पूर्वक हिंसा करता है और जो शारीरिक पौद्गलिक सुखों के लिए जीवों का उपमर्दन करता है. एवं दूसरों की चीजें हरण करने में ही अपने जीवन की सफलता समझता है और किसी भी व्रत को अंगीकार नहीं करता, वह यहाँ से मर कर नरक में जाता है और स्व-कृत कर्मों के अनुसार वहाँ नाना भांति के दुःख भोगता है। मूलः छिदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उठे वि छिदंति दुवेवि कण्णे। जिविणिक्करस विहत्यिमेत्तं, तिक्खाहिसूलाभितावयंति||५|| 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope 000 500000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/179 doooooooooooooooook Jain Educanon international For Personal & Private Use Only 00000000000000000 www.jainelibrary.org