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________________ goo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 करता रहता है (सुरं) मदिरा (मंस) मांस (भुंजमाणे) भोगता हुआ (सेयमेअं) श्रेष्ठ है (ति) ऐसा (मन्नइ) मानता है। 4 भावार्थ : हे गौतम! स्वर्ग नरक आदि की असम्भावना करके वह अज्ञानी जीव हिंसा करने के साथ ही साथ झूठ बोलता है, प्रत्येक बात में कपट करता है। दूसरों की निंदा करने में अपना जीवन अर्पण कर बैठता है। दूसरों को ठगने में अपनी सारी बुद्धि खर्च कर देता है और मदिरा एवं मांस खाता हुआ भी अपना जीवन श्रेष्ठ मानता है। मूल: कायसावयसामते, वित्तेगिद्धेयइत्थिसु। दुहओमलंसंचिणइ, सिसुणागुब्वमट्टिय||१९|| छायाः कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु / द्विधा मलं सञ्चिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! वे नास्तिक लोग (कायसा) काय से (वयसा) वचन से (मत्ते) गर्वान्वित होने वाला (वित्ते) धन में (य) और (इत्थिसु) स्त्रियों में (गिद्ध) आसक्त हो वह मनुष्य (दुहओ) राग द्वेष के द्वारा (मल) कर्म मल को ( संचिणइ) इकट्ठा करता है। (व्व) जैसे (सिसुणागु) शिशूनाग "अलसिया" (मट्टिअं) मिट्टी से लिपटा रहता है। भावार्थ : हे आर्य! मन, वचन और काया से गर्व करने वाले वे नास्तिक लोग धन और स्त्रियों में आसक्त होकर राग-द्वेष से गाढ़े कर्मों का अपनी आत्मा पर लेप कर रहे हैं पर उन कर्मों के उदय काल में, जैसे अलसिया मिट्टी से उत्पन्न होकर, फिर मिट्टी ही से लिपटता है, किन्तु सूर्य की आतापना से मिट्टी के सूखने पर वह अलसिया महान कष्ट उठाता है। उसी तरह से वे नास्तिक लोग भी जन्म जन्मान्तरों में महान कष्टों को उठावेंगे। मूलः तओपुट्ठो आयंकेण, गिलाणोपरितप्पहा पभीओकम्माणुप्पेहि अप्पणो||२०|| छायाः ततः स्पृष्ट आतंकेन, ग्लानः परितप्यते। प्रभीतः परलोकात्, कर्मानुप्रेश्यात्मनः।।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! कर्म बांध लेने के (तओ) पश्चात् (आयंकेण) असाध्य रोगों से (पुट्ठो) घिरा हुआ वह नास्तिक (गिलाणो) ग्लानि पाता है और (परलोगस्स) परलोक के भय से (पभीओ) डरा हुआ (अप्पणो) अपने किये हुए (कम्माणुप्पेहि) कर्मों को देखकर (परितप्पइ) खेद पाता है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000 000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/146 Soooo00000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 000000000000000oon www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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