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________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot soooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool छायाः जनेन सार्द्ध भविष्यामि, इति बालः प्रगल्भते। कामभोगानुरागेण, क्लेशं सः सम्प्रतिपद्यते।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जणेण सद्धिं) इतने मनुष्यों के साथ मेरा भी (होक्खामि) जो होना होगा, सो होगा। (इइ) इस प्रकार (बाले) वे अज्ञानी (पगभइ) बोलते हैं, पर वे आखिर (कामभोगाणुराएण) काम भोगों के अनुराग के कारण (केस) दुःख ही को (संपडिवज्जइ) प्राप्त होते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! वे अज्ञानीजन इस प्रकार फिर बोलते हैं कि "इतने दुष्कर्मी लोगों का परलोक में जो होगा, वह मेरा भी हो जाएगा।" इतने सबके सब लोग क्या मूर्ख हैं? पर हे गौतम! आखिर में वे काम भोगों के अनुरागी लोक इस लोक और परलोक में महान् दुःखों को भोगते हैं। मूलः तओसेदंडंसमारभइ, वसेसुथावरेसुय। अट्ठाएवअणट्ठाए, भूयग्गामंविहिंसह||७|| छायाः ततो दण्डं समारभते, त्रसेषु स्थावरेषु च। अर्थाय चानाय, भूतग्रामं विहिनस्ति।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! यों स्वर्ग नरक आदि को असम्भावना मान करके (तओ) उसके बाद (से) वह मनुष्य (तसेसु) त्रस (अ) और (थावरेसु) स्थावर जीवों के विषय में (अट्ठाए) प्रयोजन से (व) अथवा (अणट्ठाए) बिना प्रयोजन से (दंड) मन, वचन, काया के दण्ड को (समारभइ) समारंभ करता है और (भूयग्गाम) प्राणियों के समूह का (विहिंसइ) वध करता है। भावार्थ : हे आर्य! नास्तिक लोग प्रत्यक्ष भोगों को छोड़कर भविष्यत् की कौन आस करे, इस प्रकार कहकर अपने दिल को कठोर बना लेते हैं। फिर वे हिलते-चलते त्रस जीवों और स्थावर जीवों की प्रयोजन से अथवा बिना प्रयोजन से, हिंसा करने के लिए, मन, वचन, काया के योगों को प्रारम्भ कर असंख्य जीवों की हिंसा करते हैं। मूलः हिंसेबाले मुसावाई,माइल्ले पिसुणेसढ़े। भुंजमाणेसुरंमसं, सेयमेअंतिमन्नई||१८| छायाः हिंस्त्रो बालो मृषावादी, मायी च पिशुनः शठः। भुञ्जानः सुरा मांस, श्रेयो मे इदमिति मन्यते।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! स्वर्ग नरक को न मानकर वह (हिंसे) हिंसा करने वाला (वाले) अज्ञानी (मुसावाइ) फिर झूठ बोलता है (माइल्ल) कपट करता है, (पिसुणे) निन्दा करता है (स) दूसरों को ठगने की करतूत 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope निर्ग्रन्थ प्रवचन/1453 00000000000000000 Jain Education International 00000000000 www.jainelibrary.org 00000006 For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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