________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: जे गिद्धे कामभोएसु, एगे कूडाय गच्छड़ा। न में दिट्टे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमारई||१४|| छायाः यो गृद्धः कामभोगेषु, एकः कूढ़ाय गच्छति। न मया दृष्टः परलोकः, चक्षुदृष्टेयं रतिः।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (एगे) कोई एक (कामभोएसु) काम भोगों में (गिद्धे) आसक्त होता है वह (कूडाय) हिंसा और मृषा भाषा को (गच्छइ) प्राप्त होता है, फिर उससे पूछने पर वह बोलता है कि (मे) मैंने (परलोए) परलोक (न) नहीं (दिटठे) देखा है। (इमा) इस (रइ) पौद्गलिक सुख को (चक्खुदिट्ठा) प्रत्यक्ष आंखों से देख रहा हूँ। भावार्थ : हे आर्य! जो काम भोग में सदैव लीन रहता है। यदि उनसे कहा जाए कि हिंसादि कर्म करोगे तो नरक में दुःख उठाओगे और सत्कर्म करोगे तो स्वर्ग में दिव्य सुख भोगोगे। ऐसा कहने पर वह प्रमादी बोल उठता है कि मैंने कोई भी स्वर्ग नरक नहीं देखें हैं कि जिनके लिए इन प्रत्यक्ष काम भोगों का आनंद छोड़ बैलूं। मूल: हत्यागया इमे कामा, कालिआ जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अत्यि वा नत्यि वा पुणो||१५|| छाया: हस्तागता इमे कामाः, कालिका येऽनागताः। को जानाति परः लोकः, अस्ति वा नास्ति वा पुनः।।१५।। अन्वयार्थ : हे धर्म तत्वज्ञ! (इमे) ये (कामा) काम भोग (हत्थागया) हस्तगत हो रहे हैं और इन्हें त्यागने पर (जे) जो (अणागया) आगामी भव में सुख होगा, यह तो (कालिआ) भविष्यत् की बात है (पणो) तो फिर (को) कौन (जाणइ) जानता है (परेलोए) परलोक (अत्थि) है (वा) अथवा (नत्थि) नहीं है। _भावार्थ : अज्ञानी नास्तिक इस प्रकार कहते हैं कि हे धर्म के तत्व को जानने वालों! ये काम भोग जो प्रत्यक्ष रूप में मुझे मिल रहे हैं और जिन्हें त्याग देने पर आगामी भव में इससे भी बढ़कर तथा आत्मिक सुख प्राप्त होगा, ऐसा तुम कहते हो, परन्तु यह तो भविष्यत् की बात है और फिर कौन जानता है, कि नरक-स्वर्ग और मोक्ष है भी या नहीं? मूल : जणेण संधि होक्खामि, इइ बाले पगभइ। कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवजह||६|| 2000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/144 ooooooooooooooood Jain Education International For Personal & Private Use Only 000000000000 www.jainelibrary.org