________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय चार - आत्मा शुद्धि के उपाय ॥श्रीभगवानुवाच।। मूल: जहणरगा गम्मंति, जेणारगा जाय वेयणाणरए। सारीरमाणसाइं, दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए||१|| छायाः यथा नरका गच्छन्ति ये नरका या च वेदना नरके शरीर मानसानि दुःखानि तिर्यग् योनौ।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (णरगा) नारकीय जीव (णरए) नरक में (गम्मति) जाते हैं / (जे) वे (णरगा) नारकीय जीव (जा) नरक में उत्पन्न हुई वियणा) वेदना को सहन करते हैं। उसी तरह (तिरिक्ख जोणीए) तिर्यंच योनियों में जाने वाली आत्माएँ भी (सारीरमाणसाइं) शारीरिक, मानसिक (दुक्खाइ) दुःखों को सहन करती है। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार नरक में जाने वाले जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक में होने वाली महान वेदना को सहन करते हैं। उसी तरह तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने वाले आत्मा भी कर्मों के फल स्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को सहन करते हैं। मूल : माणुस्सं च अणिच्चं, वाहिजरामरणवेयणापउरं। देवे य देवलोए, देविड्ढि देवसोक्खाइं||२|| छायाः मानुष्यं चानित्यं व्याधिजरामरणवेदना प्रचुरम्। देवश्च देवलोके देवर्द्धि देवसौख्यानि।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (माणुस्स) मनुष्य जन्म (आणच्च) अनित्य है (च) और वह (वाहिजरामरणवेयणापउरं) व्याधि, जरा, मरण, रूप प्रचुर वेदना से युक्त है (य) और (देवलोए) देवलोक में (देवे) देवपर्याय (देविड्ढि) देव ऋद्धि और (देवसोक्खाइ) देवता संबंधी सुख भी अनित्य है। भावार्थ : हे गौतम! मनुष्य जन्म अनित्य है। साथ ही जरामरण आदि व्याधि की प्रचुरता से भरा पड़ा है और पुण्य उपार्जन कर जो स्वर्ग में गये हैं, वे वहाँ अपनी देव ऋद्धि और देव योनि संबंधी सुखों को भोगते हैं परन्तु आखिर वे भी वहाँ से चलते हैं। lgooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/533 00000000000ooooda Jain Education International 00000000000000006 c/www.jainelibrary.orge For Personal & Private Use Only