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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Soooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मूल: णरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावंच देवलोगं च। सिद्धे अ सिद्भवसहिं, छज्जीवणियं परिकहे||३|| छायाः नरकं तिर्यग्योनि मानुष्यभवं देवलोकं च। सिद्धश्च सिद्धवसतिं षट्जीवनिकायं परिकथति।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो जीव पाप कर्म करते हैं, वे (णरगं) नरक को और (तिरिक्खजोणिं) तिर्यंच योनि को प्राप्त होते हैं और जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे (माणुस भाव) मनुष्य भव को (च) और (देवलोगं) देवलोक को जाते हैं, (अ) और जो (छज्जीवणिय) षट्काय के जीवों की रक्षा करते हैं, वह (सिद्धवसहिं) सिद्धावस्था को प्राप्त करके अर्थात् सिद्धि गति में जाकर (सिद्धे) सिद्ध होते हैं। ऐसा सभी तीर्थंकरों ने (परिकहेइ) कहा है। भावार्थ : हे आर्य! जो आत्मा पाप कर्म उपार्जन करते हैं, वे नरक और तिर्यंच योनियों में जन्म लेते हैं। जो पुण्य उपार्जन करते हैं, वे मनुष्य-जन्म एवं देव-गति में जाते हैं और जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति के जीवों की तथा हिलते फिरते त्रस जीवों की सम्पूर्ण रक्षा कर अष्ट कर्मों को चूर-चूर कर देने में समर्थ होते हैं। वे आत्मा सिद्धालय में सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। मूल : जह जीवा बझंति, मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति। जह दुक्खाणं अंतं, करेंति केई अपडिबद्धा||४|| छायाः यथा जीवा बध्यन्ते, मुच्यन्ते यथा च परिक्लिश्यन्ते। यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केऽपि अप्रत्तिबद्धाः।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (केई) कई (जीवा) जीव (बज्झंति) कर्मों से बंधते हैं, वैसे ही (मुच्चंति) मुक्त भी होते हैं (य) और (जह) जैसे कर्मों की वृद्धि होने से (परिकिलिस्संति) महान कष्ट पाते हैं। वैसे ही (दुक्खाण) दुःखों का (अंत) अन्त भी (करेंति) कर डालते हैं। ऐसा (अपडिबद्धा) अप्रतिबद्ध विहारी निर्ग्रन्थों ने कहा है। भावार्थ : हे गौतम! यही आत्मा कर्मों को बांधता है, और यही कर्मों से मुक्त भी होता है। यही आत्मा कर्मों का गाढ़ा लेप करके दुःखी होता है और सदाचार सेवन से सम्पूर्ण कर्मों को नाश करके मुक्ति के सुखों का सोपान भी यही आत्मा तैयार करता है। ऐसा निर्ग्रन्थों का प्रवचन है। ၁ဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝ निर्ग्रन्थ प्रवचन/54 Jooooooooooooooooodh Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only boooooo00000000000 www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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