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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og goo00000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : अट्टदहट्टियचित्ता जह, जीवा दुक्खसागर मुवैति। जह वेरम्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहा.ति||५|| छायाः आर्त्तदुःखार्त्त चित्ता यथा जीवा, दुःखसागरमुपयान्ति। यथा वैराग्यमुपगता, कर्मसमुग्दं विघाटयन्ति।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो (जीवा) जीव वैराग्य भाव से रहित हैं वे (अट्टदुहट्टिय चित्ता) आर्त रौद्र ध्यान से युक्त चित्त वाले हो (जह) जैसे (दुक्खसागरं) दुख सागर को (उति) प्राप्त होते हैं। वैसे ही (वरेग्गं) वैराग्य को (उवगया) प्राप्त हुए जीव (कम्मसमुग्गं) कर्म समूह को (विहाडेंति) नष्ट कर डालते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्मा वैराग्य अवस्था को प्राप्त नहीं हुए हैं, सांसारिक भोगों में फंसे ये हैं, वे आर्त रौद्र ध्यान को ध्याते हुये मानसिक कुभावनाओं के द्वारा अनिष्ट कर्मों का संचय करते हैं और जन्म जन्मान्तर के लिये दुःखों के सागर में गोता लगाते हैं। जिन आत्माओं की रग-रग में वैराग्य रस भरा पड़ा है, वे सदाचार के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को बात की बात में नष्ट कर डालते हैं। मूल : जह रागेण कडाणं कम्माणं, पावगो फलविवागो। 'जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति||६|| छायाः यथा रागेण कृतानां कर्मणान्, पापकः फलविपाकः। यथा च परिहीणकर्मा, सिद्धासिद्धालयमुपयान्ति।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे यह जीव (रागेण) राग द्वेष के द्वारा (कडाणं) किये हुए (पावगो) पाप (कम्माणं) कर्मों के (फलविवागो) फलोदय को भोगता है। वैसे ही शुभ कर्मों के द्वारा (परिहीणकम्मा) कर्मों को नष्ट करने वाले जीव (सिद्धा) सिद्ध होकर (सिद्धालय) सिद्धस्थान को (उति) प्राप्त होते हैं। .. भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार यह आत्मा राग द्वेष करके कर्म उपार्जन कर लेता है और उन कर्मों के उदय काल में फल भी उनका चखता है वैसे ही सदाचारों से जन्म जन्मांतरों के कृत कर्मों को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर डालता है और फिर वही सिद्ध होकर सिद्धालय को भी प्राप्त हो जाता है। मूल : आलोयण निरखलावे, आवईसु दड्दधम्मया। अणिरिसओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया||७|| 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/55 Ndooooooo00000000000 Jain Eccator international SOO0000000000000000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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