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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO B00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 छाया: आलोचना निरपलापा, आपत्तौ सुदृढ़ धर्मता। ___अनिश्चितोपधानश्च, शिक्षा निष्प्रतिकर्मता।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आलोयण) आलोचना करना (निरवलावे) की हुई आलोचना अन्य के सम्मुख नहीं करना (आवईसु) आपदा आने पर भी (दडढधम्मया) धर्म में दृढ़ रहना (अणिस्सिओवहाणे) बिना किसी चाह के उपधान तप करना (सिक्खा) शिक्षा ग्रहण करना (य) और (निप्पडिकम्मया) शरीर की शुश्रूषा नहीं करना / ___भावार्थ : हे गौतम! जानते में या अजानते में किसी भी प्रकार दोषों का सेवन कर लिया हो, तो उसको अपने आचार्य के सम्मुख प्रकट करना और आचार्य उसके प्रायश्चित रूप में जो भी दण्ड दें उसे सहर्ष ग्रहण कर लेना, अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए पुनः उस बात को दूसरों के सम्मुख नहीं कहना और अनेक आपदाओं के बादल क्यों न उमड़ आवें मगर धर्म से एक पैर भी पीछे न हटना चाहिए। ऐहिक और पारलौकिक पौद्गलिक सुखों की इच्छा रहित उपधान तप व्रत करना, सूत्रार्थ ग्रहण रूप शिक्षा धारण करना और कामभोगों के निमित्त शरीर की शुश्रूषा भूल कर भी नहीं करना चाहिये। मूल: अण्णयया अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुई। सम्मदिट्ठी समाही य, आयारे विणओवएllll छाया: अज्ञातता अलोभश्च, तितिक्षा आर्जवः शुचिः / सम्यग्दृष्टि: समाधिश्च आचारोविनयोपेतः / / 8 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अण्णयया) दूसरों को कहे बिना ही तप करना (अलोभे) लोभ नहीं करना (तितिक्खा) परिषहों को सहन करना (अज्जवे) निष्कपट रहना (सुई) सत्य से शुचिता रखना (सम्मदिट्ठी) श्रद्धा को शुद्ध रखना (य) और (समाही) स्वस्थ चित्त रहना (आयारे) सदाचारी होकर कपट न करना (विणओवए) विनयी होकर कपट न करना। भावार्थ : हे गौतम! तप व्रत धारण करके यश के लिए दूसरों को न कहना, इच्छित वस्तु पाकर उस पर लोभ न करना, दंश मशकादिकाओं का परिषह उत्पन्न हो तो उसे सहर्ष सहन करना, निष्कपटता पूर्वक अपना सारा व्यवहार रखना, सत्य संयम द्वारा शुचिता रखना, श्रद्धा में विपरीतता न आने देना, स्वस्थ चित्त होकर अपना जीवन बिताना, आचारवान होकर कपट न करना और विनयी होना। P000000000000000000000000000000000000000000000000 N निर्ग्रन्थ प्रवचन/56 00000000000000000 Jain Education International 1000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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