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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 agooo00000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : धिईमई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे। अत्तदोसोवसंहारे, सब्बकामविरत्तया||| छायाः धृतिमतिश्च संवेगः प्रणिधिः सुविधिःसंवर। आत्म दोषोपसंहारः सर्वकामविरक्ता।।६|| अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (धिईमई) अदीन वृत्ति से रहना, (संवेगे) संसार से विरक्त होकर रहना, (पणिहि) कायादि के अशुभ योगों को रोकना, (सुविहि) सदाचार का सेवन करना। (संवरे) पापों के कारणों को रोकना, (अत्तदोसोवसंहारे) अपनी आत्मा के दोषों का संहार करना, (य) और (सव्वकामविरत्तया) सर्व कामनाओं से विरत रहना। भावार्थ : हे गौतम! दीन हीन वृत्ति से सदा विमुख रहना, संसार के विषयों से उदासीन होकर मोक्ष की इच्छा को हृदय में धारण करना, मन वचन काया के अशुभ व्यापारों को रोक रखना, सदाचार सेवन में रत रहना, हिंसा, झूठ, चोरी, संग, ममत्व के द्वारा आते हुए पापों को रोकना, आत्मा के दोषों को ढूंढ-ढूंढ़ कर संहार करना, और सब तरह की इच्छाओं से अलग रहना। . मूल: पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे। ज्झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए||१०|| छायाः प्रत्याख्यानं व्युत्सर्गः, अप्रमादो लवालवः / ध्यानसंवर योगाश्च, उदये मारणान्ति के।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पच्चक्खाणे) त्यागों की वृद्धि करना (विउस्सग्गे) उपाधि से रहित होना, (अप्पमादे) प्रमाद रहित रहना (लवालवे) अनुष्ठान करते रहना (ज्झाण) ध्यान करना (संवरजोगे) सम्वर का व्यापार करना, (य) और (मारणंतिए) मारणांतिक कष्ट (उदए) उदय होने पर भी क्षोभ नहीं करना। . भावार्थ : हे गौतम! त्याग धर्म की वृद्धि करते रहना, उपाधि से रहित होना, गर्व का परित्याग करना, क्षण मात्र के लिए भी प्रमाद न करना, सदैव अनुष्ठान करते रहना, सिद्धान्तों के गम्भीर आशयों पर विचार करते रहना, कर्मों के निरोध रूप संवर की प्राप्ति करना और मृत्यु भी यदि सामने आ खड़ी हो तब भी क्षोभ न करना। मूल: संगाणंय परिण्णाया, पायच्छित्त करणे विया आराहणा यमरणंते, बत्तीसंजोगसंगहा||११|| 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/573 JairthOOD 000000000000obl TOPersonala Privateuse onlyboo000000000000jodilateralg 200
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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