________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000 OOOOOC OOOG MOo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः संगानाञ्च परिज्ञया प्रायश्चित्तकरणमपि च। आराधना च मरणान्ते, द्वात्रिंशतिः योग संग्रहाः।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संगाणं) संभोगों के परिणाम को (परिण्णाया) जानकर उनका त्याग करना (य) और (पायच्छित्त करणे) प्रायश्चित करना (आराहणा य मरणंते) आराधिक हो समाधि मरण से मरना, ये (बत्तीस) बत्तीस (जोगसंगहा) योग संग्रह है। भावार्थ : हे गौतम! स्वजनादि संग रूप स्नेह के परिणाम को समझ कर उसका परित्याग करना / भूल से गलती हो जावे तो उसके लिए प्रायश्चित करना, संयमी जीवन को सार्थक कर समाधि से मृत्यु लेना, ये बत्तीस शिक्षाएँ योगबल को बढ़ाने वाली हैं। अतः इन बत्तीस शिक्षाओं का अपने जीवन के साथ संबंध कर लेना मानो मुक्ति को वर लेना है। मूल: अरहंतसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुएतवस्सीसु। वच्छल्लया यंति अभिक्ख णाणोवओगे य||२|| छाया: अर्हत्सिद्ध प्रवचनगुरुस्थविर बहुश्रुतेषु तपस्वी षु। वत्सलता तेषां अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च।।१२।। दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! (अरहत) तीर्थंकर (सिद्ध) सिद्ध (पवयण) आगम (गुरु) गुरु महाराज (थेर) स्थविर (वहुस्सुए) बहु श्रुत (तवस्सीसु) तपस्वी में (वच्छल्लया) वात्सल्य भाव रखता हो, (यसिं) उनका गुण कीर्तन करता हो, (य) और (अभिक्ख) सदैव (णाणोवओगे) ज्ञान में जो उपयोग रखें। भावार्थ : हे गौतम! जो रागादि दोषों से रहित हैं, जिन्होंने घनघाती कर्मों को जीत लिया है, वे अरिहंत हैं। जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों को जीत लिया है, वे सिद्ध हैं। अहिंसामय सिद्धान्त और पंच महाव्रतों को पालने वाले गुरु हैं। इनमें और स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी इन सभी में वात्सल्य भाव रखता हो, इनके गुणों का हर जगह प्रसार करता हो और इसी तरह ज्ञान के ध्यान में सदा लीन रहता हो। मूल : दंसणविणए आवस्सए, सीलबए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य||१३|| छायाः दर्शनविलय आवश्यकः शीलव्रतं निरतिचारं। क्षणलवस्तपस्त्याग: वैयावृत्यं समाधिश्च।।१३।। . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 DOO 00000000000000000 00000000000000 Jain Education International) निर्ग्रन्थ प्रवचन/58 coro elemente para ver only For Personal & Private Use Only 00000000000000 www.jainelibrary.org